भारत को यह मानना होगा कि नेपाल स्वतंत्र देश है: पूर्व नेपाली प्रधानमंत्री

‘द वायर’ के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई से नेपाल के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम और भारत-नेपाल संबंधों पर बातचीत की...

साक्षात्कार: ‘द वायर’ के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई से नेपाल के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम और भारत-नेपाल संबंधों पर बातचीत की.

Baburam Bhattarai
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई

बाबूराम भट्टाराई, द वायर से बातचीत करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद. हम आपसे नेपाल के हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों और भारत-नेपाल संबंधों पर बात करना चाहते हैं. अपनी बात मैं दो साल पीछे जाकर शुरू करता हूं, जब सितंबर 2015 में नेपाल के संविधान को अंतिम रूप दिया गया था. आप उस संविधान समिति के अध्यक्ष थे, जिसने संविधान का अंतिम मसौदा तैयार किया. वह एक बड़े उत्सव का क्षण होना चाहिए था. लेकिन हमने देखा कि बहुत जल्दी विरोध शुरू हो गये, असंतोष उत्पन्न हुआ. नेपाल को अस्थिरता के एक नये दौर का सामना करना पड़ा. पीछे मुड़कर देखने पर क्या आपको लगता है कि चीजों को किसी अन्य तरह से किया जाना चाहिए था? गलती कहां हुई और अगर दूसरा मौका मिलता, तो आप इस परिस्थिति का सामना किस तरह करते?

मैं पूरी तरह आपसे सहमत हूं. अगर संविधान सभा के जरिए, संविधान को लागू किया जाता, तो यह मेरे लिए जीत और खुशी का महान क्षण होता, क्योंकि गणतंत्रवाद, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी लोकतंत्र की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करने के लिए माओवादी आंदोलन के भीतर संविधान सभा के माध्यम से संविधान बनाने की रणनीतिक लाइन की तरफदारी मैंने ही की थी.

लेकिन, दुर्भाग्य की बात है कि पहली संविधान सभा में हम संविधान का निर्माण करने में असफल रहे. और दूसरी संविधान सभा में सत्ता समीकरण में बदलाव आ गया था. पुरानी शक्तियां, इन सभी प्रगतिशील एजेंडे के पक्ष में थीं. उनके पास दो-तिहाई बहुमत था. इसलिए संविधान समिति का अध्यक्ष होने के नाते, यह मेरी खुशकिस्मती रही कि मैंने पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच एकराय कायम करने की कोशिश की. लेकिन, बदकिस्मती से, संख्या के खेल के चलते मैं सभी मुद्दों पर एकराय हासिल करने में सफल नहीं हो सका.

कई मुद्दों पर हम समझौतों पर पहुंच गये, लेकिन परिसंघवाद के बड़े सवाल पर हम ऐसा नहीं कर पाए, क्योंकि संघवाद के मुद्दे को मूल रूप से मधेशियों और जनजातियों ने उठाया था. ये दो समूह थे, जो वास्तव में राज्य के तंत्र से पिछले 250 वर्षों से बाहर रखे गये थे. इसलिए ये लोग वास्तविक संघवाद चाहते थे जिनमें इनकी पहचान सुरक्षित रहे राज्यों को स्वायत्तता हासिल हो.

इसके लिए मैंने अपना सर्वोत्तम प्रयास किया. लेकिन, आखिरकार, मैं कहूंगा कि मैं सर्वसम्मति कायम करने में असफल रहा, इसलिए इस मुद्दे पर मैंने अपना आग्रह कायम रखा और संविधान को लागू किये जाने के ठीक बाद मैंने संविधान सभा से अपना इस्तीफा दे दिया.

और अब मैं इस लक्ष्य के लिए काम कर रहा हूं. साथ मैं दूसरे कई मुद्दों को भी मैंने उठाया है, खासतौर पर प्रत्यक्ष तौर पर राष्ट्रपति चुनाव की प्रणाली को. मैं अब भी मानता हूं, नेपाल में हमने जैसी चुनावी-प्रणाली अपनायी है- संसदीय प्रणाली के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली, यह खिचड़ी व्यवस्था देश को राजनीतिक स्थिरता नहीं दे सकती. इसलिए मैं राष्ट्रपति निर्वाचन की प्रत्यक्ष प्रणाली का पक्षधर हूं. इस मुद्दे पर भी मेरे अपने आग्रह थे.

जिस संविधान को अंतिम रूप दिया गया, उसमें कई सकारात्मक बातें थीं. बिना शक के कहा जा सकता है कि यह एक काफी आगे का दस्तावेज था. लेकिन संघवाद का सवाल आज करीब डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी अनुत्तरित है. अब अगर हम वर्तमान समय की ओर रुख करें, प्रचंड की सरकार में आएं. आपके पूर्व कॉमरेड, आपके भूतपूर्व पार्टी नेता,अब वे सत्ता में हैं. उन्होंने संघवाद के सवाल को सुलझाने का वादा करके सरकार बनायी, जिसमें उन संशोधनों को पारित कराने की बात भी शामिल थी, जिसकी मांग मधेशी लोग कर रहे हैं. लेकिन यह अब तक नहीं हुआ है.मई के मध्य में स्थानीय चुनाव कराए जाने की घोषणा की गयी है. क्या आपको लगता है कि जिस तरह से तराई के नेताओं ने इन चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा की है, वैसे में ये चुनाव हो पाएंगे? या क्या आप संशोधनों से पहले चुनाव कराने को समझदारी भरा कदम मानते हैं? या सबसे पहले इन संशोधनों को परित कराने की दिशा में कोशिश की जानी चाहिए थी?

तथ्य यह है कि देश के संघीय ढांचे की पुनर्संरचना या नवीनीकरण का सवाल माओवादी विद्रोह के दौर में उठाये गये केंद्रीय मुद्दों में से एक था. नेपाल में राष्ट्रीयताओं के तीन महत्वपूर्ण समूह हैं. इनमें से एक मधेशी-थारुओं का है, दूसरा जनजाति कहलाता है, और तीसरा समूह क्षत्रियों का है. जनसंख्या के लिहाज से ये तीनों कुल आबादी का एक-एक तिहाई हैं. लेकिन, सत्ता साझेदारी व्यवस्था में क्षत्रियों का समूह 80 फीसदी से ज्यादा सत्ता पर हावी है.

यही कारण है कि मधेशी, थारू और जनजाति लोग राज्य की वास्तविक पुनर्संरचना चाहते हैं, जो कि अपने आप में न्यायोचित है.यही कारण है कि माओवादी विद्रोह में इस मुद्दे को उठाया गया. बाद में मधेशी आंदोलन ने भी इसमें योगदान दिया. लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि कॉमरेड प्रचंड, जो कभी मेरे भी साथी थे, ने संविधान सभा के आखिरी चरण में अपने पक्ष को पूरी तरह से बदल दिया और नेपाली कांग्रेस और यूएमएल (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल(यूनिफाइड माक्र्सिस्ट-लेनिनिस्ट)) से हाथ मिला लिया. इस मुद्दे पर मेरी राय उनसे अलग है.

मेरा अब भी मानना है कि मधेशियों, जनजातियों और थारुओं को साथ में लिये बगैर, जो नेपाल की कुल जनसंख्या का दो तिहाई हैं, हम लोग देश में स्थिरता और शांति कायम नहीं कर सकते. इस तरह हम कह सकते हैं कि संविधान में इनकी मांगों के मुताबिक संशोधन करके इन लोगों को साथ लाये बगैर, मुझे नहीं लगता है कि चुनाव कराया जाना संभव है. और वास्तव में यह सही भी नहीं है.

कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि तराई के मधेशी लोगों की मांगों के खिलाफ प्रतिक्रिया के कारण यूएमएल के केपी ओली जैसे नेता काफी लोकप्रिय हो गये हैं और किसी न किसी रूप में वे इस विचार को बढ़ावा दे रहे हैं कि संघवाद का विचार नेपाल की एकता और अखंडता को कमजोर करेगा और यह एक तरह से नेपाल-विरोधी विचार है. आप राजनीतिक परिदृश्य पर ओली के उभार को किस तरह से देखते हैं? आपको क्या लगता है आज उनकी राजनीतिक शक्ति के स्रोत क्या हैं?

देखिए, दुनियाभर में परेशान करने वाली स्थिति दिखाई दे रही है. कई देशों में, जिनमें अमेरिका भी शामिल है, समावेशन (मेल-मिलाप) का विरोध करने के एजेंडे पर सत्ताधारी वर्ग के एक तबके ने एकाधिकार जमा लिया है और ओली वाम के झंडे तले नेपाल में धुर दक्षिणपंथी और प्रतिगामी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. देखिए, वे भावनाओं को किस तरह से भड़का रहे हैं?

वे मधेशियों और जनजातियों जैसे वंचित वर्गों के साथ सत्ता साझा करने से इनकार करने वाले सत्ताधारी वर्ग की असुरक्षा भावना को हवा दे रहे हैं. वे नेपाली अभिजात्य को एकजुट करना चाह रहे हैं, जो राजतंत्र की समाप्ति के बाद खुद को नेतृत्वविहीन महसूस कर रहे हैं.

इस तरह वे कुछ लाभ कमा सकते हैं. लेकिन आखिरकार यह देश में एक सुदीर्घ अस्थिरता के दौर को जन्म देगा, जो बेहद नुकसानदेह और खतरनाक होगा. यही कारण है कि केपी ओली जैसे लोगों को हतोत्साहित किये जाने और उनका राजनीतिक तौर पर सामना किये जाने की जरूरत है.

नेपाल के पहले से ही काफी भीड़ भरे राजनीतिक परिदृश्य में आपने ‘न्याय शक्ति’ नाम की एक नयी पार्टी बनाने का फैसला करके एक साहसी कदम उठाया. आपका कहना है कि यह एक नई तरह की राजनीति, नेपाल में एक नई तरह की पहल का प्रतिनिधित्व करती है.आखिर आपने यह फैसला क्यों किया, जो माओवादी पार्टी में रहते हुए अपनी लाइन के लिए लड़ने के आपके विचार के उलट है. या आप मौजूदा पार्टियों को प्रभावित करना चाहते हैं? आपको ऐसा क्यों लगा कि एक नई राजनीतिक पार्टी का गठन जरूरी है?

दो या तीन चीजों ने इस निर्णय पर पहुंचने में भूमिका निभाई. पहली बात, पूरी दुनिया में वाम और दक्षिण की पुरानी विचारधारा प्रभाव खो रही है. नव-उदारवाद और राज्य समाजवाद, दोनों ही भीषण संकट से गुजर रहे हैं. पूरी दुनिया में वैकल्पिक विचारधारा और राजनीतिक विचार की खोज की जा रही है. यह सही है कि नेपाल में भी लेफ्ट और राइट की पुरानी बाइनरी काम नहीं कर रही है. इसलिए हम एक नये राजनीतिक विचार या विचारधारा की तलाश कर रहे हैं, जो 21वीं सदी और नेपाल के मौजूदा हालात के अनुकूल हो. मेरे लिए यह एक अहम बिंदु था.

दूसरी बात, चूंकि नेपाल मूलभूत तौर पर राष्ट्रीयताओं के तीन समूहों में बंटा हुआ देश है, इसलिए जरूरत इस बात है कि इन तीनों राष्ट्रीयताओं का एकीकरण किया जाए. देश की अखंडता और शांति बनाए रखने के लिए यह जरूरी है. लेकिन पुरानी राजनीतिक पार्टियां उग्र राष्ट्रवादी समूहों में तब्दील हो गयी हैं, जो सत्ताधारी क्षत्रिय समूह के भावावेश को बढ़ावा दे रही हैं. इस क्रम में मधेशियों और जनजातियों को हाशिये पर डाल दिया गया है.

इसलिए मैंने सोचा…मैं खुद क्षत्रिय पृष्ठभूमि से आता हूं, कि मुझे सभी वर्गो को साथ में लाने और देश की अखंडता बनाए रखने के लिए पहल करनी चाहिए. और तीसरी बात, देश में राजनीतिक बदलाव होने के बाद अब लोगों में आर्थिक विकास की आकांक्षा पैदा हो रही है. नेपाल में यह विरोधाभासी स्थिति है कि यहां लोकतांत्रिक अधिकारों का काफी समुन्नत रूप मौजूद है, मगर आर्थिक विकास के मोर्चे पर यह काफी पीछे है. यह एक बड़ा अंतर्विरोध है. जब तक कि हम देश के तेज आर्थिक विकास के रास्ते पर नहीं चलेंगे, तब तक हम लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकते हैं.

भीषण गरीबी और बेरोजगारी देश के सामने खड़ी सबसे बड़ी समस्या है. गरीबी हटाने के लिए आर्थिक विकास और समृद्धि का स्तर बढ़ाया जाना जरूरी है. राजनीतिक पार्टी को अपना फोकस इस ओर करना चाहिए.

चौथी बात, दुनिया भर में राजनीति और राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार और कु-प्रशासन के दलदल में डूबी हुई हैं, खासतौर पर दक्षिण एशियाई हिस्से में. इसलिए नेपाल में भी राजनीतिक दलों में भ्रष्टाचार और दुराचार का बोलबाला है. इन सारी चीजों को ध्यान में रखते हुए हमने न्याय शक्ति पार्टी का गठन किया.

माओवादी आंदोलन और संघर्ष, जिसमें सशस्त्र संघर्ष भी शामिल है, नेपाल के हालिया इतिहास का अविभाज्य अंग रहा है. यह भी कहा जा सकता है कि संविधान सभा और संविधान, और पिछले सात-आठ सालों में जितनी भी तरक्की हुई है, वह इस संघर्ष के बगैर नहीं हुई होती. फिर भी कई लोग हैं जो यह कहते हैं कि वे न्याय शक्ति पार्टी और आपके नेतृत्व की तरफ आकर्षित हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि आप किसी न किसी रूप में अपने अतीत को नकार दें, पीपुल्स वार (जन-युद्ध) को नकार दें. कुछ उदारपंथियों को तो यह भी कहते सुना गया है कि बाबूराम को पीपुल्स वार के लिए माफी मांगनी चाहिए. ऐसी मांगों पर आप क्या टिप्पणी करना चाहेंगे?

नेपाल के संदर्भ में, नेपाल के माओवादी आंदोलन की अलग से परखने की जरूरत है. यह सिर्फ एक वर्ग आधारित आंदोलन नहीं था. नेपाल की बात करें, तो यहां बीसवीं सदी के अंत तक लोकतांत्रिक क्रांति पूर्ण नहीं हुई थी. इसलिए राजतंत्र के नेतृत्व में पालित सामंती व्यवस्था को समाप्त करने के लिए हमें विद्रोह करने की जरूरत थी. और मेरे लिए राजतंत्र को समाप्त करने और पूर्ण लोकतांत्रिक क्रांति के लिए माओवादी औजार ज्यादा वांछित और उपयोगी थे.

इस सीमा तक, माओवादी पार्टी का माओवादी विद्रोह तानाशाही व्यवस्था से लड़ने के लिए समय की जरूरत था. ऐसा समय आता है, जब लोगों को शस्त्र उठाना पड़ता है. यह कई दूसरी जगहों पर भी हुआ है. नेपाल में भी ऐसा ही हुआ. नेपाली कांग्रेस ने राणाओं के खिलाफ हथियार उठाया. और यूएमएल ने राजशाही के नेतृत्व में चल रहे पंचायती तानाशाही तंत्र के खिलाफ शस्त्र उठाया. इसलिए माओवादियों के पास राजशाही के खिलाफ शस्त्र उठाने के लिए तमाम कारण थे.

वह आंदोलन का एक खास चरण था. वह चरण अब बीत चुका है. इसलिए अब उस पर पछताने की जगह या उसे नकारने की जगह, हमें उस आंदोलन से हासिल हुई लोकतांत्रिक प्राप्तियों को संरक्षित करना चाहिए. क्योंक इसके कारण ही हमें यह गणतंत्रवाद, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी लोकतंत्र मिला है. हमें आगे बढ़ना चाहिए.

यही कारण है कि….इसलिए जैसा कि मैंने अभी आपको कहा, प्रशासन, विकास और समावेशन का नया एजेंडा, माओवादी विचारधारा के लिए अब ज्यादा उपयोगी नहीं होगा. इसलिए इसे और बढ़ाये जाने की जरूरत है. मैं कहूंगा कि इसे पूरी तरह से छोड़ा न जाए, लेकिन इसे इस तरह से विकसित किया जाए कि यह 21वीं सदी की परिस्थितियों और नेपाल के हालातों के अनुकूल हो.

अब हम भारत-नेपाल संबंधों पर आते हैं. हमने देखा कि जिस समय नेपाल में संविधान को अंतिम रूप दिया गया, भारत सरकार की तरफ से आई प्रतिक्रिया काफी नकारात्मक रही. क्या इसके पीछे कारण यह था कि मधेशियों के द्वारा उनको पूरी तरह शामिल करनेवाले जिस संघीय ढांचे की मांग की जा रही थी, उसे नहीं माना गया था या आपको लगता है कि यह संविधान के एक सिद्धांत के तौर पर धर्मनिरपेक्षता को शामिल करने को लेकर दी गई प्रतिक्रिया थी. अब जबकि नेपाल में संविधान को स्वीकार करने के बाद कई महीने बीत गये हैं, भारत की नीति को लेकर आपकी समझ किस तरह से बनी है? आपको क्या लगता है, इस तरह की नकारात्मक प्रतिक्रिया के पीछे क्या वजह थी?

नई दिल्ली के अपने दौरे के दौरान मैंने, जिन दोस्तों से मेरी नई दिल्ली में मुलाकात हुई उनके सामने अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखने की कोशिश की थी. समय बदल गया है, लेकिन नई दिल्ली और काठमांडु में राजनीतिक सोच नहीं बदली है.यह समय है जब हम भारत और नेपाल के बीच के संबंधों के सारे पहलुओं की समीक्षा करें और 21वीं सदी की मांगों को ध्यान में रखते हुए आपसी संबंधों का खाका नये सिरे से खीचें. इसलिए नेपाल को भारत की केंद्रीय आकांक्षाओं और जरूरतों को जानना चाहिए. और भारत को भी नेपाली जनता की केंद्रीय आकांक्षा को समझना चाहिए.

इसलिए मेरी समझ में, भारत की केंद्रीय चिंता सुरक्षा और सामरिक मुद्दे हैं और नेपाल की केंद्रीय चिंता यह है कि भारत पूरी तरह से नेपाल की संप्रभुता को स्वीकार नहीं करता है और नेपाल की आर्थिक तरक्की में योगदान नहीं करता है. इसलिए जैसा मैं मानता हूं, अगर वह सही है, तो दोनों पक्षों को मिल बैठकर इस मुद्दे को सुलझाना चाहिए.

इसलिए आपने यह फार्मूला दिया है. हाल ही में आपने कहा कि नेपाल को भारत के सुरक्षा हितों की ओर ध्यान देना चाहिए और भारत को नेपाल की आर्थिक हितों का ख्याल रखना चाहिए. लेकिन, वास्तव में, ठोस रूप में, इसका क्या अर्थ है? उदाहरण के लिए हमें मालूम है कि भारत यह कहेगा कि नेपाल को पनबिजली परियोजनाओं के प्रति ज्यादा सकारात्मकता दिखानी चाहिए, जिससे भारत और नेपाल दोनों को लाभ होगा, लेकिन जिसका नेपाल विरोध करता रहा है. इसलिए ठोस रूप में आपका फार्मूला क्या है? यह किस तरह से काम करेगा?

एक बात जो मैं कहना चाह रहा था वह यह कि चूंकि दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी है, नेपाल में संविधान को लागू करने या नेपाल की सरकार के नेतृत्व को लेकर भारत सवाल उठाता रहा है, जाहिर है इसे नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत के हस्तक्षेप की तरह देखा गया, जो सही भी है.

यह करने के बजाय भारत को व्यापक सामरिक और नीतिगत मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए..न कि क्षुद्र मैक्रो मैनेजमेंट पर अपना ध्यान लगाना चाहिए. और नेपाल को भी भारत की वास्तविक सुरक्षा एवं अन्य चिंताओं को प्रति संवेदनशीलता दिखानी चाहिए. इसलिए मैं कहता हूं कि क्षेत्रीय शक्ति और भविष्य में वैश्विक शक्ति बनने की इच्छा रखनेवाले भारत की सुरक्षा और सामरिक मसलों पर नेपाल से निश्चित अपेक्षाएं होंगी. इसलिए नेपाल को इन मसलों पर साफ-साफ वचनबद्धता प्रदर्शित करने से हिचकना नहीं चाहिए, क्योंकि एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद हमारा राब्ता भारत से ज्यादा पड़ता है.

दोनों पड़ोसियों- भारत और चीन के साथ हमारा संबंध अच्छा होना चाहिए. इसलिए इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें नेपाल को शत्रु बनाए बगैर या चीन की तर्कसंगत सुरक्षा चिंताओं का ध्यान रखते हुए भारत की तर्कसंगत सुरक्षा चिंताओं के प्रति भी ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए. नेपाल को यह करना चाहिए.

और भारत से यह उम्मीद की जाती है कि वह इस बात का सम्मान करने में हिचकता हुआ न दिखे कि नेपाल ऐतिहासिक रूप से एक स्वतंत्र और संप्रभु देश रहा है. उन्हें यह करना चाहिए. नेपालियों की वर्तमान आकांक्षा त्वरित आर्थिक विकास की है. इसके लिए पनबिजली और दूसरे संसाधनों के विकास और निवेश के लिए भारत को सहयोग देना होगा.

कुछ नेपाली राजनीतिक नेता, जिनमें मुख्यधारा की यूएमएल, माओवादी और यहां तक कांग्रेस भी शामिल है, ये आरोप लगाते हैं कि नेपाल के मधेशी आंदोलन को भारत सरकार भड़का रही हैं और भारत मधेशी कार्ड का इस्तेमाल नेपाल की संप्रभुता को कमजोर करने के लिए कर रहा है. आप ऐसे आरोपों को कितना विश्वसनीय मानते हैं या आपको लगता है कि यह सिर्फ नेपाल के अंदर के दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी वृत्तांत का एक अंग मात्र है?

संघवाद के मुद्दे को सबसे पहले माओवादियों ने फिर मधेशी राजनीतिक पार्टियों ने उठाया था. बाद में इसे एनसी और यूएमएल ने समर्थन दिया. इसलिए यह मांग नेपाल के भीतर से उठी है. यह नेपाल के अंदर के राजनीतिक दलों का एजेंडा रहा है. लेकिन जब वे इस सवाल का हल निकालने में असफल रहे, तब इसे भारत-समर्थित माना गया. इसलिए नेपाली राजनीतिक दलों के एक धड़े ने इन सारे तरक्कीपसंद एजेंडे की ब्रांडिंग भारत समर्थित के तौर पर करनी शुरू कर दी. इसलिए मेरी राय में यह आरोप सही नहीं है.

गणतंत्रवाद, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी लोकतंत्र के एजेंडे वास्तव में राजनीतिक दलों द्वारा उठाये गये नेपाली जनता के एजेंडे हैं और भारत को इसके लिए उकसाने वाले के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. न ही भारत को इसे उकसाना चाहिए. क्योंकि अगर अगर भारत की केंद्रीय चिंता सुरक्षा और अन्य चीजों को लेकर है, तो उन्हें अपने हितों को लेकर खुल कर सामने आना चाहिए. इसकी जगह भारत को एक समूह के खिलाफ दूसरे समूह को समर्थन देते हुए नहीं दिखना चाहिए.

इसलिए मेरा मानना है कि भारत को यहां खुद को दुरुस्त करने की जरूरत है. और जहां तक नेपाल की बात है, हमारे आंतरिक मुद्दों को सिर्फ इसलिए हाशिये पर नहीं डाला जाना चाहिए कि वे बाहर की शक्तियों द्वारा उठायी गयी हैं. मैं सारे प्रगतिशील एजेंडे को ‘राष्ट्र विरोधी’ और ‘विदेश समर्थित’ कह कर ब्रांड करने की इस प्रवृत्ति को देश के लिए काफी नुकसानदेह मानता हूं.

भट्टाराई मेरा आखिरी सवाल, हमने पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जीत और यूपी के मुख्यमंत्री के तौर योगी आदित्यनाथ का चयन देखा. निश्चित तौर पर यह उत्तर प्रदेश और भारत का अंदरूनी मसला है, लेकिन एक हद तक देखें, तो योगी आदित्यनाथ नेपाल के कुछ मुद्दों को लगातार उठाते रहे हैं. वे नेपाल में राजशाही की फिर से बहाली के पक्षधर हैं. वे नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के विचार के भी समर्थक हैं. क्या आपको लगता है कि आदित्यनाथ का प्रभाव सीमा के दूसरी ओर भी महसूस किया जा सकता है, खासतौर पर तब जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं?

मुझे नहीं लगता कि भारत के अंदरूनी राजनीतिक, चुनावी मुद्दों पर मेरा बोलना सही होगा. भले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का नेपाल को लेकर लेकर विचार भिन्न किस्म के रहे हों, लेकिन, अब वे महत्व नहीं रखते, क्योंकि विदेश नीति के मामले में सारी शक्तियां केंद्र के पास होती हैं. और मुझे लगता है कि राज्य सरकार को केंद्र सरकार का ही अनुकरण करना होगा.

इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसका कोई खास प्रभाव पड़ेगा. व्यक्तिगत तौर पर लोग अलग-अलग राय रख सकते हैं. एक लोकतंत्र में ऐसा होता है. मुझे नहीं लगता कि इसका नेपाल पर इसका कोई गंभीर प्रभाव पड़ेगा.

 

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