वर्तमान समाज को सहानुभूति की नहीं, समानुभूति की ज़रूरत है. आज नीति बनाने वालों में ही ‘समानुभूति’ का तत्व खत्म हो चुका है. नीति बनाते समय उन्हें आंकड़े चाहिए होते हैं, एहसास नहीं.
समानुभूति यानी जब ‘मैं’ नदी, चिड़िया, बच्चा या वह हो जाऊं! एक बच्चे की हत्या हो गई और मेरे बच्चे की हत्या हो गई, इन दो वाक्यों में क्या अंतर है?
एक घर जलकर ख़ाक हो गया और मेरा घर जलकर ख़ाक हो गया, इन दो वाक्यों में क्या अंतर है?
10 साल के बच्चे के साथ बलात्कार हुआ और 10 साल के मेरे बच्चे के साथ बलात्कार हुआ, इन दो वाक्यों में क्या अंतर है?
इस अंतर को समझने के लिए एक प्रयोग करना होगा. ऐसी किसी भी घटना या खबर में जब मैं अपने आप को रख देता हूं, तब मुझे ठीक वही एहसास होता है, जो उस बच्चे को या उसके माता-पिता को हुआ होगा और मैं समझ पाता हूं कि हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए!
कभी यह महसूस करना कि तुम एक किताब हो. कैसा महसूस होता है किताब बनकर? फिर देखना अगली बार किताब का पन्ना फाड़ते समय भीतर कैसा महसूस होता है!
एक तुर्की कहावत है कि ‘यदि कहना/बोलना चांदी है, तो सुनना सोना है’, पर हम सुनते नहीं हैं, हम जानते नहीं हैं. हम बस निर्णय लेते है और हत्या कर देते हैं!
हम में से कई लोग फेसबुक नामक संचार पटल का उपयोग करते हैं. अभी तक सबके लिए खुला है और हर कोई इसके जरिये अपने मन की बात व्यक्त कर सकता है, इस पर बंधन (कुछ शर्तों के अलावा) नहीं हैं और इस पर चर्चा-संवाद-बहस भी हो सकती है, इसलिए इसे सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया) कहा जाने लगा है.
इस मंच के जरिये 22 फरवरी 2018 को उबैद टी.यू. नाम के व्यक्ति ने फेसबुक पर खुद के द्वारा खींची गयी गयी एक तस्वीर साझा की. इसमें उनका मुस्कुराता आधा चेहरा दिखा रहा है और उनके पीछे एक दुबला-पतला व्यक्ति था, जिसकी अव्यवस्थित दाढ़ी थी, बिखरे हुए बाल थे, शर्ट खुली हुई थी, होठों पर चोट के निशान थे. शरीर पर धूल थी. इसके हाथ कपड़ों से ही बांधे गए थे.
मधु पर खाने के लिए चावल और किराने का कुछ सामान (कीमत 200 रुपये) चुराने का आरोप लगाया गया था, इसके लिए लोगों के एक समूह ने (जिसे हम भीड़ कह सकते हैं) तीस साल के मधु को अपराधी मानते हुए इतना पीटा कि कुछ समय में उसकी मौत हो गयी.
केरल से सबसे पिछड़े इलाके अट्टापदी की चिन्दक्की कॉलोनी के कुरुम्बा आदिवासी समुदाय से आने वाली मधु की मां मल्ली कहती हैं कि 10 साल पहले उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी, इसके बाद से वह जंगल में ही रहता था.
उसने कभी किसी को डराया नहीं, किसी को नुकसान नहीं पंहुचाया, फिर उससे कोई इतना कैसे डरा? जांच में पता चला कि मधु के खिलाफ कभी किसी तरह की शिकायत दर्ज नहीं हुई थी.
बहरहाल मुक्कली में किराने के सामन की छोटी चोरियों की वारदातें दर्ज हो रही थी और सीसीटीवी के किसी अंश में मधु चावल चुराते हुए दिखा. लोगों ने जंगल में जाकर उसके पकड़ा और उसे सजा दे दी. भीड़ ने उसके बारे में निर्णय ले लिए और सजा दे दी, जिसके बारे में वे जानते ही नहीं थे.
मधु एक इंसान था. मधु की हत्या एक बड़ा संकेत है कि हम बुनियादी मानवीय चरित्र खो रहे हैं. वह चरित्र है समानुभूति का. क्या हम मधु को मधु होकर महसूस नहीं कर सकते थे? मधु क्या था और उसके मन में क्या चल रहा था, यह मधु हुए बिना महसूस किया जा सकता है?
मधु के जीवन का अनुभव क्या था, जिसके कारण वह जंगल में रह रहा था! उसनें अगर चावल चुराया तो आखिर क्यों? क्या परिस्थितियां और भावनाएं थीं? उसने अपने आपको रोकने की कोशिश भी तो की थी! उसे चोरी में आनंद तो नहीं आ रहा था? उसने इसका परिणाम भी तो सोचा ही होगा?
उसने चोरी का निर्णय लेने से पहले अपने आप से बात की होगी, बहस की होगी, तर्क किये होंगे, रोका होगा! जब ‘मैं’ ‘मधु’ हो जाता हूं, तब मैं इन सभी सवालों और परिस्थितियों को खुद भी ‘जी’ पाता हूं. तब मैं जान पाता हूं कि मधु कौन है और उसने जो किया वह क्यों किया?
जब मैं यह जान लेता हूं, तब भी क्या ‘मैं’ मधु को अपराधी मानूंगा? क्या तब भी मैं मधु की हत्या करूंगा? समानुभूति का मतलब ही है देखना, जानना, महसूस करना और हो जाना! इसमें हम अपने से इतर ‘दूसरों’ के जीवन में उतारते हैं और उन्हीं की भावनाओं, विचारों, अवस्थाओं, तर्कों और परिस्थितियों की अंतर्दृष्टि से जीवन और जीवन की घटनाओं को जीते हैं.
- समानुभूति सहानुभूति से भिन्न तत्व है. सहानुभूति में हम मानेंगे कि ‘मधु के साथ ऐसा नहीं होना चहिये था. यह दुखद हुआ.’
- समानुभूति भावुकता से भी भिन्न तत्व है. भावुकता में हम मानेंगे कि ‘मधु के साथ घटी घटना से मुझे भी दर्द हुआ, यह घटना मुझे रुलाती है.’
- समानुभूति दया और करुणा से भी भिन्न तत्व है. दया और करुणा में में हम मानेंगे कि ‘“ओह, उसकी अवस्था कितनी दयनीय थी. उसे प्रेम से बिठा कर उसकी मदद की जाना चाहिए.’
- समानुभूति में हम खुद मधु हो जायेंगे. हम ठीक वही महसूस कर पाते हैं, जैसा मधु महसूस कर रहा है. हम महसूस कर पायेंगे उतना ही भय जितना मधु महसूस कर रहा है, वैसी ही हृदय की धड़कनें, जो मधु चावल चुराते समय महसूस कर रहा है, वैसा ही दर्द, जो मधु महसूस कर रहा है और वही एहसास जो मधु ने आखिरी वक्त में महसूस किया होगा.
अल्बर्ट आइंस्टीन कहते हैं कि ‘शांति ताकत से हासिल नहीं की जा सकती, यह केवल एहसास से हासिल की जा सकती है.’
अल्फ्रेड एडलर कहते हैं कि ‘दूसरे की आंख से देखना, दूसरे के कान से सुनना और दूसरे से हृदय से महसूस करना ही समानुभूति है.’
ऐसा करके हम जान सकते हैं कि जब मानव मल का टोकरा सिर पर रखा होता है और समाज मुझसे छुआछूत करता करता है, तब आंखें क्या देखती हैं और मन क्या सोचता है?
मानव स्वभाव में समानुभूति एक मूल चारित्रिक विशेषता है, जिसमें वह कल्पना और सपनों से शुरू होकर, समानुभूति तक पहुच सकता है. वह दूसरों के दर्द में खुद को महसूस कर सकता है और खुद के दर्द में दूसरों की उपस्थिति को भी जी सकता है.
प्लेटो और सुकरात के वक्त से यह सवाल बना रहा है कि क्या सद्गुण रचे और सद-व्यवहार सिखाये जा सकते हैं? जरा सोचिये कि जब एक व्यक्ति चिकित्सक बनता है तब वह अपनी भूमिका के मुताबिक एक शपथ लेता है कि वह नैतिकता के साथ और करुणा के साथ हर बीमार व्यक्ति का इलाज़ करेगा.
यह तभी संभव हो सकता है जब वह अपने भीतर स्व के प्रति समानुभूति के तत्व को स्थापित करे. वास्तव में समानुभूति प्रेम और करुणा की भावना से आगे की स्थिति है. जब मदद लेने वाला और मदद देने वाला दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं रह जाते हैं.
पारिस्थितिकी (यानी जमीन, मिट्टी, चिड़िया, हवा, पानी, सूर्य, जीव-जंतु, पेड़-पत्तियां सब कुछ) और मानव शरीर विद्युत चुंबकीय तंत्र और पारिस्थितिकी के विद्युत चुंबकीय तंत्र के बीच गहरा रिश्ता होता है. यदि कोई उथल-पुथल होने वाली होती है, तो उसका एहसास हमें होने लगता है, क्यों? क्योंकि रिश्ता तो है!
सूर्य ग्रहण के पहले ही बंदर खाना-पीना छोड़ देता है. जापान में पाया जाने वाला चावी पक्षी भूकंप आने के कई घंटे पहले उस स्थान को त्याग देते हैं. सुनामी के दौरान अंडमान और निकोबार के जारवा, ग्रेट अंडमानीज़, सेंटीनलीज़ आदिवासी सुरक्षित रहे क्योंकि हवा, समुद्र और पक्षियों की हलचल से उन्हें प्रकृति आपदा का एहसास हो गया था और वे सुरक्षित स्थानों पर चले गए.
कुदरत और मानव के संबंधों में सह-अस्तित्व का सिद्धांत बहुत प्रभावी है. यह महज़ कल्पना नहीं है कि जंगल के जीवों के साथ मानव समाज हमेशा से सह अस्तित्व में रहता आया है क्योंकि बाघ और इंसान एक दूसरे को महसूस कर सकते हैं.
अगर हम नदी के साथ समानुभूति का व्यवहार कर पायें, तो हमें महसूस होगा कि नदी हमें पानी देती नहीं नहीं है, हम उससे पानी ले लेते हैं! नदी का स्वभाव बहाना होता है, पर हम उस पर बांध बना देते हैं! नदी होकर महसूसते तो शायद नदी का सचमुच सम्मान करते और उसे गुलाम नहीं बनाते. इससे विलासिता में थोड़ा खलल जरूर पड़ता, लेकिनआने वाली पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित भी तो हो जाता.
अध्ययन बताते हैं कि समानुभूति के स्वभाव को सामान्यतः 2 वर्ष की आयु में महसूस किया जा सकता है, जब बच्चे असहज होने या भय होने पर दूसरों के गले लग जाते हैं, चूमे जाते हैं, यह उन्हें व्यवहार से बताया जाता है कि हम हैं, डरो मत. तब बच्चे ‘अपने पालक’ में समा से जाते हैं और सहज हो जाते हैं.
शिकागो विश्वविद्यालय के अध्ययन से पता चला कि 7 से 12 वर्ष की उम्र में नैसर्गिक रूप से बच्चे दूसरों के दर्द को अपना समझ कर महसूस करते हैं. वे केवल करुणा या दया का भाव नहीं रखता, बल्कि उन्हें दूसरे बच्चों की गरीबी, अभाव या चोट का दर्द खुद में महसूस होता है. यह एहसास चुनिन्दा लोगों के नहीं, बल्कि सभी के लिए होता है.
इसके बाद की उम्र में हमारे आसपड़ोस, वातावरण और पालन-पोषण से तय होता है कि हममें समानुभूति का स्वभाव बना रहेगा या नहीं? वास्तव में हमारी शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ताने बाने से हमने समानुभूति के तत्व को मिटा ही दिया है.
यही कारण है कि हम भ्रष्टाचार के असर और उससे मानवता को होने वाले आघात को महसूस की नहीं कर पाते हैं. नदी पर या पहाड़ों के बीच में बनने वाले पुल के व्यवसाय में भ्रष्टाचार का परिणाम भयावह दुर्घटना हो सकता है या फिर जंगलों की कटाई से धरती पर गर्मी बढ़ेगी और बर्फ के पहाड़ पिघलने लगेंगे, जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और तटीय इलाकों में बसे समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.
हम अपने व्यवहार में समानुभूति को मिटा कर विकास कर रहे हैं. हम बचपन से ही इंसान को आगे रहने और प्रतिस्पर्धा को हर हाल में जीतने का पाठ पढ़ा रहे हैं. ऐसा पाठ जिसमें समानुभूति का तत्व नदारद है. हम शिक्षा में बच्चों को ‘दूसरे’ के बारे में गहनता से सोचना-विचारना और उसे महसूस करना नहीं सिखाते हैं.
जब प्रतिस्पर्धा की नीति तय होती है, तब बच्चों को यह एहसास भी नहीं होता है कि आगे रहने के इस युद्ध में वे अपने ही सहपाठियों, अपने ही मित्रों से लड़ाई लड़ रहे हैं.
जरा विचार कीजिये कि वर्ष 2001 में भारत में बच्चों के साथ बलात्कार के 2,113 मामले दर्ज हुए थे, इनकी संख्या वर्ष 2016 में बढ़ कर 36,022 हो गयी. जब मानव में समानुभूति की भावना का ह्रास होता है, तब वह न तो रिश्ते समझ सकता है, न ही क़ानून.
उसमें हिंसा का भाव चरम पर पंहुचता है. वास्तव में हिंसा की समाप्ति क़ानून के डर या सजा से नहीं हो सकती है. इसके लिए समानुभूति का एहसास स्थापित करना अनिवार्यता है. जहां किसी भी व्यक्ति को एहसास हो को बचपन कितना कोमल और नाजुक होता है और बलात्कार से किसी भी व्यक्ति की अस्मिता को गहरी चोट पंहुचती है.
पिछले कुछ सालों से बड़ी बहस हो रही है कि बच्चे भी बहुत अपराध करने लगे हैं. हम निष्कर्ष पर पंहुच गए हैं कि बच्चे अपराधी होते ही हैं. सवाल यह है कि क्या हमारे समाज ने बच्चों के नज़रिए और उनके एहसास के माध्यम से दुनिया को देखने की कोशिश की है?
उनकी नज़र में तो दुनिया में बस आगे निकलने की होड़ है, किसी भी तरह से पूंजी पर कब्ज़ा हासिल करने की कोशिश ही मुख्य उपक्रम है, यहां हिंसा में ही आनंद का व्यापार चल रहा है? ऐसे में बचपन का रूप-स्वरूप क्या होगा?
वर्ष 2016 में 44,171 बच्चे (किशोरवय) किसी न किसी अपराध में गिरफ्तार किये गए. इनमें से केवल 2,289 (5.2 प्रतिशत) बच्चे ऐसे थे, जिन्होंने दूसरी बार कोई अपराध किया था.
क्या हमारा समाज पहली बार किसी कारण से अपराध करने वाले 41,882 बच्चे और 2289 बच्चों को एक ही नज़र से नहीं देखने लगा है! हमें ‘बच्चा’ होकर यह जांचना होगा कि उसने यदि कोई अपराध किया है, तो क्यों किया है?
वर्ष 2016 में विभिन्न अपराधों में 37,37,870 लोग गिरफ्तार किये गए, इनमें से 34,99,986 (93.6 प्रतिशत) लोग ऐसे थे, जो पहली बार किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार हुए थे, यानी आदतन अपराधी नहीं थे.
केवल 35,608 लोग ऐसे थे, जो तीसरी बार गिरफ्तार हुए थे. जब हम समाज से अपराध ख़त्म करने का सपना पालते हैं, तब हमें व्यक्ति के एहसास और उसके मन में स्थान बनाना होगा. आप और भी संख्याएं गिन सकते हैं, और भी उदाहरण इकठ्ठा कर सकते हैं. आखिर में आप यह जरूर पायेंगे कि अगर कहीं कुछ छूटा है, तो समानुभूति!
आज हमारी नीति बनाने वालों में ही ‘समानुभूति’ का तत्व खत्म हो चुका है. नीति बनाते समय उन्हें आंकड़े चाहिए होते हैं, एहसास नहीं. उन्हें यह एहसास ही नहीं होता है कि उनके विकास की नीति जो जहर उपज रहा है उससे चिड़िया मर रही है, उससे नदी जहरीली हो रही है और धुंआ बच्चों के फेफड़ों में जाकर जम रहा है.
उन्हें यह एहसास ही नहीं होता है कि जंगल और मिट्टी से प्रेम करने वाले परिवार को विस्थापित करना एक मानवीय आपदा है, पर उन्हें यह महज़ प्रशासकीय घटना लगती है. वे गर्भवती महिला के लिए जो योजना बनाते हैं, वह अमानवीय इसलिए हो जाती है क्योंकि योजना बनाने वाला समानुभूति के भाव के शव पर बैठकर योजना बनाता है और गर्भवती महिला के अवस्था को महसूस ही नहीं कर पाता है.
भारत के संविधान में समानुभूति का भाव दिखाई देता है, लेकिन अगर आज संविधान बना होता, तो उसमें समानुभूति का भाव नहीं होता.
जब समानुभूति का तत्व क्षीण होता है तब व्यक्ति हत्यारे का चरित्र अपना लेता है. संगठित होकर किसी भी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए आतंक का विस्तार कर रहे समूह बच्चों की हत्याएं और महिलाओं से बलात्कार कर पाते हैं, क्योंकि वे बच्चे और महिलायें होकर उनकी भावनाएं और पीड़ा को महसूस करने की क्षमता खो चुके हैं.
वे ‘मैं’ तक ही केंद्रित हो गए हैं और इसीलिए उन्हें आसानी से यह सिखाया जा सका है कि अपने लक्ष्य के लिए वे किसी की भी हत्या कर सकते हैं. हमें यह सवाल पूछना चहिये कि क्या हम हथियार और युद्ध के जरिये विकास का लक्ष्य हासिल करना चाहते हैं?
सामाजिक-आर्थिक बदलाव, पारिस्थितिकी असंतुलन या फिर दुनिया में शांति, इनमें से हर लक्ष्य समानुभूति से ही हासिल किया जा सकता है!
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता, कार्यकर्ता और अशोका फेलो हैं.)