जन्मदिन विशेष: कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद के संदर्भ में जो महत्व फ्रेडरिक एंगेल्स का है, डाॅ. राममनोहर लोहिया और समाजवाद के लिए वही महत्व बद्री विशाल पित्ती का है.
जब तक वे हमारे बीच थे, ‘हैदराबाद की पांचवीं मीनार’ थे. कहा जाता था कि कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद के लिए जो महत्व फ्रेडरिक एंगेल्स का है, डाॅ. राममनोहर लोहिया और समाजवाद के लिए वही उनका.
दूसरे शब्दों में कहें तो वे देश की उन कुछ खुशकिस्मत बड़ी शख्सियतों में से एक थे, जिन्हें उनके जीते जी ही भरपूर ख्याति और प्रासंगिकता हासिल हुई.
लेकिन अभी उन्हें हमारे बीच से गए पंद्रह साल ही हुए हैं और वे हमारी सामाजिक कृतघ्नता के ऐसे शिकार हो चले हैं कि जयंतियों और पुण्यतिथियों पर भी याद नहीं किए जाते.
उन समाजवादियों द्वारा भी नहीं, जो कभी उनके पुण्यों के सहारे बड़ी-बड़ी राजनीतिक वैतरणियां पार करने के अभियान शुरू करते या कि सपने देखा करते थे.
आप समझ गए होंगे, हम अपने वक्त में अप्रतिम नैतिक चमक से भरे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी रहे बद्री विशाल पित्ती की बात कर रहे हैं, आज जिनकी 90वीं जयंती है.
प्रसंगवश, 1928 में 29 मार्च को आंध्र प्रदेश में चारमीनार के शहर हैदराबाद में जिस मारवाड़ी उद्योगपति परिवार में उनका जन्म हुआ, वह कोई दो सौ साल पहले वहां बसा था और सत्ता में भागीदारी व सम्पन्नता दोनों की दृष्टि से उसके दिन सोने के और रातें चांदी की थीं.
दादा मोतीलाल पित्ती को वहां के निजाम ने ‘राजा बहादुर’ की उपाधि दे रखी थी और बद्री के रूप में उन्होंने पोते का मुंह देखा तो उन्हें कतई इल्म नहीं था कि एक दिन वह पोता सर्वथा अलग कारणों से अपना व्यक्तित्व इतना ऊंचा कर लेगा कि लोग उसे ‘हैदराबाद की एक और मीनार’ कहने लगेंगे.
इतना ही नहीं, यह मीनार इतनी ‘ऊंची’ हो जायेगी कि कोई उसकी चर्चा करने चलेगा तो समझ नहीं पायेगा कि बात को कहां से या कैसे शुरू करे और कहां खत्म. वह पूरी की पूरी किसी की भी पकड़ में नहीं आयेगी.
यकीनन, बद्री विशाल पित्ती की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताओं के इतने आयाम हैं कि वे किसी एक परिचय की परिधि में समाती ही नहीं हैं.
न उन्हें समाज, राजनीति, भाषा, शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, संगीत व अन्य कलाओं से गहरे सांस्कृतिक जुड़ाव वाला समाजवादी बौद्धिक कहकर उनके साथ पूरा न्याय किया जा सकता है, न समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया का अभिन्न, विश्वप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन का प्रथम पुरस्कर्ता, गंभीर ज्ञान-गरिमा व परिष्कृत रुचियों से सम्पन्न हैदराबाद का प्रथम नागरिक या साहित्य, कला व संगीत की त्रिवेणी बहाकर नई जनवादी नैतिकताओं व जीवन मूल्यों की स्थापना का अभिलाषी उत्सवधर्मी अतिरथी.
हां, इन सबको मिलाकर ही उनका कोई ऐसा चित्र बनाया जा सकता है, जो उनके वास्तविक व्यक्तित्व के किंचित निकट हो.
मकबूल फिदा हुसैन के संघर्ष के दिनों में तो कहते हैं कि बद्री विशाल पित्ती ने उनके लिए अपने हैदराबाद के घर को ही स्टूडियो बना दिया था.
हैदराबाद में हुसैन की शुरुआती प्रदर्शनियां भी उन्होंने ही आयोजित करायीं. उन्हें हुसैन की कलाकृतियों का ‘फर्स्ट इंडियन कलेक्टर’ भी कहा जाता है.
हैदराबाद के नामचीन लेखक सुवास कुमार तो साफ कहते हैं कि कार्ल मार्क्स और मार्क्सवाद के संदर्भ में जो महत्व फ्रेडरिक एंगेल्स का है, डाॅ. राममनोहर लोहिया और समाजवाद के लिए वही बद्री विशाल पित्ती का.
अलबत्ता, पित्ती ने फ्रेडरिक एंगेल्स की तरह पुस्तकें नहीं लिखीं, लेकिन इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता. अपने राजनीतिक आराध्य डाॅ. लोहिया के अनेक भाषणों के संरक्षण में उन्होंने कुछ भी उठा नहीं रखा.
कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि तत्कालीन हैदराबादी समाज की सारी की सारी अच्छाइयां पित्ती में पुंजीभूत हो गयी थीं.
उनमें परंपरा व आधुनिकता का दुर्लभ समन्वय था तो चट्टानी इरादों वाली धीरता भी. मीठी झीलों वाली नरमी और मुलायम शरीफाना रईसी मिजाज था, तो आम लोगों के दुख-दर्द में सच्ची सहानुभति का जज्बा भी.
अपने पुरखों द्वारा नाना प्रकार से जुटाये गये धन को उन्होंने अपने समाजवादी उद्देश्यों के लिए जी खोलकर खर्च किया.
1949 में, जब वे महज इक्कीस साल के थे, उन्होंने ‘कल्पना’ नाम की पत्रिका लांच की और अपने समाजवादी आग्रहों से मुक्त रखकर उसे बौद्धिक, राजनीतिक व साहित्यिक विचार-विमर्श के खुले मंच के रूप में विकसित किया.
उसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री में सबसे ज्यादा ध्यान तथ्यों की पवित्रता पर ही दिया जाता था. अपनी अनेक खूबियों के कारण ‘कल्पना’ जल्दी ही देश के अनेक लेखकों, कवियों, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, राजनीतिज्ञों और पत्रकारों व सामान्यजनों की कंठहार हो गई.
भवानीप्रसाद मिश्र, कृष्ण बलदेव वैद, रघुवीर सहाय, मणि मधुकर, शिवप्रसाद सिंह और प्रयाग शुक्ल आदि के लिए तो वह लॉन्चिंग पैड ही सिद्ध हुई.
मकबूल फिदा हुसैन द्वारा इसके मुखपृष्ठों के लिए बनाये गये अनेक चित्र अब ऐतिहासिक महत्व के हो गये हैं. डाॅ. लोहिया के कहने पर मकबूल ने रामायण श्रृंखला के जो अप्रतिम चित्र बनाये, वे भी पहले पहल ‘कल्पना’ में ही प्रकाशित हुए. यह पत्रिका 1978 तक जीवित रही.
पित्ती ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग लिया तो वे केवल 14 वर्ष के थे. हैदराबाद के ऐतिहासिक फ्रीडम मूवमेंट के दौरान उन्होंने भूमिगत रहकर ‘हैदराबाद रेडियो’ संचालित किया.
1955 में डाॅ. लोहिया के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी के गठन में तो उन्होंने धुरी व केंद्र दोनों की भूमिका निभाई ही, 1960 में पार्टी ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू किया तो उसके तहत जेल जाने वालों में भी अग्रणी रहे.
उनके पिता राजा पन्नालाल ने, जिन्हें अंग्रजों से नाइटहुड व सर जैसी उपाधियां प्राप्त थीं और जो हैदराबाद के निजाम के आर्थिक सलाहकार थे, आजादी के बाद रियासतों के एकीकरण के समय किए गए पुलिस कार्रवाई में निजाम के आत्मसमर्पण और हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
उनके पुत्र बद्री ने निजाम और अंग्रेजों दोनों के कुशासन के खिलाफ अपने अभियानों की सजा निष्कासित होकर और जेल जाकर भुगती.
इस सिलसिले में दिलचस्प यह भी कि उद्योगपति होने के बावजूद बद्री मजदूरों के खासे विश्वासपात्र थे. उन्होंने कुल मिलाकर 29 मजदूर यूनियनों का नेतृत्व किया और उनके बैनर पर मजदूरों की मांगों के समर्थन में अनेक अभियान चलाये.
एक बार वे आंध्र प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए, जबकि एक समय राज्यपाल बनने का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्हें धरातल पर रहकर जीने की आदत है और उनके लिए राजभवन में अपने समाजवादी मूल्यों के साथ जीना संभव नहीं होगा.
अपने समय के वरिष्ठ कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ राज्यसभा के सदस्य थे तो एक दिन बद्री उनसे मिलने गये. निवास के अंदर सूचना भिजवाकर वे बाहर बैठक में प्रतीक्षा कर रहे थे तो उनसे अपरिचित ‘दिनकर’ बाहर आये और उन्हीं से पूछ बैठे कि पित्ती जी कहां हैं?
पित्ती ने कहा कि मैं ही हूं तो ‘दिनकर’ का उत्तर था, ‘आप तो युवा हैं. आपके नाम और काम के मद्देनजर मैं समझता था, आप बुजुर्ग होंगे!’
अपनी प्रशंसा और सम्मान को लेकर उदासीन रहने वाले बद्री विशाल पुष्पगुच्छ, शाॅल और प्रशस्ति पत्र से यथासंभव परहेज बरतते थे और कभी इन्हें ‘स्वीकार’ करना ही पड़ जाये तो किसी नौजवान को अपने जैसे बुजुर्ग की भेंट बताकर दे देते थे.
उन्हें किसी भी तरह के अतिरेक और सामंती मानसिकता से चिढ़ थी जबकि खरे व्यक्तियों की पहचान कर उनसे मित्रता का उनका अपना ही तरीका था.
बिना वजह बरती जाने वाली औपचारिकताओं से उनका दम घुटने लगता था और वे सारे निजी व सामाजिक संबंधों में खुलेपन के हामी थे.
6 दिसंबर, 2003 को 76 ल की उम्र में अचानक हुए निधन के दो साल बाद 2005 में उन्हें हैदराबाद का प्रतिष्ठित ‘युद्धवीर’ सम्मान दिया गया था, जो स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और दैनिक मिलाप के संस्थापक युद्धवीर की स्मृति में दिया जाता है. वे यह सम्मान पाने वाली 14वीं शख्सियत बने.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)