मध्य प्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव हैं और प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान धार्मिक यात्राओं के सहारे चुनावी नैया पार लगाने की जुगत भिड़ाते नज़र आ रहे हैं.
मध्य प्रदेश में भाजपा पिछले डेढ़ दशक से काबिज़ है. प्रदेश को उन्नति और विकास के पथ पर ले जाने का वह श्रेय भी लेती है. विभिन्न मंचों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश की उपलब्धियों का बखान भी करते हैं.
विकास और ख़ुशहाली संबंधित उनके दावे कितने सच हैं, इस पर मतभेद हो सकते हैं. लेकिन इस पर कोई मतभेद नहीं कि इन्हीं दावों के बीच भाजपा और शिवराज के सामने आगामी विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को अपने पाले में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है.
यह तथ्य शिवराज भी समझ रहे हैं. इसलिए पिछले कुछ समय से विभिन्न यात्राओं के माध्यम से लगातार प्रदेश की जनता से जुड़े रहने की कवायद में जुटे हैं. पहले लगभग पांच महीने लंबी नर्मदा सेवा यात्रा ‘नमामि देवी नर्मदे’ पर वे निकले, फिर उन्होंने मध्य प्रदेश स्थापना दिवस यानी एक नवंबर के दिन दो माह अवधि वाली मध्य प्रदेश विकास यात्रा निकाली.
नर्मदा सेवा यात्रा में जहां उनका उद्देश्य नर्मदा परिक्रमा करते हुए नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने और नर्मदा क्षेत्र के विकास का संदेश देना था, तो वहीं मध्य प्रदेश विकास यात्रा के संबंध में उन्होंने कहा कि वे मध्य प्रदेश को विकास के पथ पर आगे कैसे बढ़ाया जाए, इस संबंध में जनता से संवाद करने के लिए प्रदेश घूमने निकले हैं.
दोनों ही यात्राओं के दौरान उन्होंने कई घोषणाएं भी कीं और विकास के अनगिनत दावे भी किए, लेकिन विकास की बात करते-करते उन्होंने पिछले दिनों अचानक धर्म की पतवार थाम ली और आदिगुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धांत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए एक और यात्रा ‘एकात्म यात्रा’ की घोषणा कर दी.
विकास से धर्म की ओर हुए उनके इस रुख़ से यह प्रश्न उठना लाज़मी था कि मध्य प्रदेश में वर्ष के अंत में चुनाव होने हैं लेकिन भाजपा विकास और जनहित के मुद्दों पर पिछड़ती दिख रही है. इस लिहाज़ से क्या शिवराज सिंह चौहान के पास मध्य प्रदेश में भी धार्मिक लामबंदी ही एकमात्र विकल्प बचा है?
राज्य में तीन कार्यकाल पूरे कर चुकी भाजपा की शिवराज सिंह सरकार के सामने इस बार चुनौतियां पहले से कहीं अधिक हैं. पिछले चुनाव में जहां शिवराज को केवल राज्य के मुद्दों से दो-चार होना पड़ा था, वहीं इस बार केंद्र में भी भाजपा की सरकार है. जिससे केंद्र सरकार की नीतियों के प्रति भी उसकी जवाबदेही बनती है.
व्यापमं घोटाले के आरोपों से त्रस्त सरकार को मंदसौर कांड की गोली से ज़ख्मी प्रदेश के किसान समुदाय के आक्रोश से भी निपटना है. महिला सुरक्षा, कुपोषण, किसान आत्महत्या, ज़मीन अधिग्रहण, अवैध खनन तो राज्य के मुद्दे हैं ही, साथ में केंद्र के दिए दो सबसे अहम मुद्दे नोटबंदी और जीएसटी भी उसकी नाक में दम किए हुए हैं.
बेरोज़गारों की फौज तैयार हो रही है और इस राष्ट्रव्यापी समस्या का केंद्र की तरह ही राज्य के पास भी कोई समाधान नहीं है.
अब तो शिवराज ख़ुद को बेबस दिखाते हुए मतदाताओं से यह भी नहीं कह सकते कि केंद्र में विपक्षी दल की सरकार है जिससे सहयोग न मिलने के चलते समस्याएं बरक़रार हैं. शायद इसलिए ही मध्य प्रदेश में भी अब भाजपा धर्म की नौका पर सवार है.
खंडवा ज़िले के ओंकारेश्वर में सरकार ने आदिगुरु शंकराचार्य की 108 फीट ऊंची अष्टधातु प्रतिमा स्थापित करने की नींव रखी है. जिसे ध्यान में रखकर प्रदेशभर में ‘एकात्म यात्रा’ निकालकर धातु संग्रहण भी किया गया.
19 दिसंबर से शुरू हुई यह यात्रा प्रदेश के सभी ज़िले घूमते हुए 2175 किलोमीटर का सफ़र तय करके खंडवा के ओंकारेश्वर में 22 जनवरी को ख़त्म हुई. जहां अष्टधातु प्रतिमा निर्माण का भूमिपूजन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किया गया.
हालांकि शिवराज सिंह के शब्दों में यात्रा संतों के नेतृत्व में शासन के सहयोग से हुई थी, जिसका राजनीति से कोई सरोकार नहीं था. यात्रा को हरी झंडी दिखाते हुए उन्होंने कहा था, ‘सड़क, पुल, स्कूल, अस्पताल बनाना सरकार का काम है. इसमें दो मत नहीं. लेकिन हमें सिर्फ़ यह नहीं बनाना है, लोगों की ज़िंदगी भी बनानी है और संतों के मार्गदर्शन में समाज को उठाने का भी काम करना है.’
वे आगे कहते हैं, ‘अगर आदि शंकराचार्य नहीं होते तो सनातन धर्म भी नहीं बचता.’ पूरे भाषण के दौरान वे हिंदू देवी-देवताओं, पूजन पर ज्ञान, गोरक्षा और गो-सम्मान तथा सनातन धर्म का बखान करते सुने जा सकते हैं.
वे कहते हैं, ‘हिंदू दर्शन, सनातन धर्म अपने कल्याण की बात नहीं करता. वह कहता है कि सारी दुनिया का कल्याण हो. आतंकवाद की समस्या का समाधान अद्वैत वेदांत, अद्वैत दर्शन में है. जो भगवान शंकराचार्य ने हमें दिया.’
आगे वे यात्रा के उद्देश्य पर बात करते हुए कहा है, ‘यह प्रतिमा सरकारी नहीं होगी. जनता के सहयोग से बनेगी. हर गांव से इकट्ठा की गई मिट्टी से बनेगी. कलश की धातु गलाकर फाउंडेशन बनाया जाएगा. उस फाउंडेशन पर प्रतिमा खड़ी होगी. इस आधार का आधार हमने हर गांव को बनाया है. हर गांव की मिट्टी आए. हर मनुष्य इससे जुड़ जाए.’
फिर वे संतों से रूबरू होते हुए कहते हैं, ‘यात्रा आपके नेतृत्व में चलनी है. हम तो निमित्त मात्र हैं. आप आगे बढ़कर इस यात्रा को ले जाइए. समरसता का संदेश दीजिए. अद्वैत वेदांत के संदेश को जन-जन तक पहुंचाइए.’
उनके शब्दों से स्पष्ट है कि वे ख़ुद को नेतृत्वकर्ता नहीं बता रहे थे. लेकिन विरोधाभास की स्थिति तब पैदा होती है जब इस दौरान होने वाले 140 जनसंवाद की बात आती है. ये जनसंवाद मुख्यमंत्री ही कर रहे थे.
जहां वे सरकारी योजनाओं का बखान एकात्म यात्रा से जोड़कर कुछ इस तरह करते हैं, ‘एकात्म यानी कि जब सबमें एक ही आत्मा है, तो लड़के-लड़की में भेदभाव क्यों? इसलिए हमने अभी एक ऐसा विधेयक पारित किया है जो बलात्कारियों को फांसी की सज़ा देगा.’
उनके जनसंवाद में लाडली लक्ष्मी योजना से लेकर धनवंतरि योजना तक को प्रचारित किया जाता है, साथ ही वे आतंकवाद के ख़ात्मे के तरीके पर भी फैसला सुनाते हैं. इसलिए यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि यात्रा जब संतों के नेतृत्व में शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए है तो मंच पर नेतृत्वकर्ता की भूमिका में संत होने चाहिए या मुख्यमंत्री?
प्रश्न यह भी उठता है कि अद्वैत वेदांत का सिद्धांत संतों द्वारा लोगों को समझाया जाना चाहिए या फिर मुख्यमंत्री द्वारा हर जनसंवाद में बार-बार लोगों को यह बताना चाहिए कि इस यात्रा को निकालने की प्रेरणा उन्हें कहां से मिली? क्यों वे इस यात्रा को निकाल रहे हैं? वे सनातन धर्म या आदि शंकराचार्य के बारे में, हिंदुओं के धार्मिक रिवाज के बारे में क्या मत रखते हैं?
राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘कोई भी राजनेता जब इस तरह की यात्रा निकालता है तो वह धार्मिक या व्यक्तिगत तो होती नहीं. घोषित रूप से चाहे वह धार्मिक हो या व्यक्तिगत, लेकिन एक राजनेता सार्वजनिक जीवन में आकर कुछ करता है तो उसके राजनीतिक मायने तो होंगे ही. ज़ाहिर सी बात है कि ‘एकात्म यात्रा’ के भी अपने राजनीतिक मायने हैं.’
यात्रा के राजनीतिक मायनों पर बात करते हुए गिरिजा शंकर आगे कहते हैं, ‘यात्रा शिवराज तक ही सीमित नहीं है. दरअसल, संघ और भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे के अंतर्गत वर्तमान में जो घटनाएं हो रही हैं, यह उसी एजेंडे का हिस्सा है. जैसे कि वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय को स्थापित करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘उनके सामने सबसे बड़ा संकट है कि उनके पास कोई रोल मॉडल नहीं है. जो स्थापित रोल मॉडल भारतीय राजनीति में हैं, चाहे नेहरू हों या गांधी हों, इनको नकारने के लिए ज़रूरी है कि संघ और भाजपा को अपना कोई रोल मॉडल बनाकर खड़ा करना पड़ेगा. इसलिए पहले उन्होंने सरदार पटेल का सहारा लिया. अब वो दीनदयाल उपाध्याय को स्थापित करना चाह रहे हैं. देश भर में उनको लेकर आयोजन हो रहे हैं.’
वे कहते हैं, ‘इसी तरह आदि शंकराचार्य को उभारने की कोशिश की जा रही है. इस बड़े एजेंडे के इस हिस्से की अगुवाई शिवराज ने की है. इस तरह से धर्म के साथ एक तरह से जो भावनाएं जुड़ी होती हैं, यह उन्हें भुनाने की कोशिश है. इन यात्राओं का राजनीतिक मक़सद प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता लेकिन अंतत: मक़सद तो राजनीति ही होता है.’
संघ की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ रखने वाले राजनीतिक टिप्पणीकार लोकेंद्र सिंह भी इस यात्रा के राजनीतिक महत्व को स्वीकारते हैं.
उनका कहना है, ‘इस प्रकार की यात्राओं के सब प्रकार के मायने होते हैं. चूंकि राजनीतिक व्यक्ति उसके साथ जुड़ा है तो राजनीतिक प्रभाव भी होंगे ही. जैसे कि दिग्विजय कह रहे हैं कि उनकी नर्मदा परिक्रमा यात्रा पूर्णत: एक धार्मिक यात्रा है. पर बार-बार उनसे भी यही प्रश्न पूछा जाता है. और उनका जवाब होता है कि ठीक है मैं राजनति में हूं, लेकिन धार्मिक तो हो सकता हूं, धार्मिक काम कर सकता हूं. लेकिन बावजूद इसके जिस प्रकार से उसके राजनीतिक अर्थ निकल रहे हैं, राजनीतिक संदर्भ देखे जा रहे हैं, वैसे ही ‘एकात्म यात्रा के भी राजनीतिक अर्थ देखे जा सकते हैं.’
लोकेंद्र आगे जोड़ते हैं, ‘अब अधिकृत व्यक्ति कह रहा है कि ये राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक यात्रा है, ऐसा मान भी लें तो भी बाहर से विश्लेषण करने पर पाते हैं कि इसमें मुख्यमंत्री शामिल रहे और आयोजक की भूमिका में सरकार थी तो राजनीतिक पक्ष तो जुड़ ही जाते हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘इससे राजनीतिक लाभ ये होगा कि समाज में संदेश जाएगा कि मुख्यमंत्री हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार करने में मदद कर रहे हैं. लोगों से व्यापक जनसंपर्क कर रहे हैं. आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद के ज़रिये सामाजिक एकता की बात कर रहे हैं. लिहाज़ा उनके प्रति जो एक सॉफ्ट कॉर्नर पहले से है, वो और बढ़ जाएगा.’
धर्म के ज़रिये लोगों तक पहुंचने का शिवराज का यह प्रयास आज का नहीं है. ‘मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना’ के माध्यम से वे सालों से ऐसा कर रहे हैं.
इस योजना के तहत 60 वर्ष या इससे अधिक उम्र के बुज़ुर्गों को राज्य सरकार के ख़र्चे पर देश भर के विभिन्न तीर्थों की यात्रा कराई जाती है. वो बात अलग है कि विपक्ष का ऐसा मानना है कि इस योजना का लाभ भी आम जनता से ज़्यादा पार्टी के क़रीबी उठा रहे हैं.
मुख्यमंत्री भले ही इस तथ्य को नकारें कि यात्रा के राजनीतिक मायने भी थे. लेकिन गांव-गांव पहुंचने वाली इस यात्रा के स्वागत की तैयारियों पर जब बात होती है तो स्थिति दूध की तरह साफ़ हो जाती है.
जिस भी गांव या ज़िले में यात्रा प्रवेश करती थी, उसके स्वागत की तैयारियों की ज़िम्मेदारी भाजपा कार्यकर्ताओं की फौज संभालती थी. जिन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय से भाजपा के पदाधिकारियों के माध्यम से जनसंवाद स्थल पर अधिक से अधिक भीड़ जुटाने के संदेश भेजे जाते थे.
यात्रा के आगमन के एक दिन पहले भाजपा के झंडे लहराते हुए वाहन रैलियां निकाली जाती थीं. इन रैलियों में शंकराचार्य की जय-जयकार के नारे नहीं लगते थे, सनातन धर्म की जय-जयकार नहीं होती थी, संतों के सम्मान की बात नहीं होती थी, वहां सिर्फ़ भाजपा की जय-जयकार और शिवराज सिंह ज़िंदाबाद ही सुनाई देता था. सनातन धर्म का प्रतीक भगवा ध्वज नहीं, भाजपा का ध्वज लहराता था.
और जब कार्यकर्ताओं द्वारा यात्रा या जनसंवाद में शामिल होने के लिए जुटाई गई भीड़ हाथ में भगवा ध्वज न थामकर भाजपा ध्वज थामे दिखती है तो वहीं यह यात्रा धार्मिक से राजनीतिक बन जाती है.
यात्रा के शुभारंभ के बाद मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने कहा था, ‘जनता की गाढ़ी कमाई से टैक्स के रूप में वसूले गए पैसों से राजनीतिक यात्रा निकाली जा रही है. आदिगुरु शंकराचार्य के बहाने मुख्यमंत्री चुनावी वर्ष में वोट के लिए यात्रा कर रहे हैं. प्रतिमा स्थापित करने के लिए यात्रा की क्या ज़रूरत पड़ गई. वह तो बग़ैर यात्रा के भी स्थापित की जा सकती थी.’
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन वे धर्म के बहाने अपने राजनीतिक हित साधने के लिए सरकारी ख़र्च पर यात्रा करके भाजपा का चुनाव प्रचार कर रहे हैं.’
विपक्ष यह भी मानता है कि सरकार एक ओर राजस्व घाटे की दुहाई देकर पेट्रोल-डीजल पर सेस लगाती है तो दूसरी ओर इन यात्राओं पर सरकारी खजाने से जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा उड़ाती है.
वहीं, शिवराज और भाजपा इन आरोपों से लाख इंकार करें और इस यात्रा को जनजागृति वाली धार्मिक यात्रा बताएं, लेकिन अख़बारों में छपे एकात्म यात्रा के सरकारी विज्ञापनों और प्रदेश भर में लगे होर्डिंग्स कुछ और ही कहानी बयां करते थे.
एक धार्मिक यात्रा के विज्ञापन और होर्डिंग्स में बात धर्म की होनी चाहिए, संतों के सम्मान की होनी चाहिए, आदिगुरु के अद्वैत वेदांत का ज्ञान होना चाहिए, इनकी तस्वीर होनी चाहिए. लेकिन दिखता था तो बस मुख्यमंत्री का आदमक़द चेहरा जिसके क़द के आगे बगल में ही लगी आदिगुरु शंकराचार्य की तस्वीर भी बौनी नज़र आती है.
वहीं, संतों की तस्वीरें वहां छपी हों या न हों, मुख्यमंत्री के साथ केंद्रीय मंत्री, कैबिनेट मंत्री, भाजपा के स्थानीय सांसद, विधायक, मेयर एवं पदाधिकारियों के फोटो छपे जरूर नज़र आते हैं.
इसलिए प्रश्न उठना लाज़मी है कि जब यात्रा संतों के सानिध्य में और नेतृत्व में हो रही थी, समाज में समरसता का संदेश और आदिगुरु शंकराचार्य का दर्शन संतों द्वारा पहुंचाया जाना था और शासन बस सहयोगी की भूमिका में था तो विज्ञापन और होर्डिंग्स में नेतृत्वकर्ताओं यानी कि संतों को दिखना चाहिए था या सहयोगी (शासन) को?
इस पर लोकेंद्र सिंह कहते हैं, ‘सच है कि मूर्ति की स्थापना यात्रा निकाले बिना भी हो सकती थी. लेकिन वास्तव में ऐसी यात्रा से वैचारिक पक्ष को स्थापना मिलती है. शंकराचार्य जी का सिद्धांत क्या था? उनका एकात्म के साथ क्या जुड़ाव है? एकात्म का अर्थ क्या है? लोगों को यह पता चलता है. एक सामाजिक संदेश जाता है. उस लिहाज़ से यात्रा निकालना सार्थक है.’
वे आगे कहते हैं, ‘दूसरा कि राजनीति में जो काम किया जाता है, उसका ढोल तो पीटा ही जाता है. सबको बताना ही पड़ता है कि हम ऐसा काम कर रहे हैं. वहीं यह सरकारी आयोजन था तो स्वाभाविक है कि नेतृत्व सरकार ही करती. बस ख़ुद को उदार दिखाने के लिए कह दिया जाता है कि संतों का नेतृत्व है. जहां तक नेताओं की तस्वीरें छपी होने की बात है तो आयोजन से बड़े राजनीतिक व्यक्ति के जुड़ाव के चलते स्थानीय स्तर के नाते उनकी नज़र में आने के लिए उनके बड़े-बड़े फोटो लगवा देते हैं और साथ में अपने भी लगा देते हैं.’
वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘विपक्ष में होने पर तो राजनीतिक दल या नेता को ऐसी यात्रा का बड़ा लाभ होता है. जिस तरह आडवाणी की रथ यात्रा से हुआ कि उन्होंने एक धर्म विशेष के लोगों की उस असुरक्षा की भावना को उजागर किया जहां वे सोचते थे कि उनके साथ अन्याय हो रहा है. तो इसका राजनैतिक लाभ उन्हें मिला. लेकिन जब आप सत्ता में होते हैं तो ऐसी यात्राओं का उस तरह का लाभ नहीं मिल पाता क्योंकि जनता के मन में प्रश्न उठता है कि आप तो सरकार में हैं, साधन-संपन्न हैं, फिर क्या रुकावट है?’
राशिद आगे कहते हैं, ‘दूसरी स्थिति में ऐसी यात्राएं तब निकाली जाती हैं जब लोगों को शासन का सुखद एहसास हो. उस सफलता में यात्रा निकाली जाती है. पर मध्य प्रदेश में ऐसा भी नहीं है. किसानों का ही उदाहरण लें तो उनमें बेचैनी है. सामान्य किसान खेती में घाटा उठा रहे हैं और सल्फास खा रहे हैं. प्रश्न उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मुख्यमंत्री जो कृषि सम्पन्न राज्य का ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसमें कहीं कोई कमी है. यात्रा के जो मुख्य दो उद्देश्य हो सकते थे, जब उनमें से कोई नहीं है तो स्पष्ट है कि यात्रा का उद्देश्य इन्हीं कमियों से ध्यान भटकाना है.’
आगे राशिद इस बात से भी इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि जब मुख्यमंत्री को अपनी छवि गिरती नज़र आई तो उन्होंने ख़ुद को धार्मिक दिखाना शुरू कर दिया. जैसा कि भाजपा लंबे समय से करती आई है.
इस लिहाज़ से देखें तो धर्म के ज़रिये सरकार की छवि बदलने और मुख्यमंत्री द्वारा अपने चेहरे की लोकप्रियता बढ़ाने का प्रपंच मात्र थी एकात्म यात्रा. जब मंच पर प्रस्तोता से लेकर संत तक शंकराचार्य से अधिक शिवराज सिंह चौहान के गुणगान करते सुने जाते हैं तब यह बात और भी पुख़्ता हो जाती है कि यह पूरी कवायद ख़ुद के महिमामंडन की थी.
हालांकि गिरिजा शंकर कुछ अलग सोचते हैं. वे कहते हैं, ‘विकास और हिंदुत्व पर भाजपा ये मानती है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. जहां तक शिवराज की यात्रा निकालने का प्रश्न है तो उसका उनकी लोकप्रियता या उनके जनाधार से कोई ताल्लुक़ नहीं क्योंकि ये शिवराज सिंह की यात्रा नहीं थी, वे बस इसके अगुवा थे. उस यात्रा का सूत्रधार तो संघ था. ये महज इत्तेफ़ाक़ है कि जो ज्ञान प्राप्त हुआ शंकराचार्य को वो स्थल मध्य प्रदेश में है. आदि शंकराचार्य का काफी वक़्त गुज़रा यहां. तो इसके लिए ये जगह मुफ़ीद रही.’
वे आगे कहते हैं, ‘इसके पहले जो सिंहस्थ हुआ था, उसमें भी जो बहुत सारे आयोजन हुए जैसे कि ‘समरसता’ या ‘विचारमंथन’, वे तमाम चीज़ें अमूमन सिंहस्थ का हिस्सा नहीं होतीं. लेकिन उन सबका आयोजन हुआ. उसका सूत्रधार भी संघ था. संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाना ही इस यात्रा का मक़सद रहा.’
बहरहाल, मज़ेदार यह भी है कि आदिगुरु शंकराचार्य की प्रतिमा स्थापना और उनके अद्वैत दर्शन को लोगों तक पहुंचाने की इस पूरी कवायद में चारों पीठ में से किसी भी पीठ के शंकराचार्य सम्मिलित नहीं हुए. जो स्वत: ही इस यात्रा पर सवाल खड़े करता था.
शारदा और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने तो मीडिया से यह तक कहा था, ‘आदि शंकराचार्य के नाम पर हो रही यात्रा के संबंध में सरकार ने चारों शंकराचार्यों से मशविरा करना भी ज़रूरी नहीं समझा जबकि इस यात्रा के लिए शंकराचार्यों से बात ज़रूर करनी चाहिए थी. यही वजह है कि यात्रा में कई ऐसे तथ्य आदि शंकराचार्य से जोड़कर पेश किए गए, जो सच नहीं हैं. उनके बारे में जो कुछ बताया गया, वह भ्रामक था. इसलिए शंकराचार्य के सिद्धांतों या जनता से यात्रा का कोई सरोकार नहीं था. इसमें बस शिवराज सरकार का फायदा था. उन्होंने नर्मदा यात्रा का कबाड़ा किया, सरकारी तंत्र का दुरुपयोग किया, अब भी वही कर रहे हैं.’
सरकारी तंत्र के दुरुपयोग की बात है तो प्रदेश की सारी प्रशासनिक मशीनरी सुरक्षा और यात्रा प्रबंधन के काम में महीने भर पहले से झोंक दी गई थी. जनसंवाद स्थल पर भीड़ जुटाने का लक्ष्य उनके पास था. जिसे वे स्कूली बच्चों को खुली धूप या सर्द हवा में जनसंवाद स्थल पर घंटों बैठाए रखकर पूरा कर रहे थे.
राशिद कहते हैं, ‘सरकारी अधिकारी न सिर्फ़ इसमें भागीदार रहे बल्कि आदि शंकराचार्य की चरण पादुका सिर पर रखकर उनकी तस्वीरें सामने आईं. बड़ा प्रश्न ये उठता है कि आस्था एक निजी मामला है. उसमें हमारे देश में पूरी तरह से किसी पर कोई रोक-टोक नहीं है. लेकिन जो सर्विस कंडक्ट रूल की परिधि में आते हैं उन्हें नियमों का ख़्याल रखना चाहिए.’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसमें जो राज्य के मुख्य सचिव या मुखिया हैं, उनको संज्ञान लेना चाहिए था. पर ऐसा नहीं हुआ. एक अख़बार में स्वस्थ भारत अभियान के विरोध में एक सरकारी अधिकारी ने एक लेख लिखा था तो उनको कारण बताओ नोटिस दिया गया. जवाहर लाल नेहरू की तारीफ़ करने के चलते अधिकारियों को कारण बताओ नोटिस दिए जा रहे हैं. अब कलेक्टर चरण पादुका उठाने में आगे बढ़कर हिस्सा ले रहा है तो इस पर भी एक जवाबदारी होनी चाहिए. इसे नौकरशाही का भगवाकरण तो नहीं कहेंगे पर एक राजनीतिक दुरुपयोग सामने आया.’
वहीं, विभिन्न पीठ के शंकराचार्य न सही, पर शिवराज संतों के सानिध्य में यह यात्रा होने का दावा करते हैं और मंच पर संत भी जुटाए जाते हैं. लेकिन राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह बात किसी से नहीं छिपी कि संतों को मंच पर इकट्ठा करना भाजपा की राजनीति का ही हिस्सा रहा है.
साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, साध्वी ऋतंभरा आदि ऐसे नाम हैं जो साबित करते हैं कि साधुओं से भाजपा की नज़दीकियां बहुत रही हैं इसलिए संत समाज की आड़ लेकर अपना हित साधना उसके लिए कठिन नहीं. संतों को मंच पर जुटाना मुश्किल नहीं.
और अगर थोड़ा पीछे जाएं तो इसी संत समाज के छिटकने के डर ने भी शिवराज को फिर से ख़ुद को सनातनी साबित करने के लिए विवश किया है. राजनीति विश्लेषकों के अनुसार, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा को मिल रहे संत समाज के समर्थन के चलते मुख्यमंत्री को ख़ुद को बड़ा सनातनी साबित करने के लिए विवश होना पड़ा.
ग़ौरतलब है कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस से छुट्टी लेकर सितंबर से नर्मदा यात्रा पर हैं. इसे वह धार्मिक यात्रा बताते हैं और इस दौरान वे राजनीति की कोई बात नहीं करेंगे, ऐसा उनका कहना है.
दिग्विजय की यात्रा में ऐसे संत भी शामिल हुए जो भाजपा खेमे के माने जाते थे. वहीं, शिवराज ने जहां नर्मदा यात्रा पर ख़ूब सरकारी खजाना खाली किया और 59,000 रुपये में एक नर्मदा आरती का आयोजन किया, बढ़-चढ़कर विज्ञापन दिए, उसके इतर दिग्विजय की यात्रा में ऐसा नहीं देखा गया. नर्मदा किनारे चलते हुए वे जन-जन से संपर्क कर रहे हैं. विभिन्न मंचों पर उन्हें महान सनातनी पुकारने वाले भी सक्रिय हैं.
इसलिए जानकार मानते हैं कि शिवराज गुजरात में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व की सफलता देख ही चुके थे, इसलिए ऐसा कोई जोख़िम नहीं उठाना चाहते थे कि दिग्विजय की सनातनी छवि चुनावों में उनकी सनातनी छवि पर हावी हो जाए. इसलिए भी एकात्म यात्रा की रूपरेखा उन्होंने तैयार की.