भारत बंद पर सोशल मीडिया के हाई वोल्टेज ड्रामा को देखते हुए ये महसूस हुआ कि पुलिस और सरकार की विफलता पर बात नहीं करने की होशियारी और हिंसा के नाम पर असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की चालाकी ज़्यादा ख़तरनाक हिंसा है.
डोम हिंदू होते हैं और मुसलमान भी, ये और बात कि होते डोम ही हैं. मेरे गांव के एक कोने में भी ग़लाज़त और गंदगी बल्कि सड़ांध को नाक में बदबूदार और पेचीदा बनाती डोम-गली है, जिसको हिंदू या मुसलमानों का मोहल्ला नहीं कहते.
पर्व-त्योहार के उपहार में भी इनका हिस्सा एक भिक्षु से ज़्यादा का नहीं होता. ईद की नमाज़ पढ़ कर निकल रहे हैं तो ये ईदगाह के दरवाज़े पर हाथ फैलाए मिल जाएंगे, होली है तो आपके चूल्हे पर पकने वाले गोश्त की दो बूटी की लालच उनकी आंखों में तैरती नज़र आएगी.
शादी ब्याह है तो बांस की बनी टोकरी जिसको हमारे यहां छीटा बोलते हैं, उससे दो पैसे की कमाई और ख़ुशनामा वाली 100-50 की रक़म उनके हिस्से चली आई तो आई, साथ में दो गाली भी सौग़ात की सूरत में, जिसको हमारे समाज में हास्य के नाम पर कुछ लोगों ने अपना अधिकार समझ लिया है.
इनका नाम भी हमारे लिए अहमियत नहीं रखता, इसलिए हम इसको ‘रे साला डोमवा’ बुलाते हैं. तो ये ‘रे साला डोमवा’ बांस की बत्ती चीर कर घरेलू सामान जैसे टोकरी बनाने के अलावा मैला ढोता है. इनके आंगन और ओसारे की मिट्टी में मलमूत्र की सड़ांध को इनके पाले हुए सूअर हमेशा ताज़ा रखते हैं. एक ख़ास तरह की बास वहां हमेशा फैली रहती है और बरसात की उबलती नालियों से ज़्यादा काली मिट्टी का ज़ायका इसमें घुलता रहता है.
बचपन से हमने उनको इसी तरह रहते देखा है, यूं भी कह सकते हैं कि उनके रहन-सहन को हमें इसी तरह देखने को कहा गया. नतीजे में हम बहुत दिनों तक यही समझते आए कि डोम वो होता है जो पाख़ाना साफ़ करता है और पाख़ाना खाने वाले इस काले जानवर के साथ रहता है.
अब सवाल ये है कि मैं आपको ये सब क्यों बता रहा हूं और इसमें कौन सी नई बात है. हर गांव में ये लोग शायद ऐसे ही ग़लाज़त और गंदगी में पाए जाते हैं. और ऐसी जगहों का कोई गौरवशाली इतिहास भी नहीं होता, संयोग से ऐसा कोई इतिहास हो भी तो उसकी चर्चा नहीं की जा सकती. लेकिन मेरे लिए मेरे गांव में मुसहर टोली के पास एकमात्र डोम-गली ही वो जगह है जिसकी चर्चा मैं अक्सर फ़ख़्र से करता हूं.
दरअसल उर्दू साहित्य के एक पन्ने से संयोगवश इस गली का नाम जुड़ा हुआ है. हालांकि इस प्रसंग से यहां के लोग आम तौर पर वाक़िफ़ नहीं है. लेकिन मैं ज़ोर देकर ये कहना चाहता हूं कि इस बात की चर्चा उस किताब में की गई है जो प्रगतिशील आलोचक मोहम्मद हसन की फ़रमाइश पर लिखी गई और जिसकी तुलना अपने समय में मजरूह सुल्तानपुरी ने मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा से ये कहते हुए की थी कि दुनिया में दो ही आत्मकथा लिखी गई है एक मैक्सिम गोर्की और दूसरी ओवेस अहमद दौरां की…और इस बात की गवाही हमारे समय के सबसे बड़े उपन्यासकार क़ाज़ी अबदुस्सत्तार ने दी.
तो बात आपातकाल की है कि उस ज़माने में शायरों और साहित्यकारों को जेल में डाला जा रहा था. उसी ज़माने में पुलिस की नज़रों से बचते हुए उर्दू का यही शायर ओवैस अहमद दौरां हमारे गांव की तरफ़ आ निकला और डोम के घर पनाह लेने को ‘मजबूर’ हुआ.
इस बात की चर्चा उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरी कहानी’ में बहुत दर्दनाक अंदाज़ में की है और ये भी लिखा कि ये लिखते हुए मेरा क़लम थरथरा रहा है कि मेरा कॉमरेड मेहतर था और उसकी मैली कुचैली बीवी मेहतरानी.
उठो और इस कमीना ज़लील निज़ाम-ए-हयात को तहस नहस कर दो ताकि इंसान इंसान रहे. मेहतर और डोम नहीं रहे. हर शख़्स के पास रहने के लिए मकान हो और उसमें तारीकी-ओ-बदबू नहीं हो.फिर दौरां ने उनके घर से रुख़्सत होते हुए कहा,
इन में तो कोई रौनक़ नहीं है, ख़ुशबू नहीं है
दौरां बताओ, तुम्ही बताओ ये किन के घर हैं
उस समय की सरकार के लिए इस बाग़ी शायर को पनाह देने, उसको खाना खिलाने और अपने बिस्तर पर सुलाने की दिलेरी एक डोम के अंदर कहां से आई होगी और उसकी पत्नी के लिए ये कैसा अनुभव रहा होगा? ये बात जब मैंने एक बार दौरां साहब से पूछी तो वो मुस्कुरा कर रह गए और ये जान कर मुझ से ज़्यादा मोहब्बत करने लगे थे कि मैं उसी गांव का हूं.
अफ़सोस कि आज हमारा ये शायर हमारे साथ नहीं है. लेकिन उनका कहा और लिखा बहुत कुछ है जो साहित्य और समाज के रिश्ते को समझाता है.
ख़ैर अपनी तरह की इस पहली घटना के बारे में जब मैंने पढ़ा था तो महसूस हुआ था कि पाख़ाना साफ़ करने वाले और सूअर के साथ रहने वाले इस समाज के बारे में मैं कुछ नहीं जानता. हां ये मेरे जीवन की पहली घटना थी जब मैंने किसी साफ़ सुथरे और सभ्य मनुष्य की किताब में डोम के लिए सम्मान के दो शब्द पढ़े थे.
आपातकाल ने हाशिए की जिस गली को उर्दू साहित्य में जगह दी, वो गली आज भी उसी तरह उसी हालत में अपने आसपास की एलइडी वाली चमक से बेख़बर हमारी ग़लाज़त के अंधेरों में ऊंघ रही है. उस समाज का कोई भी बच्चा आज भी सर्व शिक्षा अभियान के बारे में नहीं जानता और बांस के कच्चे-पन से अपने पेट की भूख चीरता रहता है.
आज इस गली की याद अचानक नहीं आई. 2 अप्रैल के भारत बंद में दलितों की कथित हिंसा की ख़बरों ने मुझे यक़ीन ही करने नहीं दिया कि हमारा वंचित और पीड़ित समाज जो एक लंबे संघर्ष के बाद लोकतंत्र में अपने अधिकार को कुछ-कुछ हासिल कर पाया है वो हिंसा भी कर सकता है. और अपने ही दलित भाईयों की जान भी ले सकता है.
अजीब बात है कि ख़बरों की सुर्ख़ियों और हेडलाइन के बीच जाने क्यों हिंसा के नाम पर मुझे बथानी टोले की याद आई, साथ ही घोड़ी पर बैठने वाले दलित के कटे सर की याद आई तो फिर हिंसा के एक लंबे इतिहास में दमनकारी व्यवस्था का ख़याल भी आने लगा, जिसको मैंने मोटे तौर पर समेटने की कोशिश की तो लगा कि जिस समाज में हर्षवर्धन के दरबार का इतिहास मौजूद है, उसी दरबार के दलित कवि की चर्चा केवल एक चीनी सैलानी की यात्रा वृतांत में सिमट कर रह गई है क्यों?
आख़िर किस सोच ने उसकी रचनाएं नष्ट की होंगी? और एकलव्य का अंगूठा काट कर क्षत्रिय के बेटे को आगे बढ़ाने वाली सोच में जो हिंसा है क्या आज वही दलितों को हिंसा का पाठ नहीं पढ़ा रही. और क्या रजिया सुल्तान और हब्शी की मोहब्बत के सदमे में रज़िया को जान से मार देने वाली सोच भी इस आंदोलन को बदनाम करने सक्रिय नहीं है.
और क्या दलितों की प्रेम कथा से आहत हो जाने वाले इस समाज ने प्रेमियों के होंठ पत्थरों से नहीं कुचले? और क्या दलित छात्रा के पानी भर पी लेने की जुरअत पर उसकी आंख इस समाज ने नहीं निकाली? ख़ैर हमें मंगल पांडेय याद रहते हैं, मातादीन नहीं कि इसी दलित ने 1857 के विद्रोह में एक सक्रिय भूमिका निभाई थी. लक्ष्मीबाई याद रहती हैं उनकी दलित सिपाही झलकारीबाई नहीं, जिसने रानी के लिए शहादत का जाम तक पी लिया.
लेकिन ये वो क़िस्से हैं जिनसे हम कुछ-कुछ वाक़िफ़ हैं, उन क़िस्सों का क्या जो इतिहास में दर्ज ही नहीं किए गए. क्या ये सब बातें इस से अलग और अचानक हैं कि एक दिन के भारत बंद में मीडिया और सोशल मीडिया पर गांधी-आंबेडकर को याद कर लिया गया. हिंसा के बहाने दलितों के चरित्र तक पर बात की जाने लगी.
सो जब ये सवाल और कहानियां मेरे सामने साए की तरह फैलने लगे तो मुझे ख़बरों की सुर्ख़ियों और हेडलाइन के साथ सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं का जवाब मिलने लगा कि दलित होना ही इनका अपराध है सबसे बड़ा अपराध, शायद इसी दर्द को किसी शायर ने यूं कहा कि,
उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़
हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा
जी जब सारा कोर्ट,कचहरी और थाना आपका है, आप ही हाकिम हैं तो क़ुसूर किसका निकलेगा? इस सवाल पर भी सोच लिया जाए तो इस आंदोलन की कथित हिंसा को ठीक-ठीक समझा जा सकता है.
क्यों अचानक से दलितों को याद दिलाया जाने लगा कि हिंदू-मुस्लिम दंगों के वक़्त वो भी ‘हिंदू’ बन कर मुसलमानों पर हमला करते हैं? शिक्षा में आरक्षण के विषय पर एहसान जताने वाले अंदाज़ में बात करते हुए ये राय क्यों दी गई कि दसवीं के बाद आरक्षण का कोई मतलब ही नहीं है.
बात पद्मावती और करणी सेना की भी हुई. इन सब के बीच एक हलचल मुसलमानों के बीच भी थी. संयोग से इस तरह की तमाम राय रखने वालों में हिंदू-मुसलमान दोनों दलित और पसमांदा नहीं थे. हालांकि इसी सोशल मीडिया पर लगातर वो तस्वीरें भी सामने आ रही थीं जिसमें कुंठित सवालों के जवाब थे, जैसे जमशेदपुर के एक पोस्टर में लिखा था, ‘अरे कमाल है मुसलमानों से मुकाबला करना है तो हमें हिंदू बना देते हो, मंदिर जाना होता है तो हमें दलित, भंगी, चमार बना देते हो.’
उसी तरह दिल्ली के एक पोस्टर में लिखा था, ‘राम मंदिर की लड़ाई सिर्फ़ ब्राह्मण ही करें क्योंकि मंदिर की कमाई ब्राह्मण ही खाते हैं.’
इन सब के अलावा एक और दिलचस्प बात सामने आई बल्कि देवाशीष ने अपने ट्विटर पर दावा किया कि गोली चलाने वाला और कथित तौर पर लोगों की जान लेने वाला दलित नहीं था, दलितों के नाम पर राजा चौहान हिंसा करके आंदोलन को बदनाम कर रहा था. और अब हमें बताया जा रहा है कि दलितों की हिंसा से मुल्क को बचाने के लिए क्षेत्र के लोगों ने फ़ायरिंग की.
ऐसी बचकाना बातें तो आज के बच्चे भी नहीं करते. और फिर क्या आप ये कहना चाहते हैं कि सत्ता और पुलिस प्रशासन की विफलता को क्षेत्र के लोगों ने शर्मिंदा होने से बचा लिया. अब सोशल मीडिया पर ये बात भी कही जा रही है कि आंदोलन में हिस्सा लेने वाले बहुत से दलितों को मालूम ही नहीं था कि ये बंद किस लिए है.
कमाल की बात ये है कि लोग इस बात पर हंस रहे हैं, बिना ये सोचे कि ये भी उनके उस शिक्षा व्यवस्था की नाकामी है जिसके निर्माता और लाभार्थी भी यही हैं. लोग जब दलित हिंसा की बात कर रहे थे तो उसी समय ये तस्वीर भी वायरल हुई कि अपनी छत से बड़ी-बड़ी ईंट फेंकने वाला दंपत्ति भी दलित नहीं है. और क्या ये संयोग मात्र है कि इस हिंसा में मरने वाले लोग दलित हैं, या हिंसा भाजपा शाषित क्षेत्र में हुई.
और सोशल मीडिया पर जिस तर्क से ये कहा गया कि दलित भी दंगों के समय हिंदू बन जाते हैं, तो उसी तर्क से ये भी कहना चाहिए कि जब ये दलित सड़कों पर अपने सम्मान और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे तो आप अपने विचारों की प्रस्तुति में आरएसएस की सोच वाले मुसलमान बने हुए थे.
फिर हम ये क्यों न मानें कि आपके अपने विचारों का ज़ाविया भी उसी सोच का प्रतीक है जिसके नाम पर दलितों से दंगा करवा लिया जाता है.
हां मुसलमानों का एक वर्ग इस बंद में हुई हिंसा के नाम पर दलितों को सिर्फ़ ‘हिंदू’ बना कर देख रहा था और देखने की इस होशियारी में शायद ये खौफ़ भी शामिल था कि कहीं दलितों की तरह अलग से पसमांदा और दलित मुसलमान भी सड़कों पर अपनी लड़ाई के लिए उतर आए तो? इस डरी हुई सोच पर तरस भी नहीं खाया जा सकता कि यहां ‘हिंदू-मुसलमान’ का चेहरा और चरित्र एक जैसा हो जाता है.
सोशल मीडिया के हाई वोल्टेज ड्रामा को देखते हुए मुझे ये महसूस हुआ कि पुलिस और सरकार की विफलता पर बात नहीं करने की होशियारी और हिंसा के नाम पर आंख खोल कर असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की चालाकी ज़्यादा ख़तरनाक हिंसा है.
मैं दलितों की शहादत पर आंसू बहाना नहीं चाहता लेकिन तमाम वंचित समुदाय से हबीब जालिब के लफ़्ज़ों में ये ज़रूर कहना चाहता हूं कि उट्ठो मरने का हक़ इस्तिमाल करो. और हमारे दौरां साहब भी कह गए हैं कि,
चुप रहोगे तो ज़माना इस से बद-तर आएगा
आने वाला दिन लिए हाथों में ख़ंजर आएगा