पिछले दिनों अनावश्यक सिज़ेरियन डिलीवरी के ख़िलाफ़ चेंजडॉटओआरजी पर एक याचिका दायर की गई. इस याचिका को दो महीनों के अंदर ही लगभग डेढ़ लाख लोगों का समर्थन मिला चुका है.
देश में स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवाओं के मुद्दे ज़्यादातर हाशिये पर ही रहते हैं, उसमें भी खासकर महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी बातों को ख़ास तवज्जो नहीं मिलती. ऐसा ही एक बड़ा मुद्दा देश में सिज़ेरियन डिलीवरी या सी-सेक्शन डिलीवरी की बढ़ती दर का है, जिस पर बात होनी चाहिए पर उचित जानकारी और मंच के अभाव में यह मुद्दा और इससे जुड़ी समस्याओं पर कभी बात नहीं हो पाती. पर हाल ही में मुंबई की ‘बर्थ इंडिया’ नाम की संस्था से जुड़ी सुबर्णा घोष ने इस बारे में जागरूकता फ़ैलाने का बीड़ा उठाया.
उन्होंने ऑनलाइन मंच ‘चेंज डॉट ओआरजी’ पर महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को संबोधित करते हुए एक याचिका दायर की, जिसमें उनसे अनुरोध किया गया था कि अस्पतालों द्वारा किए जा रहे सी-सेक्शन डिलीवरी के आंकड़े को सार्वजनिक किया जाए. याचिका दायर होने के 2 हफ्ते के अंदर ही इस पर 95,000 लोगों का समर्थन मिला, जिसमें शमा सिकंदर और पूरब कोहली जैसे सेलिब्रिटी भी शामिल थे. फरवरी के आखिरी हफ्ते में लगभग एक लाख से अधिक लोगों के इस याचिका को समर्थन के बाद मेनका गांधी ने इस पर संज्ञान लिया. उन्होंने सी-सेक्शन के बढ़ते आंकड़ों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए स्वास्थ्य मंत्री से इस पर गौर करने का अनुरोध किया.
पर इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी? विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशा-निर्देशों के मुताबिक सिज़ेरियन डिलीवरी कुल डिलीवरी की 10 से 15 प्रतिशत होनी चाहिए. पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण में यह इससे कहीं ज्यादा पाया गया. केवल निजी अस्पतालों की बात करें तो वहां यह आंकड़ा 60% का था. राज्यवार बात करें तो तेलंगाना में यह प्रतिशत सबसे अधिक 58 है और तमिलनाडु में 34. तेलंगाना के निजी अस्पतालों में कुल प्रसव के 75% मामलों में सिज़ेरियन डिलीवरी की गई.
वहीं मुंबई में राज्य स्वास्थ्य विभाग और बीएमसी से सिज़ेरियन डिलीवरी के मामलों का पता लगाने के लिए आरटीआई लगाई गई और जवाब में चिंताजनक तस्वीर सामने आई. 2010 में सिज़ेरियन प्रसव का आंकड़ा 16.7 प्रतिशत था, जो 5 साल यानी 2015 में बढ़कर दोगुना 32.1 प्रतिशत पर आ गया.
दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में यह आंकड़ा 22% है, पर यहां के डॉक्टरों के अनुसार यह रेफरल अस्पताल है, जहां पूरे उत्तर भारत से जटिल हो चुके मामले रेफर होकर आते हैं, इसलिए सी-सेक्शन का आंकड़ा सामान्य प्रसव से ज़्यादा है.
आखिर सी-सेक्शन में यह बढ़ोत्तरी क्यों आई? सुबर्णा घोष बताती हैं, ‘सबसे बड़ा कारण उचित जानकारी का अभाव है. महिलाओं को अपने स्वास्थ्य अपने शरीर के बारे में ही पता नहीं है. ऐसे में जब डॉक्टर जरा भी डर दिखाते हैं, तो महिलाएं सिज़ेरियन के लिए तैयार हो जाती हैं. उस समय सभी की प्राथमिकता स्वस्थ शिशु का पैदा होना होता है, इस बात पर किसी का ध्यान नहीं जाता की इससे होने वाली मां को किन तकलीफों से गुज़रना होगा.’
मरीज़ या भावी माता को डर दिखाने वाली बात से दिल्ली के अपोलो अस्पताल के डॉ. पुनीत बेदी भी सहमत हैं. एक टीवी कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा, ‘अक्सर आपने डॉक्टरों को कहते सुना होगा कि गर्भनाल बच्चे के गले में फंस गयी है. सब यह बात सुनते ही डर जाते हैं. यहां सोचने वाली बात यह है कि बच्चा पेट के अंदर नाक से सांस नहीं ले रहा होता, उसे खून के जरिये ऑक्सीजन मिल रही होती है. यह बात आप अक्सर सुनेंगे पर इसका कोई मेडिकल आधार नहीं है.’
चारू जमशेदपुर की रहने वाली हैं और गुडगांव में अपने पति के साथ रहती हैं. वे अपना अनुभव बताती हैं, ‘मेरी डिलीवरी के समय मेरी उम्र 25 साल थी. शुरूआती महीनों में मुझे कोई खास परेशानी नहीं हुई, सब सामान्य था कि आठवें महीने में एक दिन मुझे हल्का दर्द होना शुरू हुआ, जो दो-चार दिन तक होता रहा. डॉक्टर ने उसे लेबर पेन मानते हुए सिज़ेरियन की सलाह दी, जिसे हमने बिना कोई सवाल किए मान लिया. आठवां महीना होने के कारण मेरा बच्चा उतना स्वस्थ नहीं था, इसलिए उसे नर्सरी में भी रखा गया. बाद में हमारी फैमिली डॉक्टर ने बताया कि वो सामान्य दर्द था, ऐसा अक्सर होता है. पर जिस समय यह हुआ न मुझे न मेरे पति को इस बारे में पता था, साथ में कोई बड़ी महिला भी नहीं थी जो इस बारे में कोई सलाह दे पातीं. जो डॉक्टर ने कहा हमने वो किया. पर डिलीवरी के बाद लगभग तीन महीनों तक मैं बिना सहारे के उठ नहीं पाती थी, न बच्चे को सही से फीड करवा पाती थी न ही अपने रोज़मर्रा के काम आसानी से कर पाती थी.’
चारू की इस परेशानी से सुबर्णा भी सहमत हैं, वे बताती हैं, ‘हमारे यहां इस बारे में कभी बात ही नहीं होती कि सिज़ेरियन से क्या नुकसान होगा. देश में कोई लेबर सपोर्ट नहीं है. मेरा अपना अनुभव भी ऐसा ही रहा. बिना किसी जटिलता के मेरे डॉक्टर ने सी-सेक्शन डिलीवरी करवाई, जिसका खामियाजा मुझे काफी समय तक भुगतना पड़ा.’
क्या इस तरह किए गए सिज़ेरियन प्रसव से बच्चे के स्वास्थ्य पर कोई फर्क़ पड़ता है या महिलाओं में स्वास्थ्य को लेकर कोई सकारात्मक परिणाम सामने आता है? नहीं! कई मेडिकल रिसर्च में यह बात सामने आई है कि सामान्य की तुलना में सिज़ेरियन प्रसव से हुए बच्चों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, साथ ही उन्हें डायबिटीज़ और मोटापे का ख़तरा भी बढ़ जाता है. हालांकि पिछले कुछ दशकों में मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी आई है पर इसका कारण सिज़ेरियन डिलीवरी का होना नहीं है.
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पिछले कुछ वर्षों में सामान्य डिलीवरी के मामले बमुश्किल ही देखने को मिलते हैं. मेट्रो सिटीज़ से लेकर गांवों-कस्बों तक में ज़्यादातर बच्चों का जन्म सिज़ेरियन से ही हो रहा है. लखनऊ के आईनेक्स्ट अख़बार की ख़बर में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. इसके अनुसार स्वास्थ्य विभाग को दी गई रिपोर्ट के मुताबिक आलमबाग के एक बड़े निजी अस्पताल में लगभग 85 प्रतिशत केसेज में सिज़ेरियन डिलीवरी की जाती हैं. अस्पताल की अप्रैल 2016 से लेकर दिसंबर 2016 तक की रिपोर्ट यही बताती है. जिन अस्पतालों की रिपोर्ट स्वास्थ्य विभाग को मिली है उनमें से ज्यादातर में सिज़ेरियन के आंकड़े 60 से 90 फीसदी तक हैं. यही नहीं ज़्यादातर अस्पताल ऐसे हैं जो स्वास्थ्य विभाग को रिपोर्ट ही नहीं भेजते हैं, फिर भी स्वास्थ्य विभाग इस मामले में अब तक कोई कार्रवाई नहीं कर सका है.
इसके अलावा लखनऊ के केजीएमयू का क्वीन मेरी हॉस्पिटल भी इस मामले में कम नहीं है. यहां 22 फरवरी 2017 को की गई 21 डिलीवरी में से 15 सिज़ेरियन थीं, वहीं 21 फरवरी को हुई 18 में से 14 डिलीवरी सिज़ेरियन थी. केजीएमयू के कुछ सूत्रों के मुताबिक कुछ नई फैकल्टी मेंबर सीखने और जल्दी काम खत्म करने के चक्कर में लगातार सिज़ेरियन डिलीवरी को बढ़ावा दे रही है. जिसके बारे में अस्पताल के सीनियर फैकल्टी मेंबर्स भी जानते हैं लेकिन उन पर रोक नहीं लगा पा रहे हैं.
हालांकि क्वीन मेरी अस्पताल के डिप्टी मेडिकल सुप्रीटेंडेंट प्रो. एसपी जैसवार का कहना है कि यहां पर एवरेज 45 से 50 परसेंट केसेज में सिज़ेरियन डिलीवरी कराई जाती है क्योंकि यह यह रेफरल सेंटर है और अधिकतर मरीज़ हालत बिगड़ने पर दूसरे अस्पतालों से रेफर किए जाते हैं. डॉ. जैसवार ने कहा कि अस्पताल में किसी भी मरीज की बिना जरूरत सिज़ेरियन डिलीवरी नहीं कराई जाती. इससे बचाव के लिए हर एक सिज़ेरियन डिलीवरी का ऑडिट होता है. बिना कारण सिज़ेरियन कराना संभव ही नहीं है.
अख़बार की इसी ख़बर के अनुसार लखनऊ के सरकारी अस्पताल भी सिज़ेरियन डिलीवरी के मामले में पीछे नहीं हैं. बाल महिला चिकित्सालय (बीएमसी) रेडक्रॉस में अप्रैल 2016 से जनवरी 2017 के बीच 180 डिलीवरी कराई गईं जिनमें 105 सिज़ेरियन थी. वहीं बीएमसी एनके रोड में 400 में से 208 सिज़ेरियन और ऐशबाग में 619 में से 291 डिलीवरी सिज़ेरियन तरीके से हुईं.
यह आंकड़े सिर्फ एक शहर के हैं और दिखाते हैं कि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की यह चिंता फिज़ूल नहीं है. इन मामलों में स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवसायीकरण की बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ज़ाहिर है सिज़ेरियन डिलीवरी में खर्च सामान्य प्रसव से ज्यादा होता है. प्रसूता को सामान्य से अधिक समय तक अस्पताल में रहना होता है, जिसका सीधा असर उनके बिल पर पड़ता है.
हालांकि यहां सुबर्णा साफ कहती हैं कि कई जगह ऐसा होता है पर सब ऐसे है यह कहना ग़लत होगा. वे स्पष्ट करती हैं, ‘हम किसी के ख़िलाफ़ नहीं हैं, न ये कोई ब्लेम-गेम है. सिज़ेरियन कई केसेज़ में बेहद ज़रूरी है और होना भी चाहिए पर इसका अनावश्यक उपयोग रुकना चाहिए.’
मेनका गांधी ने भी स्वास्थ्य मंत्री को लिखी चिट्ठी में साफ़ कहा है, ‘हम ऐसे स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञों का नाम लेकर उन्हें शर्मिंदा करना चाहेंगे जो बिना किसी ठोस वजह के सिर्फ धन के लिए सिज़ेरियन डिलीवरी कराते हैं. मैं चाहूंगी कि भारत की महिलाएं एक साथ आएं और इसका विरोध करें. किसी भी महिला के लिए सिज़ेरियन बहुत तकलीफदेह होता है. यह सामान्य प्रसव को एक ग़ैर-ज़रूरी ऑपरेशन में बदल देता है.’