ग्वालियर से ग्राउंड रिपोर्ट: राकेश टमोटिया और दीपक जाटव की मौत दो अप्रैल को ‘भारत बंद’ के दौरान हुए उपद्रव में गोली लगने से हो गई थी.
दो अप्रैल की सुबह राकेश टमोटिया और उनके परिवार के लिए किसी सामान्य सुबह की तरह ही थी. मध्य प्रदेश के ग्वालियर ज़िले के थाटीपुर इलाके में भीमनगर मोहल्ले में रहने वाले पेशे से मज़दूर और तीन बच्चों के पिता राकेश सुबह के नौ बजते-बजते काम की तलाश में घर से निकल चुके थे.
उसके बाद करीब सवा 11 बजे एक युवक भागता हुआ राकेश के घर पहुंचा. उस वक़्त राकेश की मां, पिता नेतराम सहित राकेश के बच्चे घर के बाहरी हिस्से में ही बैठे थे. युवक ने जो बताया उसके बाद नेतराम, राकेश के दोनों बेटों राजा और पंकज को लेकर बदहवासी में बाहर की ओर भागे.
भीमनगर के अंदरूनी हिस्से में एक छोटी पहाड़ी पर संकरी गली में बने राकेश के मिट्टी-पत्थर के मकान में उस वक़्त चीख-पुकार मच रही थी.
उसी वक़्त राकेश के बड़े भाई लाखन सिंह टमोटिया, जो एक फार्मा कंपनी में दिहाड़ी पर पैकिंग का काम करते हैं, उनका भी फोन बजा, उनसे जो कहा गया उसे सुनकर वे भी अपना काम छोड़कर बदहवासी में कहीं भाग निकले.
सबकी मंजिल एक ही थी, भीमनगर के बाहर थाटीपुर के मुख्य मार्ग का वह चौराहा जिसे लेबर चौक के नाम से जाना जाता है, जहां शहर भर के मज़दूर काम की तलाश में सुबह से जुटना शुरू हो जाते हैं.
नेतराम जब राजा और पंकज के साथ लेबर चौक पहुंचे तो वहां सैकड़ों लोगों का हुजूम घेरा बनाए खड़ा था. और हर तरफ़ बस पुलिस का पहरा था.
80 वर्षीय नेतराम उस भीड़ के घेरे को तोड़कर अंदर जाने की कोशिश करने लगे लेकिन उनके लिए यह आसान नहीं था. पर राकेश का बड़ा बेटा 14 वर्षीय राजा ज़रूर भीड़ में से जगह बनाकर वहां तक पहुंच गया था, जहां ख़ून में लथपथ राकेश की लाश सड़क पर पड़ी थी.
देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम में किए गए संशोधन के ख़िलाफ़ दो अप्रैल को बुलाए ‘भारत बंद’ के दौरान हुई हिंसा में सीने में गोली लगने से राकेश की मौत हो चुकी थी.
नेतराम बताते हैं, ‘जब मैं पहुंचा तो राजा अपने कपड़ों से राकेश के चेहरे पर लगा ख़ून साफ कर रहा था. मैं पहुंचता उससे पहले ही एक गाड़ी आई और उसका शव उठाकर अस्पताल ले गई.’
राकेश के बड़े भाई लाखन सिंह जाटव बताते हैं, ‘राकेश काम की तलाश में हर रोज़ लेबर चौक ही जाता था. सब मज़दूर वहीं इकट्ठा होते हैं, लोग आते हैं और उन्हें अपने यहां मज़दूरी कराने ले जाते हैं. वहीं से राकेश को रोज़गार मिलता था. दो अप्रैल की सुबह वह बोला कि लगता है कि ‘भारत बंद’ के कारण आज शायद काम नहीं मिलेगा, इसलिए टिफिन नहीं ले जा रहा हूं, बस चार पराठे हरी मिर्च के साथ पॉलीथिन में लपेटकर रख दो. काम मिल जाएगा तो चला जाऊंगा, वरना घर वापस आ जाऊंगा.’
लेकिन राकेश उस दिन वापस घर नहीं पहुंचे, घर पहुंची तो उनकी मौत की ख़बर.
इस हिंसा के दौरान ग्वालियर में अपनी जान गंवाने वाले राकेश अकेले नहीं थे. एक जान और गई थी, 22 वर्षीय दीपक जाटव की. मोहन जाटव के तीन लड़कों में सबसे छोटे दीपक ऑटो चलाया करते थे. उनके बड़े भाई राजेंद्र जाटव के मुताबिक ऑटो चलाने के साथ-साथ वे ख़ाली समय में उनके चाय के ठेले पर भी हाथ बंटा दिया करते थे.
दीपक की जिस दिन गोली लगने से मौत हुई, उस दिन वे थाटीपुर क्षेत्र के कुम्हारपुरा के गल्ला कोठार स्थित अपने घर पर ही थे, उनका घर थाटीपुर के मुख्य मार्ग से क़रीब 200-300 मीटर अंदर गली में है. दीपक जाटव को जब गोली लगी तो वे घर पर ही मौजूद थे.
बकौल सचिन, ‘भारत बंद’ वाले दिन दीपक और वे घर से थोड़ा आगे ही चौक में बने एक चबूतरे पर कुछ अन्य लोगों के साथ बैठे थे. तभी उनके पिता आए और बोले कि उपद्रवियों ने हमारा चाय का ठेला पलट दिया है.
सचिन बताते हैं, ‘जब पापा ने कहा कि हमारा ठेला पलट दिया तो मैं और दीपक उनके साथ वहां गए. पापा ने कहा कि हड़ताल का समय है किसी से कुछ मत कहना.’
सचिन आगे बताते हैं कि उपद्रवी उनकी बस्ती में हमला करने आए थे. सभी लाठी-डंडों और हथियारों से लैस थे. वे कहते हैं, ‘इसी अफ़रा-तफ़री में पापा इधर-उधर हो गए, दीपक वहीं खड़ा रहा. वे पत्थर फेंक रहे थे, सब पर हमला कर रहे थे. मैं गली के अंदर की ओर भागा. फिर सड़क की तरफ़ से फायरिंग करते हुए कुछ लोग आए.’
आगे वे जो बताते हैं अगर उस पर यकीन किया जाए तो वह चौंकाने वाला ही नहीं, बल्कि स्थानीय पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्न भी खड़ा करता है.
सचिन कहते हैं, ‘फायरिंग करते हुए जब वे लोग अंदर घुसे तो उस भीड़ के साथ पुलिस वाले भी थे. जब उपद्रवी फायरिंग कर रहे थे तब पुलिस सामने ही खड़ी थी. पुलिस ने इस दौरान आंसू गैस के तीन गोले भी फेंके, जिससे हमारी आंखों में जलन मचने लगी. कुछ भी दिखना बंद हो गया. इसका लाभ उठाकर वे लोगों पर लाठी-डंडों और अन्य हथियारों से हमला करने लगे, जिससे लोग तितर-बितर हो गए. इसी दौरान हम तो गली में अंदर भाग गए, दीपक कहीं बिछड़ गया.’
लेकिन, तब न तो सचिन को पता था और न ही उनके पिता मोहन और अन्य किसी को कि भगदड़ में बिछड़ा दीपक गोलीबारी का शिकार बनकर हमेशा के लिए उनसे बिछड़ चुका है.
ख़ुद को मामले का प्रत्यक्षदर्शी बताने वाले रमेश कनौजिया भी कुछ ऐसा ही कहते हैं, ‘गोली चलाने वालों पर तो पुलिस कोई कार्रवाई कर नहीं रही थी, उल्टा आंसू गैस के गोले हमारी ओर फेंके जा रहे थे. अब हमारे ही बच्चों को गिरफ़्तार करके जेल भेज रहे हैं. नाबालिग बच्चों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है.’
गौरतलब है कि कुम्हारपुरा बस्ती दलित बहुल इलाका माना जाता है. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि गोली चलाने वाले वे सवर्ण लोग थे जिन्हें दलितों द्वारा बुलाए गए ‘भारत बंद’ से आपत्ति थी.
सिर्फ़ दीपक ही नहीं, राकेश की मौत भी ‘भारत बंद’ से आपत्ति रखने वाले समुदाय की गोली से हुई बताया जा रहा है. इस संबंध में ग्वालियर पुलिस ने कई गिरफ़्तारियां भी की हैं, जिनमें गोली चलाने वाले सभी आरोपी उच्च जाति समुदाय से आते हैं.
ग्वालियर शहर के ‘भारत बंद’ के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं उनमें भी गोली चलाने वाले लोग ‘भारत बंद’ समर्थक नहीं, बल्कि ‘भारत बंद’ विरोधी हैं. जिनकी पहचान भी हो गई है और पुलिस ने उन पर मामले भी दर्ज कर लिए हैं.
इस संबंध में कईयों की गिरफ़्तारी भी हुई है. उन्होंने यह स्वीकारा भी है कि उन्होंने गोलियां चलाईं.
लेकिन, प्रश्न उठता है कि आख़िर क्यों ऐसी नौबत आई कि एससी/एसटी समुदाय का अपने हक की मांग के लिए बुलाया गया ‘भारत बंद’ जातीय संघर्ष में तब्दील हो गया?
रमेश कनौजिया, जो कुम्हारपुरा के गल्ला कोठार में ही रहते हैं, कहते हैं, ‘हक़ीक़त में ऐसा इसलिए हुआ कि हमारे सामने ठाकुर समाज से ताल्लुक रखने वाले सवर्ण लोग रहते हैं. उस दिन उनका अपने घर के बाहर जमावड़ा था. तभी दो बाइक सवार युवक आए, उन्होंने वहां आकर ‘जय भीम’ के नारे लगाए. यह बात सवर्णों को रास नहीं आई. उन्होंने युवकों को रोक कर पीटना शुरू कर दिया और बाइक में आग लगा दी. युवक चूंकि हमारी ही गली में भागकर आए, इसलिए उनके पीछे बंदूकें लेकर वे भी आ गए.’
दीपक के चाचा राम अवतार जाटव बताते हैं, ‘मैं भी घर के पास ही था. सड़क से काफ़ी लोग ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते हुए मोहल्ले में घुस आए. कम से कम वो 100-200 लोगों की भीड़ रही होगी. हम लोग समझ भी नहीं पाए कि क्या हो रहा है. क्यों वे इधर आ रहे हैं? फिर उन्होंने पत्थर बरसाए और गोलियां चलाईं. भगदड़ मच गई. एक गोली पास ही बंधे बैल के पेट में लगी. दूसरी गोली आकर हमारे मोहल्ले के एक लड़के की जांघ में लगी.’
दीपक के पिता मोहन जाटव कहते हैं, ‘कुछ लोगों का कहना है कि दीपक ‘भारत बंद’ समर्थकों की उपद्रवी भीड़ में शामिल था. हमारा लड़का किसी उपद्रव में शामिल नहीं था, वो तो अपने घर पर था, मेरे साथ, अपनी मां के साथ. फिर भीड़ की भीड़ आई, नहीं पता कि कितने आदमी थे, उस वक़्त बस हमें तो अपनी जान बचाने की पड़ी थी.’
हालांकि दूसरे पक्ष का कहना है कि गोलाबारी उन्होंने ‘भारत बंद’ समर्थकों द्वारा उनके घरों पर किए जा रहे पथराव और उनके घर में घुसने की कोशिशों को विफल करने के लिए आत्मरक्षा में की. लेकिन जब ‘द वायर’ ने दूसरे पक्ष से संपर्क साधने की कोशिश की तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया.
बहरहाल, पीड़ित परिवार के लिए प्रशासन की ओर से मुआवज़े की तो घोषणा की गई है लेकिन वह कब मिलेगा, यह तय न होने से मृतकों के परिजनों में रोष है.
राम अवतार जाटव कहते हैं, ‘मुआवज़े की बात करें तो पोस्टमॉर्टम हाउस पर पुलिस और प्रशासन के बड़े अधिकारियों ने आश्वासन देते हुए कहा था कि आपको चार लाख रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी और दोषियों के ख़िलाफ़ एफआईआर भी करेंगे. लेकिन, अब तक कुछ नहीं हुआ. हां, दूसरे दिन कलेक्टरेट से ज़रूर एक व्यक्ति हमारा बैंक खाता मांगने आया था. उसे खाता संख्या, आधार संख्या सब दे दिया, लेकिन अब तक खाते में एक चवन्नी तक नहीं आई है.’
राम अवतार का यहां तक कहना है कि उस दौरान गोली से घायल हुए मोहल्ले के दो अन्य युवकों को भी मुआवज़े की बात कही गई थी. यहां तक कि गोलीबारी में मोहन जाटव का जो बैल घायल हुआ, प्रशासन ने उसके लिए भी आर्थिक सहायता का आश्वासन दिया था.
कुछ ऐसा ही राकेश के परिजनों का कहना है. लाखन कहते हैं, ‘मुआवज़े को लेकर उनकी तरफ़ से क्या है, क्या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं है. हमने जो मांग की थी, उनका भी कुछ पता नहीं. क्योंकि सब-कुछ लीपापोती चल रही है.’
परिजनों में पूरे मामले को लेकर पुलिस की हालिया कार्रवाई पर भी नाराज़गी है. उनका कहना है कि पुलिस गोली चलाने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है.
लाखन कहते हैं, ‘शासन-प्रशासन कह रहा है कि आप अपने गवाह लेकर आओ तो हम नामजद एफआईआर दर्ज कर लेते हैं, वरना वैसे ही एफआईआर काट देंगे. लेकिन, जो वीडियो वायरल हो रहे हैं, उनके आदमी खुल कर बोल रहे हैं, जिनमें सबकी पहचान हो रही है कि कौन आदमी है, किसका आदमी है जिसने गोली चलाई है, सबके नाम तक सामने आए हैं. वे फ़रारी में हैं, क्या हैं, पुलिस ढील दे रही है, क्या कर रही है? कुछ नहीं पता.’
राम अवतार कहते हैं, ‘पुलिस उल्टा हमको फंसा रही है कि आप लोगों ने उनके घरों पर हुड़दंग किया. वे हमें हमारी हुड़दंग करते हुए कैसी भी फुटेज दिखा दें. हम तो अपने मोहल्ले में अपने घर पर बैठे थे. पुलिस जो मामले दर्ज कर रही है, उसमें उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है, उल्टा हमारे ही चार-पांच लोगों के नाम लिख दिए गए हैं. जबकि हमारे पास उनके सारे फुटेज हैं. हमारा फुटेज उनके पास एक नहीं होगा. हम लोग घर से निकले ही नहीं तो हमला कहां से करेंगे. इस तरह से पुलिस प्रशासन हमको परेशान कर रहा है.’
वे आगे कहते हैं, ‘वे लोग हमारे घरों पर दंगा करने आए थे, उन्होंने गोली चलाई थी हम पर, हमने नहीं. जबकि पुलिस प्रशासन से क्षत्रिय महासभा के ठाकुर लोग कह रहे हैं कि उल्टा हमें गिरफ़्तार किया जाए.’
दीपक के भाई राजेंद्र तो यहां तक कहते हैं कि वे दीपक को गोली मारने वालों के नाम तक जानते हैं, उन्हें अच्छी तरह पहचानते हैं. वे बार-बार कहते हैं कि फुटेज खंगालिए, मेरे भाई के हत्यारे मिल जाएंगे.
वहीं, ज़िला प्रशासन से परिजनों को यह भी शिकायत है कि राकेश और दीपक की मौत के बाद उनका शव का पोस्टमॉर्टम करते ही प्रशासन ने न तो उन्हें शवों की सुपुर्दगी ढंग से की और न ही ढंग से अंतिम संस्कार करने का मौका दिया.
लाखन कहते हैं, ‘पोस्टमॉर्टम के बाद हमें विशेष तौर पर रात 11 बजे बुलवाया गया. शव को उन्होंने घर भी नहीं लाने दिया. अपने पूरे बल के साथ सीधे श्मशान भेज दिया और आधी रात को अंतिम संस्कार करवा दिया.’
राम अवतार कहते हैं, ‘जलाने के लिए शव भी नहीं दिया. पूरा प्रशासन 20-25 वाहनों से दोनों शवों को श्मशान ले गया. कलेक्टर और एसपी परिवार के मात्र चार लोगों को गाड़ी में बिठाकर साथ ले गए और कहा कि अंतिम संस्कार कर दीजिए, हम आपको शव नहीं देंगे. आप सुबह चक्काजाम करेंगे. कई तरह की विपरीत परिस्थितियां पैदा होंगी. शहर का माहौल बिगड़ेगा. उनके दबाव में आकर हमने अंतिम संस्कार कर दिया.’
पूरे मामले में शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता का आलम यह है कि घटना के बाद से पीड़ित परिवारों से अब तक मिलने शासन या प्रशासन की तरफ़ से कोई नहीं पहुंचा है, न तो स्थानीय सांसद, विधायक या कोई नेता और न ही कोई प्रशासनिक अधिकारी जबकि क्षेत्रीय सांसद और प्रशासनिक अफ़सरों के कार्यालयों की दूरी पीड़ितों के घर से महज़ चंद किलोमीटर है.
नतीजतन, पूरे क्षेत्र में धारा 144 तो लगी है, जो कि 20 अप्रैल तक लागू रहेगी. 10 अप्रैल को ग़ैर-दलित समाज द्वारा बुलाए गए ‘भारत बंद’ के दिन कर्फ्यू भी लगाया गया लेकिन इस सबके बावजूद स्थानीय लोगों के मन में दहशत अब तक बसी है.
राम अवतार कहते हैं, ‘वर्तमान में हमारे लोग परेशान हैं, घबराए हुए हैं, सहमे हुए हैं. कोई भी अपने घर से निकलता नहीं कि कहीं दोबारा हमला न हो जाए. क्योंकि वे पैसे वाले लोग हैं, उनके पास हथियार हैं, सरकार भी उनकी है, हमारे पास तो कुछ भी नहीं है.’
इन विपरीत परिस्थितियों में राकेश के परिवार के लिए सवाल अपने भविष्य की चुनौतियां से जूझने का भी है.
राकेश की पत्नी रामवती कहती हैं, ‘इसी साल 24 मई को बिटिया की शादी तय थी. 10 अप्रैल को सामूहिक विवाह सम्मेलन में शादी का पर्चा भरने जाना था. लेकिन उससे पहले ही यह सब हो गया.’
इसके अलावा चुनौती उनके बेटे राजा और पंकज की शिक्षा की भी है, पूरे परिवार के भरण-पोषण की भी है.
लाखन कहते हैं, ‘मैं राकेश का बड़ा भाई हूं. मेरी ख़ुद की तीन लड़कियां हैं. अभी एक की शादी की है, दो शादी के लिए बाकी हैं. अब राकेश तो नहीं रहा, उसकी भी एक लड़की की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई. पूरे परिवार का ख़र्च अब मेरे ज़िम्मे है. मैं एक मज़दूरी करने वाला कैसे भरण-पोषण करूंगा सबका?’
वे अंत में कहते हैं, ‘हम तो प्रयास कर रहे हैं गुनाहगारों पर कार्रवाई हो, लेकिन कौन सुनता है हमारी. मीडिया भी आती है तो कहती है हम आवाज़ उठाएंगे. नेता लोग भी आकर कहते हैं कि हम आवाज़ उठाएंगे. लेकिन यहां पर सब बात कर जाते हैं, वास्तव में वे कुछ कर भी रहे हैं, इसका पता नहीं.’