संत कवियों की लंबी परंपरा में एक रविदास ही ऐसे हैं जो श्रम को ईश्वर बताकर ऐसे राज्य की कल्पना करते हैं, जो भारतीय संविधान के समता, स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व पर आधारित अवधारणा के अनुरूप है.
(यह लेख मूल रूप से 31 मार्च 2018 को प्रकाशित हुआ था.)
हमारे इस निरंतर असामान्य और कठिन होते जा रहे समय में संत कवि रविदास का व्यापक पुनर्पाठ बेहद जरूरी है. इसलिए कि जब सभी तरह की स्वतंत्रताओं व इंसाफों की साझा दुश्मन आर्थिक विषमता की दुनिया भर में ऐसी पौ-बारह हो गयी है कि उसकी संपत्ति का 82 फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्जे में चला गया है और ये ‘एक प्रतिशत’ हमारे देश की भी कम से कम 73 प्रतिशत संपत्ति अपने नाम कर चुके हैं.
संत कवियों की लंबी परंपरा में एक रविदास ही ऐसे हैं जो श्रम को ईश्वर बताकर इस एक प्रतिशत की अनैतिकताओं की खिल्ली उड़ाते और ऐसे राज्य की कल्पना करते हैं, जो भारतीय संविधान के समता, स्वतंत्रता, न्याय व बंधुत्व पर आधारित कल्याणकारी राज्य के संकल्प व अवधारणा के अनुरूप है.
उन्हीं के शब्दों में कहें तो वे ऐसा मानवतावादी कल्याणकारी राज्य चाहते हैं ‘जहं मिलै सभन को अन्न, छोट बड़ो सभ सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न’
जाहिर है कि हिन्दी की भक्ति काव्यधारा में उनकी अपनी सर्वथा अलग व विलक्षण पहचान है, लेकिन दूसरे संत कवियों की ही तरह उनके जन्म व जीवन आदि के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती. जो मिलती है, उसके अनुसार विक्रम संवत् 1441 से 1455 के बीच रविवार को पड़ी किसी माघ पूर्णिमा के दिन मांडुर नामक गांव में उनका जन्म हुआ.
यह मांडुर उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में मंडेसर तालाब के किनारे मांडव ऋषि के आश्रम के पास स्थित वही गांव है, जो अब मंडुवाडीह कहलाता है. उनके पिता का नाम रग्घू अथवा राघव था जबकि माता का करमा, जिन्हें सामाजिक गैरबराबरी व ऊंच-नीच के पैरोकार हिकारत से ‘घुरबिनिया’ कहते थे.
उनका लोकप्रचलित नाम रैदास है जो उनकी रचनाओं में बार-बार आता है. उनके समय में अस्पृश्यता समेत वर्णव्यवस्था की नाना व्याधियां देश के सामाजिक मानस को आक्रांत कर सहज मनुष्यता का मार्ग अवरुद्ध किये हुए थीं.
अन्त्यज (अछूत) के रूप में खुद उनकी जाति पर भी उनका कहर टूटता रहता था. वे इन व्याधियों को धर्म व संस्कृति का चोला पहन कर आती और स्वीकृति पाती देखते, तो कुछ ज्यादा ही त्रास पाते थे.
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि एक पीड़ित के रूप में वे तत्कालीन धर्म व संस्कृति को उस रूप में न लें, जिसमें राम झरोखे बैठकर मुजरा लेने वाले दूसरे संत कवि ले रहे थे.
तभी तो वे अपनी रचनाओं में इन कवियों से अलग, प्रतिरोधी और वैकल्पिक नजरिये के साथ सामने आते और उस श्रमण संस्कृति से ऊर्जा ग्रहण करते दिखाई देते हैं, जो उन दिनों की मेहनत-मजदूरी करने वाली जनता का एकमात्र अवलम्ब थी.
इसी संस्कृति ने रविदास को तमाम पाखंडों व कुरीतियों के विरुद्ध मुखर होने की शक्ति दी. यह कहने की भी कि वे किसी भी नाम पर पाखंडों को स्वीकार नहीं करने वाले. यहां तक कि भक्ति के नाम पर भी नहीं और उनके निकट बेदीन होना व पराधीन होना एक जैसी चीजें हैं: पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन, रैदास पराधीन को सभै ही समझे हीन
उनका लगभग सारा साहित्य इन्हीं बेदीन, हीन और पराधीन लोगों से प्रीति व मिताई की गाथा है. जो भी इस प्रीति के आड़े आया, वह चाहे कोई मान्यता या धारणा हो, विचार या दर्शन, रविदास ने उसको झाड़ने व झिंझोड़ने में कोई कोर-कसर नहीं रखी.
ईश्वर, वेद, यज्ञ, आत्मा-परमात्मा, धर्म-अधर्म, जाति-संप्रदाय, वर्ग-वर्ण, छूत-अछूत और भेदभाव की बाबत उनके दो-टूक विचार इसकी जीवंत मिसालें हैं. मनुष्य और मनुष्य में भेद करने वाले हर सिद्धांत, कर्मकांड, आडम्बर और विश्वास पर उन्होंने लानतें भेजीं.
एक जगह भक्ति को भी दासता का गुण बता डाला और कहा कि ईश्वर को जप-तप, व्रत-दान, पूजापाठ, गृहत्याग व इन्द्रियदमन आदि की मार्फत नहीं पाया जा सकता, न ही जटाएं बढ़ाकर गुफाओं व कंदराओं में खोजने से. वह मिलेगा तो बस मानव प्रेम में क्योंकि वह प्रेम में ही निवास करता है.
रविदास व्यवस्था देते हैं कि जन्म के कारणों से कोई ऊंचा-नीचा नहीं होता. नीच तो वास्तव में वे हैं, जिन्हें ओछे करमों की कीच लगी हुई है. संत रविदास ने अपने समय में जिन मानवतावादी मूल्यों के लिए संघर्ष किया, जैसे आदर्श समाज की कल्पना की और अच्छे राज्य की जो अवधारणा पेश की, वह हू-ब-हू हमारे संवैधानिक संकल्पों जैसी है: ऐसा चाहौं राज मैं जहं मिलै सभन को अन्न, छोट बड़ो सभ सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न
यह अवधारणा उन्हें वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से भी आगे ले जाती है. इस तर्क तक कि जब सभी लोग हाड़-मांस व खून के ही बने हैं, तो भिन्न या छोटे बड़े कैसे हो सकते हैं: जब सभ कर दोउ हाथ पग दोउ नैन दोउ कान, रविदास पृथक कइसे भये हिंदू औ मूसलमान?
मानवीय नैतिकता के किसी भी नियम से इस पार्थक्य को सही नहीं ठहराया जा सकता और रविदास इसी बात को अपनी बौद्धिक प्रतिभा, तर्कशक्ति, अनुभव व विवेक से सिद्ध करके बार-बार कहते हैं. अन्त्यज श्रमजीवी के तौर पर गुजरी उनकी जिंदगी भी हमें कुछ कम संदेश नहीं देती.
अब तो वह मिथक सी हो गई है. उनसे जुड़ा एक बहुप्रचारित मिथक ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ वाला है, जिसमें सिद्ध किया गया है कि मन मैला न हो तो कर्म व कर्तव्यपालन की कठौती भी गंगा है और मन में भरे हुए मैल को निकाले बिना गंगास्नान से भी कोई पुण्यखाता नहीं खुला करता.
एक और किंवदंती है: वे अपनी साधुता के कारण घर से अलग कर दिये गये हैं और भीषण गरीबी में रहते हैं. उनकी गरीबी दूर करने के लिए पारस पत्थर लाया जाता है, जिसमें ऐसी शक्ति है कि उसे जिस भी पत्थर में छुआ दिया जाये, वह सोने में बदल जाये.
एक संत उनसे बार-बार अनुरोध करते हैं कि वे पारस का इस्तेमाल करके ढेर सारे पत्थरों को सोने में बदल लें और अमीर हो जायें. रविदास उनकी अनसुनी करते रहते हैं. लेकिन एक दिन संत का अनुरोध जिद में परिवर्तित हो जाता है, तो वे उनको दिखाकर अपनी रांपी उठाते और अपने माथे पर चुहचुहा रहे पसीने से छुआ देते हैं. रांपी सोने में बदल जाती है और जिद्दी संत का चेहरा बुझ जाता है.
इस किंवदंती की शिक्षा इसके सिवा और क्या हो सकती है कि किसी श्रमजीवी के लिए उसका पसीना ही पारस पत्थर है और उसको पारस से ज्यादा अपने पसीने पर भरोसा करना चाहिए.
कई और किंवदंतियां हैं, जो रविदास को चमत्कारिक व्यक्तित्व से परिपूर्ण तो सिद्ध करती हैं लेकिन प्रगतिशील विचारक और क्रांतिद्रष्टा महापुरुष की उनकी छवि से न्याय नहीं करतीं. परंपरावादी ठहराने लगती हैं, सो अलग.
दलित विचारक अंगनेलाल के अनुसार ऐसी किंवदंतियां उन लोगों ने गढ़ दी हैं, जिनके पास रविदास के इस प्रश्न का उत्तर नहीं था: एकै चाम एक मल-मूतर ,एक खून एक गूदा, एक बूंद से सभ उत्पन्ने को बाभन को सूदा
इससे खीझे हुए लोग चाहते थे कि रविदास की अपनी परंपरा का स्वतंत्र विकास न हो और वे खुद हारकर उनकी परंपरा में चले जायें. लेकिन रविदास अविचलित रहे.
भारतभूमि पर वे संभवतः पहले ऐसे संत हुए जिसने सम्यक आजीविका पर जोर देकर लोगों को नेक कमाई की शिक्षा दी और उसे ही धर्म मानने को कहा: स्रम को ईस्वर जानि कै जो पूजै दिन रैन, रैदास तिनि संसार मा सदा मिलै सुख चैन
श्रम को ही ईश्वर बताने वाले अपने इस गुरु को वृद्धावस्था में उसकी प्रिय शिष्या मीरा ने आग्रहपूर्वक चित्तौड़ बुलाया तो वहां कुछ विद्वेषियों ने धोखे से पत्नी लोना समेत रविदास की हत्या कर उनके शरीरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया. तब इतिहास ने इस तथ्य को भारी हृदय के साथ अपने पृष्ठों में दोहराया और दर्ज किया: मानुषता को खात है रैदास जाति को रोग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)