भीड़ द्वारा निर्दोष लोगों को पीट-पीटकर मार डालने की घटनाओं की रोकथाम का केंद्र सरकार के पास कोई कार्यक्रम नहीं है, इसलिए वह सिर्फ़ राज्य सरकारों को सतर्क रहने को कहकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहती है.
केंद्र सरकार ने राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों को सोशल मीडिया पर फैलाई गई अफवाहों के उकसावे में आकर उन्मादित भीड़ द्वारा बेकसूरों को पीट-पीटकर मार डालने की एक के बाद एक बढ़ती घटनाएं रोकने को कहा है. गृह मंत्रालय ने भी अपने परामर्श में उन्हें ऐसे उकसावे रोकने के कई उपाय सुझाए हैं.
तब सरकार समर्थक मीडिया में भी किसी ने यह नहीं कहा कि उसका यह कदम ऐसी घटनाओं को लेकर उसकी संवेदनशीलता या उन्हें रोकने की नीयत का पता देता है. कोई इसे उसकी कुंभकर्णी नींद का टूटना बताकर रह गया और कोई देर से ही सही, दुरुस्त आना.
कारण यह कि जब सरकार के यह कदम उठाने की खबर आई, सोशल मीडिया पर वे तस्वीरें वायरल हो उठी थीं, जिनमें केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा अपने गृह राज्य झारखंड के रामगढ़ में ‘गोरक्षकों’ की भीड़ द्वारा की गई मांस कारोबारी अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या में उम्रकैद की सज़ा पाए अभियुक्तों का हज़ारीबाग जिले की जय प्रकाश नारायण सेंट्रल जेल के बाहर फूल-मालाएं पहनाकर स्वागत कर रहे थे.
तस्वीरें इन अभियुक्तों के, जिनमें भाजपा के स्थानीय नेता भी शामिल हैं, हाईकोर्ट से ज़मानत पर रिहाई के वक़्त की थीं. इस बारे में पूछे जाने पर ‘मंत्री जी’ ने ढिठाई से कह दिया था कि हां, वे इन अभियुक्तों को उम्रकैद की सज़ा देने का विरोध करते हैं.
प्रश्न स्वाभाविक था कि जयंत सिन्हा जैसे केंद्रीय मंत्री अपने-अपने राज्यों में जाकर भीड़ों को भड़काकर हत्यारी बनाने वालों की उम्रकैद का विरोध और उनका स्वागत करेंगे तो राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारें अफवाहों का कहर रोकने के केंद्र के निर्देशों और उपायों पर क्योंकर अमल कर सकेंगी?
इसका जवाब न मिलने पर, क्या आश्चर्य कि कई लोग कह रहे हैं कि केंद्र ने इन निर्देशों को अमल के लिए जारी भी नहीं किया है. वैसे ही, जैसे प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों असली-नकली गोरक्षकों को लेकर जो कुछ भी भला-बुरा कहा, वह और तो और, गोरक्षकों के भी सुनने के लिए नहीं था!
गौरतलब है कि यह सरकार अफवाह प्रेरित भीड़ों द्वारा हत्याओं को लेकर वाकई संवेदनशील होती तो साल 2015 में 30 सितंबर को उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्धनगर ज़िले के दादरी क्षेत्र में स्थित बिसहड़ा गांव में कथित गोरक्षकों द्वारा की गई अखलाक की हत्या के फौरन बाद जाग जाती.
लेकिन उस वक़्त तो उसने अपने तुच्छ राजनीतिक लाभों के लिए बार-बार जगाए जाने के बावजूद चादर ताने रहने का फैसला किया ही, बाद में भी खर्राटों से बाज़ आने की ज़रूरत नहीं समझी.
उधर, गोरक्षक अपने प्रधानमंत्री की इस कातर अपील की भी अनसुनी करते रहे कि वे दलितों पर हमले न करें और गोली मारनी है तो उन्हें (प्रधानमंत्री को) ही मार दें.
अभी भी राज्यों को भेजे उसके जिन निर्देशों को उसकी नींद का टूटना बताया जा रहा है, उसका सच यह है कि ‘गोरक्षकों’ की कारस्तानियों को छोड़ भी दें तो उसके पहले के एक साल में ही असम से लेकर तमिलनाडु तक बच्चा चोरी की अफवाहें फैलने के बाद भीड़ द्वारा निर्दोषों की हत्याओं की कम से कम 27 घटनाएं हुई हैं.
महाराष्ट्र में ऐसे नौ और झारखंड में सात मामले प्रकाश में आए हैं, जिनमें पुलिस जान-बूझकर बेबसी ओढ़े रही या जबरन बेबस कर दी गई. इनमें सर्वाधिक दिल दहलाने वाली वारदात महाराष्ट्र के धुले ज़िले की थी, जहां भीड़ ने बच्चा चोरी के शक में पांच लोगों की जान ले ली.
कहते हैं कि जब पुलिस मौका-ए-वारदात पर पहुंची तो उनमें से दो जिंदा थे, लेकिन भीड़ ने पुलिस को उन्हें बचाने का कोई भी प्रयत्न नहीं करने दिया. यों, इसका दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि जैसा आमतौर पर ऐसी घटनाओं में देखने में आता है, पुलिस और भीड़ की मानसिकता एक हो गई हो और भीड़ की ही तरह पुलिस को भी लगा हो कि अब उन दोनों का ज़िंदा बच जाना ठीक नहीं है.
अब उसे जागी हुई मान लिया जाए तो भी इस जाग का श्रेय उसकी किसी अंत:प्रेरणा को नहीं दिया जा सकता. दरअसल, पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल्ख़ प्रतिक्रिया में उसे झिंझोड़ते हुए से कहा था कि भीड़ द्वारा हत्याओं के लिए उसका कोई भी तर्क मान्य नहीं हो सकता. यह ऐसा जघन्य अपराध है, जिसे हर हाल में रोका ही जाना चाहिए.
न्यायालय ने एक अन्य अवसर पर यह भी कहा था कि भीड़ के कृत्यों के लिए उन लोगों व संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जिन्होंने उसे एकत्र किया या उकसाया क्योंकि भीड़ के नाम पर कुछ भी किए जाने की छूट देश को गंभीर अराजकता की ओर ले जाएगी.
खैर, गृह मंत्रालय जागा तो केंद्रीय सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय का अंगड़ाई लेना भी लाज़मी ही था. वरना दिखावे की दौड़ में उसके पिछड़ जाने का अंदेशा था. चूंकि ज़्यादातर अफवाहें सोशल मीडिया, खासकर वॉट्सऐप के जरिये फैलीं, इसलिए केंद्रीय सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वॉट्सऐप को नोटिस जारी कर चेतावनी दे डाली कि वह जवाबदेही के साथ पेश आए और सुरक्षा के पहलू पर ध्यान दे.
इसके उत्तर में वॉट्सऐप ने नए सुरक्षा मानक लागू करने की बात कह दी और बात इस कदर आई गई हो गई कि किसी को नहीं मालूम कि कितनी और जानें जाने के बाद उसके नए सुरक्षा मानक लागू हो जाएंगे?
दुख की बात है कि जब देश में सोशल मीडिया दुधारी तलवार की तरह अपने तकनीकी दुरुपयोग से रोज़-रोज़ नई-नई विपदाएं ला रहा है, केंद्र सरकार के पास उसे लेकर कोई सुविचारित नीति ही नहीं है. इसलिए वह धमकियों, चेतावनियों और पाबंदियों से आगे बढ़ ही नहीं पा रही, हालांकि जरूरत बस इतने-से उपाय की है, जिससे भड़काऊ संदेशों का मूल गढ़ने वाले को पकड़ा और समस्या की जड़ पर प्रहार किया जा सके.
इस बात को सरकारी तंत्र भी समझता ही है कि जब तक ऐसे संदेश गढ़ने वाले का पता नहीं चलेगा, उसे कानून के हवाले नहीं किया जा सकेगा और समस्या जटिल होती जाएगी.
पिछले दिनों इस मीडिया के पीड़ितों में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक का नाम शामिल हो जाने के बावजूद सरकार के कर्ताधर्ता आराम के साथ रंज करने की अपनी आदत नहीं छोड़ पा रहे.
उनके पास लोगों को ऐसी अफवाहों के विरुद्ध सचेत करने का भी कोई कार्यक्रम नहीं है और वे सिर्फ राज्य सरकारों को ज़्यादा चुस्त रहने को कहकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहते हैं.
भीड़ों द्वारा हमलों की घटनाओं के विश्लेषणों में बार-बार दोहराया जा चुका है कि इनके पीछे वे भयजनित असुरक्षाग्रंथियां हैं, जिनके चलते नागरिकों के अलग-अलग समूह अलग-अलग कारणों से न सिर्फ व्यवस्था बल्कि ख़ुद से भी नाराज़ हैं.
उनके बढ़ते अविश्वास की हद यह है कि वे अदालत, कानून और पुलिस पर भी भरोसा खो बैठे हैं. यही कारण है कि कहीं किसी का अजनबी होना या कहीं अनजान रास्ता पकड़ या पूछ लेना या कहीं किसी बच्चे को टाॅफी की पेशकश कर बैठना, जानलेवा कसूर हो गया है.
लेकिन यह सवाल आख़िरकार सरकार से नहीं तो किससे पूछ जाना चाहिए कि ये हालात किसके कारण उत्पन्न हुए हैं और इनका ज़िम्मेदार कौन है? क्यों आज भी देश में ‘समरथ को नहिं दोस गोसाईं’ वाली व्यवस्था चली आ रही है, जिसके चलते कोई नागरिक लगातार निर्बल तो कोई लगातार सबल होता जा रहा है?
फिर उन्मादी लोगों या भीड़ों का किसी पर हाथ उठाना इतना आसान क्यों बना हुआ है? उन्हें इसका हौसला कहां से मिलता है? कौन हैं, जो उन्हें इसके बदले कुछ भी बिगड़ने के अंदेशों की तरफ से निर्भय कर देते हैं?
नफरत फैलाने के सुनियोजित अभियान चलाने वालों द्वारा एक-दूजे से नाराज़ भीड़ें पैदा करना और उनका इस्तेमाल करना अभी भी इतना आसान क्यों हैं?
हत्यारी भीड़ों को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाना है तो न सिर्फ इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे, सरकार के उन अंतर्विरोधों के खिलाफ आवाज़ भी उठानी होगी, जिनमें फंसकर उसके सोने और जागने में कोई फर्क ही नहीं रह गया है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)