सुप्रीम कोर्ट के चार जजों जस्टिस चेलामेश्वर, जस्टिस मदन लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस रंजन गोगोई ने शुक्रवार सुबह मीडिया से बात करते हुए शीर्ष अदालत के काम पर सवाल उठाए हैं, साथ ही उन्होंने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को एक पत्र भेजा है. पढ़ें ये पत्र.
नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय के चार सर्वाधिक वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को जो पत्र तकरीबन दो महीने पहले लिखा गया पत्र शुक्रवार को संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में मीडिया को जारी किया. इस पत्र का मूल पाठ इस प्रकार है:
प्रधान न्यायाधीश महोदय,
गहरी व्यथा और चिंता के साथ हमने सोचा है कि आपको यह पत्र लिखना उचित है ताकि इस अदालत द्वारा सुनाए गए कुछ न्यायिक आदेशों को उजागर किया जा सके, जिसने न्याय प्रदान करने की प्रणाली के समूचे कामकाज और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है. साथ ही इसने प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय के प्रशासनिक कामकाज को प्रभावित किया है.
तीन उच्च न्यायालयों कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास उच्च न्यायालय की स्थापना के साथ ही कुछ परिपाटियां सुस्थापित हैं. इन परिपाटियों को इस अदालत ने अपनाया, जो उपरोक्त अदालतों के तकरीबन एक शताब्दी बाद अस्तित्व में आया. इन परिपाटियों की जड़ें एंग्लो-सैक्सन विधिशास्त्र और प्रैक्टिस में हैं.
सुस्थापित सिद्धांतों में से एक यह है कि प्रधान न्यायाधीश कामकाज आवंटित करने में सर्वेसर्वा हैं और उन्हें रोस्टर तय करने का विशेषाधिकार है. ऐसा व्यवस्थित कामकाज और जिन मामलों या मामले से इस अदालत के सदस्य/पीठ को निपटना है उसके संबंध में उचित व्यवस्था के लिए कई अदालतों वाली व्यवस्था में इसकी ज़रूरत है.
रोस्टर तैयार करने और अदालत के विभिन्न सदस्यों/पीठों को मामले आवंटित करने के प्रधान न्यायाधीश के विशेषाधिकार को मान्यता देने की परिपाटी अदालत के कामकाज को अनुशासित और कारगर तरीके से संचालित करने के लिए विकसित की गई है, लेकिन यह अपने साथियों पर प्रधान न्यायाधीश के उच्च प्राधिकार को कानूनी या तथ्यात्मक रूप से मान्यता नहीं देती है.
इस देश के विधिशास्त्र में भी यह सुस्थापित है कि प्रधान न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों के बराबर ही होते हैं लेकिन अनौपचारिक रूप से उन्हें सम्मान दिया जाता है. इससे न तो कुछ अधिक या न ही इससे कुछ कम उनकी हैसियत होती है.
कामकाज आवंटित करने के संबंध में प्रधान न्यायाधीश का मार्गदर्शन करने के लिए सुस्थापित और चिर प्रचलित परिपाटी है. यह किसी मामले पर सुनवाई करने के लिए चाहे पीठ में कितने सदस्य होने चाहिए या उसकी संरचना कैसी होनी चाहिए उससे संबंधित परिपाटी हो.
उपरोक्त सिद्धांत का आवश्यक परिणाम है कि इस अदालत समेत कोई भी अनेक संख्या वाला न्यायिक निकाय उन मामलों पर सुनवाई करने और फैसला सुनाने का प्राधिकार ख़ुद नहीं हथिया लेगा जिस पर संरचनावार और संख्यावार उचित पीठ को सुनवाई करनी चाहिए.
उन दोनों नियमों से कोई भी विचलन संस्था की ईमानदारी के बारे में राष्ट्र के मन में शंका पैदा करेगी जिसके अप्रिय और अवांछित परिणाम होंगे. इस तरह के विचलन से होने वाली अव्यवस्था पर तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता.
हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि काफी समय से उपरोक्त नियमों का सख़्ती से पालन नहीं किया जा रहा है. ऐसे कई दृष्टांत है जहां राष्ट्र और संस्था के लिए दूरगामी परिणाम वाले मामलों को इस अदालत के प्रधान न्यायाधीशों ने चयनात्मक आधार पर इस तरह के आवंटन के लिए बिना किसी तार्किक आधार के ‘उनकी पसंद’ की पीठों को आवंटित किया है. किसी भी कीमत पर इससे रक्षा की जानी चाहिए.
संस्था के शर्मसार होने से बचाने के लिये हम उनका उल्लेख नहीं कर रहे हैं लेकिन इस बात पर ग़ौर करते हैं कि इस तरह के विचलन ने कुछ हद तक पहले ही इस संस्था की छवि को क्षति पहुंचाई है.
उपरोक्त संदर्भ में हम 27 अक्टूबर 2017 को आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में दिए गए आदेश की तरफ आपका ध्यान दिलाना उचित समझते हैं जिसमें कहा गया था कि व्यापक जनहित में मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिज़र (एमओपी) को अंतिम रूप देने में और विलंब नहीं होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन एवं अन्य बनाम भारत सरकार :(2016) 5 एससीसी 1: के अनुसार जब एमओपी पर इस अदालत की संविधान पीठ को फैसला सुनाना था तो यह समझना मुश्किल है कि कैसे कोई अन्य पीठ इस विषय पर सुनवाई कर सकती है.
उपरोक्त हिस्से पर संविधान पीठ के फैसले के बाद (मुझ समेत) कॉलेजियम के पांच न्यायाधीशों ने विस्तृत चर्चा की और एमओपी को अंतिम रूप दिया गया और तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने मार्च 2017 में भारत सरकार को भेजा.
भारत सरकार ने पत्र का जवाब नहीं दिया है और इस मौन के मद्देनज़र यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि कॉलेजियम ने जो एमओपी तय किया था उसे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड (पूर्व में उल्लिखित) मामले में इस अदालत के आदेश के आधार पर स्वीकार कर लिया है.
इसलिए, एमओपी को अंतिम रूप देने या इस मुद्दे को अनिश्चितकाल तक नहीं खींचा जा सकता है इस बारे में टिप्पणी करने का कोई अवसर नहीं था.
चार जुलाई 2017 को इस अदालत की सात न्यायाधीशों की पीठ ने माननीय न्यायाधीश सीएस कर्णन :(2017) 1 एससीसी 1: में फैसला सुनाया था. उस फैसले में (आरपी लूथरा मामले में उल्लिखित) हममें से दो ने कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करने और महाभियोग के अलावा सुधारात्मक उपायों के लिए एक तंत्र स्थापित करने की ज़रूरत है. सात में से किसी भी न्यायाधीश ने एमओपी के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की थी.
एमओपी के बारे में किसी भी मुद्दे पर चर्चा मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में होनी चाहिए और पूर्ण अदालत द्वारा होनी चाहिए. इतने महत्वपूर्ण मामले पर अगर न्यायिक पक्ष को विचार करना है तो इस पर संविधान पीठ के अलावा किसी और को विचार नहीं करना चाहिए.
उपरोक्त घटनाक्रम को गंभीर चिंता के साथ देखा जाना चाहिए. माननीय प्रधान न्यायाधीश हालात में सुधार करने के लिए कर्तव्य से बंधे हैं और कॉलेजियम के अन्य सदस्यों के साथ पूर्ण चर्चा और ज़रूरत पड़ने पर बाद में इस अदालत के अन्य माननीय न्यायाधीशों के साथ चर्चा के बाद उचित उपचारात्मक क़दम उठाएं.
एक बार जब आप आरपी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में 27 अक्टूबर 2017 के आदेश से पैदा हुए मुद्दे का पर्याप्त निराकरण कर देते हैं और अगर यह उतना ज़रूरी हो जाता है तो हम इस अदालत द्वारा दिए गए अन्य न्यायिक आदेशों से विशेष रूप से आपको अवगत कराएंगे. उनसे भी उसी तरह से निपटने की जरूरत होगी.
भवदीय
न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई
न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर
न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ
Justices’ letter to CJI by The Wire on Scribd