क्या आपातकाल को दोहराने का ख़तरा अब भी बना हुआ है?

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नज़ारा दिख रहा है. सारे अहम फ़ैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.

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The Prime Minister, Shri Narendra Modi visiting the Terracota Warriors Museum, in Xi'an, Shaanxi, China on May 14, 2015.

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नज़ारा दिख रहा है. सारे अहम फ़ैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi visiting the Terracota Warriors Museum, in Xi'an, Shaanxi, China on May 14, 2015.
नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

हर साल की तरह इस बार भी 25 जून को आपातकाल की बरसी मनाई गई. लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाते हुए इस मौके पर 43 बरस पुराने उस सर्वाधिक स्याह और शर्मनाक अध्याय, एक दु:स्वप्न यानी उस मनहूस कालखंड को याद किया गया, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था.

विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे. सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आजादी का गला घोंट दिया गया था. संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी, जिसमें वही पकता था जो वे और उनके बेटे संजय गांधी चाहते थे.

सरकार के मंत्रियों समेत सत्तारूढ़ दल के तमाम नेताओं की हैसियत मां-बेटे के अर्दलियों से ज्यादा नहीं रह गई थी. आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली.

निस्संदेह आपातकाल की याद हमेशा बनी रहनी चाहिए लेकिन आपातकाल को याद रखना ही काफी नहीं है. इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि इस बात के प्रति सतर्क रहा जाए कि कोई भी हुकूमत आपातकाल को किसी भी रूप में दोहराने का दुस्साहस न कर पाए.

सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत है? तीन साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था.

हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही थी.

वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है. यह अलग बात है कि आपातकाल के दौरान माफीनामे लिखकर जेल से छूटने वालों में सर्वाधिक नेता और कार्यकर्ता जनसंघ (अब भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही थे.

आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं.

बकौल आडवाणी, ‘भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है. आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता. सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं. लोकतंत्र के सुचारू संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.’

आडवाणी का यह बयान हालांकि तीन साल पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता कहीं ज्यादा आज महसूस हो रही है. हालांकि आडवाणी ने अपने इस पूरे वक्तव्य में आपातकाल के खतरे के संदर्भ में किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया था मगर, चूंकि इस समय केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश प्रमुख राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं और नरेंद्र मोदी सत्ता के केंद्र में हैं, लिहाजा जाहिर है कि आडवाणी की टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की ओर ही था.

आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है.

इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था. फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर.

जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, देश में इस समय सही मायनों में दो ही अखिल भारतीय पार्टियां हैं- कांग्रेस और भाजपा. कांग्रेस के खाते में तो आपातकाल लागू करने का पाप पहले से ही दर्ज है, जिसका उसे आज भी कोई मलाल नहीं है. यही नहीं, उसकी अंदरूनी राजनीति में आज भी लोकतंत्र के प्रति कोई आग्रह दिखाई नहीं देता.

पूरी पार्टी आज भी एक ही परिवार की परिक्रमा करती नजर आती है. आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी की आज हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में आधिकारिक विपक्षी दल के दर्जे की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं. ज्यादातर राज्यों में भी वह न सिर्फ सत्ता से बेदखल हो चुकी है बल्कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है.

दूसरी तरफ केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है. सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं.

आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था.

आज भाजपा में तो अमित शाह, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फड़नवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते. वैसे इस सिलसिले की शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वैंकेया नायडू ने की थी, जो अब उपराष्ट्रपति बनाए जा चुके हैं.

मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके प्रायोजित समर्थकों का उत्साही समूह मोदी-मोदी का शोर मचाता है और किसी रॉक स्टार की तरह मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं.

लेकिन बात नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार की ही नहीं है, बल्कि आजादी के बाद भारतीय राजनीति की ही यह बुनियादी समस्या रही है कि वह हमेशा से व्यक्ति केंद्रित रही है. हमारे यहां संस्थाओं, उनकी निष्ठा और स्वायत्तता को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना महत्व करिश्माई नेताओं को दिया जाता है. नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक की यही कहानी है.

इससे न सिर्फ राज्यतंत्र के विभिन्न उपकरणों, दलीय प्रणालियों, संसद, प्रशासन, पुलिस, और न्यायिक संस्थाओं की प्रभावशीलता का तेजी से पतन हुआ है, बल्कि राजनीतिक स्वेच्छाचारिता और गैरजरूरी दखलंदाजी में भी बढ़ोतरी हुई है.

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इंदिरा गांधी. (फोटो साभार: विकीपीडिया)

यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है. आज देश में लोकतंत्र का पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो.

आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ़ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है.

यही नही, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने तो अभूतपूर्व कदम उठाते हुए न्यायपालिका के इस सूरत-ए-हाल को प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से भी बयान किया था. उन्होंने साफ कहा था कि देश की सर्वोच्च अदालत में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और देश के लोकतंत्र पर खतरा मंडरा रहा है.

भारतीय रिजर्व बैंक जैसे सर्वोच्च और विश्वसनीय वित्तीय संस्थान की नोटबंदी के बाद से जो दुर्गति हो रही है, वह जगजाहिर है. सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें जोरों पर जारी हैं.

सूचना आयुक्त और मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पद लंबे समय से खाली पड़े हैं. लोकपाल कानून बने तीन साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन सरकार ने आज तक लोकपाल नियुक्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है.

हाल ही में कुछ विधानसभाओं और स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं उससे हमारे चुनाव आयोग और हमारी चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं, जो कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है.

नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है. चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले दिनों हम गोवा और मणिपुर में देख चुके हैं.

यही नहीं, संसद और विधानमंडलों की सर्वोच्चता और प्रासंगिकता को भी खत्म करने के प्रयास सरकारों की ओर से जारी है. लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति सिर्फ संसद के बाहर ही नहीं, बल्कि संसद की कार्यवाही के संचालन के दौरान भी सत्तारूढ़ दल के नेता की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं.

राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का व्यवहार तो और भी ज्यादा अजीबो-गरीब हैं. वे न सिर्फ सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ बयानबाजी करते हैं बल्कि कई मौकों पर अनावश्यक रूप से प्रधानमंत्री का प्रशस्ति गान करने में भी संकोच नहीं करते.

जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है. आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है. इसकी अहम वजहें हैं- बडे कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़.

इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है. सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है- उसके मुंह में विज्ञापन ठूंसकर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिये उसकी गर्दन मरोड़ने का डर दिखाकर. इस सबके चलते सरकारी और गैर सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म सा हो गया है.

(L-R) Justices Kurian Joseph, Jasti Chelameswar, Ranjan Gogoi and Madan Lokur address the media at a news conference in New Delhi, India January 12, 2018. REUTERS/Stringer
पिछले दिनों चार वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक से न चलने को लेकर देश के इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है.

पिछले तीन वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार और सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन. यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किलभरी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है.

आपातकाल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अतिकेंद्रीकरण, निरंकुशता, व्यक्ति-पूजा और चाटुकारिता की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी. आज फिर वैसा ही नजारा दिख रहा है. सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, केंद्रीय मंत्रिपरिषद की भी आम राय से नहीं किए जाते, सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है.

इस प्रवृत्ति की ओर विपक्षी नेता और तटस्थ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, बल्कि सत्तारुढ़ दल से जुडे कुछ वरिष्ठ नेता भी यदा-कदा इशारा करते रहते हैं. इस सिलसिले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के कई बयानों को याद किया जा सकता है. ये दोनों नेता साफ तौर पर कह चुके हैं कि मौजूदा सरकार को ढाई लोग चला रहे हैं.

आपातकाल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है. संसद को अप्रासंगिक बना देने की कोशिशें जारी हैं. न्यायपालिका के आदेशों की सरकारों की ओर से खुलेआम अवहेलना हो रही है.

असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं. आपातकाल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमेरिका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था तो अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है.

आपातकाल में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडा पर अमल किया जा रहा है. इस एजेंडा के तहत दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं, रवायतों और मान्यताओं का क्षरण तेजी से जारी है.

अलबत्ता देश में लोकतांत्रिक चेतना जरूर विकसित हो रही है. जनता ज्यादा मुखर हो रही है और वह नेताओं से ज्यादा जवाबदेही की अपेक्षा भी रखती है. लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं. वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है. मौजूदा शासक वर्ग इसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)