हिंदी पत्रकारिता दिवस: आज देश में हो रही पत्रकारिता को न तो देश और देशवासियों के भविष्य-निर्माण में कोई दिलचस्पी है, न ही उनके विरुद्ध किसी साज़िश का अंग बनने को लेकर कोई हिचक.
मनुष्य और मनुष्यता विरोधी सत्ताओं के (चाहे वे धार्मिक रही हों, राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक) प्रतिरोध की लंबी विरासत की वारिस हिंदी पत्रकारिता की, स्वयं को मुख्य कहने वाली धारा की, समकालीन बदहाली अब किसी से भी छिपी नहीं है.
ख़ुद इस धारा से भी नहीं, जिसे प्रतिरोध के अपने मूल कर्तव्य से विरत हुए तो अरसा बीत ही गया है, मगन-मन ‘राजा’ का बाजा बजाती हुई जो अब ऐसे मोड़ पर जा पहुंची है, जहां अपनी बदहाली के जश्नों में शामिल होते हुए भी वह किसी तकलीफ़ या लज्जा की शिकार नहीं होती.
होती तो कोबरापोस्ट के स्टिंग ‘आपरेशन-136’ से कतई यह साबित होता कि अब इस पत्रकारिता को न तो देश व देशवासियों के भविष्य-निर्माण में कोई दिलचस्पी है, न ही उनके विरुद्ध किसी साज़िश का अंग बनने को लेकर कोई हिचक.
क्या आश्चर्य कि भले ही हर 30 मई को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ के अवसर पर वह कर्मकांड के तौर पर हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ को याद कर लेती हो, पहले हिंदी दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण’ की भूलकर भी चर्चा नहीं करती.
उसकी उस जीत की तो कतई नहीं, जो उसने 1857 में अंग्रेज़ों द्वारा उसके ख़िलाफ़ दायर देशद्रोह के मामले में उन्हीं की अदालत से हासिल की थी.
इतना ही नहीं, अंग्रेज़ अदालत से स्वीकार करा लिया था कि समाचार सुधावर्षण द्वारा किया गया अंग्रेज़ों का तीखा प्रतिरोध इस अर्थ में पूरी तरह जायज है कि देश की सत्ता अभी भी वैधानिक या तकनीकी रूप से बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र में ही निहित है और देशद्रोही तो वास्तव में समाचार सुधावर्षण नहीं बल्कि अंग्रेज़ हैं, जो ग़ैरक़ानूनी रूप से मुल्क पर काबिज़ हैं.
प्रसंगवश, आयरिश नागरिक जेम्स ऑगस्टस हिक्की 1780 में 29 जनवरी को अंग्रेज़ी में ‘कलकत्ता जनरल एडवरटाइज़र’ नामक पत्र शुरू कर चुके थे. उनके इस पत्र को ‘बंगाल गजट’ के नाम से भी जाना जाता था और वह भारतीय एशियायी उपमहाद्वीप का किसी भी भाषा का पहला समाचार पत्र था. इसके बावजूद हिंदी को अपने पहले समाचार-पत्र के लिए 1826 तक प्रतीक्षा करनी पड़ी.
1826 में आज के ही दिन यानी 30 मई को कानपुर से आकर कलकत्ता (अब कोलकाता) में सक्रिय वकील पंडित जुगल किशोर शुक्ला ने वहां बड़ा बाज़ार के पास के 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से ‘हिंदुस्तानियों के हित’ में साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन शुरू किया, जो हर सप्ताह मंगलवार को पाठकों तक पहुंचता था.
तब तक देश की नदियों में इतना पानी बह चुका था कि वायसराय वारेन हेस्टिंग्ज की पत्नी की अनेकानेक हरकतों के आलोचक बनकर उनके कोप के शिकार हुए जेम्स आॅगस्टस हिक्की जेल की रोटियां तोड़ने को अभिशप्त हो गए थे और उन्होंने ‘देश का पहला उत्पीड़ित संपादक’ होने का श्रेय भी अपने नाम कर लिया था.
हां, वे धुन के इतने धनी थे कि जेल की सज़ा के बाद भी झुकना कुबूल नहीं किया और जब तक संभव हुआ, जेल से भी हेस्टिंग्ज और उनकी पत्नी के कारनामे लिखते रहे.
हिंदी की इस लंबी प्रतीक्षा का एक बड़ा कारण पराधीन देश की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में शासकों की भाषा अंग्रेज़ी के बाद बंगला और उर्दू का प्रभुत्व था. तब, कहते हैं कि हिंदी के ‘टाइप’ तक दुर्लभ थे और प्रेस आने के बाद शैक्षिक प्रकाशन शुरू हुए तो वे भी हिंदी के बजाय बंगला और उर्दू में ही थे.
हां, ‘उदंत मार्तंड’ से पहले 1818-19 में कलकत्ता स्कूल बुक के बंगला पत्र ‘समाचार दर्पण’ में कुछ हिस्से हिंदी के भी होते थे.
‘उदंत मार्तंड’ के पहले अंक की 500 प्रतियां छापी गई थीं और नाना प्रकार की दुश्वारियों से दो चार होता हुआ यह अपनी सिर्फ़ एक वर्षगांठ मना पाया था. एक तो हिंदी भाषी राज्यों से बहुत दूर होने के कारण उसके लिए ग्राहक या कि पाठक मिलने मुश्किल थे.
दूसरे, मिल भी जाएं तो उसे उन तक पहुंचाने की समस्या थी. सरकार ने 16 फरवरी, 1826 को पंडित जुगल किशोर और उनके बस तल्ला गली के सहयोगी मुन्नू ठाकुर को उसे छापने का लाइसेंस तो दे दिया था, लेकिन बार-बार के अनुरोध के बावजूद डाक दरों में इतनी भी रियायत देने को तैयार नहीं हुई थी कि वे उसे थोड़े कम पैसे में सुदूरवर्ती पाठकों को भेज सकें. सरकार के किसी भी विभाग को उसकी एक प्रति भी ख़रीदना क़बूल नहीं था.
एक और बड़ी बाधा थी. उस वक़्त तक हिंदी गद्य का रूप स्थिर करके उसे पत्रकारीय कर्म के अनुकूल बनाने वाला कोई मानकीकरण नहीं हुआ था, जैसा बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ के अहर्निश प्रयासों से संभव हुआ.
ऐसे में ‘उदंत मार्तंड’ की भाषा में खड़ी बोली और ब्रजभाषा का घालमेल-सा था. चार दिसंबर, 1827 को प्रकाशित अंतिम अंक में इसके अस्ताचल जाने यानी बंद होने की बड़ी ही मार्मिक घोषणा की गई थी. बाद में शुक्ला ने एक और पत्र निकाला तो वह भी लंबी उम्र नहीं पा सका.
1829 में राजाराम मोहन राय, द्वारिकानाथ ठाकुर और नीलरतन हाल्दार ने मिलकर ‘बंगदूत’ निकाला जो हिंदी के अलावा बंगला व पर्शियन आदि में भी छपता था.
लेकिन विडंबना देखिए कि हिंदी को अपने पहले दैनिक के लिए फिर लंबी प्रतीक्षा से गुज़रना पड़ा. 1854 में यानी भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम से केवल तीन साल पहले श्याम सुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित ‘समाचार सुधावर्षण’ ने इस प्रतीक्षा का अंत तो किया, लेकिन इस कसक का नहीं कि यह अकेली हिंदी का दैनिक न होकर द्विभाषी था, जिसमें कुछ रिपोर्टें बंगला के साथ हिंदी में भी होती थीं.
श्याम सुंदर सेन यूं तो बहुत प्रगतिशील विचारों के नहीं थे, लेकिन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक जबरदस्त मोर्चा ‘समाचार सुधावर्षण’ में भी खोल दिया.
उन्होंने न सिर्फ़ उनकी नाराज़गी मोल लेकर निर्भीकतापूर्वक संग्राम की उनके लिए ख़ासी असुविधाजनक सच्ची ख़बरें छापीं बल्कि विभिन्न कारस्तानियों को लेकर उनके वायसराय तक को लताड़ते रहे.
इतना ही नहीं, उन्होंने बागियों द्वारा फिर से तख़्त पर बैठा दिए गए बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के उस संदेश को भी ख़ासी प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने हिंदुओं-मुसलमानों से अपील की थी कि वे अपनी सबसे बड़ी नेमत आज़ादी के अपहर्ता अंग्रेज़ों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कुछ भी उठा न रखें.
गोरी सरकार ने इसे लेकर 17 जून, 1857 को सेन और ‘समाचार सुधावर्षण’ के ख़िलाफ़ देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें अदालत में खींच लिया. इसके लिए पत्र के 26 मई, 5, 9 व 10 जून के अंकों में छपी रिपोर्टों को बहाना बनाया गया.
सेन के सामने अभियोग से बरी होने का एक ही विकल्प था कि वे माफ़ी मांग लें. दूसरी भाषाओं के कई पत्र व संपादक ‘छुुटकारा’ पाने के लिए ऐसा कर भी रहे थे लेकिन अप्रतिम जीवट के धनी श्याम सुंदर सेन को अपने देशाभिमान के चलते ऐसा करना गवारा नहीं हुआ.
हां, उन्होंने अपने पक्ष में ऐसी मज़बूत क़ानूनी दलीलें दीं कि पांच दिनों की लंबी बहस के बाद अदालत ने उनके इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि देश की सत्ता अभी भी वैधानिक या तकनीकी रूप से बहादुरशाह ज़फ़र में ही निहित है. इसलिए उनके संदेश का प्रकाशन देशद्रोह नहीं हो सकता. देशद्रोही तो वास्तव में अंग्रेज़ हैं जो ग़ैरक़ानूनी रूप से मुल्क पर काबिज़ हैं और उनके ख़िलाफ़ अपने सम्राट का संदेश छापकर समाचार सुधावर्षण ने देशद्रोह नहीं किया बल्कि के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है.
देश पर अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े को उनकी ही अदालत में उन्हीं के चलाए मामले में ग़ैरक़ानूनी क़रार देने वाली यह जीत तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता के हिस्से आई एक बहुत बड़ी जीत थी, जिसने उसका मस्तक स्वाभिमान से ख़ासा ऊंचा कर दिया था.
इसलिए भी कि जब दूसरी भाषाओं के कई पत्रों ने सरकारी दमन के सामने घुटने टेक दिए थे, हिंदी का यह पहला दैनिक निर्दंभ अपना सिर ऊंचा किए खड़ा रहा था.
‘समाचार सुधावर्षण’ से शुरू होकर देश के स्वाधीनता संघर्ष की अगवानी करने वाली हिंदी की दैनिक पत्रकारिता आगे भी स्वतंत्रता संघर्ष के विभिन्न सोपानों पर उसके क़दम से क़दम मिलाती हुई नई मंज़िलें तय करती रहीं. लेकिन आज?
संचार क्रांति के दिए हथियारों से लैस होकर व्यर्थ की जगर-मगर में खोई हिंदी पत्रकारिता समाचार सुधावर्षण की ऐसी विलोम बन गई है कि कोई उम्मीद भी नहीं करता कि वह समाचार सुधावर्षण द्वारा तत्कालीन परिस्थितियों में निरंकुश गोरी सत्ता के ख़िलाफ़ दिखाए गए प्रतिरोध के जीवट से कोई सबक लेगी. इस पत्रकारिता को तो यह याद करना भी गंवारा नहीं कि वह प्रतिरोध की कितनी शानदार परंपरा की वारिस है!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फैज़ाबाद में रहते हैं.)