दिल्ली हाईकोर्ट ने वेब पोर्टल कोबरापोस्ट के उस खुलासे पर रोक लगा दी है, जिसमें वह पेड न्यूज़ से जुड़ी अपनी खोजी रिपोर्ट को सार्वजनिक करने वाला था.
नई दिल्ली: एक मीडिया समूह, दूसरे की प्रेस आजादी पर अंकुश लगाने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाए, ऐसा शायद ही कभी देखा गया है. ऐसे ही एक मामले में दैनिक भास्कर ने दिल्ली हाईकोर्ट से कोबरापोस्ट की उस डॉक्यूमेंट्री के प्रदर्शन पर रोक लगवाने में कामयाबी हासिल कर ली है, जिसमें दैनिक भास्कर समेत देश के करीब दो दर्जन शीर्ष मीडिया घरानों को एक अंडर कवर रिपोर्टर के पैसे के एवज में हिंदुत्व के पक्ष में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने वाली खबरें छापने के प्रस्ताव पर राजी होते दिखाया गया है.
वेब पोर्टल कोबरापोस्ट शुक्रवार, 25 मई को 3 बजे दोपहर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपनी इस खोजी रिपोर्ट को सार्वजनिक करने वाला था. लेकिन, गुरुवार शाम को जस्टिस वाल्मीकि जे. मेहता ने इस डॉक्यूमेंट्री को जारी करने पर एकतरफा रोक लगाने का आदेश दे दिया.
इस आदेश में कहा गया है:
‘वादी [दैनिक भास्कर] की तरफ से दी गयी दलीलों के मद्देनजर, अगले आदेश तक, जब तक कि कोर्ट द्वारा इसमें बदलाव न किया जाए, प्रतिवादी [कोबरापोस्ट] को डॉक्यूमेंट्री ‘ऑपरेशन 136: पार्ट टू’ को किसी भी तरह से सार्वजनिक करने से रोका जाता है. इसमें 25.05.2018 को 3:00 बजे दोपहर में प्रेस क्लब में (प्रदर्शित किया जाना) भी शामिल है.’
कोबरापोस्ट को 10 मई, 2018 को उसके द्वारा भास्कर समूह को भेजे गए ई-मेल के ब्यौरे और ‘टेलीफोन पर इस संबंध में हुई किसी भी अन्य बातचीत’ को सार्वजनिक करने से रोक दिया गया.
इस खुलासे के पहले भाग, ऑपरेशन 136 में कोबरापोस्ट के रिपोर्टर पुष्प शर्मा ने खुद को एक धार्मिक कार्यकर्ता आचार्य अटल के तौर पर पेश किया. उसने खुद को एक अनाम ‘संगठन’ का प्रतिनिधि बताया, जिसका मकसद मीडिया के सहारे मतदाताओं का ध्रुवीकरण करके 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मदद पहुंचाना और तोड़ी-मरोड़ी गई पूर्वाग्रह से भरी खबरों के सहारे भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों की छवि को खराब करना है.
कई मीडिया घरानों ने कैमरे के सामने सांप्रदायिक पूर्वाग्रह वाले पेड न्यूज के ‘आचार्य अटल’ के प्रस्ताव को स्वीकार किया.
इस डॉक्यूमेंट्री के शीर्षक में आयी संख्या ‘136’ का संबंध विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की खराब रैंकिंग से है. कोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने से पहले रिपोर्टरों को जिन शर्तों के तहत कोबरापोस्ट के पर्दाफाश के दूसरे हिस्से के तहत इकट्ठा की गयी सामग्री की समीक्षा करने का मौका मिला था, वे द वायर को उन संस्थाओं या व्यक्तियों का नाम अग्रिम तौर पर लेने की इजाजत नहीं देते, जो कैमरे पर पैसे के बदले खबर/न्यूज स्पेस देने के प्रलोभन का शिकार होते दिख रहे हैं. लेकिन यह बिल्कुल साफ है कि मीडिया उद्योग के बड़े-बड़े नाम यहां समझौता करते दिख रहे हैं.
लंबे समय तक चुप बैठा रहा भास्कर समूह
कोबरापोस्ट को अपना पक्ष रखने का मौका दिये बगैर एकतरफा रोक लगाने का आदेश देकर, जस्टिस मेहता ने एक तरह से दैनिक भास्कर की इस दलील को मान लिया है कि अगर डॉक्यूमेंट्री को जारी करने पर रोक नहीं लगायी गयी, तो इससे अखबार को ‘कभी न भरपाई करनेवाला नुकसान और चोट’ पहुंचेगा.
गुरुवार, देर रात को जारी अपनी प्रेस रिलीज में कोबरापोस्ट ने शुक्रवार सुबह इस रोक को चुनौती देने की बात की है. लेकिन, इसने साथ ही यह भी कहा है कि रोक नहीं हटाए जाने की सूरत में, वह तय कार्यक्रम के अनुसार प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं कर पाएगा.
बहल ने भास्कर समूह पर आरोप लगाया कि प्रेस कॉन्फ्रेंस से एक दिन पहले शाम में एकतरफा रोक लगाने की दरख्वास्त देना एक बदनीयती से भरा कदम है, क्योंकि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस की घोषणा पूरे एक सप्ताह पहले की जा चुकी थी. ‘अगर उन्हें वास्तव में यह लगा कि उनकी साख को अपूरणीय नुकसान पहुंचने का खतरा है, तो वे उसी समय इस रोक की याचिका दायर कर सकते थे, जब 18 मई को हमने इस डॉक्यूमेंट्री को जारी करने का अपना इरादा जताया था. उन्हें हमारी तरफ से 10 मई को ही एक ई-मेल मिल गया था, जिसमें हमने उन्हें उनके खिलाफ बनने वाले मामले के बारे में बताया था. वे तभी कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते थे.’
बहल ने कहा कि अगर वे पहले कोर्ट गये होते, तो उन्हें एकतरफा रोक मिलने का सवाल ही नहीं पैदा होता. ‘कम से कम हमें यह बताने का मौका मिलता कि क्यों इस तरह की रोक की कोई जरूरत नहीं है.’
‘अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा’ है हाईकोर्ट का आदेश
कानून के जानकारों ने भी हाईकोर्ट द्वारा भास्कर समूह के पक्ष में रोक के आदेश पर अपनी हैरत जताई है. वकील और 2015 में आयी किताब ऑफेंड, शॉक ऑर डिस्टर्ब: फ्री स्पीच अंडर द इंडियन कांस्टीट्यूशन के लेखक गौतम भाटिया का कहना है, ‘एकतरफा न्यायिक पाबंदी आज भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के सामने सबसे बड़ा खतरा है.’
‘चूंकि मामलों पर फैसला करने में इतना लंबा वक्त लगता है, इसलिए ऐसी पाबंदियां अक्सर विचारों के बाजार को नुकसान पहुंचाती हैं. 2011 में अपने एक विस्तृत फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि अभिव्यक्ति पर पाबंदी विरलतम मामलों में ही लगाई जानी चाहिए. उन मामलों में जिसमें यह स्पष्ट है कि प्रतिवादी के पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है. लेकिन जैसा कि आज का फैसला दिखाता है, इस फैसले का उल्लंघन ही ज्यादा होता है.’
अभिव्यक्ति की आजादी के मसलों पर खूब न्यायिक सक्रियता दिखाने वाली करुणा नंदी ने द वायर से कहा कि दैनिक भास्कर के पक्ष में (कोबरापोस्ट पर) लगाई गयी रोक सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए नियमों के अनुरूप नहीं है और यह चिंताजनक है.
उन्होंने कहा, ‘1950 में सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच ने ब्रिजभूषण वाले मामले में यह कहा था कि किसी पत्र के प्रकाशित होने से पहले उसकी सेंसरशिप अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अनिवार्य प्रेस की आजादी पर प्रतिबंध है. उस समय मामला आरएसएस द्वारा समर्थित ऑर्गेनाइजर के प्रकाशन के अधिकार का था.
उन्होंने यह भी जोड़ा कि ‘उस समय सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा के एक मामले की सुनवाई कर रहा था. अभी उस तुलना में मामला साधारण है और सिर्फ एक कंपनी की कथित मानहानि से जुड़ा है. हाईकोर्ट द्वारा लगाई गयी अंतरिम रोक, सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सिद्धांतों को नजरअंदाज करता है, जो अपने आप में चिंताजनक है. उसे कंपनी को प्रकाशन के बाद कानून की शरण में जाने के लिए कहना चाहिए था.’
बातचीत है अहम कड़ी
हालांकि, कोबरापोस्ट ने अपने खुलासे के दूसरे हिस्से के संबंध में किसी खास मीडिया समूह को लेकर कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है, मगर हाईकोर्ट के आदेश से ऐसा लगता है कि इस स्टिंग ऑपरेशन की तलवार जिन संस्थाओं पर लटक रही है, उनमें दैनिक भास्कर भी शामिल है. वास्तव में, इसके वकीलों ने कोर्ट में यह दलील दी है कि कर्मचारियों के बयानों को समूह की तरफ से दिए गये बयानों के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.
‘It is also argued on behalf of the plaintiff that it is not necessary that any and every talk of an agent or employee or staff of the plaintiff company necessarily should be taken as that of the plaintiff company itself and which has a separate and independent existence apart from individuals who may be holding different positions in the plaintiff company.(वादी की तरफ से हम यह कहना चाहते हैं कि किसी एजेंट या कर्मचारी या वादी की कंपनी के किसी स्टाफ की किसी या सारी बात को अनिवार्य तौर पर वादी की कंपनी के तरफ से दिए गए बयान के तौर नहीं देखा जाना चाहिए, जिसका वादी की कंपनी में विभिन्न पदों पर काम कर रहे व्यक्तियों से एक अलग और स्वतंत्र अस्तित्व है.)’
इससे यह संकेत मिलता है कि इसके कुछ कर्मचारी ऐसे प्रस्ताव या बयान देते हुए कैमरे में कैद कर लिए गए हैं, जिन्हें मीडिया से अपेक्षित नैतिक मानकों के अनुरूप नहीं माना जा सकता.
अंडरकवर रिपोर्टर और दैनिक भास्कर के प्रतिनिधि के बीच मोलभाव को लेकर जज ने अखबार की पेचीदा दलीलों को इस तरह से फिर से दोहराया :
‘It is also argued that essentially either the stand of the defendants will be of fake news being generated or news generated which would reflect a particular ideology whereas the fact of the matter is that there does not arise at all any issue of any fake news, with the fact that having an ideology which is not illegal cannot prevent, assuming for the sake of arguments such a situation existed, to have a particular ideology.(यह भी तर्क दिया गया है कि मूल रूप से या तो प्रतिवादियों का पक्ष यह होगा कि फर्जी खबरों (फेक न्यूज) का उत्पादन किया जा रहा है या खास विचारधारा को दिखाने के लिए खबरों का निर्माण किया जा रहा है, जबकि हकीकत यह है कि फर्जी खबर (फेक न्यूज) का कोई मामला ही नहीं बनता. साथ ही तथ्य यह भी है कि किसी विचारधारा का होना भी अपने आप में गैरकानूनी नहीं है, अगर तर्कों के लिए ही यह मान लें कि ऐसी स्थिति थी, एक विशेष विचारधारा के लिए.)’
हालांकि, जस्टिस मेहता के इस वाक्य-विन्यास का अर्थ लगा पाना काफी कठिन है, मगर जो बात भास्कर समूह के वकील नीरज कृष्ण कौल कहते हुए दिख रहे हैं, वह यह है कि कोबरापोस्ट का खुलासा गलत तरीके से यह दिखाएगा कि अखबार फेक न्यूज या एक ‘खास विचारधारा’ को दिखाने की खबर करने के लिए तैयार था.’
कौल यह दलील देते दिखते हैं कि जब कोई अखबार किसी विचारधारा को मानता है, जो अपने आप में गैरकानूनी नहीं है- यहां यह माना जा सकता है कि उनका मतलब सत्ताधारी की विचारधारा और हिंदुत्व से है- तो वह उस खास विचारधारा के अनुरूप सामग्री का प्रकाशन कर सकता है.
ऑपरेशन- 136 के पहले भाग में कोबरापोस्ट ने यह जानकारी दी थी कि किस तरह से कई मीडिया घरानों के मैनेजरों ने अंडरकवर एजेंट को यह बताया कि वे बीजेपी की विचारधारा का समर्थन करते हैं और उसकी तरफ से पेड न्यूज चलाने में उन्हें खुशी होगी. जाहिर है कि इन सारे मामलों में एक बड़ी रकम पर चर्चा हुई थी.
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