बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’: कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए

जीवन भर आर्थिक चुनौतियों से जूझने के बावजूद बालकृष्ण शर्मा के मन में इसे लेकर कोई ग्रंथि नहीं थी. कोई उनसे भविष्य के लिए कुछ बचाकर रखने की बात करता तो कहते, मेरा शरीर भिक्षा के अन्न से पोषित है इसलिए मुझे संग्रह करने का कोई अधिकार नहीं है.

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जीवन भर आर्थिक चुनौतियों से जूझने के बावजूद बालकृष्ण शर्मा के मन में इसे लेकर कोई ग्रंथि नहीं थी. कोई उनसे भविष्य के लिए कुछ बचाकर रखने की बात करता तो कहते, मेरा शरीर भिक्षा के अन्न से पोषित है इसलिए मुझे संग्रह करने का कोई अधिकार नहीं है.

Balkrishna Sharma Navin
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (जन्म: 8 दिसंबर1897- अवसान: 29 अप्रैल 1960) [फोटो साभार: mystampsandfdcs.blogspot.in]
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये! इस अमर ‘विप्लव गीत’ के रचनाकार पंडित बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म 8 दिसंबर, 1897 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर राज्य के शाजापुर परगने के भयाना गांव में एक अत्यंत विपन्न वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ.

पिता जमनालाल शर्मा भले ही वैष्णवों के प्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारा में रहते थे, अभाव व विपन्नता ने इस परिवार को ऐसा घेर रखा था कि मजबूर माता को बालकृष्ण को गायों के बाड़े में जन्म देना पड़ा. बाद में वे आस-पास के किसी समृद्ध परिवार में पिसाई-कुटाई करके ‘कुछ’ लातीं तो पेट भरता.

तन ढकने के लिए साल में दो धोतियां भी नहीं जुड़तीं और पैबंदों से काम चलाना पड़ता. ऐसे में बेटे की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था कैसे करतीं? फिर भी बालकृष्ण ने किसी तरह पहले शाजापुर से मिडिल स्कूल की, फिर उज्जैन जाकर हाईस्कूल की परीक्षा पास की.

भीषण गरीबी के बावजूद उनके तन-मन भारतमाता को स्वतंत्र कराने की उमंग से ऐसे सराबोर थे कि किसी अखबार में दिसंबर, 1916 में लखनऊ में कांग्रेस का महाधिवेशन होने की खबर पढ़ी तो जैसे-तैसे कुछ पैसे जुटाये और कंधे पर कंबल व हाथ में लाठी लेकर नंगे पैर ही उसमें शामिल होने चल पड़े. हालांकि तब तक उन्होंने लखनऊ का नाम भर ही सुना था और उसका ‘इतिहास-भूगोल’ उन्हें कतई पता नहीं था.

महाधिवेशन में उन्हें अपने चहेते नायकों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी के अलावा माखनलाल चतुर्वेदी व मैथिलीशरण गुप्त जैसी विभूतियों से परिचय व उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ.

वहां से लौटे तो उज्जैन से अपनी अगली परीक्षा उत्तीर्ण की, फिर गणेशशंकर विद्यार्थी से बात करके कानपुर चले गये, जहां विद्यार्थी जी ने उन्हें क्राइस्ट चर्च कॉलेज में प्रवेश तो दिलाया ही, बीस रुपये महीने का एक ट्यूशन भी दिलाया. ताकि उनकी गुजर-बसर में कोई बाधा न आये.

बाद में राजनीति, इतिहास, दर्शन, धर्म, संस्कृत, अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य के गम्भीर अध्ययन में रत होने के साथ वे ‘प्रताप’ के संपादन में भी विद्यार्थी जी का हाथ बंटाने लगे. उनकी मेहनत रंग लाई और थोड़े ही दिनों में उन्होंने राजनीतिक व साहित्यिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया और कवि के रूप में खासे प्रसिद्ध हो गये.

उनकी ‘कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ’ पंक्ति तो लोगों का कंठहार बन गयी. कहते हैं कि वे जितने अच्छे कवि थे, उतने ही अच्छे काव्यपाठी और उतने ही ओजस्वी वक्ता भी. बाद में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया तो उसमें शामिल होने के लिए उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया.

संयुक्त प्रांत के सत्याग्रहियों के पहले ही जत्थे में उनका नाम था, जिसके पुरस्कारस्वरूप गोरी सरकार ने 1921 में उन्हें डेढ़ वर्ष की सजा दी. यह सजा उन्होंने अदल-बदल कर कई जेलों में काटी, लेकिन अभी तो यह इब्तिदा थी.

आगे चलकर छह बार सुनायी गयी और सजाओं में उन्हें घोर यातनाओं के बीच अपने जीवन के नौ साल जेलों में बिताने पड़े. इनमें ज्यादातर सजाओं का कारण उनके वे लेख अथवा भाषण थे, जो उन्होंने गोरे हुक्मरानों के विरोध में लिखे या दिये.

लंबे जेल जीवन में ही वे आचार्य जेबी कृपालानी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन और जवाहरलाल नेहरू जैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं के संपर्क में आये. वहीं उन्होंने पंडित नेहरू से भूमिति व अंग्रेजी पढ़ी और उनको कवायद करना सिखाया. इस तरह दोनों अलग अलग मामलों में एक दूजे के गुरु हो गये.

‘नवीन’ की ज्यादातर कृतियां और कविताएं जेलों में ही रची गयीं क्योंकि जेल से बाहर आकर तो वे राजनीतिक हलचलों व ‘प्रताप’ के संपादन से जुड़े कामों में व्यस्त हो जाते थे.

1921 से 1923 तक उन्होंने राष्ट्रीय विचारों पर आधारित ‘प्रभा’ नामक एक पत्रिका का भी संपादन किया, जबकि कानपुर के सांप्रदायिक उपद्रवों में विद्यार्थी जी की बलि के कई साल बाद तक ‘प्रताप’ के प्रधान संपादक रहे. विद्यार्थी जी की स्मृति में उन्होंने ‘प्राणार्पण’ शीर्षक खंड काव्य भी रचा.

महात्मा गांधी के प्रति अपार श्रद्धा रखने के कारण कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ उन्हें ‘गांधी जी का मजनूं’ कहा करते थे, जबकि विद्यार्थी जी का स्मारक बनाने के लिए गठित निधिसंग्रह समिति का सारा जिम्मा भी उन्हीं के कंधों पर था.

गांधी जी ने ‘हरिजन सेवक’ में लोगों से इस निधि में रकम भेजने का अनुरोध करते हुए लिखा था-‘जिस सम्पदा का संरक्षक बालकृष्ण हो, उसके बारे में सोच-विचार क्या!’ इसी बात से पता चलता है कि गांधी उन पर कितना विश्वास करते थे.

नवीन को छायावाद के समानांतर बहने वाली उस काव्यधारा का प्रतिनिधि कवि माना जाता है, जिसमें वीरता, प्रेम व श्रृंगार के अतिरिक्त राष्ट्रीयता व मानवीयता के स्वर प्रवाहित हैं. उनकी कृतियों में ‘उर्मिला’, ‘कुमकुम’, ‘रश्मिरेखा’, ‘अपलक’, ‘क्वासि’ और ‘विनोबास्तवन’ महत्वपूर्ण हैं.

लेकिन उनके सिलसिले में साहित्य सृजन से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने साहित्य व स्वतंत्रता की एक साथ, अद्वितीय व बहुमुखी सेवा करते हुए न सिर्फ अपना घर-बार बल्कि पढ़ाई-लिखाई वगैरह भी होम कर डाली.

स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वे कई बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष व महामंत्री बने, जबकि आजादी के बाद संविधान परिषद के सदस्य मनोनीत हुए और पहले आम चुनाव में कानपुर से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए. 1955 में वे संसद द्वारा नियोजित भाषा आयोग के वरिष्ठ सदस्य बने, तो 1957 व 1960 में राज्यसभा सदस्य चुने गये.

कहा जाता है कि वे जन्मजात विद्रोही थे. एक बार नेहरू ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने को आमंत्रण दिया तो अपने विद्रोही स्वभाव के कारण ही उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया. 1954 में उन्हें कांग्रेस से अलग कर दिया गया, तो भी वे नहीं झुके और पांच महीने बाद खुद नेहरू ने उनकी पार्टी में वापसी करायी.

वरिष्ठ कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने लिखा है कि यों तो नवीन जी के आसपास हंसी और उल्लास की बरसात होती रहती थी, लेकिन कभी गुस्से में आ जाते तो उनका तराशा हुआ कसरती शरीर कांपने लगता, चेहरा तमतमा जाता और आंखें जल उठतीं.

जीवन भर आर्थिक चुनौतियां सहने के बावजूद उनके मन में इसे लेकर कोई ग्रंथि नहीं थी. ‘प्रताप’ में उन्हें हर महीने 500 रुपये मिलने लगे तो उन्होंने इसका ज्यादातर अंश असहाय परिवारों के भरण-पोषण के लिए खर्च करना आरम्भ कर दिया.

उन्हें अपने बिना घर-बार के होने और गरीब होने पर गर्व-सा था. कोई उनसे भविष्य के लिए कुछ बचाकर रखने की बात करता तो कहते-मेरा शरीर भिक्षा के अन्न से पोषित है इसलिए मुझे संग्रह करने का कतई कोई अधिकार नहीं है.

लेकिन 1955 के बाद के उनके कई साल भयावह कष्ट में बीते. इन दौरान उन पर पक्षाघात के तीन आक्रमण हुए. ऊपर से हृदयरोग, रक्तचाप और फेफड़े का कैंसर. फिर तो उनकी वाणी भी चली गयी और स्मृति भी. कई दिन अचेत रहने के बाद 29 अप्रैल, 1960 को तीसरे पहर उन्होंने अंतिम सांस ली तो हिन्दी ने अपना उथल-पुथल मचाने वाला सबसे ओजस्वी कवि खो दिया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)