साक्षात्कार: उत्तर प्रदेश में सपा बसपा के संभावित गठजोड़, पूर्वोत्तर में लेफ्ट की हार और कांग्रेस के भविष्य पर समाजशास्त्री और जेएनयू में प्रोफेसर विवेक कुमार से बातचीत.
उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में बसपा ने अपनी धुरविरोधी सपा को समर्थन देने की घोषणा की है. विश्लेषक इसके बाद इनके बीच गठबंधन की संभावना जता रहे हैं. इस गठजोड़ को कैसे देखते हैं?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मायावती और मुलायम को लेकर जो वक्तव्य दिया है, वो कहीं न कहीं बताता है कि मौजूदा सरकार के लोग डरे हुए हैं. ये निजी हमला मुख्यमंत्री का डर दिखाता है कि अगर ये दोनों साथ आते हैं तो परिणाम मौजूदा सरकार के बिलकुल विपरीत होगा.
इस तरह की भाषा एक शीर्ष नेता को शोभा नहीं देती है. बसपा ने अनौपचारिक रूप से सिर्फ इतना कहा है कि जिस सीट पर जो मजबूत होगा उसे समर्थन देंगे. सिर्फ इतना कहने मात्र से मुख्यमंत्री और मंत्री बौखला जाए, तो ये साबित करता है कि जमीनी स्तर पर कुछ तो सच्चाई है जो भाजपा को परेशान कर रही है.
दूसरी बात यह है कि कुछ लोग इतिहास (गेस्ट हाउस विवाद) याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. ये सिर्फ दरार पैदा करने की नीयत से किया जा रहा है. एक सोची समझी रणनीति के तहत इतिहास के नाम पर दो पीड़ित और दबे-पिछड़े लोगों में दरार पैदा करने का काम हो रहा है. यही बौखलाहट ये प्रमाणित करती है कि दोनों अगर साथ आते हैं तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की राजनीति नहीं बल्कि देश की राजनीति में भी भूचाल आ सकता है.
सपा नेता अखिलेश यादव कई बार गठबंधन की पेशकश कर चुके हैं, लेकिन बसपा नेता मायावती ने हमेशा इससे इनकार किया जबकि उनकी पार्टी अभी ज्यादा बुरी स्थिति में हैं. क्या कारण हो सकते हैं कि मायावती औपचारिक रूप से गठबंधन नहीं करना चाहतीं?
देखिए राजनीति में रणनीति होती है और उसका खुलासा नहीं किया जाता. क्या मायावती को इतना अपरिपक्व समझा जा रहा है कि वो अपनी रणनीति सबको बता देगीं. राजनीति में इस तरह अपने पत्ते नहीं खोले जाते. सपा-बसपा गठबंधन की बात करें तो 1993 में मान्यवर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन किया था और बहुजनों के लिए सबसे बड़े राजनीतिक पटल का निर्माण किया था.
लोगों को यह समझना होगा कि इस तरह का गठबंधन पहले भी हुआ है और वो सफल भी रहा, वो भी तब जब भाजपा अपने चरम पर थी. उसे सरकार से बाहर होने की सांत्वना भी मिल रही थी और बाबरी जैसा कांड भी हुआ था. उसके बावजूद दोनों दलों ने साथ आकर उसे रोका.
ये नारा सार्थक हुआ कि मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्री राम. ये जो एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक का युग्म है और जो सफल भी रहा है, अगर दोहराया जाता है तो परिणाम वैसे ही होंगे.
धर्म के नाम पर जो एक करने का काम है वो इस तरह के गठबंधन के बाद बहुत छोटा हो जाता है और धार्मिक कट्टरता से ज्यादा फिर सामाजिक न्याय की लड़ाई महत्वपूर्ण हो जाती है.
अगर दोनों शीर्ष नेता जनता को यह समझाने में सफल हो जाते हैं, तो यकीनन भारतीय राजनीति में जल्द भूचाल आने वाला है.
उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा मुख्य विरोधी दल रहे हैं. दोनों दलों के कार्यकर्ता जो इतने सालों से एक दूसरे से लड़ते आए हैं, क्या अब साथ काम कर पाएंगे?
देखिए दोनों दलों में कुछ ही लोग होंगे, जो एक दूसरे से नफरत करते होंगे. अमूमन दोनों पार्टी में पिछड़े और दलित समुदाय के लोग हैं, जिनकी पीड़ा एक समान है. दोनों ही हजारों साल से प्रताड़ित किए गए हैं. दोनों बहुजन समाज का हिस्सा हैं और इसलिए अमूमन लोग इस भावना के साथ हैं कि देश के सभी दलित-पिछड़ों को साथ आना चाहिए और मनुवाद के खिलाफ लड़ना चाहिए.
दोनों में सत्ता को लेकर दरार आई थी क्योंकि उन्हें बताया गया था कि सत्ता कैसे पानी है लेकिन उन्हें भोगना नहीं आता था. दोनों नेताओं में भले ही एक दूसरे को लेकर मनभेद हो सकता है, लेकिन दोनों समाज के लोगों में कोई भी मतभेद या मनभेद नहीं है और दोनों पीड़ित समाज के साथ रहे हैं और रहेंगे.
सवर्ण पार्टियों ने तो दोनों समाज से नफरत ही की है. उत्तर प्रदेश सरकार में पिछड़ा कहां है? दलित कहां है? मुस्लिम कहां है? अतिपिछड़ा और महादलित कहां है? जो मामूली लोग हैं वो भी नाम के लिए हैं.
भाजपा और मौजूदा सरकार बताए वो योजना कहां है? वो आदर्श आंबेडकर गांव योजना कहां है? क्या इस सरकार के पास कोई रोड मैप है. सपा-बसपा गांव की पार्टी हैं और उनके पास गांव को लेकर जो योजना है, वह न योगी के पास है न मोदी के पास है.
शिक्षा व्यवस्था में भी दलित पिछड़ों को रोकने के लिए सरकार आमादा है. वह नहीं चाहती कि वे उच्च शिक्षा में पहुंचे, इसलिए विभागानुसार आरक्षण लाने की योजना बना रही है.
सरकार का पैसा जनता का पैसा है और वो सामाजिक न्याय के लिए इस्तेमाल नहीं होता तो ये गंभीर समस्या है. ये सरकार बिना बोले पिछड़े और दलितों का बहिष्कार कर रही है और इसीलिए सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सभी को एक जुट होना होगा.
उत्तर प्रदेश की तरह बहुजनों को किसी अन्य राज्य में राजनीतिक सफलता क्यों नहीं मिल रही है?
मैं पंजाब की बात करना चाहूंगा जहां दलित सबसे ज्यादा हैं लेकिन वहां सिख धर्म का मसला है, जिसमें मानवता की बात बहुत ज्यादा है.
जाति शोषण तो होता है, लेकिन उनके पास वो धर्म का छलावा है जो राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने से रोकता है. वहां 2002 तक दलितों को जमीन रखने नहीं दिया जाता था और नौकरीपेशा में भी दलित न के बराबर हैं. शिक्षा में भी यही हाल है, जिसके चलते उत्तर प्रदेश जैसा काम नहीं हो पाया.
बिहार में लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और पिछड़ों और दलितों की आवाज बने. अब उनका बेटा तेजस्वी यादव भी उनकी तरह करिश्माई युवक है तो बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई सही हाथों में रही है और अब ही है.
उत्तर प्रदेश का मामला सब से अलग है. वहां रविदास का आंदोलन हुआ है. कबीर का आंदोलन हुआ है. स्वामी अछूतानंद का आंदोलन हो चुका है. यहां दलितों के पास एक चौथाई एकड़ जमीन है. देश के सबसे बड़े दो कारखाने वहीं हैं, जिसमें दलित भारी संख्या में हैं और उसी से कांशीराम ने चेतना जगाई और बामसेफ आंदोलन के साथ जोड़ने का काम किया.
हर राज्य में अलग-अलग तरह का समाजिक चेतना का काम हुआ लेकिन पार्टियों के साथ गठबंधन करने के बजाय कांशीराम ने समाज के साथ गठबंधन करने का काम किया और उसी के चलते सफलता मिली और सत्ता पर कई दफा काबिज़ होने का मौका मिला.
उत्तर प्रदेश में बसपा की हालत के लिए राजनीतिक विश्लेषक मायावती को जिम्मेदार मानते है. उनका कहना है कि मायावती ने पार्टी में किसी और नेता को उभरने नहीं दिया.आपका नजरिया क्या है?
अगर नेता नहीं होते तो बसपा अखिल भारतीय पार्टी बनती? पार्टी में बहुत सारे समाज और वर्ग के नेता और सभी को बराबर नेतृत्व देने का काम हुआ है.
चुनावों में बसपा जितना धर्मनिरपेक्ष बनकर टिकट देती है, उतना कोई नहीं करता. नेता आते-जाते रहते हैं, लेकिन पार्टी चलती रहती है, क्योंकि उसके पास के मजबूत विचारधारा है और एक कुशल नेता है.
चुनाव आते-जाते रहते हैं और उससे विचारधारा और पार्टी पर कोई असर नहीं पड़ता. पार्टी का अगला नेता कौन है ये समय आने पर पता चल जायेगा, फिलहाल मायावती खुद इतनी सक्षम हैं कि पार्टी को चला सकती हैं.
मीडिया और मनुवादी पार्टी उनको हमेशा कम आंकते रहे हैं. लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है. इन लोगों ने वोट तो दलित-पिछड़ों से लिया लेकिन मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो किसी ठाकुर को बना दिया, किसी ब्राह्मण को बना दिया.
वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा. जिसका जितना वोट लिया है, उस समाज को सत्ता में उतनी भागीदारी देनी होगी जो भाजपा नहीं कर रही है.
यही अगर सामाजिक न्याय की बात करने वाले सत्ता में आते हैं तो पिछड़े और दलित समाज का कोई मुख्यमंत्री बनेगा और बाकी समाज को भी हिस्सेदारी दी जाएगी.
अखिलेश और मुलायम में कितना अंतर देखते हैं?
देखिए मुलायम और अखिलेश में बहुत अंतर है. मुलायम जमीनी नेता हैं और आज भी गांव स्तर पर उनसे अच्छी पकड़ समाजवादी पार्टी में किसी की नहीं है. अखिलेश आधुनिक नेता और अभी जमीन पर नहीं पहुंच पाए हैं और वे इंसान से ज्यादा मशीन पर भरोसा करते हैं.
2012-2017 के बीच में उन्हें काफी कुछ सीखने मिला है और वे भी आगे चल कर मुलायम की तरह परिपक्व हो जाएंगे. राजनीति में एक साल एक युग के बराबर होता है और 5 साल में उन्होंने काफी कुछ सीखा होगा.
प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करके वो सवर्ण वोट लेना चाहा लेकिन जहां भाजपा दिखी तो सभी सवर्ण उसमें भाग गए. तो मुझे लगता है गलती से आदमी सीखता है और उन्हें भी अंदाज़ा लग गया होगा कि अब सामाजिक न्याय की लड़ाई और बहुजन एकता ही वापस सत्ता में ला सकती है.
मुलायम की तरह उन्हें भी जमीनी स्तर पर काम करना चाहिए और गांव की यात्रा करनी चाहिए. मुलायम एक बार किसी को मिल लें तो कभी नहीं भूलते उसी प्रकार अखिलेश को भी यह सीखना होगा. अपने समाज को समझना होगा जो मजदूर वर्ग से आता है और गरीब है.
अब वे धीमी आवाज में संख्या के आधार पर आरक्षण की बात भी करने लगे हैं और यह संकेत है कि वे अब समझ रहे हैं और परिपक्व बन रहे हैं.
मुझे लगता है सपा और बसपा की बात करें तो दोनों एक ही भावना रखते हैं और दोनों समाज के लोगों को अपमानित किया गया है और दोनों की अस्मिता को खंडित किया गया है.
जब यह बात आ जाती है तो दोनों के साथ आने में कोई शर्त नहीं होती और वे एक ही भावना के तहत साथ आते हैं और काम करते हैं.
पूर्वोत्तर में लेफ्ट की हार को कैसे देखते हैं?
लेफ्ट खुद लोकतांत्रिक है क्या? मुझे बताइए लेफ्ट में वो कौन सा नेता है, जिसे दलित और आदिवासी समुदाय के लोग अपना समझे.
क्या वो उनके बीच का लगता है? क्या लेफ्ट में दलितों और आदिवासी को शीर्ष पर पहुंचने दिया जाता है? क्या लेफ्ट का कोई शीर्ष नेता दलित या आदिवासी समुदाय से है? नहीं है.
वे भी भाजपा और कांग्रेस की तरह मनुवाद से किनारा नहीं करते. वे खुलकर जातिप्रथा के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ते. वे भी सभी दलों की तरह प्रतीकात्मक राजनीति करते हैं.
लेफ्ट के पास कोई योजना नहीं है और न ही कोई चेहरा जिसमें जनता अपना भविष्य देख सके. लेफ्ट सिर्फ 4-5 आदमी की पार्टी है और वही लोग कई सालों से अब भी टिके हुए हैं.
मुझे बताइए कि लेफ्ट ने इतने सालों में कितने दलित, पिछड़े या अल्पसंख्यक समुदाय के नेता इस समाज को दिया है. एक भी नेता नहीं पैदा कर पाए, तो बताइए कैसे बहुजन समाज के लोग उनका साथ देंगे.
चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट के लोग भी भाजपा में शामिल हो गए. तो क्या उनकी विचारधारा इतनी कमजोर है? क्या लेफ्ट सिर्फ सत्ता के लिए है? 20 साल राज करने के बाद भी वो उस समाज को नहीं बना पाया जो साम्यवाद पर चल सके.
केरल में लेफ्ट है लेकिन वहां 86 प्रतिशत दलित अब भी बिना जमीन के हैं और जातीय हिंसा होती रहती है. वे वहां भी उस तरह का समाज निर्मित नहीं कर पाए, तो क्या उनकी विचारधारा सिर्फ सत्ता के लिए हैं.
अगर विचारधारा सत्ता के लिए है, तो हारना-जीतना इतना महत्व नहीं रखता. मुझे लगता है ये लेफ्ट की विफलता है जो साम्यवाद वाला समाज निर्मित नहीं कर पाया और वो भाजपा जैसी पूंजीवादी और मनुवादी पार्टी की तरफ चला गया.
भले ही वो पैसे के बल पर गया होगा लेकिन उसमें भी तो लेफ्ट की गलती है कि 20 साल में उसने समाज को उसी के बीच का नेता नहीं दिया और न ही उस तरह का समाज बना पाया.
देश और उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका को कैसे देख रहे हैं?
देखिए 2017 के चुनाव में मुस्लिम भारी संख्या में बसपा में जा रहा था और इससे डरकर सपा ने कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया. लेकिन कांग्रेस साथी दलों का वोट खुद की तरफ कर लेती है लेकिन खुद का कोई भी वोट साथी दलों को नहीं दिलवा पाती.
वैसे भी प्रदेश में कांग्रेस के पास कोई वोट बैंक नहीं है. 60-70 प्रतिशत वोट भाजपा को मिला है, तो कांग्रेस के पास कुछ नहीं है. पूर्वोत्तर के चुनाव के नतीजों से पहले राहुल गांधी विदेश चले गए. अगर वे राष्ट्रीय राजनीति करना चाहते हैं तो इस तरह हल्के में काम नहीं कर सकते.
भारत में सरकार गांव बनाता है और नेता गांव में घूमने का काम नहीं करते. जिस प्रकार कांग्रेस की स्थिति है, उसे गांव की यात्रा करनी होगी और सिर्फ इस तरह की राजनीति करेंगे तो फिर सत्ता पाना लगभग मुश्किल हो जाएगा.
कांग्रेस को साथ में रखना कोई विचारधारा से समझौता नहीं बल्कि रणनीति का हिस्सा हो सकता है. मायावती भी भाजपा के साथ सरकार में थी, लेकिन कभी भी समझौता नहीं किया और जब भी अधिकार का हनन हुआ तो उन्होंने सत्ता को लात मार दी.
अगर वो चाहती तो नीतीश कुमार की तरह सत्ता में बनी रहती. लेकिन सत्ता का कभी लोभ नहीं बस समाज के हित के लिए निर्णय लिए हैं और जब लगा कि उसका हनन हो रहा है तो लात मार दिया.
समाज के लिए राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया. क्या इस तरह की सत्ता त्यागने की भावना किसी और दल में है? यहां पार्टी से निकाले जा चुके हैं, फिर भी राज्यसभा की सदस्यता के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच जा रहे हैं.