फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं कि नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे. वे दुनिया में और दुनिया उनमें रहती थी, जो उनकी कविताओं में हंसती-बोलती, जीती-जागती त्योहार मनाती नज़र आती है.
भारत में नज़ीर नाम के कम से कम दो बेनज़ीर शायर हुए हैं. इनमें एक का नाम है नज़ीर अकबराबादी और दूसरे का नज़ीर बनारसी.
हिंदू-मुसलमानों की साझी विरासत यानी गंगा-जमुनी संस्कृति और अमीर खुसरो द्वारा शुरू की गई उदात्त साहित्यिक परम्परा के लिहाज से देखें तो इन शायरों का दूर-दूर तक कोई सानी नहीं है.
शायद इसीलिए नज़ीर अकबराबादी को जहां ‘उर्दू नज्मों का जनक’, ‘साझे बिरसे की रौशन मीनार’ और ‘आम आदमी के आम मसलों या कि अवाम का शायर’ कहा जाता है, वहीं कई अंचलों में उनके बगैर होली की बहारों की कल्पना ही नहीं की जाती.
फिराक गोरखपुरी ने नज़ीर पर केंद्रित अपनी पुस्तक ‘नज़ीर बानी’ में लिखा है कि हलचल से भरी दुनिया, आबादी की भीड़-भाड़, घरों, मुहल्लों बाजारों व मेलों-ठेलों के शोरगुल से बिलकुल दूर अपनी कल्पना के सुंदर संसार में रहने वाले शायरों के विपरीत नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे. वे दुनिया में और दुनिया उनमें रहती थी, जो उनकी कविताओं में हंसती-बोलती, जीती-जागती, चलती-फिरती और त्योहार मनाती नजर आती है.
उनकी रचनाओं में उनके समय का जीवन, हर स्तर, हर वर्ग, हर तरह, हर रंग, हर ढंग, हर अवस्था और हर स्थिति में इतने भरपूर ढंग से, अपनी पूरी गतिशीलता के साथ और इतने स्वाभाविक व सजीव रूप से चित्रित हुआ है कि भाषा, संस्कृति, सम्प्रदाय, जातिधर्म आदि सब भेद मिट गये हैं.
उन्हें अजान व शंख दोनों की आवाजों से एक जैसी मुहब्बत है और जहां वे आला दर्जे के साहित्यिक चित्रकार, आविष्कारी, आशावादी विचारक व दोस्त हैं, वहीं प्रकृति के अध्ययन के बादशाह भी हैं.
उनकी जैसी तकल्लुफ व बनावट से पाक सदाबहार व सदासुहाग शायरी भारत तो भारत दुनिया के इतिहास में भी कम ही मिलती है. इसीलिए वे एकमात्र ऐसे कवि माने जाते हैं जिन्हें उर्दू और हिंदी वालों, किसानों, मजदूरों, मध्य वर्ग, उच्च वर्ग, बच्चों-जवानों, बूढ़ों, स्त्रियों और पुरुषों सबने समान रूप से अपनाया.
प्रख्यात उर्दू आलोचक एहतेशाम हुसैन नज़ीर को अवाम के जज्बात की तरजुमानी करने वाला ऐसा शायर कहते हैं, जिसे फकीरों, गदागरों और मामूली पढ़े-लिखे लोगों ने उसकी नज्में गाकर याद रखा. वरना उर्दू शायरी की मयारपरस्ती उसे खत्म ही कर डालती.
नज़ीर ने इस शायरी को तब नज्म के मैदान में अंगड़ाइयां लेने का मौका दिया जब उसका दायरा आम तौर पर हुस्न व इश्क वाली गजलों के दामन तक ही सिमटा था. उनकी बदौलत आम आदमी, उसकी रोजी-रोटी, दिल, मौसम व त्योहारों की बहारें भी शायरी के केंद्र में आईं और अपनी जगह बनाने में सफल हुईं.
सच कहें तो नज़ीर के सारे साहित्य में में हिन्दुस्तानी संस्कृति बोलती नजर आती है. उन्होंने अपने सबसे पसंदीदा त्यौहार होली पर अलग-अलग शीर्षक व रंग की 11 नज्में कहीं, तो दीवाली और राखी को भी नजर ओट नहीं किया.
कृष्ण के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक उनकी चार नज्में हैं तो एक उनकी बांसुरी पर भी है. उन्होंने हजरत सलीम चिश्ती और ताजगंज के रोजे पर नज्में लिखीं तो हरि की प्रशंसा, भैरव की प्रशंसा, महादेव का ब्याह, नरसी अवतार और बलदेव जी का मेला पर भी, जिनमें हिंदू धर्म और उसके रीति-रिवाजों को बहुत बारीकी से पेश किया.
नज़ीर के अपने लोक से जुड़ाव का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि उनके न रहने के पौने दो सौ साल बाद भी वृंदावन के मंदिरों में उनके गीत भजनों की तरह गाये जाते हैं.
प्रोफसर अली अहमद फात्मी की मानें तो नज़ीर ने कृष्ण, महादेव, बलदेव, होली व दीवाली आदि पर इस तरह की अवामी, जानदार और यादगार नज्में न कही होतीं तो इकबाल को राम और हसरत को कृष्ण को समझने में देर लग जाती और गालिब भी शरीर के जलाये जाने की बात न करते।.
लेकिन नज़ीर का योगदान महज इतना ही नहीं है. उनकी नज्मों ‘कौड़ीनामा’, ‘रोटीनामा’, ‘आदमीनामा’, ‘बंजारानामा’, ‘फनानामा’, ‘जोगीनामा’, ‘फकीरों की सदा’, ‘कलजुग’ और ‘मुफलिसी’ में तत्कालीन साधारण समाज की सोच और उसकी जिन्दगी की सच्चाइयां व अनुभव रचे-बसे है.
‘बंजारानामा’ और ‘आदमीनामा’ तो अपनी मिसाल आप ही है:
यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी और सुन के दौड़े है
सो है वो भी आदमी!
हां, उन्होंने गजलों पर भी कुछ कम हाथ नहीं आजमाया. अलबत्ता, उनमें से अनेक अब उपलब्ध नहीं हैं.
उनके जन्म की तिथि व स्थान को लेकर जानकारों में एकराय नहीं हैं. कुछ कहते हैं कि वे 1735 में आगरा में मोहम्मद फारुक के बेटे के रूप में पैदा हुए, उनकी मां आगरा के किले के गवर्नर नवाब सुल्तान खां की बेटी थीं और उनका बचपन का नाम वली मोहम्मद था.
लेकिन कई अन्य का दावा है कि वे दिल्ली में जनमे और अभी छोटे बच्चे ही थे कि दिल्ली को नादिरशाह के हमले व कत्ल ए आम से सिहरती देखने को मजबूर हुए.
जब तक वह संभलती, उस पर अहमदशाह अब्दाली ने चढ़ाई कर दी. बहुत से दूसरों की तरह युवा नज़ीर को भी उसके बाद की दिल्ली रास नहीं आई. बेफिक्र होकर जीने के लिए वे अपनी मां और नानी के साथ आगरा में मिठाई वाले पुल के पास जा बसे और जल्दी ही वहां की सभ्यता व संस्कृति के उस रंग में रंग गये जिसमें हिंदुओं व मुसलमानों में किसी परायेपन की गुंजायश नहीं थी.
उनके साहित्य में आगरा की आम जिंदगी की तफसीलें यों ही पूरी झमक व ठाठ के साथ उपस्थित नहीं हैं.
इन्हीं दिनों वे मोती नाम की एक युवती से दिल भी लगा बैठे लेकिन जब तक उनकी प्रेमकहानी परवान चढ़ती, जाटों ने आगरा को लूट लिया और वहां अपनी राज स्थापित करके जनता पर बहुत से जुल्म ढाये.
नज़ीर भी उनकी लूट से नहीं बचे और तंगहाली में रोजी के लिए मकतबदारी करने यानी फारसी पढ़़ाने लगे।.
उनकी भलमनसी के बारे में कई रोचक किस्से मशहूर हैं. कहा जाता है कि वे जिस भी मजलिस में बैठते, ‘शिष्टाचार के चिराग’ मालूम होते. हां, अधेड़ होते होते उन्होंने शादी कर ली थी और मोरी दरवाजे के पास एक छोटे से घर में रहने लगे थे.
दावतों आदि में वे जाते नहीं थे लेकिन एक दिन कुछ बिन बुलाये मेहमान अचानक उनके घर दावत के लिए आ धमके तो देखते क्या हैं कि दरवाजा खोलने वाले नज़ीर के सारे बदन पर आटा और चोकर का गुबार लगा है और वे बता रहे हैं कि तुम्हारी भावज बिगड़ बैठी हैं और आटा पीसने व रोटी बनाने का काम मुझ पर ही आ पड़ा है.
इस पर भी बिन बुलाये मेहमानों ने लौट जाने का विकल्प आजमाने के बजाय आगे का सारा काम, जिसमें आटा पीसना, रोटी पकाना, खिलाना-पिलाना और रूठी भावज को मनाना भी शामिल था, खुद संभाल लिया और नज़ीर ने उनके साथ मिलकर खूब मस्ती की.
कहते हैं कि एक बार नवाब वाजिद अली शाह ने उन्हें अपने दरबार में यानी लखनऊ बुलाया और इनकार न कर सकें, इसके लिए ढेर सारे रुपये भिजवा दिये.
उतने रुपये देखकर नज़ीर बेचैन से हो उठे और उन्हें सारी रात नींद नहीं आई. परेशान होकर सुबह उन्होंने एक कड़वा फैसला किया: जाने से मना कर दिया और सारे रुपये ठुकरा दिये. कह दिया कि अदना ताल्लुक से इतने तरद्दुद हैं, जब पूरा ताल्लुक होगा, तो खुदा जाने क्या हाल हो!
ऊपर वाले ने उन्हें बहुत सी अन्य चीजों के साथ लंबी उम्र अता करने में भी कोई कोताही नहीं की थी. अलबत्ता, 95 साल की उम्र में उनपर फालिज का हमला हुआ तो वह जान लेकर ही माना.
16 अगस्त, 1830 को उन्होंने आखिरी सांस ली तो जनाजे में हजारों हिंदू-मुसलमान शामिल हुए. उन्हें उनके मकान में ही दफ्न किया गया, जहां जनाजे की नमाज दो बार पढ़ाई गई.एक बार सुन्नियों की और दूसरी बार शियों की तरफ से.
आगरा के ताजगंज में अभी भी बसंत पंचमी के दिन ‘नज़ीर मेला’ लगता है जिसमें हिंदू-मुसलमान कहें या कि दर्जी, हलवाई, मोची, रंगरेज, कलईगर, खीरा-ककड़ी बेचने व इक्का-ताुगा चलाने वाले वाले आम मेहनतकश लोग मिलकर उनके मजार पर फूल चढ़ाते और जीवन के उत्सव व उल्लास से भरी उनकी नज्में गाते हैं. लीजिए आप भी गाइये:
तब देख बहारें होली की!
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
खूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली कीहो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली कीगुलजार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली कीऔर एक तरफ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के
कुछ काफिर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली कीये धूम मची हो होली की, ऐश मजे का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मजा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड भिड़ के ‘नज़ीर’ भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली कीजब खेली होली नंद ललन
जब खेली होली नंद ललन हंस हंस नंदगाँव बसैयन में
नर नारी को आनन्द हुए खुशवक्ती छोरी छैयन में
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चैपय्यन में
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन मेंजब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी
होरी खेलें हंस हंस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी
यह भीगी सर से पांव तलक और भीगे किशन मुरारी भी
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं.)