पुण्यतिथि विशेष: 1957 में प्रकाशित नीरा बेन देसाई का शोधग्रंथ ‘वीमेन इन मॉडर्न इंडिया’ स्त्रियों की दुर्दशा पर मौलिक शोधों के सिलसिले में अनूठा साबित हुआ. 1974 में देश में स्त्रियों की दशा के विश्लेषण के लिए गठित जिस समिति ने ‘समानता की ओर’ शीर्षक से बहुचर्चित विस्तृत रिपोर्ट दी थी, नीरा बेन उसकी सदस्य थीं.
अंधेरे कमरों और
बंद दरवाजों से
बाहर सड़क पर
जुलूस में और
युद्ध में तुम्हारे होने के
दिन आ गये हैं.
स्त्रियों से नृशंसता के खिलाफ देश में कहीं भी उनके गुस्से का ज्वालामुखी फूटता है, तो अपने समय के महत्वपूर्ण कवि गोरख पांडे की इन पंक्तियों को बार-बार दोहराया जाता है, लेकिन भारत में स्त्री आंदोलन की उस ‘कुल माता’ की याद शायद ही किसी को आती हो, जिसकी लंबी समयपूर्व जद्दोजहद ने देश में स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्षों की इतनी मजबूत नींव डाली कि आगे चलकर वह मंजिलों पर मंजिलें तय कर पाया!
जी हां, यहां उन नीरा बेन देसाई की बात की जा रही है, जिनकी गिनती न सिर्फ देश बल्कि दुनिया की ऐसी गिनी-चुनी विदुषियों में की जाती है, जिन्होंने 1970 से पहले स्त्रियों की समस्याओं पर लिखा और न सिर्फ लिखा बल्कि उनके समाधान के संघर्षों में प्राण प्रण से जूझती रहीं.
स्वतंत्र भारत में स्त्रियों की स्वतंत्रता का संग्राम तो, कहा जाता है कि सही मायनों में नीरा बेन ने ही शुरू किया और नौ साल पहले 25 जून, 2009 को कैंसर के हाथों हारकर हमारे बीच से गईं तो भी अपने पीछे उसको गति देने वाले कई संस्थान छोड़ गई हैं.
नीरा बेन का जन्म 1925 में एक मध्यवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ और वे कम से कम इस अर्थ में सौभाग्यशालिनी थीं कि उनके माता-पिता दोनों मन से उदार और विचारों से प्रगतिशील थे.
जाहिर है कि उनके घर के बाहर की दुनिया देखने और उससे भरपूर सीखने के रास्ते में कोई बाधा नहीं आनी थी.
मुंबई के थियोसोफिस्ट फेलोशिप स्कूल से शुरुआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने 1942 में वहीं के एलफिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया तो देश का स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था.
एक कर्तव्यनिष्ठ देशवासी के तौर पर वे उसमें सक्रिय हुए बिना भला कैसे रहतीं? फलस्वरूप, राष्ट्रपिता के आह्वान ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में कूदीं और जेल की सजा हुई तो उसको उसी जेल में बंद स्त्री सशक्तीकरण से जुड़ी शख्सियतों से मेलजोल के अवसर में बदल लिया.
फिर तो जैसा कि कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने लिखा है, ‘वे पूरी तरह ‘फेमिनिस्ट’ हो गईं.’ 1947 यानी देश की स्वतंत्रता के वर्ष में उन्होंने बीए किया, जिसके बाद प्रख्यात समाजशास्त्री अक्षय रमनलाल देसाई से ब्याह दी गईं.
विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और भारत में स्त्रियों की भूमिका के आर्थिक, मनोवैज्ञानिक व ऐतिहासिक पहलुओं पर शोध किया. इस शोध में उन्होंने 1950 के शुरुआती वर्षों में जो निष्कर्ष निकाले थे, 1970 के बाद देश में हुए स्त्री अधिकार आंदोलनों ने उन्हीं के आलोक में अपना रास्ता बनाया.
1957 में प्रकाशित उनका शोधग्रंथ ‘वीमेन इन मॉडर्न इंडिया’ देश की स्त्रियों की दुर्दशा पर मौलिक शोधों के सिलसिले में अनूठा साबित हुआ तो 2004 में आई उनकी एक और पुस्तक ‘फेमिनिज्म इन वेस्टर्न इंडिया’ भी खूब चर्चित हुई.
1954 में वे मुंबई स्थित देश के पहले महिला विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्राध्यापक बनीं तो पाया कि उनकी ज्यादातर छात्राएं मूल स्त्री प्रश्नों पर कोई तार्किक नजरिया नहीं रखतीं.
इस स्थिति को बदलने और स्त्री प्रश्नों पर खुली चर्चाओं के लिए पढ़ने-पढ़ाने, बहसें व सम्मेलन आयोजित करने में उन्होंने अपने अगले कई बरस समर्पित कर दिए. उनके ही प्रयासों से उनके विश्वविद्यालय में स्त्रियों से संबंधित अध्ययनों के लिए एक अनुसंधान केंद्र की स्थापना की गई.
ऐसे अध्ययनों को दूसरे विश्वविद्यालयों में भी विशिष्ट दर्जा दिलाने के लिए उन्होंने उनके पाठ्यक्रम, अध्ययन सामग्री, शोध सामग्री और विषयवस्तु खुद तैयार की. उन्होंने इस सबको अमेरिका-यूरोप में प्रचलित ढांचे से इतर देश की जरूरतों के अनुकूल बनाने के लिए भी कुछ उठा नहीं रखा.
1974 में देश में स्त्रियों की दशा के विश्लेषण के लिए गठित जिस समिति ने ‘समानता की ओर’ शीर्षक से बहुचर्चित विस्तृत रिपोर्ट दी थी, नीरा बेन भी उसकी सदस्य थीं.
कई समकालीनों की नजर में नीरा बेन में विद्वता व सक्रियता का अद्भुत सामंजस्य था. वे अकादमिक उद्यम और ऐक्टिविज्म दोनों को एक सांचे में ढाल लेती थीं. 1981 में कई और स्त्री विचारकों के सहयोग से उन्होंने स्त्रियों से संबंधित अध्ययनों पर पहला राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया.
1982 में गठित ‘इंडियन एसोसिएशन आॅफ वीमेंस स्टडीज’ की वे संस्थापक सदस्य थीं, जबकि 1988 में उन्होंने ‘साउंड ऐंड पिक्चर आर्काइव आफ वीमेन’ की स्थापना की.
अगाथा क्रिस्टी की जासूसी कहानियों की जबर्दस्त प्रशंसक नीरा की एक और विशेषता यह थी कि वे सार्वजनिक जीवन में ‘और’ होकर व्यक्तिगत जीवन में ‘कुछ और’ नहीं थीं.
उनके राजनीतिक व व्यक्तिगत जीवनदर्शन समान थे और वे स्त्री आंदोलनों की सफलता और विकास के लिए स्त्री संबंधित अध्ययनों को अपरिहार्य मानती थीं.
उनका कहना था कि ज्ञान को स्त्री की संवेदना, प्रवृत्ति और दृष्टिकोण के अनुकूल बनाना हो तो शिक्षण, प्रशिक्षण, दस्तावेजलेखन, अनुसंधान व अभियान के हर मोर्चे पर सक्रियता के बिना काम नहीं चलने वाला.
स्त्री आंदोलन के उन आंरभिक व मुश्किलों से भरे हुए दिनों में उन्होंने कई ऐसी स्त्री अनुसंधानकर्ताओं को अपने प्रोत्साहन, मार्गदर्शन व समर्थन से उपकृत किया, जिनमें से कई आज स्वयं संस्थान बन गई हैं.
हां, कट्टरपंथी उन दिनों भी कुछ कम गुल नहीं खिलाते थे. उनकी बड़ोदरा की एक सहयोगी ने अपनी पसंद के मुस्लिम युवक से शादी कर ली और कट्टरपंथियों ने वहां उसका जीना दूभर कर दिया तो नीरा उस दम्पत्ति को अपने मुम्बई के घर में ले आयीं.
एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वे मानवाधिकारों का रक्षा के लिए तो लड़ती ही थीं, नर्मदा बचाओ आंदोलन व काश्तकारी संगठन से भी जुड़ी थीं.
उन्हें भारतीय भाषाओं में प्रगतिशील व वैकल्पिक नजरिये वाले लेखन की कमी दूर करने के लिए उनके द्वारा किए गए मूल्यवान अनुवादों के लिए भी याद किया जाता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)