श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं को शायद ही दंडित किया जाता है, मगर जब पिछले दिनों वहां की न्यायपालिका ने एक अतिवादी बौद्ध भिक्षु को दंडित कर ‘इतिहास रचा’ तब भी भारत समेत दक्षिण एशिया का मीडिया खामोश रहा.
‘मैंने मुल्क के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी की है.’ गनानसारा ने रिपोर्टरों से कहा जब वह जेल भेजे जा रहे थे. ‘मुझे अफसोस क्यों हो?’
पड़ोसी मुल्क श्रीलंका बौद्ध भिक्षुओं को शायद ही दंडित करता है. मगर कुछ दिन पहले श्रीलंका की न्यायपालिका ने इतिहास रचा जब उन्होंने गालागोदा ऐथे गनानसारा, जो बोडु बाला सेना (बौद्ध शक्ति दल) के अगुआ हैं, जिन्हें ‘थीरो’ अर्थात आदरणीय कहा जाता है, उन्हें जेल भेजा.
अदालत से जब उन्हें जेल भेजा जा रहा था तब वहां एकत्रित उनके तमाम अनुयायी जिनमें बौद्ध भिक्षुओं की तादाद काफी थी-बौद्ध प्रार्थनाएं कर रहे थे. खबरें बताती हैं कि गनानसारा को मिली इस सजा के बाद समूचे श्रीलंका में अभी भी माहौल सरगर्म है.
श्रीलंका के विभिन्न शहरों में इसका विरोध करते हुए जुलूस निकाले गए, जिसमें यह मांग की गई कि राष्ट्रपति सिरिसेना अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग कर उन्हें सजामुक्त कर दें.
प्रदर्शनकारियों ने यह भी मांग की है कि उनके सम्मानित भिक्षु को जेल का पहनावा पहनने से छूट दी जाए तथा भिक्षुओं का केसरिया पहनावा पहनने की इजाजत दी जाए.
श्रीलंका के सामाजिक-राजनीतिक जीवन से नावाकिफ लोगों के लिए शायद यह समझना मुश्किल हो कि आखिर एक बौद्ध भिक्षु अचानक वहां के समाज में इस किस्म की ध्रुवीकरण की शख्सियत कैसे बन गया.
याद कर सकते हैं कि अदालत ने गनानसारा को अदालत के अंदर संध्या एकनालिगोडा को (जो प्रगीत एकनालिगोडा नामक राजपक्षे सरकार के वक्त़ में गायब पत्रकार की पत्नी हैं और जो उनके इस गायब किए जाने के खिलाफ लगातार संघर्षरत रही हैं) को खुले में धमकाते देखा जब अदालत उस पत्रकार के गायब होने के मामले की सुनवाई कर रही थी.
यह संध्या एवं उनके सहयोगियों के प्रयासों का ही नतीजा है कि फिलवक्त इस मामले के लिए जिम्मेदार सेना गुप्तचर (मिलिटरी इंटिलिजेंस) विभाग के कई अधिकारी जेल में हैं, जिन्हें जमानत तक नहीं दी गई है.
मालूम हो कि प्रगीत के अपहरण एवं उनके गायब किए जाने का मामला अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बना था क्योंकि वह तमिल विद्रोहियों के खिलाफ श्रीलंका की सेना द्वारा कथित तौर पर किए गए रासायनिक हथियारों के मामले की जांच कर रहे थे ( 24 जनवरी 2010).
पीछे मुड़ कर देखें तो श्रीलंकाई पत्रकारिता के लिए वह एक बेहद खतरनाक दौर था जब पत्रकारों को आतंकित किया जा रहा था, गायब किया जा रहा था या उनकी हत्या की जा रही थी. इस दौरान वे सभी पत्रकार निशाने पर थे जो तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की नीतियों से असहमति रखते थे.
प्रगीत के गायब होने के महज एक साल पहले अपने दफ्तर के अन्दर लासंत विक्रमातुंगे नामक वरिष्ठ पत्रकार की आर्मी इंटेलिजेंस के लोगों द्वारा की गई हत्या को लेकर भी काफी सरगर्मी उठी थी.
‘यह सरकार सिंहला बौद्धों द्वारा बनाई गई है और उसे सिंहला बौद्ध ही रहना चाहिए. यह सिंहल देश है, सिंहल सरकार है. जनतांत्रिक और बहुलतावादी मूल्य सिंहला नस्ल को तबाह कर रहे हैं.’
उन्होंने रैली को यह भी बताया कि उन्हें ‘मुस्लिम अतिवाद के खिलाफ एक गैरआधिकारिक नागरिक पुलिस बल बनना होगा. यह कथित लोकतंत्रवादी लोग सिंहल नस्ल को नष्ट कर रहे हैं.’
इसमें कोई दोराय नहीं कि गालागोदा ऐथे गनानसारा या थीरो गनानसारा कोई आम बौद्ध भिक्षु नहीं हैं.
उनके अत्याधुनिक स्मार्टफोन, डिजाइनर चश्मे और शोफर द्वारा चलाई जाने वाली कार पर कोई नजर डालें तो वह बौद्ध भिक्षुओं की उस स्थापित छवि से कहीं से भी मेल नहीं खाती है, जो बेहद सादगी में रहता है.
अलबत्ता श्रीलंका जैसे बहुधर्मीय, बहुनस्लीय और बहुभाषिक मुल्क की पहले से दरार पड़े सामाजिक तानेबाने में अपने हस्तक्षेप के जरिए वह सिंहला-बौद्ध राष्ट्रवाद की मुखर आवाज बने हैं.
याद रहे श्रीलंका के इतिहास में (फिर चाहे आजादी के पहले का श्रीलंका हो या बाद का हो) यह धारा सुषुप्त रूप में हमेशा मौजूद रही है. देश के अंदर लंबे समय तक तमिल विद्रोहियों के खिलाफ चले साथ गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद इस धारा ने अब ‘नए दुश्मनों’ का आविष्कार किया है.
उसके लिए मुसलमान (आबादी का 7.5 फीसदी) एक नंबर पर हों, मगर हिंदू (आबादी का 15 फीसदी)और ईसाई (7.5 फीसदी) भी ‘दुश्मनों’ की श्रेणी में बहुत पीछे नहीं हैं.
बीते मार्च महीने में कैंडी जिला तथा आसपास के इलाकों में मुसलमानों को निशाना बनाते हुए संगठित हिंसा को अंजाम दिया गया, जब उनकी संपत्तियों और प्रार्थनास्थलों को भी जबरदस्त नुकसान पहुंचाया गया, जिसके बाद राष्ट्रपति सिरिसेना को समूचे द्वीप पर आपातकाल लगाना पड़ा, वह दरअसल श्रीलंकाई समाज में पनप रहे इसी तनाव का प्रतिबिंबन था.
एक छोटी सी घटना की जितनी उग्र प्रतिक्रिया देखी गयी, जिसमें सोशल मीडिया ने काफी विघटनकारी भूमिका अदा की, उसमें भी चंद सिंहला बौद्ध अतिवादियों को गिरफ्तार किया गया.
गनानसारा और उनके अनुयायियों के लिए दरअसल श्रीलंकाई समाज में विद्यमान ‘जनतांत्रिक और बहुलतावादी मूल्य सिंहल नस्ल को नष्ट कर रहे हैं’ और वहां के अल्पसंख्यकों को चाहिए कि वह उन ‘वैश्विक उसूलों का पालन करे जिसके तहत किसी भी मुल्क में अल्पसंख्यक ऐसे रहते हैं कि बहुसंख्यक नस्ल और उसकी पहचान को कहीं से खतरा नहीं बनते हैं.’
दम्बुल्ला के स्वर्णमंदिर (जो गुफा में स्थित बौद्ध मंदिर है, जो तीसरी सदी से मशहूर है और जो यूनेस्को की विश्व विरासत स्थानों का भी हिस्सा है) के पास स्थित मस्जिद का विध्वंस, जिसको बेहद संगठित तरीके से अतिवादी बौद्ध भिक्षुओं ने पेट्रोल बमों आदि से अंजाम दिया था (2012) और इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि वह इलाका उनके लिए ‘पवित्र इलाका’ है, इस घटना ने एक संकेत दिया था कि तमिल विद्रोह के दमन के बाद श्रीलंका में चीजें किस दिशा में आगे बढ़ेंगी.
उस वक्त यह देखना भी विचलित करने वाला था कि सरकार ने तत्काल भीड़ की मांग के आगे सर झुकाते हुए मस्जिद के पूर्ण विस्थापन और उसके प्रतिस्थापन को हरी झंडी दी.
उन्मादी भीड़ को इस बात की कहां फिक्र होती कि न केवल वह मस्जिद बल्कि वहां स्थित एक चर्च और मंदिर भी (जो भी बौद्ध उग्रवादियों के निशाने पर हैं) कई दशकों से वहां स्थित हैं और उनके निर्माण के लिए संबंधित अधिकारियों से अनुमति भी ली गई है.
बीते ही साल एमनेस्टी इंटरनेशनल ने श्रीलंका के हालात में एक सख्त बयान जारी किया था जिसमें उसने श्रीलंका की सरकार से मांग की थी कि-
‘… देश के मुसलमानों पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए सत्वर कदम उठाए और ऐसे हिंसक समूहों पर काबू करें जो धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हैं, और ऐसे हमलावरों पर शिकंजा कसे.’
गौरतलब है कि यहां उसका फोकस बोडु बाला सेना पर ही था. मुसलमानों पर के खिलाफ आयोजित हिंसा और उनके दम के विवरण पेश करते हुए, जिसमें घरों पर, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर, मस्जिदों पर पेट्रोल बम फेंकने जैसी घटनाओं के चलते हुए जानमाल के प्रचंड नुकसान तथा उसमें बोडु बाला सेना से जुड़े बौद्ध भिक्षुओं की संलिप्तता आदि की चर्चा करते हुए उसने यह भी लिखा था कि-
‘पूर्वी श्रीलंका में बोडु बाला सेना से जुड़े बौद्ध भिक्षु जमीनों पर कब्जा कर रहे हैं और मीडिया में इस बात की खबरें भी छपी हैं कि उसके नेता गनानसारा ने बेहद भड़काऊ और धार्मिक उन्मादी भाषण भी जगह-जगह दिए हैं.’
उसने यह भी उल्लेख था कि किस तरह रोहिंग्या शरणार्थियों के खिलाफ गनानसारा के नफरत भरे भाषण ने तनाव पैदा किया था और किस तरह बोडु बाला सेना के जुलूस को पुलिस द्वारा रोके जाने के बाद उसमें शामिल अतिवादियों ने पास स्थित मस्जिद पर पेट्रोल बम फेंके थे, जो एक तरह से अप्रैल माह के अंदर मस्जिद पर हुआ चौथा हमला था.
उसके मुताबिक अलुथगामा शहर में बोडु बाला सेना के नेता के भड़काऊ भाषण के बाद फैली मुस्लिम विरोधी हिंसा में चार लोग मारे गए थे और उनकी सम्पत्ति को प्रचंड नुकसान पहुंचाया गया था (जून 2014).
गनानसारा से साक्षात्कार करने गयी रिपोर्टर (मई 2018) द्वारा लिखी गई बातें इसी किस्म की थीं :
बोडु बाला सेना के नेता गालागोदा ऐथे गनानसारा एक ऐसी शख्सियत हैं जिनके शब्द हिंसा को बढ़ावा देते हैं. जब वह अपने व्याख्यान में मुसलमानों को धमकाते हैं, तब उन्मादी समूह मुस्लिम घरों को आगे लगाते हैं और लोग मरते हैं.
फिलवक्त यह देखना समीचीन होगा कि गनानसारा की मिली सजा का मसला किस तरह आगे बढ़ता है : क्या राष्ट्रपति सिरिसेना की मौजूदा हुकूमत सिंहला बौद्ध वर्चस्ववादियों द्वारा डाले जा रहे दबाव के आगे झुक जाएगी तथा राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों का प्रयोग करके उन्हें रिहा कर देगी या कानून का अपना काम पूरा करने देगी.
उनके लिए यह वाकई एक कठिन चुनाव का मामला है क्योंकि उनके राजनीतिक विरोधी पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे और उनके भाई गोटोभाया ने ही बोडु बाला सेना के उभार में मदद पहुंचाई थी.
महिंदा राजपक्षे जिन दिनों राष्ट्रपति थे, उन दिनों गोटोभाया खुद ‘बोडु बाला सेना’ द्वारा शुरू की जा रही ‘बुद्धिस्ट लीडरशिप एकेडेमी’ के उद्घाटन समारोह में पहुंचे थे और उन्होंने सेना द्वारा किए जा रहे ‘राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण काम की’ प्रशंसा की थी.
निश्चित ही ऐसा सैद्धांतिक रुख राष्ट्रपति सिरिसेना को राजनीतिक स्तर पर नुकसान पहुंचा सकता है और पूर्व राष्ट्रपति राजपक्षे की पार्टी को लाभ पहुंचा सकता है, जिनकी पार्टी ने पिछले दिनों स्थानीय निकायों के चुनावों में भारी जीत हासिल की.
और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ऐसे किसी भी रुख के क्षेत्रीय प्रभाव भी होंगे क्योंकि गनानसारा और उनके ब्रांड की राजनीति की अहमियत महज श्रीलंका तक सीमित नहीं है.
गालागोदा ऐथे गनानसारा के लब्ज और उनकी कार्रवाईयां हमें केसरिया बाना पहने साधुओं/बाबाओं की याद दिला सकती है जो सरहद इस पार उसी तरह अपने नफरत भरे भाषणों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के लिए उकसाने वाले वक्तव्यों को आए दिन जारी करते रहते हैं.
गौरतलब है कि जिस तरह सिंहला बौद्ध अतिवादी और हिंदुत्व वर्चस्ववादी बोलते हैं, काम करते हैं और जिस तरह सोचते हैं, उनमें जबरदस्त समानता देखी जा सकती है. और यह भी देखने में आया है कि उनके खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं होती.
अगर सिंहला बौद्ध अतिवादी यह सोचते हैं कि वह महान ‘आर्यन सिंहला नस्ल’ के हिस्सा हैं और श्रीलंका उनकी गृहभूमि/होमलैंड है और बौद्ध धर्म की रक्षा करने का काम खुद बुद्ध ने उन्हें सौंपा है और श्रीलंका सिंहल भाषा की जननी है आदि ; इसके बरअक्स हिंदुत्व के हिमायती भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं और गैरहिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहते हैं.
इस धारा के एक विचारक गोलवलकर ने तो अपनी किताब में उन्हें आजाद भारत के ‘आंतरिक दुश्मन’ के तौर पर संबोधित किया था.
सिंहलियों की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता (जिसने उनकी अल्पसंख्यकों के प्रति रुख को प्रभावित किया है) जैसा कि श्रीलंकाई मानवशास्त्री स्टेनले तम्बैया ने अपनी किताब ‘श्रीलंका: एथनिक फ्रेटरिसाईड एंड द डिसमैण्टलिंग आॅफ डेमोक्रेसी’ में लिखा है, जिसे वह ‘अल्पसंख्यक की कुंठा’ (a majority with a minority complex) कहते हैं.
हालांकि तमिलों और मुसलमानों की तुलना में सिंहलियों की संख्या काफी ज्यादा है, लेकिन उन्हें लगता रहता है कि वह हावी हैं. वे द्वीप के तमिलों को, भारत के तमिलनाडु में स्थित व्यापक तमिल समुदाय का हिस्सा मानते हैं और श्रीलंका के मुसलमानों को व्यापक मुस्लिम उम्मा का हिस्सा मानते हैं.
‘अल्पसंख्यक की इस भावना’ के चलते सिंहली अपने आप को पीड़ित के तौर पर देखते हैं, जिन्हें द्वीप की और सिंहल-बौद्ध संस्कृति को असिंहला और अबौद्ध लोगों से बचाने के लिए सक्रिय रहना पड़ेगा और वक्त पड़ने पर हिंसा पर भी उतारू होना पड़ेगा. इन समूहों को सारतः ‘विदेशी’ समझा जाता है जो वहां सिंहला-बौद्ध सहिष्णुता के चलते रह रहे हैं.
जिस तरह सिंहला-बौद्ध यह मांग करते हैं कि श्रीलंका के अल्पसंख्यकों को उस ‘वैश्विक सिद्धांत का पालन करना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को किसी देश में इस तरह रहना चाहिए ताकि वह बहुसंख्यक नस्ल और उसकी पहचान को खतरा न बने’, उसी तर्ज पर हिंदू राष्ट्र के हिमायती भी मानते हैं कि यहां के अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की दया पर रहना चाहिए और उन्हें भारतीय/हिंदू तौर-तरीके अपनाने चाहिए, इतना ही नहीं वह समझते हैं कि बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहिष्णुता के चलते ही अल्पसंख्यक यहां रह रहे हैं.
जहां श्रीलंका अपनी बहुलता की बात करता है और भारत ने औपचारिक तौर पर संविधान के बुनियादी मूल्य के तौर पर धर्मनिरपेक्षता को स्वीकारा है, हम जमीनी तौर पर यहीं देखते हैं कि धार्मिक और नस्लीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो प्रगट/अप्रगट हिंसा चलती रहती है, उसके प्रति इन दोनों सरकारों का रुख बेहद समस्याग्रस्त दिखता है.
ऐसी तमाम रिपोर्ट मिलती हैं कि किस तरह ऐसे अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं तो किस तरह सरकारों ने अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ा है, यहां तक कि बहुसंख्यकवादी तत्वों के साथ सांठगांठ कर अल्पसंख्यकों को न्याय से इनकार किया है.
एक तरफ जहां दुनिया इस बात को देख रही थी कि बोडु बाला सेना के सिद्धांत क्या हैं और किस तरह उसका बढ़ता प्रभाव एक बहुनस्लीय, बहुधार्मिक और बहुभाषी मुल्क में, किस तरह नकारात्मक हो सकता है, जो खुद लंबे चले एक गृहयुद्ध से उबर कर समाज में शांति और सामंजस्य कायम करने की कोशिश कर रहा है, वहीं बोडु बाला सेना के उभार को लेकर राम माधव नामक संघ के वरिष्ठ नेता, जो फिलवक्त भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं में शुमार हैं, कुछ अलग ही संकेत दे रहे थेः
‘बोडु बाला सेना-एक बौद्ध संगठन जिसे कई लोग दक्षिणपंथी या अतिदक्षिणपंथी कह सकते हैं, वह श्रीलंका की नई परिघटना है. हम चाहें तो अन्य तरीके से उनका नामकरण कर सकते हैं, मगर हकीकत यही है कि यह नया संगठन अब धीरे-धीरे अपनी स्थिति और जनसमर्थन में बौद्ध प्रभाव वाले इलाकों में आगे बढ़ रहा है…’
‘…जिन मुद्दों को बोडु बाला सेना उठा रही है, उनके बारे में सक्रिय और सहानुभूतिपूर्व व्यवहार की आवश्यकता है. बोडु बाला सेना श्रीलंका की बौद्ध आबादी को ध्यानाकर्षण करने में सफल रही है.’
यह मुमकिन है कि बोडु बाला सेना ने अपने विश्व दृष्टिकोण को जिस तरह गढ़ा है (जिसका फोकस ‘बढ़ते इस्लामीकरण और ईसाईकरण’ पर केंद्रित है) उसने संघ के इस अखिल भारतीय सह सम्पर्क प्रमुख का मन मोह लिया हो.
और यह महज आपसी आदान-प्रदान का मामला नहीं था, जब 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तथा दिलान्था विथानागे, जो बोडु बाला सेना के मुख्य कार्यकारी थे और गालागोदा ऐथे गनानसारा के करीबी सहयोगी थे, उन्होंने गोया संघ-भाजपा को बधाई देकर हिसाब बराबर किया था.
दावा करते हुए कि ‘बोडु बाला सेना’ भारत में संघ और भाजपा जो कर रहे हैं, उससे प्रेरणा लेते हैं और दोनों देशों की स्थितियो की समानता को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा था ‘भारत और श्रीलंका में काफी समानताएं हैं.’
विथानागे ने कहा, ‘हम दोनों को मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के खतरे का सामना करना पड़ता है जो सक्रिय तौर पर धर्मांतरण में लगे हैं. अगर सिंहला परिवारों में एक या दो बच्चे होते हैं, तो अल्पसंख्यकों के परिवारों में आधा दर्जन से अधिक बच्चे होते हैं. जब इन गतिविधियों के पीछे विदेशी पैसे का हाथ दिखता है, हमें प्रतिरोध करना चाहिए. और इस तरह मोदी और उनकी पार्टी हमारे लिए महान प्रेरणास्त्रोत हैं.’
जिस रिपोर्टर ने प्रस्तुत समाचार दिया था उसने सही टिप्पणी दी थी ‘अपने देश के बाहर का यह ऐसा प्रशंसक समूह है, जिसके बारे में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी भाजपा अधिक बोलना नहीं चाहेगी.’
हमारे पड़ोस में सिंहला-बौद्ध वर्चस्ववाद का इस किस्म का उभार और उसी कालखंड में हमारे यहां हिंदुत्व का उभार, इन दोनों को कम से कम दक्षिण एशिया के इस हिस्से में अपवाद नहीं कहा जा सकता. आप कह सकते हैं कि यह ऐसा दौर है कि जहां खास धर्म या नस्लीयता से ताल्लुक रखने वाली बहुसंख्यक आवाजें/ताकतें या तो ताकत हासिल कर रही हैं या अपने आप को अधिकाधिक मजबूत करने में जुटी हैं.
पाकिस्तान का बढ़ता सौदीकरण या पड़ोसी बांग्लादेश में इस्लामिस्ट ताकतों/संगठनों का उभार इसी बात को रेखांकित करता है कि किस तरह ऐसी ताकतें जगह-जगह उभर रही हैं जो बहुसंख्यक समुदाय की गढ़ी हुई ‘चिंताओं’ पर आकार ले रही हैं.
पाकिस्तान एक तरह से इसका एक क्लासिक उदाहरण है जहां तरह-तरह के अतिवादी समूह हिंसक घटनाओं में मुब्तिला हैं और जिनके निशाने पर महज हिंदू, ईसाई नहीं बल्कि इस्लाम से ताल्लुक रखने वाले अन्य समूह/संप्रदाय (मसलन शिया, हजारा, अहमदिया, सूफी) भी हैं, जिसने एक तरह से अंतःस्फोट की स्थिति निर्मित की है.
जून के दूसरे सप्ताह में ही बांग्लादेश में वामपंथी कार्यकर्ता और एक प्रकाशन के मालिक शाहजहां बच्चू की हुई हत्या (जहां उन्हें मुंशीगंज बाजार में इस्लामिस्टों ने खींच कर गोलियों से ढेर किया था) ने एक तरह से धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले बांग्लादेश में इस्लामिस्टों की बढ़ती दखल को नए सिरे से उजागर किया था.
यह सही है कि सेक्युलर आंदोलन की लंबी परंपरा के चलते बांग्लादेश में चीजें थोड़ी नियंत्राण में दिखती हैं मगर इसका मतलब यह नहीं कि इस्लामिस्ट ताकतों ने वहां के समाज के अंदरूनी सतहों में अपनी जगह नहीं बनाई है.
कुछ साल पहले जब बांग्लादेश में एक व्यापक जन आंदोलन खड़ा हुआ था (2013) जिसका फोकस बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध में (1971) युद्ध अपराधों को अंजाम देने वालों को दंडित करना था. शाहबाग आंदोलन के नाम से जाने गए इस आंदोलन के केंद्र में जमाते इस्लामी की अगुआई वाले इस्लामिस्टों को निशाना बनाया गया था जिन्होंने पाकिस्तानी सेना का साथ उन दिनों दिया था.
उन्हीं दिनों इस्लामिक मूलवाद के राजनीतिक अर्थतंत्र पर एक विस्तृत आलेख (Mainstream, Mar 22-28) प्रकाशित हुआ था. ढाका विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्रमुख तथा बांगलादेश इकोनॉमिक एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रोफेसर अब्दुल बरकत का यह अध्ययन इस मामले में अनोखा था कि ऐसे मसलों पर बहुत अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती.
लेख के मुताबिक-
...इस्लामिक मूलवादियों (बुनियादपरस्तों), फंडामेण्टालिस्ट ने ‘अर्थव्यवस्था के अंदर अर्थव्यवस्था’ का निर्माण किया है और ‘राज्य के अंदर राज्य’ का गठन किया है. उनके पास अपने राजनीतिक संगठनों को चलाने के लिए पर्याप्त आर्थिक ताकत उपलब्ध है. अगर बेहद सीमित अर्थ में देखें तो मूलवाद की अर्थव्यवस्था को बड़े वित्तीय संस्थानों जैसे उद्यमों से लेकर घरेलू स्तर के माईक्रो क्रेडिट संस्थाओं तक, मस्जिदों और मदरसों से लेकर न्यूज मीडिया और आईटी तक, राष्ट्रव्यापी व्यापार उद्यमों से लेकर स्थानीय स्तर के एनजीओ (गैरसरकारी संगठनों) के नेटवर्क तक फैला देखा जा सकता है. एक मोटे अनुमान के हिसाब से इन तमाम उद्यमों द्वारा हर साल पैदा मुनाफे को लगभग 250 मिलियन डॉलर के समकक्ष रखा जा सकता है. इन सभी आर्थिक उद्यमों को विचारधारा से लैस तथा पेशागत तौर पर बेहद सक्षम लोगों द्वारा संचालित किया जाता है. इन उद्यमों के कम से कम दस फीसदी मुनाफे को राजनीतिक संगठन के संचालन के लिए दिया जाता है, जिसके तहत इस्लामिस्ट फंडामेंटालिस्ट राजनीति से पूरी तरह समर्पित पांच लाख पूरा वक्ती कार्यकर्ताओं को वित्तीय सहायता दी जा सकती है. बांगलादेश में मूलवाद की अर्थशास्त्र की सापेक्षता मजबूती को इस बात से भी चिन्हित किया जा सकता है कि उसका सालाना मुनाफा सरकार के सालाना विकास बजट के लगभग 6 फीसदी तक है. और मूलवादियों द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था की बढ़ोत्तरी दर (7.5 फीसदी) एक तरह से राष्टीय अर्थव्यवस्था की बढ़ोत्तरी दर (5 से 6 फीसदी तक) से ज्यादा है.
किस तरह मूलवाद कैडर आधारित राजनीति के बलबूते, अलग-अलग राजनीतिक आर्थिक मॉडल्स की प्रभावोत्पादकता को लेकर प्रयोग कर रहा है, उन्होंने इस चर्चा की थी कि इस मॉडल के बारह मूलभूत क्षेत्रीय तत्व हैं :
‘वित्तीय समावेशन, शैक्षिक संस्थान, फार्मास्युटिकल्स-डाइग्नोस्टिक और स्वास्थ्य संबंधी संस्थाएं, धार्मिक संस्थान, यातायात से जुड़े संगठन, रीयल इस्टेट, न्यूज मीडिया और आईटी, स्थानीय निकाय, एनजीओ, बांग्ला भाई या जेएमबी, जमाइतुल मुजाहिदीन बांग्लादेश, हरकत उल जिहाद इस्लामी /बांगलादेश हूजी-बी/ और इसी किस्म के कार्यक्रम आधारित संगठन/ और पेशागत/व्यवसायगत गतिविधि आधारित संगठन जिनमें किसान तथा औद्योगिक कामगार भी शामिल हों.’
उनके मुताबिक
बांग्लादेश के मूलवाद की अर्थव्यवस्था का अनुमानित सालाना मुनाफा लगभग 250 मिलियन डॉलर तक है. इनका सबसे बड़ा हिस्सा लगभग 27 फीसदी, वित्तीय संस्थानों (बैंक, बीमा कम्पनियां, लीजिंग कम्पनियां आदि) से आता है.
दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा, 18.8 फीसदी, एनजीओ, टस्ट और प्रतिष्ठानों/फाउण्डेशन से आता है, 10.8 फीसदी मुनाफा व्यापारिक संस्थाओं से आता है, 10.4 फीसदी मुनाफा फार्मास्युटिकल उद्योग और स्वास्थ्य संस्थानों जिनमें डाइग्नोस्टिक सेंटर भी शामिल हैं उससे आता है, 9.2 फीसदी मुनाफा शैक्षिक संस्थानों से आता है, 8.5 फीसदी मुनाफा रीयल इस्टेट व्यापार से आता है, 7.8 फीसदी मुनाफा मीडिया और आईटी बिजनेस से आता है. और 7.5 फीसदी मुनाफा यातायात क्षेत्र से आता है.
इन आंकड़ों के पद्धतिविज्ञान को स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर बरकत ने स्पष्ट किया था कि वह स्थूल रूप में अनुमान पर आधारित है, लेकिन जो पैटर्न उभरता है वह उस दिशा को इंगित करता है.
इस बात को देखा जा सकता है कि बांग्लादेश में इस्लामिक मूलवाद की राजनीति और अर्थव्यवस्था के उभार ने मूलवाद के संस्थाकरण का रास्ता खोला है जिसका अर्थ है जीवन और राज्य के सभी अहम क्षेत्रों में इस्लामिस्ट बुनियादपरस्तों की संगठित घुसपैठ.
दरअसल, इस संस्थागत मूलवाद की सापेक्ष ताकत को इस्लामिक शरिया काउंसिल के गठन एवं संचालन में भी देखा जा सकता है जो सेंट्रल बैंक के बरअक्स खड़ी की गई है. प्रोफेसर बरकत जोड़ते हैं:
इस्लामिक शरिया काउंसिल (सभी इस्लामिक वित्तीय संस्थानों के नीति निर्धारण के लिए बनी केंद्रीय निकाय है) जिसे मुख्यधारा की इस्लामिस्ट पार्टी (इस मामले में जमाते इस्लामी) द्वारा नियंत्रित किया जाता है और उसकी अगुआई राष्टीय मस्जिद के पेश इमाम (मुख्य इमाम) करते हैं, जो खुद सरकारी नौकर होता है, जो मस्जिद आधारित प्रशासन और न्यायपालिका के मार्फत शरिया कानून लागू करने की बात करता है. वैसे देखें तो कंपनी एक्ट और बैंकिंग एक्ट के तहत इस्लामिक शरिया काउंसिल अवैध इकाई है. इस्लामिक शरिया काउंसिल पर पाबंदी लगाने की सेंट्रल बैंक की कोशिशें और बांग्लादेश में इस्लामिक बैंकिंग के लिए बनी गाइडलाइन्स को अतीत में आकार नहीं दिया जा सका है.
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में एक ऐसा वक्त था जब दक्षिण एशिया के इस हिस्से में रहने वाले लोगों ने (जो उन दिनों औपनिवेशिक उत्पीड़न झेल रहे थे और अपने तरीके से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे) अंततः राजनीतिक आजादी हासिल की.
सत्तर साल का लंबा वक्फा गुजरने को है जब उन्हें यह आजादी मिली, लेकिन आज यह सभी मुल्क बिल्कुल अलग किस्म की चुनौती से जूझ रहे हैं, जिसका स्वरूप एक जैसा ही प्रतीत होता है.
बहुधर्मीय, बहुनस्लीय और बहुभाषिक इन देशों में बहुसंख्यक समुदाय (फिर चाहे धर्म के आधार पर एकत्रित हो या नस्ल के आधार पर अपने आप को एक दूसरे से जोड़ता हो, या इन दोनों पहलुओं का कोई संमिश्रण) का अल्पसंख्यक समुदाय पर हावी होता जाना, कहीं अधिक-कहीं कम, आज की हकीकत बन रहा है.
अगर हम थोड़ा गहराई में जाएं तो हम इस परिस्थिति की जड़ों को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में देख सकते हैं कि किस तरह इस संघर्ष को लड़ा गया या इस बात की भी पड़ताल कर सकते हैं कि किस तरह आंतरिक विसंगतियों और दरारों से उपजनेवाले तनावों को ठीक से संबोधित नहीं किया जा सका.
यह बेहद नाजुक स्थिति है और इससे अगर ठीक से निपटा नहीं गया तो समूचा इलाका आपसी हिंसा की आग में झुलस सकता है. श्रीलंका में सिंहला-बौद्ध राष्ट्रवाद के उभार, भारत की सरजमीं पर हिंदुत्व वर्चस्ववाद को मिली बढ़त और पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में (कहीं ज्यादा कहीं कम) राजनीतिक इस्लाम के उभार के पीछे के उदितमान पैटर्न को ढूंढा जा सकता है.
इस परिदृश्य में यह बात महत्वपूर्ण है कि
उत्पीड़नकारी समुदाय बदलता है जैसे आप राष्ट्रीय सरहदों को लांघते हैं. दरअसल, आप भूमिकाओं में अदला-बदली पाते हैं. सीमा इस पार का उत्पीड़क समुदाय दूसरी ओर उत्पीड़ित समुदाय में तब्दील हो जाता है.
एक किस्म का अतिवाद दूसरे किस्म के अतिवाद को पोषित करता है. मिसाल के तौर पर श्रीलंका में अगर सिंहला-बौद्ध राष्ट्रवादी बाकी अल्पसंख्यकों पर हमले कर रहे हैं तो उधर पाकिस्तान में आप इस्लामिस्टों के हाथों अन्य अल्पसंख्यकों को निशाने पर पाते हैं तो भारत में हिंदुत्व वर्चस्ववादी अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने में मुब्तिला दिखते हैं.
ऐसी स्थितियां भी बनती दिख रही हैं कि इन अतिवादों के बीच तरह-तरह के गठजोड़ भी बन रहे हैं. म्यांमार में विकसित होती स्थिति बताती है कि किस तरह विभिन्न संकीर्ण विचारधाराओं (तंजीमों) असमावेशी संगठनों के बीच एक नए किस्म का संश्रय बन रहा है.
जैसा कि सभी जानते हैं कि म्यांमार फिलवक्त रोहिंग्या मुसलमानों के बढ़ते दमन एवं नस्लीय संहार के चलते चर्चित है, जो स्थिति पिछले कुछ सालों से विकसित हो रही है.
कई सारी रिपोर्टों का प्रकाशन हुआ है कि किस तरह वहां सेना इन अल्पसंख्यक समुदाय के संहार में लगी है, किस तरह उनके गांवों को जलाया जा रहा है और उन्हें खदेड़ा जा रहा है और किस तरह इस पूरे मामले में वहां की मुख्य कर्णधार आंग सान सू की अपना मौन कायम रखी हुई हैं.
यहां पर भी केसरिया पहने बौद्ध भिक्षुओं की भूमिका सुर्खियों में हैं, जिन पर यह आरोप है कि वह मुसलमानों को निशाना बनाते हुए नफरत भरे प्रवचन देते हैं और दंगों को उकसाते हैं.
कुछ वक्त पहले थितागु, नामक एक प्रख्यात बौद्ध धर्मगुरू, का साक्षात्कार छपा था जिसमें उसने साफ कहा था कि-
‘नस्लीय तौर पर विविधतापूर्ण म्यांमार में विभिन्न धार्मिक समुदायों को आपस में इस तरह मिल कर रहना चाहिए जैसे बहता पानी’ मगर उसी साक्षात्कार में उन्होंने चेतावनी दी थी कि ‘जिस तरह बौद्ध जजमान ने गर्मजोशी के साथ अन्य आस्थावानों का मुल्क में स्वागत किया, उसी तरह इन मेहमानों को भी जजमान के साथ मिल कर रहना चाहिए. उन्हें जजमान की सदिच्छा का अवमान नहीं करना चाहिए और घर पर ही कब्जा जमाने की नहीं सोचना चाहिए.’
निश्चित ही इन सबमें सबसे विवादास्पद है विराथु. ‘गार्डियन’ ने उन्हें लेकर एक स्पेशल स्टोरी भी की थी कि किस तरह अपने 2,500 अनुयायियों के साथ वह मुल्क में एक खतरनाक नाम बन चुके हैं, किस तरह वह बौद्ध अतिवादियों को मुसलमानों पर हमले के लिए उकसाते हैं.
इन बौद्ध वर्चस्ववादियों के बीच आपसी समन्वय कायम करने की कोशिशें कुछ साल पहले परवान चढ़ी थी जब विवादास्पद विराथु ने श्रीलंका को भेंट दी थीं. बोडु बाला सेना के आयोजन में विशेष अतिथि के तौर पर उन्हें बुलाया गया था. इस सम्मेलन में भी विराथु और बोडु बाला सेना की तरफ से भारत के हिंदुत्व वर्चस्ववादियों के लिए विशेष अपील की गई थी कि वह साथ जुड़ें ताकि दक्षिण एशिया को ‘पीस जोन’ अर्थात शांति का इलाका बनाया जा सके.
न्यूयॉर्क टाईम्स में इस सम्मेलन की विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी:
… अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वक्त आ गया है.’ श्रीलंकाई रैडिकल बौद्ध समूह बोडु बाला सेना के अगुआ गालागोदा ऐथे गनानसारा ने विगत माह कोलंबो में आयोजित सम्मेलन में कहा था. समारोह के मुख्य मेहमान थे अशिन विराथु, वह बौद्ध रैडिकल जिसके चित्र को टाईम पत्रिका ने 1 जुलाई के अपने कवर पर ‘बौद्ध आतंक का चेहरा’ कहते हुए दिया था.
श्रीलंका की महिंदा राजपक्षे की सरकार ने श्रीलंकाई मुस्लिम तथा ईसाई नागरिक समूहों के प्रस्तावों को अनदेखा करते हुए (जिन्हें इस बात का डर था कि विराथु के आगमन से फिर एक बार मुस्लिम विरोधी हिंसा पनपेगी तथा इसके चलते विराथु को वीसा न दिया जाए) विराथु को वीसा दे दिया था. विराथु को वीसा देने का मतलब यही था कि तमाम मुसलमानों के बीच इस भावना को मजबूत करना कि यह सरकार बोडु बाला सेना को समर्थन देती है.
विगत सप्ताह गनानसारा ने यह दावा किया कि वह ‘उच्च स्तर पर’ दक्षिणपंथी भारतीय हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ वार्ताओं में संलिप्त है ताकि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ‘हिंदू-बौद्ध शांति क्षेत्र’ कायम किया जाए.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता राम माधव ने तत्काल इस बात से इनकार किया कि ऐसी कोई वार्ता चल रही है. हालांकि जनाब माधव, जो अब भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के महासचिव हैं, उन्होंने अपने फेसबुक तथा ट्विटर अकाउंट पर बोडु बाला सेना तथा जनाब विराथु के संगठन ग्रुप 969 की हिमायत करते हुए कई कमेंट्स साझा किए थे.
रोहिंग्या मुसलमानों की दुर्दशा का मसला अब अंतरराष्ट्रीय सरोकार का मुद्दा बना है. म्यांमार की सेना ने इस अल्पसंख्यक समुदाय के नस्लीय संहार के लिए बाकायदा सहयोग/समर्थन प्रदान किया है.
यह बात अधिक विचलित करने वाली है कि जब प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल म्यांमार की यात्रा की और यात्रा के बाद एक साझा वक्तव्य जो जनाब मोदी और आंग सान सू की, जो म्यांमार की स्टेट काउंसलर हैं और एक तरह से सर्वोच्च नेता हैं, की तरफ से जारी हुआ जिसमें रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बरपाए जा रहे इस कहर पर कोई लब्ज नहीं था अलबत्ता रोहिंग्या लोगों के एक समूह द्वारा आत्मरक्षार्थ की जा रही कथित आतंकवादी कार्रवाईयों पर चिंता अवश्य प्रगट की गई थी. इसमें लिखा गया था:
यह महत्वपूर्ण है कि भारत और म्यांमार की लंबी थल और समुद्री सरहदों की सुरक्षा और स्थिरता को बनाए रखा जाए … रखाइन राज्य में हुई हिंसा के मामले में (जहां मासूम जिन्दगियां कालकवलित हुई हैं) भारत म्यांमार के साथ खड़ा है.
अपने आलेख ‘जिनोसाइड आॅफ रोहिंग्याज इन म्यांमार: द हिंदुत्व इम्प्रिन्टस’ में प्रोफेसर शमसुल इस्लाम ने प्रधानमंत्री की इस यात्रा पर टिप्पणी करते हुए लिखा था :
‘इस बयान में रोहिंग्या के नस्लीय शुद्धिकरण पर बिल्कुल खामोशी बरती गई थी … इतना ही नहीं संघ/भाजपा द्वारा संचालित भारतीय सरकार ने लगभग चालीस हजार रोहिंग्या लोगों को ‘सुरक्षा के लिए खतरा’ करार देते हुए देश के बाहर निकालने का फैसला लिया था, जो खुद म्यांमार में उनके जीवन की सुरक्षा के खतरे में देखते हुए यहां पहुंचे थे.’
भारत सरकार की इस चुप्पी को कैसे समझा जा सकता है? जैसा कि कहा जाता है : मौन बोलता है और इस मामले में भी हम कह सकते हैं कि रोहिंग्या लोगों के नस्लीय शुद्धिकरण के नाम पर उन्हें म्यांमार के अंदर झेलनी पड़ी प्रचंड हिंसा पर भारतीय हुक्मरानों की खामोशी बहुत कुछ बोलती है. कुछ देर के लिए रोहिंग्या लोगों को भूल जाइए और भारतीय शासकों के बारे में भी मौन रहिए.
प्रश्न उठता है कि आखिर ‘थीरो गालागोदा ऐथे गनानसारा’ जैसे बहुचर्चित भिक्षु का जेल की सलाखों के पीछे भेजा जाना क्यों यहां खबर तक नहीं बन पाया.
क्या यह अचेतन डर मीडियाकर्मियों एवं मालिकानों के सर पर था कि एक भिक्षु की मिली सजा की खबर से कहीं ऐसा तो नहीं सरहद पार उनके ‘नजदीकी रिश्तेदारों’ को भी जेल की सलाखों के पीछे ढकेलने की बात बुलंद होगी.
शायद ही कभी श्रीलंका अपने बौद्ध भिक्षुओं को दंडित करता है, मगर जब पिछले दिनों वहां की न्यायपालिका ने एक बौद्ध भिक्षु को दंडित किया और ‘इतिहास रचा’ तब भी मीडिया खामोश रहे.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं.)