प्रधानमंत्री के नाम लिखे एक पत्र में रिटायर्ड नौकरशाहों ने कहा कि यह पत्र केवल सामूहिक शर्म या अपनी पीड़ा को आवाज़ देने के लिए नहीं बल्कि सामाजिक जीवन में ज़बरदस्ती घुसा दिए गए घृणा और विभाजन के एजेंडा के ख़िलाफ़ लिखा गया है.
माननीय प्रधानमंत्री,
हम सरकारी सेवा से निवृत पूर्व अधिकारियों का एक समूह हैं जो भारतीय संविधान में निहित पंथनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक, और उदार मूल्यों में लगातार गिरावट पर चिंता व्यक्त करने के लिए पिछले साल इकठ्ठा हुए थे.
ऐसा करके हम प्रतिरोध के उन इतर स्वरों से जुड़े जो शासकीय व्यवस्था द्वारा कपटपूर्ण तरीके से प्रेरित घृणा, भय, और क्रूरता की भयावह आबोहवा के खिलाफ उठ रहे थे. हमने पहले भी कहा था, पुनः कहते हैं, हम न तो किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं, न ही किसी राजनीतिक विचारधारा के अनुयायी हैं सिवाय उन मूल्यों के जो संविधान में विनिहित हैं.
क्योंकि आपने संविधान को स्थापित रखने की शपथ ली है, हम आशान्वित थे कि आपकी सरकार, जिसके आप प्रधान हैं और राजनीतिक दल जिसके आप सदस्य हैं, इस खतरनाक अवनति का संज्ञान लेंगे, फैलती सड़ांध को रोकने की अगुआई करेंगे और सबको भरोसा दिलाएंगे, विशेषकर अल्पसंख्यक और कमजोर वर्ग को कि वे अपने जानोमाल और व्यक्तिगत आज़ादी को ले कर बेख़ौफ़ रहें.
यह आशा मिट चुकी है. इसके बजाय, कठुआ और उन्नाव की दुर्घटनाओं की अकथनीय दहशत बताती है कि शासन जनता द्वारा दिए गए अपने सर्वप्रथम मूलभूत कर्तव्यों को निभाने में नाकामयाब रहा है.
एक राष्ट्र के रूप में जिसे अपनी नैतिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर गर्व रहा है और एक समाज के रूप में जिसने अपनी सभ्यता के सहनशीलता, दया और सहानुभूति के मूल्यों को सहेज कर रखा है, हम सब नाकामयाब रहे हैं.
हिंदुओ के नाम पर एक इंसान की एक दूसरे पर पाशविक निर्दयता को पोषित कर हमारी इंसानियत शर्मशार रही है. एक आठ साल की बच्ची का बर्बर वहशियाना बलात्कार और हत्या दिखाता है कि हम नीचता की किन गहराइयों में डूब चुके है.
आज़ादी के बाद यह सबसे बड़ा अंधेर है जिसमें हम पाते है कि हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दलों के नेतृत्व की प्रतिक्रिया नाकाफ़ी और ढीली रही है. इस मुकाम पर हमें अंधेरी सुरंग के अंत में कोई रौशनी नहीं दिखाई देती है और हम बस शर्म से अपना सिर झुकाते हैं.
हमारी शर्म और बढ़ जाती है जब हम पाते हैं कि हमारे कुछ युवा साथी भी जो अभी भी सरकार में हैं, विशेषकर वे जो जिलों में काम कर रहे हैं और कानूनन दलित और कमज़ोर लोंगों की देखभाल और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, अपने फ़र्ज़ को निभाने में नाकामयाब रहे हैं.
प्रधानमंत्री, हम यह पत्र आपको केवल अपनी सामूहिक शर्म के चलते या अपनी पीड़ा या विलाप को आवाज़ देने या अपने सांस्कृतिक मूल्यों के अवसान का मातम मनाने के लिए नहीं लिख रहे हैं.
हम लिख रहे हैं अपना रोष व्यक्त करने के लिए, विभाजन और घृणा के उस एजेंडा के खिलाफ, जो आपके दल और उसकी बेशुमार वक़्त बेवक्त पैदा होती नामित या अनाम उपशाखाओं ने हमारे राजनीति के व्याकरण में, हमारे सांस्कृतिक सामाजिक जीवन और दिनचर्या में कपटपूर्ण तरीके से घुसा दिया है.
इसी से कठुआ और उन्नाव की दुर्घटनाओं को सामाजिक प्रश्रय और वैधता मिलती है. कठुआ में, संघ परिवार द्वारा प्रोत्साहित बहुसंख्यक लड़ाकू आक्रामकता की कुसंस्कृति ने सांप्रदायिक वहशी तत्वों को अपने कुत्सित एजेंडा पर आगे बढ़ने की हिम्मत दी है.
वे जानते थे उनका कुअचारण उन प्रभावशाली राजनीतिज्ञों द्वारा समर्थित रहेगा जिन्होंने खुद अपना पेशा हिंदू मुसलमानों का ध्रुवीकरण कर और उनमें फूट डालकर पल्लवित किया है. वही उन्नाव में सबसे घटिया पितृसत्तात्मक सामंती माफिया गुंडों पर वोट और राजनीतिक सत्ता खींचने के लिए निर्भरता के चलते, इन लोगों को बलात्कार क़त्ल जोर-जबर्दस्ती और लूट खसोट की आज़ादी अपनी जाती ताकत को ज़माने और फैलाने के लिए मिली है.
पर सत्ता के इस दुरुपयोग से अधिक कलंक की बात राज्य सरकार द्वारा बलात्कृत और उसके परिवार का, बजाय कथित आरोपी के, पीछा किया जाना है. इससे पता चलता है ही शासकीय प्रणाली कितनी विकृत हो चली है. यूपी राज्य सरकार ने तभी कुछ किया जब माननीय उच्च न्यायालय ने उसे मजबूर किया, जिससे उसके इरादों का कपट और अन्यमनस्कता साफ़ ज़ाहिर होती है.
दोनों मामलों के राज्यों में, प्रधानमंत्री, आपका दल सत्तारूढ़ है. आपके दल में आपकी सर्वोपरिता, आप और आपके दल के अध्यक्ष केंद्रीकृत अंकुश के चलते, इस भयावह स्थिति के लिए किसी और से ज्यादा आपको ही जिम्मेवार ठहराया जा सकता है.
इस सच्चाई को स्वीकार करने और क्षतिपूर्ति करने के बजे आप कल तक खामोश रहे. आपको ख़ामोशी तब टूटी जब स्वदेश और विदेश में जनाक्रोश ने उस सीमा तक जोर पकड़ा जिसे आप नजरंदाज नहीं कर सकते थे.
तब भी हालांकि आपने कुकृत्य की निंदा और शर्म का इज़हार कर दिया है, आपने उसके पीछे विकृत सांप्रदायिकता की निंदा नहीं की है; न ही आपने उन सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक हालातों को बदल डालने का संकल्प लिया है जिनके तले सांप्रदायिक घृणा फलती फूलती है.
हम इन विलंबित डांट-फटकारों और इंसाफ दिलवाने के वादों से आजिज़ आ चुके हैं, जबकि संघ परिवार की छत्र-छाया में पोषित रंगदार सांप्रदायिक हांडी को लगातार उबाल पर रख रहे हैं.
प्रधानमंत्री, ये दो दुर्घटनाएं महज़ साधारण अपराध नहीं हैं जहां समय चलते हमारी सामाजिक चादर के दाग धुल जाएंगे, हमारे राष्ट्रीय व्यक्तित्व और नैतिक अस्मिता पर लगे घाव भर जाएंगे, और फिर वही राम कहानी शुरू हो जाएगी.
यह हमारे अस्तित्व पर आये संकट का पल, एक मोड़ है- सरकार की प्रतिक्रिया तय करेगी कि एक राष्ट्र और गणतंत्र के रूप में क्या हम संवैधानिक मूल्यों, प्रशासनिक और नैतिक व्यवस्था पर आये संकट से निपटने में सक्षम हैं, तदर्थ हम आपका आह्वान करते हैं कि आप निम्नलिखित कार्यवाही करे:
- उन्नाव और कठुआ के पीड़ित परिवारों तक पहुंच कर उनसे हम सब की ओर से माफ़ी मांगे.
- कठुआ मामले में त्वरित अभियोजन करवाएं और उन्नाव मामले में बिना हील-हवाला किये न्यायालय द्वारा निर्देशित विशेष जांच दल की स्थापना करें.
- इन भोले-भाले बच्चों और घृणा अपराधों के अन्य शिकारों की स्मृति में पुनः संकल्पित हों कि मुसलमान, दलित, अन्य अल्पसंख्यकों, महिलाएं और बच्चों को विशेष सुरक्षा और भरोसा दिया जायेगा ताकि वे अपनी जानोमाल और नागरिक आजादी के लिए बेख़ौफ़ रहें; और इन पर किसी किस्म के खतरों को शासन पूरी शक्ति से खत्म कर देगा.
- सरकार से उन तमाम लोगों को बर्खास्त किया जाये जो घृणा अपराधों और घृणापूर्ण भाषणों से जुड़े रहे हैं.
- घृणा अपराधों से सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासकीय तौर पर निपटने पर चर्चा के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाएं.
संभव है कि यह देर-आयद-दुरुस्त-आयद न हो, पर इससे व्यवस्था कुछ तो पुनः स्थापित होगी और भरोसा मिलेगा कि अराजकता की और निर्बाध गिरावट को अब भी रोका जा सकता है. हम आशान्वित हैं.