देश में घरेलू कामगारों के साथ हो रहा बर्ताव समाज के वीभत्स चेहरे की गवाही है

ग्राउंड रिपोर्ट: घरों में काम करने वाले घरेलू सहायकों के साथ हो रहे ग़ैर-क़ानूनी और अमानवीय व्यवहार की अनदेखी उनके ज़ख्मों को और गहरा बना रही है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

ग्राउंड रिपोर्ट: घरों में काम करने वाले घरेलू सहायकों के साथ हो रहे ग़ैर-क़ानूनी और अमानवीय व्यवहार की अनदेखी उनके ज़ख्मों को और गहरा बना रही है.

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प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स

‘कुछ महीनों पहले मेरा एक्सीडेंट हुआ था, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था कि बचना मुश्किल है. बच गई ये मेरी किस्मत. उससे पहले 6 घरों में काम करती थी, कोई एक भी मुझे देखने नहीं आया, न मदद ही की. जैसे-जैसे इलाज हुआ, कुछ समय बाद लौटी तो पता चला कि सबने दूसरी काम वाली लगा ली. मदद नहीं की चलो कोई बात नहीं पर काम दे सकते थे. जब तक काम आ रहे हैं, तभी तक हम अपने हैं, मदद करनी पड़ जाए तो पराये.’

मई के आखिरी दिन हैं, तपती दोपहर में दक्षिणी दिल्ली की एक डीडीए सोसाइटी के पार्क में नीम के नीचे बैठी अनीता अपनी रौ में बोले चली जा रही हैं. अनीता की उम्र 40-42 साल के करीब है. बताती हैं कि यहां लगभग 16-17 साल से काम कर रही हैं. उनका पति काम नहीं करता, अकेले जैसे-तैसे गृहस्थी की गाड़ी घसीट रही हैं. एक्सीडेंट के बाद लौटीं तो 2 काम मिले हैं, जिनसे महीने के करीब 4 हजार रुपये मिल जाते हैं.

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अनीता (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

अनीता का दुख किसी भी तरह सोनी के दुख से कम नहीं है. झारखंड से लापता हुई 15 साल की सोनी दक्षिणी दिल्ली के ही ईस्ट ऑफ कैलाश इलाके में काम करती थी. बीते दिनों अपना वेतन मांगने के चलते सोनी कुमारी की निर्मम हत्या कर दी गई. स्थिति यह है कि सोनी के परिवारवालों को उनकी हत्या से पहले तक पता ही नहीं था कि वह दिल्ली में हैं.

परंपरागत रूप से घरों को संभालने का उत्तरदायित्व घर की महिलाओं के हिस्से ही आता है. पिछले कई दशकों में जिस तरह से महिलाओं की दफ्तरों में भागीदारी बढ़ी, भारतीय मध्यमवर्ग की आय के स्तर में बदलाव आया, घर संभालने के लिए घरेलू कामगारों की जरूरत भी बढ़ती गई. बड़े शहरों की बात करें तो दफ्तर के काम और आने-जाने की भागदौड़ के बीच किसी तरह बैलेंस बना रहे युवा दंपत्तियों और लड़के-लड़कियों की गृहस्थी सुबह-शाम आने वाली ‘दीदी’ के भरोसे ही चल रही है.

एक आंकड़े के मुताबिक उदारीकरण के बाद के एक दशक में देश में घरेलू सहायकों की संख्या में करीब 120 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. 1991 के 7,40,000 के मुकाबले 2001 में यह आंकड़ा 16.6 लाख हो गया था. आज की तारीख में शहरी घरों में घरेलू सहायक या सहायिका का आना बेहद आम बात है. दिल्ली श्रमिक संगठन द्वारा दिए गए आंकड़े के मुताबिक भारत में पांच करोड़ से भी ज्यादा घरेलू कामगार हैं जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं.

हर घर में मौजूद इन सहायिकाओं पर तब तक कोई बात नहीं की जाती, जब तक किसी रोज़ यह अख़बार की किसी हेडलाइन में जगह नहीं पा जातीं. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली इस मामले में भी आगे है. वजह शायद यहां की घटनाओं का अपेक्षाकृत जल्दी खबर बन जाना हो या यहां बाहरी राज्यों से आकर रह रही एक बड़ी आबादी का घरेलू कामगार के रूप में आजीविका कमाना है, लेकिन हर दो-चार महीने पर किसी न किसी घर से घरेलू सहायिका पर अत्याचार की बात सामने आ ही जाती है.

दिल्ली के बाहरी हिस्से का शाहबाद डेरी इलाका. यहां तक आते-आते ‘डेल्ही’ कहीं पीछे रह जाता है. इस जगह को किसी भी आम कस्बे के नाम से पुकारा जा सकता है, जहां कारें कम ही दिखती हैं, दीवारें ‘हिंदी कॉल सेंटर के लिए 8वीं और 10वीं पास की जरूरत बता रही हैं और 12वीं पास को नर्स बनने का लालच दे रही हैं.

संकरी गलियों, कूड़े से बजबजाती नालियों के बीच से दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की मदद से हम इस इलाके में रहने वाली घरेलू सहायिकाओं से तक पहुंचते हैं.

इस बस्ती में हज़ार के करीब घर हैं, जिनमे ज्यादातर कामगार तबका ही रहता है. इन घरों की महिलाएं पास ही रोहिणी के करीबी सेक्टरों में काम करके अपनी आजीविका चला रही हैं.

35 साल की हनीफा यहीं रहती हैं और सेक्टर 25 के 5 घरों में बर्तन धोने और साफ-सफ़ाई का काम करती हैं. हनीफा के पति ने उन्हें छोड़ दिया है, बेटी को 10वीं तक पढ़ाया और उसकी शादी कर दी. सातवीं पास बेटा है जो कोई खास काम नहीं करता और हनीफा पर ही आश्रित है.

अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के बारे में पूछने पर वे बताती हैं, ‘सुबह करीब 7 बजे अपने घर का काम करके  काम पर निकलते हैं. आना-जाना पैदल ही होता है. हर घर में करीब एक घंटा लगता ही है. 12 यूं ही बज जाता है, इसके बाद भी अगर किसी ने कोई काम बता दिया तब वो करते हैं.’

खाना कब खाती हैं पूछने पर वो फीकी-सी हंसी हंसते हुए कहती हैं, ‘हम कौन-से दफ्तर में काम करते हैं जो लैंच टाइम मिलेगा. अगर कभी किसी ने दे दिया तो खा लेते हैं, वरना घर लौटकर ही रोटी नसीब होती है.’

उनकी बात काटते हुए आशा कहती हैं, ‘अपना डिब्बा ले भी जाओ तो खाने का समय तक नहीं मिलता. हमें इंसान तो समझा ही नहीं जाता. बिना तेल के तो मशीन भी काम नहीं देती पर मैडम लोग ये बात नहीं समझतीं.’

आशा बिहार से हैं और बीते कई सालों से इसी बस्ती में रह रही हैं. पति की मौत हो चुकी है. घर और 3 बच्चों को  खुद ही संभाल रही हैं. वे भी पास ही एक कॉलोनी में काम करके महीने करीब 5 हजार रुपये कमाती हैं. उनका कहना है कि काम करने से कोई परेशानी नहीं लेकिन कई दफा ‘मैडम लोग’ का गलत व्यवहार ख़राब लगता है.

वे बताती हैं, ‘हम में से कई लोग यहां से नहीं हैं तो कई बार हारी-बीमारी-ग़मी में गांव-घर जाना पड़ता है. पर यहां कोई नहीं समझता. गांव जाओ तो किसी को लगा के जाओ. नहीं तो मत जाओ. उनके यहां बर्थडे भी होता है तो मनाते हैं, हमारे यहां किसी का मौत भी हो जाए तो मायने नहीं रखता.’

यहां हमने करीब 10 से 12 घरेलू सहायिकाओं से बात की, जिनमें से अधिकतर की परेशानी उनके साथ होने वाले व्यवहार को लेकर थी. उन्होंने बताया कि कई बार घरों में जाते ही उनका जात-धर्म-बिरादरी पूछा जाता है. अगर मुसलमान होते हैं, तो कई लोग नहीं रखते.

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(बाएं से) आशा और मरजीना (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

घरों में होने वाले अपराधों की दर बढ़ने के बाद सरकार द्वारा घरेलू सहायकों का रजिस्ट्रेशन और पुलिस सत्यापन करवाना अनिवार्य कर दिया गया था. पुलिस सत्यापन तो लोग नहीं करवाते लेकिन इन लोगों के पहचान पत्र की कॉपी जरूर ली जाती है. हालांकि ये अपने नियोक्ता के बारे में अधिक नहीं जानती हैं.

आशा बताती हैं, ‘पहले वो लोग आधार कार्ड का कॉपी ले लेता है. गेट पर रजिस्टर में एंट्री करना होता है कि कौन कब आया. यह ठीक भी रहता है क्योंकि कई बार लोग पैसा देने से मुकर जाता है तो यही सबूत के रूप में काम करता है कि हम फलां दिन फलां घर में काम करने गए थे.’

यह पूछने पर कि कभी कोई पैसा देने से मुकरा है, वे बताती हैं कि कुछ लोग बिना बताए बिना हिसाब किये घर छोड़कर चले जाते हैं, हमें उनके बारे ज्यादा कुछ पता भी नहीं होता.

गेट पर गार्ड इन महिलाओं के सामान की की पूरी चेकिंग करते हैं. आते-जाते समय बैग, पॉलीथिन, बटुआ जो साथ हो सब उन्हें दिखाना होता है. हालांकि गार्ड आदि के व्यवहार को लेकर किसी में शिकायत नहीं है लेकिन हर चीज़ की जांच को लेकर कई बार अप्रिय स्थितियां खड़ी हो जाती हैं. इन सहायिकाओं में से एक मरजीना ने बताया कि एक दिन एक घर से एक गत्ते का बड़ा कार्टन फेंकने को दिया गया, जिसको लेकर गेट पर खड़े गार्ड ने रोक दिया और संबंधित घर में फोन करके पूछने के बाद ही ले जाने दिया. उनका कहना है ये बेकार की चीज थी, इसे लेकर ऐसा नहीं होना चाहिए था.

कई महिलाओं ने यह भी बताया कि अगर किसी घर से कोई कुछ खाने-पीने की चीज़ देता है, तब भी ऐसे ही गार्ड द्वारा उस घरमें  फोन करके पूछा जाता है. इसके चलते कई बार महिलाएं किसी घर से कुछ नहीं लेतीं. उनका मानना है कि हो सकता है सुरक्षा के लिहाज से ऐसा करना उचित लगता हो पर ये अनदेखी चोरी की पड़ताल करने जैसा है. हम किसी के यहां से खाने का सामान चुराकर ले जाएंगे क्या!

30 साल की बबली रोहिणी के सेक्टर 11 के 4 घरों में काम करती हैं. बबली के चार बच्चे हैं, जिन्हें घर छोड़कर वे काम पर जाती हैं. वे बताती हैं कि आने-जाने के समय को मिलकर काम में 8 घंटे के करीब समय लग जाता है. इस समय बच्चे स्कूल और घर में रहते हैं. सबसे छोटी बेटी अभी डेढ़ साल की है, उसे एक क्रेच में छोड़ती हैं.

बबली महीने के 5 हजार रुपये कमाती हैं, जिसमें बच्चों की फीस, घर और आने जाने के किराये के अलावा क्रेच का खर्च अलग है. ऐसे में घर में बच्चों को अकेला क्यों नहीं छोड़तीं?

जवाब दिल्ली घरेलू कामगार संगठन की बीना देती हैं, ‘बस्ती में आग लगने की घटनाएं आम हैं. आपके पीछे से बच्चों के साथ क्या हो सकता है, इसका आपको अंदाजा भी नहीं होता. अभी बीते दिनों ही यहां एक दूसरी बस्ती में आग लग गई थी. इसके अलावा इतनी बड़ी-बड़ी नालियां खुली हुई हैं, बच्चे अक्सर ही इनमें गिर जाते हैं, कुछ तो डूबे भी हैं.’

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(बाएं से) बबली और पूनम (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

पूनम की समस्या भी कुछ ऐसी ही है. पूनम के पति ड्राईवर का काम करते हैं. सुबह 9 बजे से पूनम का पहला काम शुरू होता है, दोपहर में लौटते हुए 3 बज ही जाते हैं. तीन घरों में काम करने वाली पूनम महीने के साढ़े पांच हज़ार कमा लेती हैं, लेकिन खुद आने-जाने का किराया, बच्चे की स्कूल फीस, यूनिफॉर्म, कॉपी-किताबों का खर्च, आने-जाने के किराए के बाद कुछ नहीं बचता. बेटे को पढ़ाना पूनम का सपना है क्योंकि वे चाहती हैं कि इस बस्ती से निकलकर वे अपने लिए एक बेहतर जिंदगी बना ले. पूनम महीने के लगभग हर दिन काम करती हैं क्योंकि एक छुट्टी करने पर भी पगार से पैसा काटा जाता है.

जहां तक अवकाश की बात है, सभी सहायिकाएं इसी एक बात को लेकर परेशान नजर आती हैं. आशा कहती हैं, ‘हमारा भी घर-बार है, कभी रिश्तेदार आते हैं, कभी बच्चा बीमार हो जाता है, लेकिन छुट्टी के लिए कहो तो मैडम कहती है कि यही सब करना था तो काम क्यों पकड़ा. अब बताइए, काम छोड़कर बैठ जाएंगे तो पेट कैसे भरेगा!’

दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में न जाने कितनी ही महिलाएं इन परिस्थितियों के बावजूद लोगों के घरों में काम कर रही हैं क्योंकि यही एक रास्ता है, जिसके जरिये पढ़ाई के नाम पर महज अपना नाम लिख पाने वाली ये औरतें राष्ट्रीय राजधानी में अपनी आजीविका चला रही हैं.

दक्षिणी दिल्ली का इलाका बाकी शहर की अपेक्षा अधिक संभ्रांत माना जाता. चौड़ी सड़कें, बड़ी इमारतें और बड़ी गाड़ियां, लेकिन इन ‘बड़े’ घर में काम करने वाली सहायिकाओं की अपने ‘बड़े साहब और मैडम’ लोग से उम्मीदें बहुत छोटी हैं.

29 साल की गिन्नी ग्रेटर कैलाश-2 के पास एक डीडीए सोसाइटी के दो घरों में खाना बनाने का काम करती हैं. गिन्नी के पति एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं, लेकिन वहां तनख्वाह कई-कई महीनों तक नहीं आती, इसलिए घर की जिम्मेदारी गिन्नी पर ही है. गिन्नी बताती हैं, ‘मैं दो ही घरों में खाना बनाने का काम हूं, 7 बजे आती हूं, जाते-जाते 11-12 बज ही जाता है. ज्यादा तो कुछ परेशानी नहीं है लेकिन ये ख़राब लगता है कि जब मैडम लोग कुछ खाने-पीने को देती हैं तो बर्तन अलग कर देती हैं. मैं तो कभी कुछ लेती ही नहीं. बताइए हम ही से खाना बनवाते हैं और हमारे ही बर्तन अलग करते हैं!’

भेदभाव के इस सवाल पर साथ बैठी रूबी भी चुप नहीं रह पातीं. 40 साल की रूबी नाराजगी ज़ाहिर करते हुए कहती हैं, ‘एक कप चाय देती हैं और 10 काम बताती हैं!’ वे घरों में साफ़-सफाई का काम करती हैं. उन्होंने यह भी बताया कि एक बार एक घर में उन्हें खाने के लिए कई दिन की रखी ख़राब रोटी दी गई.

जिस समय रूबी ने ये बताया वहां मौजूद कई और सहायिकाओं ने इस बात पर हामी भारी कि अक्सर उन्हें घरों से दिया जाने वाला खाने का सामान ख़राब होता है, कभी ये पुराने रखे गले फल होते हैं तो कभी ऐसी नमकीन जिससे ख़राब महक उठ रही हो. अधिकतर सहायिकाएं इसी वजह से किसी घर में कुछ नहीं खातीं.

लेकिन वे सब अपने काम के चलते 6 से 7 घंटे यहां रहती हैं, इस बीच क्या खाती हैं? भगवती बताती हैं कि घर से खाना लाते हैं, अगर समय मिल गया तो यहीं पार्क में बैठकर खा लेते हैं. भगवती की उम्र करीब 50 साल है. वे यहां 12 सालों से काम करने आ रही हैं लेकिन अब केवल 2 काम हैं, जिससे करीब 3 हजार रुपये मिलते हैं. पति काम नहीं करते और बच्चे अपनी जिंदगियों में मगन हैं.

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भगवती (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

भगवती बताती हैं, ‘खाने का कोई टाइम नहीं है, कहीं बैठकर खा लिया तो खा लिया. अपने घर में बैठकर तो कोई खाने नहीं देता. पानी तक तो देते नहीं. ज्यादातर तो घर वापस जाके खाते हैं. एक दिन यहीं पार्क में बैठकर खाना खा रहे थे, पानी नहीं था तो सामने वाले घर में दरवाजा खटखटा के मांग लिया, वो मैडम इतना गुस्सा हुईं कि सो रहे थे, नींद से जगा दिया, भाग जाओ यहां से. यहां काम की, काम करने वाले की इज्जत नहीं है. होगा इनके पास पैसा पर काम तो हम हो लोगों से चलता है न. पैसा तो काम नहीं कर देता. पैसों के साथ इंसानियत भी होनी चाहिए.’

खाने से भेदभाव की बात जात-बिरादरी तक पहुंचती है. यहां भी ये महिलाएं बताती हैं कि कई घरों में पहले धर्म-जाति पूछी जाती है, अगर उनका मन होता है तो काम करवाते हैं वरना कई बार मना कर देते हैं. रूबी मुस्लिम समुदाय से आती हैं और उनके साथ ऐसा अनुभव हुआ है जहां उनका धर्म जानने के बाद उन्हें काम नहीं दिया गया.

भगवती के कड़वे अनुभव उनकी बात को और तीखा कर देते हैं, वे कहती हैं, ‘जात तो बड़ी ऊंची है हमारी पर बस किस्मत ऊंची नहीं है.’

भगवती के विस्तृत अनुभव बड़े शहरों के इन तथाकथित कॉस्मोपॉलिटन घरों के जातिवादी, सामंती और गैर-जिम्मेदार चेहरे को उघाड़कर रख देते हैं.

कुछ सालों पहले भगवती को चिकनगुनिया हुआ था, इलाज हुआ, वे ठीक भी हुईं लेकिन तबसे हाथों की उंगलियां सूजी रहती हैं. वे बताती हैं, ‘कभी-कभी हाथ इतने सूज जाते हैं कि हाथ से चाकू भी नहीं पकड़ पाती. वजन नहीं उठा पाती लेकिन जब काम करने बाहर आये हैं तो कौन ये सब सुनता है! इलाज के लिए कोई पूछता तक तो नहीं. छुट्टी करो तो हर दिन का 50 रुपये कटता है.’

छुट्टी का नाम आते ही यहां भी वही असंतुष्टि दिखी, जो शाहबाद डेरी इलाके की सहायिकाओं में दिखी थी. माया बताती हैं कि उन्हें एक छुट्टी भी नहीं मिलती.

भगवती ने बताया कि छुट्टी लेना मतलब मैडम के पांव तले जमीन हट जाती है. उन्होंने बताया, ‘कई घर में 3 छुट्टी की बात होती है, लेकिन अगर कहीं बीमार हो गए, किसी के यहां कोई मौत-गमी हो गई तो उसे इसी तीन छुट्टी में एडजस्ट करो! अरे! ये सब कोई बताकर होते हैं कि उसके हिसाब से छुट्टी ली जाएगी. अगर 3 छुट्टी लेने के बाद न आओ तो पैसा कटेगा ही कटेगा.’

ऐसे में कई सहायिकाएं बीमारी में भी काम करने आती हैं. सीता (बदला हुआ नाम)  के साथ कुछ ऐसा ही है. 30 साल की सीता करीब 4 घरों में साफ-सफाई और बर्तन मांजने का काम करती हैं. पति की बीमारी के चलते वे 3 महीने काम पर नहीं गईं, ऐसे में उन्होंने वापस लौटने के बाद 2 महीने में महज दो दिन की छुट्टी लीं, वो भी तब, जब बढ़ती गर्मी के चलते उन्हें उल्टियां और दस्त हुए.

सीता ने झिझकते हुए यह भी बताती हैं कि बीते साल सर्दी के समय में दायीं हथेली में गहरी चोट लगी थी, एकाध दिन तो घरों में काम हल्का रहा लेकिन फिर बर्तन धोने के साबुन के चलते घाव पक गया और तब उन्होंने हाथ में पॉलीथिन पहनकर घरों में काम किया.

वे बताती हैं कि कई घरों में तो ध्यान रखते हैं, लेकिन अधिकतर को हमारी बीमारी से कोई लेना-देना नहीं होता. कई घरों में पैसे तो नहीं कटते, लेकिन छुट्टी के बाद जाओ, तो दोगुना-तिगुना काम करना पड़ता है.

ये बात आते ही तुरंत गिन्नी बताती हैं, ‘हां, जैसे ही मैं मैडम से कहती हूं कि कल नहीं आऊंगी, वो अगले दिन के लिए भी तभी खाना बनवाकर रख लेती हैं.’ गिन्नी की बात से सब सहमत हैं. मिथिलेश, राधा, अनीता सब एक साथ यही कहती हैं कि छुट्टी के बाद अगला दिन सबसे भारी गुजरता है. इनकी शिकायत बस यही है कि मैडम लोग भी तो छुट्टी पर जाती हैं, कुछ समय आराम करती हैं, लेकिन हमारा आराम अगले दिन का जंजाल बन जाता है.

सुनीता (बदला हुआ नाम) की परेशानी थोड़ी अलग है. उनकी उम्र 50 साल के करीब है. पहले एक स्कूल में काम करती थीं, जो लंबी बीमारी के बाद छूट गया. अब एक घर में साफ-सफाई का काम करती हैं. वे बताती हैं, ‘मैडम सब बातों का ख्याल रखती हैं, पैसा, कपड़ा, बीमारी, खाना-पीना, लेकिन छुट्टी एक दिन की भी नहीं करने देतीं. अब ऐसे में कोई कैसे काम करेगा. मेरी मजबूरी है कि बेटी की शादी के लिए पैसा जमा करना है, तब तक तो काम करुंगी ही, फिर देखा जाएगा.’

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मिथिलेश (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

मिथिलेश झाड़ू-पोंछे का काम करती हैं. उन्होंने बताया कि एक बार अचानक छुट्टी लेनी पड़ी, वापस आईं तो मैडम नाराज़ थीं, गुस्से में बातें सुनाईं और फिर टॉयलेट साफ करवाया, जो उनका काम नहीं था.

क्या कभी किसी बात पर डांट के अलावा गली-गलौज आदि भी होती है? रूबी बताती हैं, ‘मैडम लोग का गुस्सा करना आम बात है. कभी आने में देर हो गई या कुछ मांग लिया या उनकी किसी बात का जवाब दे दिया, तो बस…’

भगवती ने बताया कि कई घर ऐसे भी रहे जहां घर के पुरुष गाली देकर बात किया करते थे. महिलाएं भी सही व्यवहार नहीं करती थीं. उन्होंने बताया कि जब तक बर्दाश्त हुआ, तब तक काम किया लेकिन फिर छोड़ दिया. ‘हम गरीब सही, पर इज्जत तो है. बिना बात गाली कौन सुनेगा!’

ये सभी सहायिकाएं या तो निरक्षर हैं, या केवल अपना नाम लिखना जानती हैं. बुरे व्यवहार, गाली-गलौज, छेड़छाड़ को लेकर कानून बने हैं, ये इनमें से कई को नहीं पता. जब इनसे यौन हिंसा या सेक्सुअल हैरेसमेंट के बारे में पूछा तो वे चुप हो गईं. उन्होंने ऐसा कोई अनुभव होने से मना किया, लेकिन कई घरों में ‘ऐसा होता होगा’ की संभावना से इनकार नहीं किया.

हर साल कामकाजी तबके में बोनस, अप्रैज़ल, भत्ता बढ़ाने के बारे में ढेरों चर्चाएं और बहसें सुनाई देती हैं, लेकिन अपने गांव-परिवार से दूर, बच्चों को घर छोड़कर यहां काम कर रही ये सहायिकाएं कई-कई साल तक एक ही वेतन पर काम करती रहती हैं.

कौशल करीब 45 साल की हैं, घर में पति की मारपीट की शिकार भी रही हैं. वे बताती हैं, ‘अगर वे 1,600 रुपये दे रहे हैं तो साथ वाले घरों से तुलना करते रहते हैं कि बाकी सबसे तो ज्यादा ही है. कई बार कुछ और काम करने वालियां आकर कम पैसे पर काम करने को राजी हो जाती हैं, ये सब से हमारा ही नुकसान होता है. आप बताओ 5 साल से काम कर रहे हैं और 200 रुपये बढ़े. कहने को यहां सब पैसे वाले साहब हैं.’

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(आगे) कौशल और रूबी (फोटो: मीनाक्षी तिवारी/द वायर)

रूबी ने बताया कि पैसे बढ़ाने की कहो तो कई बार लोग नाराज़ भी हो जाते हैं. सीता ने बताया कि दो सालों से मैं एक ही तनख्वाह पर काम कर रही हूं, महंगाई, खर्चे, बच्चों की फीस, घर का किराया सब बढ़ गए, लेकिन पगार ही नहीं बढ़ी. एक दिन हिम्मत करके कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. अगले दिन उन्होंने मुझे बिना बात इतनी बुरी तरह डांटा कि मैं रो पड़ी. अपनी मेहनत की कमाई के लिए इतना सुनना-सहना पड़ता है.’

रूबी यहां एक दिलचस्प बात भी बताती हैं. उन्होंने बताया कि मैडम-साहब लोग पैसे बढ़ाने को कहो तो सामान दे देते हैं. कहते हैं, जो चाहिए हमें बताओ हम दिलवाते हैं.’

इसकी क्या वजह हो सकती है? रूबी कहती हैं, ‘शायद उन्हें लगता है कि सामान तो एक बार दिलाना है, पगार तो हर महीने देनी है.’

तृप्ति लाहिरी पत्रकार हैं और अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट क्वार्टज़ की एशिया चीफ हैं. उन्होंने घरेलू सहायिकाओं को केंद्र में रखते हुए ‘मेड इन इंडिया’ [Maid in India] नाम की किताब लिखी, जो साल 2017 में प्रकाशित हुई है. इस किताब में खासकर दिल्ली के घरों में विभिन्न काम कर रही सहायिकाओं की कहानी दर्ज है. इसके लिए तृप्ति ढेरों कामवालियों से मिलीं और उनके अनुभव जाने.

एक इंटरव्यू में तृप्ति से भी यह सवाल किया गया कि कम तनख्वाह की भरपाई कपड़े या सामान देने की वजह क्या है. तृप्ति ने कहा वे भी इसे समझ नहीं सकी हैं कि जो लोग अच्छी आर्थिक स्थिति में लगते हैं, वे दूसरे घर की तुलना में उतनी ही तनख्वाह क्यों नहीं देते. यह अटपटा है. कई ऐसे लोग थे जो अच्छी तनख्वाह नहीं दे रहे थे, लेकिन रहने की जगह आदि जैसी सुविधाएं दी हुई थीं.

पगार बढ़ाने को लेकर इन सहायिकाओं के अनुभव और कड़वे हैं. कई बार पगार समय पर मांगने या बढ़ाने की कहने की सज़ा चोरी के इल्ज़ाम के तौर पर मिलती है.

सुनीता अपनी बेटी के साथ हुआ अनुभव बताती हैं, ‘बेटी को एक घर में 9 हजार रुपये महीने पर काम मिला. पूरे घर की सफाई, खाना-कपड़ा वगैरह सब काम था. पहले महीने उन्होंने 6 हज़ार रुपये देते हुए कहा कि बाकी अगले महीने में दे देंगे. दो और महीने यही हुआ, जिसके बाद बेटी ने कहा तो मैडम बोलीं कि काम ही क्या है मेरे घर में, 6 ही काफी हैं. उसके कुछ दिन उन्होंने उस पर चोरी करने का इल्ज़ाम लगा दिया. कहा मेरे घर से फलां चीज गायब है. उसके बाद बहुत तूतू-मैंमैं, झगड़ा हुआ. मैंने कहा निकालना है तो काम से तो आने को मना कर दो, सालों से यहीं काम किया है, चोरी क्यों करेंगे पर उन्होंने हल्ला करके पड़ोसियों को जमा कर लिया. बहुत तमाशा हुआ. काम तो छूटा ही, पिछले महीनों के बकाया पैसे और उस महीने की तनख्वाह भी गई. कई बार पैसे मांगने गए पर वो और उनके पति बेइज्ज़ती करते थे, सो जाना बंद कर दिया. मेहनत का मोल देने वाला कोई नहीं है.’

सुनीता ने यह भी बताया कि पैसे मांगने को लेकर कई बार मारपीट भी होती है. अगर लोगों को काम नहीं करवाना तो वे सीधे मना नहीं करते, बल्कि कोई बहाना तलाशते हैं.

सीता का भी ऐसा ही अनुभव रहा है. वे बताती हैं, ‘मैंने एक घर में काम शुरू किया, कुछ दिन बाद उन्हें कम पगार पर काम करने वाली कोई और लड़की मिल गई पर मुझे मना कैसे करतीं सो उन्होंने एक दिन मुझ पर मोबाइल चोरी का इल्ज़ाम लगाया. मैं तब दिल्ली में नई थी, यहां के तौर-तरीके समझती भी नहीं थी, तो बस खड़ी रोती रही. उन्होंने पुलिस भी बुला ली. वो लोग आ भी गए पर उन मैडम से ये गलती हो गई कि जिस नंबर के चोरी होने की शिकायत करवाई थी, उसी से पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस ने तो उन्हें कुछ नहीं कहा. लेकिन मुझे तो वो चोर कह गईं. हम जूठन भले ही धोते हैं, लेकिन चोरी करके अपनी किस्मत बदलने की नहीं सोचते.’

कौशल भी बताती हैं कि चोरी का इल्ज़ाम लगाकर काम से निकालना बहुत आम बात है. वो कहती हैं, ‘काम करने वालों पर भरोसा नहीं है लोगों को. करते हैं बहुत लोग गलत काम, ऐसा कोई जो सालों से कॉलोनी में काम कर रहा हो, चोरी करते हुए कैसे रहेगा. एक मैडम को तो इतना शक करती थीं कि अपने किचन में कैमरा लगवा दिया था.’

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(फोटो: रॉयटर्स)

नवंबर 2017 में महाराष्ट्र की एक संस्था के एक अनोखे नाम वाले अभियान ने ध्यान खींचा था, इस अभियान का नाम था राइट टू पी, [Right to pee] यानी पेशाब करने का अधिकार. मुंबई में सामुदायिक तौर पर महिलाओं के लिए साफ और सुरक्षित टॉयलेट न होने को लेकर महिलाओं के इस संगठन ने मुख्यमंत्री के पास जाने का फैसला किया था.

अर्बन यानी शहरी क्षेत्र में पेशाब करने के लिए समुचित जगह के न होने के चलते महिलाओं ने कई बार आवाज उठाई है. हाईवे पर महिलाओं के लिए टॉयलेट की सुविधा न होने के लिए तो ऑनलाइन मंचों पर अभियान भी चला था, लेकिन हमारे घरों में काम करने वाली ये सहायिकाएं ढेरों कानूनी अधिकारों की तरह इस अधिकार से भी वंचित हैं.

किसी भी घरेलू सहायिका को जिस घर में वह काम करती है, वहां टॉयलेट इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं है. पीरियड्स हों या कभी पेट संबंधी कोई तकलीफ, जिन घरों के बाथरूम ये सहायिकाएं साफ करती हैं, उनका प्रयोग ये नहीं कर सकतीं.

भगवती को उम्र के चलते यूरिन संबंधी परेशानी है, जिससे उन्हें थोड़े-थोड़े अंतराल पर पेशाब जाने की जरूरत पड़ती है. वे क्या करती हैं? झेंपते हुए वे बताती हैं, ‘यहीं-कहीं गाड़ियों या झाड़ियों के पीछे कर लेते हैं. कभी लोग देख लेते हैं तो चिल्लाते हैं, पर कोई ये नहीं समझता कि कोई जगह मिली होती तो यहां पेशाब क्यों करते!’

कमोबेश हर सहायिका ने बताया कि उन्हें कभी न कभी देर तक पेशाब रोकने के चलते पेट दर्द और जलन जैसी तकलीफ का सामना करना पड़ा है. इनका सुझाव था कि अगर लोगों को घर का टॉयलेट इस्तेमाल नहीं करने देना है तो कॉलोनी में एक टॉयलेट की व्यवस्था तो करवानी चाहिए, लेकिन कोई इस बारे में सोचता ही नहीं है.

क्या वजह है कि अपने अधिकारों के प्रति सचेत देश की उच्च और मध्यमवर्गीय आबादी अपने घरों में काम कर रहे इन कामगारों के हक़ के प्रति बिल्कुल उदासीन रहती है? घरों में हो रहे इस भेदभाव की वजह क्या है?

तृप्ति लाहिरी से जब यह पूछा गया था, तब उन्होंने जवाब दिया, ‘मुश्किल यह है कि इसे गलत समझा ही नहीं जाता क्यों यहीं उन्होंने अपने घर में होता देखा या उनके आस-पास जो लोग रहते हैं, वे भी यही कर रहे हैं. भारत में हर तरह के रिश्ते में बराबरी नहीं होती, तो फिर इस रिश्ते में कुछ अलग होने का सवाल ही नहीं उठता.’

तृप्ति की किताब ‘मेड इन इंडिया’ में उन्होंने इसे और स्पष्ट रूप से कहा है, ‘देशों के बीच में सीमाएं बाड़ लगाकर दिखाई जाती हैं, लेकिन वर्गों के बीच भेद इस बात से स्पष्ट होते हैं कि आप कहां बैठ सकते हैं, कहां बाथरूम जा सकते हैं और कहां और किसके साथ खा सकते हैं.’

बेबी कुमारी लंबे समय से घरेलू सहायिकाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाले दिल्ली घरेलू कामगार संगठन से जुड़ी हैं. इस तरह घरेलू सहायिकाओं के साथ होने वाले भेदभाव की एक वजह वो क्लास डिफरेंस को मानती है.

वे कहती हैं, ‘वर्ग भेद या क्लास डिफरेंस हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है. ऐसा क्यों है तो इसका जवाब है आर्थिक विषमता. और फिर जो इस देश का सिस्टम को देख सकते हैं. इस सिस्टम में एक तरह पूंजीवादी व्यवस्था है, जो असमान विकास के द्वारा ही आगे बढ़ती है. समाज का एक वर्ग लगातार वंचित रहता है, वहीं दूसरा वर्ग होता है जिसके पास संसाधन, आर्थिक व्यवस्थाएं और उन्नत होती जाती हैं. इसके लिए आर्थिक नीतियां तो जिम्मेदार होती ही हैं. पूंजीवादी व्यवस्था की यह विशिष्टता कह लीजिये कि इसमें असमान विकास होना ही है. इसे किसी भी तरह से इसे पाटने की कोशिश की जाए, तब भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता. इस सरकार से ऐसे किसी प्रयास की उम्मीद ही नहीं है, पिछली सरकारों ने थोड़ी रियायतें देने की कोशिशें कीं, लेकिन अब भी वो वंचित तबका वहीं का वहीं है, कोई खास फर्क नहीं आया.’

क्या कहता है क़ानून

घरेलू सहायकों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए ‘डोमेस्टिक वर्कर्स वेलफेयर एंड सोशल सिक्योरिटी बिल’ बनाया गया है, जिसमें रेसीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन, जिला स्तर से शुरू कर राज्य और केंद्र सरकार के स्तर तक एक बोर्ड बनाकर काम करने वालों के अधिकार सुनिश्चित करने की बात कही गई है, लेकिन कई सालों से लंबित पड़े इस बिल के अब तक पारित न होने के कारण न्यूनतम मजदूरी, तयशुदा काम के घंटे, छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व अवकाश, पालनाघर, काम करने के माहौल, वेतन और बाकी सुविधाओं से जुड़े कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं.

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जुलाई 2017 में नोएडा की महागुन सोसाइटी में एक घरेलू कामगार को कथित तौर पर बंदी बनाए जाने के बाद उनके बस्ती वालों ने सोसाइटी पर पथराव किया था. इस उपद्रव के बाद एक कामगार को सोसाइटी से बाहर निकलती पुलिस (फोटो: पीटीआई)

हालांकि आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तमिलनाडु ने घरेलू सहायकों के लिए कदम उठाये हैं. कुछ राज्यों में इनके लिए न्यूनतम वेतन भी तय किया गया है, कुछ राज्यों में राज्य सरकार ने इनके लिए वेलफेयर बोर्ड भी गठित किये हैं, लेकिन एक समुचित कानून के अभाव में घरेलू कामगारों की एक बहुत बड़ी आबादी किसी भी तरह के मजदूर कानूनों के बगैर ही काम कर रही है.

शक्तिवाहिनी संगठन लंबे समय से घरेलू सहायिकाओं और इनकी तस्करी से जुड़े मामलों पर काम कर रहा है. शक्तिवाहिनी के ऋषिकांत कहते हैं, ‘घरों में काम कर रही लड़कियों/महिलाओं को पता ही नहीं है कि अगर उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है तो इसके बारे में कहां शिकायत करें, वो जानती ही नहीं हैं. महागुन सोसाइटी में हुए घटनाक्रम के बाद गाजियाबाद के जिलाधिकारी ने सभी रेसीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन से कहा था कि कामगारों से जुड़े नियम वे अपने यहां नोटिस बोर्ड पर लगाएं. इन कम करने वालों को किसी भी कानून को लेकर कोई जानकारी ही नहीं है.’

देश में केवल दो ऐसे कानून हैं जो मोटे तौर पर घरेलू सहायिकाओं को ‘श्रमिक’ का दर्जा देते हैं, पहला असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008, और दूसरा कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, हालांकि पहला असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा और कल्याण से जुड़े मामलों में काम करता है और दूसरा काम करने वाली महिलाओं की सुरक्षा के लिए लाया गया था, लेकिन ये दोनों ही घरेलू कामगारों के अधिकारों को लेकर किसी कानूनी रूपरेखा की बात नहीं करते.

स्पष्ट तौर पर घरेलू सहायिकाओं के पास अपनी शिकायतों की सुनवाई के लिए कोई कानूनी रास्ता नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े दिखाते हैं कि साल दर साल घरेलू कामगारों पर हिंसा के मामले बढ़ते ही गए हैं. बीते साल नोएडा की महागुन सोसाइटी में पैसे न देने पर घरेलू सहायिका को बंधक बना लेने का मामला सामने आने के बाद इस तबके के लिए आवाजें उठनी शुरू हुईं. श्रम मंत्रालय ने कहा इस लंबित बिल के लिए सुझाव मांगे और जल्द से जल्द इसे पारित करने की बात कही.

A woman washes clothes outside her house at a slum in New Delhi July 29, 2013. Indian government figures showing that poverty has been cut by a third since 2004 has set off a row between the country's main political parties on whether the data is accurate, and a slanging match between two of the world's best-known economists on the implications for policy. Picture taken July 29, 2013. To match story INDIA-POVERTY/ REUTERS/Anindito Mukherjee (INDIA - Tags: POLITICS SOCIETY POVERTY) - RTX1293J
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

लेकिन जिस तरह संसद सत्र हंगामों की भेंट चढ़ रहे हैं, ऐसे में कामगारों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह है. ऋषिकांत इस बिल को पारित करने में हो रही देर को सरकार की लापरवाही मानते हैं. उनका कहना है, ‘मैं समझ नहीं पाता इस बिल को पास करने में इतनी देर क्यों हो रही है? भारत सरकार खासकर दिल्ली सरकार, क्योंकि यहां ऐसे ढेरों मामले रोज़ आ रहे हैं, कोई अधिनियम क्यों नहीं लेकर आ रही हैं. केंद्र सरकार में इस बिल को कैबिनेट अप्रूवल तक नहीं मिला है. कोई कानून न लाकर हम कहीं न कहीं यह संदेश दे रहे हैं कि हम तो तुम्हें रखेंगे घर में, शोषण करेंगे और सरकार आंख मूंदे रहेगी.’

मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो यह मसौदा पूरी तरह तैयार है और आगामी सत्र में इस बिल के पारित होने की संभावना है.

हालांकि सरकार का रवैया घरेलू कामगारों की दशा को लेकर ढुलमुल ही रहा है. अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन (आईएलओ) दुनियाभर में घरेलू कामगारों के अधिकार सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहा है. आईएलओ की 189वीं संधि, जो विशेष रूप से घरेलू कामगारों के हक़ की बात करती है, पर भारत सरकार ने दस्तखत तो किए हैं, लेकिन इसे अब तक स्वीकार नहीं किया है.

आईएलओ की राष्ट्रीय प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर सुनीता एलुरी मानती हैं कि हालांकि कई भारतीय राज्यों ने घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी की बात कर रहे हैं, लेकिन अब भी घरेलू कामगारों के मसलों के लिए पर्याप्त तंत्र नहीं है.

लेकिन क्या कानून पारित हो जाने से इन मुश्किलों का हल हो जाएगा? श्रमिकों के मुद्दों पर पर लंबे समय से रिपोर्टिंग कर रहे अखिल कुमार के मुताबिक- नहीं. उनका कहना है, ‘कागजों पर अब भी मजदूरों के लिए ढेरों कड़े कानून बने हुए हैं, लेकिन उनका पालन कहां हो रहा है? आप दिल्ली की ही बात करें तो यहां पर्याप्त लेबर इंस्पेक्टर तक नहीं हैं, जो मजदूरों को लेकर दिए गए कानूनों के पालन को सुनिश्चित करें. तो मुझे लगता है कि कानून लाने के साथ उसके पालन की निगरानी भी जरूरी है.

बेबी भी ऐसा ही मानती हैं. चूंकि घरेलू सहायिकाओं के सामने आ रही समस्याएं व्यवहारगत हैं, तो क्या कानून से ‘मालिक’ वर्ग के रवैये में कोई बदलाव आएगा?

बेबी कहती हैं, ‘अगर जीने के अधिकार के तहत इन कामगारों के लिए कोई कानून आता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि जिन घरों में ये काम करती हैं, उनमें कोई बदलाव आ जाएगा. इसके लिए सरकार को निगरानी रखनी होगी. हां ये सोचे कि हृदय परिवर्तन जैसी कोई चीज़ हो जाएगी तो ऐसा नहीं है. मालिक वर्ग हमेशा रहम करता है. डॉ. गोपाल सिंह नेपाली की कविता है कि दासों की प्रीत खुशामद की, मालिक का प्यार रहम भर का, तो ऐसा नहीं हो सकता कि मालिक नौकर से प्यार करने लगे. हां, ये बिल आता है तो हम इसका स्वागत करेंगे, लेकिन यह सही से लागू हो सरकार को इसके लिए चौकसी कमेटियां बनानी होंगी, जो लगातार इस पर नजर रखें.’

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