साल दर साल भारत में मीडिया पर नियंत्रण और सेंसरशिप ख़त्म होने के बजाय बढ़ रही है. इस मामले में सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं. वे आज़ाद मीडिया की जगह नियंत्रित मीडिया को प्यार करते हैं.
‘शासकों की ओर से जानबूझकर ओढ़ी गई चुप्पी भी मीडिया को कंट्रोल करने का एक तरीका है…’ यह बात मशहूर पत्रिका इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली ने अपने 27 जनवरी, 2018 के अंक में प्रकाशित संपादकीय में लिखी है.
संपादकीय कहता है कि मौजूदा केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मीडिया को काबू करने के जो तरीके अपना रही हैं, उनमें से एक यह भी है कि सत्ता के गलियारे तक मीडिया को पहुंचने ही न दिया जाए.
इस पत्रिका ने लिखा है,‘पिछले तीन सालों में धीरे-धीरे खामोशी से मीडिया को कंट्रोल करने की बात का संज्ञान नहीं लिया गया है. मीडिया को नियंत्रित करने या अपने हिसाब से प्रचार तंत्र बनाने के इस खेल में दक्षिणपंथी, वामपंथी समेत सभी पार्टियां अपनी-अपनी लाइन को दरकिनार कर साझा भूमिका में हैं…
सूचनाओं तक पत्रकारों की पहुंच को लेकर ऐसी सख्ती केंद्र सरकार की ओर से शायद कभी रही हो कि नौकरशाह पत्रकारों से बात करने अथवा घुलने-मिलने से डरते हैं. खुली बहसें न तो सरकार के भीतर हो रही हैं, न ही स्वतंत्र आवाजों की तरफ से ऐसा हो रहा है. वे ऐसा करने से डरते हैं. ऐसा माहौल पत्रकारों के लिए वह जगह ही नहीं छोड़ता जहां वे ज़रूरी मुद्दों पर खोजी रिपोर्ट लिख सकें. अगर वे ऐसा करते भी हैं तो उन्हें विपक्षी दल का सहयोगी कहा जाता है.’
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली का यह संपादकीय मीडिया वेबसाइट ‘द हूट’ की एक सालाना रिपोर्ट को आधार बनाकर लिखी गई है. ‘द हूट’ ने ‘इंडिया फ्रीडम रिपोर्ट-2017’ से छपी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले साल भारत में मीडिया स्वतंत्रता के लिए माहौल तेजी से प्रतिकूल हुआ है.
‘द हूट’ ने साल भर के अध्ययन के आधार पर डाटा पेश किया है कि 2017 में 11 पत्रकार मारे गए जिनमें से तीन की हत्या सीधे-सीधे उनके काम से जुड़ी थी. इनमें से एक कर्नाटक की मशहूर पत्रकार गौरी लंकेश भी थीं और शांतनु भौमिक और सुदीप दत्ता भौमिक की हत्याएं त्रिपुरा में हुईं.
गौरी लंकेश की हत्या के मामले में देश भर में प्रदर्शन और गुस्से के बावजूद अब तक न कोई गिरफ्तारी हुई, न ही जांच किसी नतीजे पर पहुंची.
साल 2017 में पत्रकारों पर 46 हमले हुए, पत्रकारों को हिरासत में लेने/गिरफ्तार करने/केस दर्ज करने की 27 घटनाएं हुईं, 12 घटनाओं में पत्रकारों को धमकी दी गई.
रिपोर्ट के मुताबिक, मीडिया को कंट्रोल करने के इस खेल में पुलिस और राजनेता और राजनीतिक कार्यकर्ता सबसे आगे हैं. सभी राज्यों में मिलाकर मानहानि के 63 केस दर्ज किए गए, जिसमें सबसे ज्यादा 19 मामले महाराष्ट्र में सामने आए.
देशद्रोह के कुल 35 केस दर्ज हुए, जिसमें से छह हरियाणा, पांच उत्तर प्रदेश और चार कर्नाटक से हैं. इंटरनेट बंद करने की कुल 77 घटनाएं हुईं, जिसमें 40 सिर्फ जम्मू कश्मीर में हुईं.
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यह रिपोर्ट सिर्फ अंग्रेजी मीडिया में छपी सूचनाओं पर आधारित है. इसका मतलब यह हुआ कि कुछ ऐसी सूचनाएं भी होंगी जो अंग्रेजी मीडिया में नहीं आ सकीं होंगी.
‘द हूट’ की यह रिपोर्ट लिखती है,‘पत्रकारों का मुंह बंद करना हर किसी को पसंद है, अगर वह कर सकता है. राज्य सरकारें भी इस काम में पीछे नहीं हैं. अलग-अलग स्वरूप में मुख्यमंत्रियों ने सेंसरशिप का आदेश दिया तो त्रिपुरा के माणिक सरकार ऐसे मुख्यमंत्री रहे, जिनको सेंसरशिप का सामना करना पड़ा. स्वतंत्रता दिवस पर दूरदर्शन ने उनका भाषण प्रसारित करने से इनकार कर दिया.’
रिपोर्ट कहती है, साल 2017 में मीडिया की पहुंच को सीमित करने का प्रयास तेज हुआ. इस सूची में गोवा, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, जम्मू कश्मीर और राजस्थान प्रमुख हैं.
मई में गोवा की मनोहर पर्रिकर सरकार पर सचिवालय तक मीडिया को पहुंच को सीमित करके सिर्फ चुनिंदा मीडिया ब्रीफिंग पर अमल करने का आरोप लगा.
केरल में वामदलों की सरकार भी मीडिया को नियंत्रित करने में पीछे नहीं रही. राज्य में जारी राजनीतिक हिंसा के मद्देनजर अगस्त में वाम प्रतिनिधियों और भाजपा नेताओं की एक बैठक के दौरान मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने मीडिया को वहां से बाहर कर दिया.
गोरखालैंड आंदोलन के दौरान मीडिया को रिपोर्ट करने से रोका गया तो ओडिशा सरकार में अधिकारियों को मीडिया से बात करने से रोका गया. राजस्थान सरकार ने तो एक ऐसा अध्यादेश ही पेश कर डाला जो मीडिया को पूरी तरह सत्ता के नियंत्रण में लाना वाला था.
इसके अलावा, भाजपा नेता एवं प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ अपनी पार्टी लाइन पर चलने वाले चैनल को इंटरव्यू देते हैं तो कांग्रेस ऐसे चैनलों को अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूर रखने की नजीर पेश की.
इस रिपोर्ट में ऐसे तमाम उदाहरण पेश किए गए हैं कि कैसे सरकार विरोधी बड़ी खबरों को मीडिया ने इस डर से खुद ही नहीं छापा कि कहीं उन पर मानहानि की कार्रवाई न हो जाए, इसमें से सहारा बिड़ला डायरी केस प्रमुख है.
पिछले ही बरस मीडिया द्वारा सेल्फ सेंसरशिप के साथ दबाव में खबरें हटाने के भी कई मामले सामने आए जब मीडिया ने सामान्य सी खबरें छापीं और बिना कारण बताए उन्हें हटा भी लीं.
कई मीडिया संस्थानों द्वारा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की संपत्ति में 300 फीसदी की बढ़ोत्तरी और स्मृति ईरानी की डिग्री से जुड़ी ख़बर प्रकाशित की गई थी, जिसे बिना कोई वजह बताए हटा लिया गया.
यह आंकड़े भारत में मीडिया की आजादी की तस्वीर पेश करते हैं. बीते बरस में मीडिया को नियंत्रित करने की घटनाओं की चर्चाएं भी होती रही हैं.
जून में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया मे एनडीटीवी मालिकों के घर पर पड़े सीबीआई छापों के विरोध और प्रेस की आज़ादी के लिए बड़ी संख्या में पत्रकार इकट्ठा हुए थे.
इस कार्यक्रम में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने अपने वक्तव्य में कहा,‘मैं उस सवाल का जवाब दूंगा जो निहाल सिंह साहब ने उठाया कि ‘हमें क्या करना चाहिए.’
इस पर कुलदीप नैयर साहब ने कहा कि इस सवाल का जवाब देना इमरजेंसी के वक़्त भी ज़रूरी नहीं समझा गया, पर सच यह है कि हर पीढ़ी को आज़ादी का सबक सिखाया जाता है. तो इस बार, एक बार फिर ये सबक शुरू हो चुका है. एक ज़ुलु कहावत है, जिस कुत्ते के मुंह में हड्डी होती है वो भौंक नहीं सकता. यानी वो मीडिया को उस कुत्ते में तब्दील कर रहे हैं जिसके मुंह में विज्ञापन की हड्डी है, जिससे वह उन पर भौंक नहीं सकता.’
गुजरात में विधानसभा चुनाव के दौरान अपने प्रचार अभियान की शुरुआत करने के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार पत्रकारों को डराकर लिखने से रोकती है.
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक राहुल गांधी ने कहा कि ‘मीडिया में ऐसे भी लोग हैं जो मोदी जी के खिलाफ लिखना चाहते हैं पर तानाशाही का समय है, उन्हें डराया जाता है, पीटा जाता है. मीडिया को किसान और छोटे व्यापारी नहीं चलाते, उसको मोदी जी के दो-चार दोस्त चलाते हैं.’
बीते नवंबर में आई एक खबर में कहा गया कि केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अपने अधिकारियों को फरमान जारी किया है कि सक्षम अधिकारियों की इजाजत के बगैर वे मीडिया से बात नहीं करें.
मंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी कर अपने मातहत आने वाले सभी विभागों के अधिकारियों से कहा है कि वे सक्षम अधिकारियों की अनुमति के बगैर मीडिया से बात करने से परहेज करें.
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सर्कुलर में पत्र सूचना कार्यालय पीआईबी की एक नियमावली का भी हवाला दिया गया है जिसके मुताबिक, सिर्फ मंत्री, सचिव एवं विशेष तौर पर अधिकृत अधिकारी ही मीडिया को सूचना दे सकते हैं या मीडिया के प्रतिनिधियों के लिए उपलब्ध हो सकते हैं. मंत्रालय के तहत आने वाली सभी मीडिया इकाइयों और स्वायत्त संस्थाओं के प्रमुखों को यह सर्कुलर भेजा गया था.
बीते साल ही कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष केबी कोलीवाड ने विधायकों के ख़िलाफ़ लेख लिखने के मामले में जाने-माने पत्रकार रवि बेलागेरे समेत कन्नड़ पत्रिका के दो पत्रकारों को एक साल जेल की सज़ा सुना दी थी.
हरियाणा में मीडिया पर हमले के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने मीडिया को सावधान रहने की की नसीहत दी तो लोकसभा अध्यक्ष ने बयान दिया कि पत्रकारों को नारद की तरह बनना चाहिए. अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए.
इस पर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने लिखा,‘वे कहती हैं कि सरकार से बोलो तो ज़रा प्रेम से बोलो. अगर आप हमें नारद बनाना चाहते हैं तो हमें इंद्र के दरबार के देवताओं की शक़्लें भी तो दिखा दीजिए. कौन हैं इनमें से जो देवता होने की योग्यता रखते हैं जिनके लिए हम नारद बन जाएं और अप्रिय सत्य न कहें. और वो भी सत्य वो तय कर रही हैं कि क्या प्रिय सत्य होगा, क्या अप्रिय सत्य होगा.’
आगे उन्होंने लिखा,‘जो डर का नेशनल प्रोजेक्ट है, वो पूरा हो गया है. हाइवे बनने से पहले, सबको नौकरी मिलने से पहले डर सबको दे दिया गया है. हर व्यक्ति के लिए डर एक रोज़गार है और हम तरह तरह से डर रहे हैं… जो गोदी मीडिया है, वही हिंदुस्तान में सुरक्षित है. आप गोद में बैठ जाइए, आपको कहीं कोई कुछ नहीं बोलेगा. भजन करते रहिए, तानपुरा ले लीजिए, नारायण नारायण करते रहिए टेलीविज़न पर बैठकर. ये हमारे स्पीकर हैं, जिनको लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्थिति में माना जाता है, उनके इस तरह के विचार हैं.’
पिछले साल अक्टूबर में मीडिया एवं पत्रकारों की स्वतंत्रता पर निगरानी रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों द्वारा बहस के जरिये देशप्रेम के मानक तय करने की कोशिश के कारण मुख्यधारा के मीडिया में सेल्फ-सेंसरशिप की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
रपट में कहा गया कि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों ने पत्रकारों को लक्षित करके बार-बार ऐसी धमकी दी है. रपट में गौरी लंकेश और शांतनु भौमिक की हत्या का संदर्भ देते हुए कहा गया है कि यह धमकियां कई बार मौत में भी तब्दील हो गईं.
रपट में मोदी सरकार से आग्रह किया गया है कि उसे लक्षित पत्रकारों के प्रति अपना समर्थन प्रदर्शित करना चाहिए और इस प्रकार के नफरत संदेशों की स्पष्ट रूप से निंदा करना चाहिए.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरडब्ल्यूबी) द्वारा ‘मोदी के राष्ट्रवाद से ख़तरा’ शीर्षक से जारी एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्ववादियों द्वारा ‘देशद्रोह’ की बहस के चलते मुख्यधारा के मीडिया में सेल्फ-सेंसरशिप बढ़ रही है. प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर संस्था की ओर से किए गए अध्ययन में कहा गया कि 180 देशों की सूची में भारत 136वें स्थान पर है.
अंत में, वरिष्ठ पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी के लेख का यह हिस्सा गौर करने लायक है कि ‘मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए है. पत्रकारिता में इसके अलावा सब कुछ सिर्फ जन-संपर्क की कवायद है. सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए पूरे पन्ने का विज्ञापन देने के लिए तो आजाद है ही.
लेकिन, ऐसा लगता है कि अब हम एक नए भारत में रह रहे हैं, जहां महज साढ़े तीन वर्षों में प्रेस और सरकार के दायित्व और मायने में इतने आश्यर्चजनक रफ्तार से बदलाव आया है कि लोकतंत्र में चौथे खंभे की जरूरत पर खुद मीडिया द्वारा ही सवाल उठाए जा रहे हैं.’
‘जरा निम्नलिखित तथ्यों पर गौर कीजिए. मोदी की पहचान एक ‘संवाद में माहिर’ नेता की है, लेकिन 26 मई, 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक उन्होंने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है. किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस करना स्वतंत्र मीडिया पर (जिसे वर्तमान सरकार सिकुलर्स और प्रेसिट्यूट्स कहकर पुकारती है) किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि यह सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है.
सत्ता से सवाल पूछना स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. सोशल मीडिया के जरिए मोदी का सम्मानित बुजुर्ग जैसा इकतरफा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाला उनका निजी एकालाप, वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है. इसे हद से हद सवालों से बचने की रणनीति कहा जा सकता है.’
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मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अब तक अपने कार्यकाल में कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है. ऐसा भाजपा नीत राजग गठबंधन सरकार के केंद्र में रहने के दौरान हो रहा है, ऐसा नहीं है. इसके पहले गांधी और नेहरू की महान विरासत के बोझ से दबी कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन के समय भी मीडिया नियंत्रण की महान कोशिशें की गईं.
2012 में वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मधु त्रेहन के साथ एक इंटरव्यू में कहा था, ‘सरकार ने मीडिया ब्रीफिंग के लिए एक व्यवस्था की है जिससे मीडिया के भीतर सरकार के खिलाफ जो गुबार निकलता है, वो न निकले.’
सरकार ने मंत्रियों का ग्रुप बनाया जो मीडिया को एडवाइजरी जारी करता था कि आप इसे छापें, इसे न छापें. वाजपेयी का आकलन था, ‘संपादक बहुत डरा हुआ है, दूसरे, सत्ता में रहने का सुकून हर कोई पाना चाहता है, इसलिए वही उसको मान्यता भी दिला देता है.’
पुण्य प्रसून वाजपेयी के मुताबिक, तेलंगाना आंदोलन, अन्ना आंदोलन, जनरल वीके सिंह की उम्र संबंधी विवाद आदि में सरकार ने एडवाइजरी जारी की और अधिकांश मीडिया ने उसका अनुसरण किया… सत्ता से नजदीकी बनाकर रखना और बाकी सारे संकट को भूल जाना, और उसी के इर्द-गिर्द पत्रकारिता करना, ये एक नया ट्रेंड आ गया है.
ज़ाहिर है कि यूपीए के दौरान शुरू हुआ यह ट्रेंड ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ एनडीए के ‘न्यू इंडिया’ में विकसित हो रहा है.
यूपीए के बाद के दौर में यह भी देखने को मिला कि मीडिया दो धड़ों में विभाजित हो गया- एक दक्षिणपंथ समर्थक राष्ट्रवादी मीडिया और दूसरा उसका विरोधी ‘देशद्रोही’ मीडिया.
मीडिया का जो स्टैंड कभी जनसमर्थक अथवा उदारवादी लोकतांत्रिक रुख माना जाता था, उसे देशविरोधी, हिंदूविरोधी, धर्मविरोधी अथवा जनविरोधी कहकर प्रचारित किया जाने लगा. इस तरह सरकार की आलोचना को राष्ट्र के खिलाफ अपराध की श्रेणी में डालने की कोशिश हुई है.
अब देखना यह है कि मीडिया को नियंत्रित करने की यह कोशिशें आगे क्या रूप लेती हैं.