अमर्त्य सेन कह चुके हैं कि भारतीय मीडिया तेज़ी से अमीरों का पक्षधर होता जा रहा है, बीते महीने हुए किसान आंदोलन की हिंदी अख़बारों में कवरेज सेन के कथन की पुष्टि करती है. आंदोलन के दौरान अख़बारों की चिंता किसानों की समस्याएं, उनकी दयनीय हालत और हालत के लिए ज़िम्मेदार लोगों के बजाय आंदोलन के चलते उत्पादों की बढ़ी कीमतें और इससे शहरों में हुई परेशानी रही.
खेती-किसानी के मसले पर सरकारों की उदासीनता के चलते किसान संगठनों ने जून महीने में दस दिन का गांवबंद आंदोलन किया. एक से 10 जून तक चले इस आंदोलन को अलग-अलग ढंग से विरोध स्वरूप मनाया गया.
इसमें एक से चार जून तक विरोध दिवस के रूप में मना. पांच को धिक्कार दिवस था. छह और सात शहादत दिवस के रूप में मनाए गए. आठ और नौ को असहयोग दिवस तो 10 जून को भारत बंद रखा गया. किसानों ने इस दस दिनी आंदोलन में तय किया कि वे लोगों के दैनिक जीवन में काम आने वाली चीजें-दूध, फल, सब्जी आदि शहर नहीं ले जाएंगे.
अगर लोगों को यह चीजें चाहिए तो उन्हें गांव आना होगा और इन चीजों को लेने के साथ ही किसान किन परिस्थितियों में जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं, उन्हें देखना होगा.
आंदोलन के दौरान सरकारों, मीडिया समूहों और जनता का ध्यान खींचने के लिए किसानों ने तय किया कि वे इन उत्पादों को सड़कों पर फेंक कर विरोध जताएंगे. शायद उनकी सोच थी कि सामान्य तरीके से किए गए आंदोलनों पर मीडिया से लेकर सरकारें तक नोटिस नहीं लेती हैं.
इसकी बानगी पिछले साल जंतर-मंतर पर महीनों आंदोलन करने वाले तमिलनाडु के किसान हैं. जब तक वह सामान्य तरीके से धरना-प्रदर्शन, सभा आदि करते रहे तब तक उन्हें ठीक से नोटिस नहीं लिया गया. लेकिन जैसे ही उन्होंने जमीन पर खाना खाने, चूहा खाने, घास खाने, पेशाब पीने और नग्न प्रदर्शन किया तब जाकर वे मीडिया की नज़र में पहुंच पाए.
ठीक इसी तरह से इस दस दिनी आंदोलन के दौरान किसानों ने देश के अनेक राज्यों में दूध, सब्जी और फलों को सड़कों पर फेंककर विरोध जताया. इस बीच सरकारों की तरफ से उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए गए. किसान संगठनों में भी आपसी फूट देखने को मिली. इसके बावजूद किसानों ने अपने तरीके से दस दिनी गांव बंद आंदोलन किया.
गांव से लेकर शहरों तक चले इस आंदोलन को हिंदी के अखबारों ने कितना महत्व दिया? उन पर केंद्रित खबरों का टोन क्या रहा, इसकी पड़ताल जरूरी है क्योंकि इस आंदोलन से जुड़े अथवा उससे प्रभावित पाठकों के जरिए ही इन अखबारों ने अपना भरपूर विस्तार किया है. लाखों-करोड़ों रुपए के वारे न्यारे किए हैं और आज भी कर रहे हैं.
एक तरह से जिसके दम पर इन अखबारों का व्यवसाय फल फूल रहा उनसे जुड़े मसलों को उन्होंने किस तरह से देखा तो सबसे पहले बात सबसे बड़े मीडिया घराने से प्रकाशित होने वाले नवभारत टाइम्स की.
नवभारत टाइम्स ने इस आंदोलन से जुड़ी पहली खबर 2 जून को प्रथम पृष्ठ पर सिंगल कॉलम में ली, जिसमें बताया कि देश के 130 किसान संगठन आंदोलन पर हैं. उनकी मांग है कि किसानों का कर्ज माफ किया जाए. फसलों का उचित मूल्य मिले. न्यूनतम आय की गारंटी हो.
किसान इन मांगों को मनवाने के लिए दूध, सब्जी जैसे किसी भी जरूरी सामान को शहरों को पहुंचने नहीं देंगे. इसी फैसले के तहत पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित सात राज्यों में किसानों ने सब्जी और दूध फैला कर प्रदर्शन किया.
चार जून को पृष्ठ नौ पर छपी दो कॉलम की खबर का मजमून है कि किसान आंदोलन के तीसरे दिन सब्जियों और दूध के दाम बढ़े. अखबार ने इसी दिन अपना संपादकीय भी किसानों की हड़ताल नाम से प्रकाशित किया.
अगले दिन के अंक में पृष्ठ 13 पर प्रकाशित दो कॉलम की खबर का सार था- पंजाब के किसानों ने आंदोलन रोक दिया है, जिससे दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली चीजों की कल से आपूर्ति शुरू हो जाएगी. इस तरह नवभारत टाइम्स ने दस दिनी आंदोलन के छह दिन किसानों से जुड़ी एक भी खबर प्रकाशित नहीं की, जबकि इन दिनों में अखबार की पृष्ठ संख्या 20 से लेकर 24 तक रही.
हिंदुस्तान अखबार की बात की जाए तो उसका भी इस आंदोलन के प्रति रवैया कुछ अलग नहीं रहा. हालांकि अखबार ने पहले दिन दो जून को आठ राज्यों के किसान सड़कों पर नाम से लीड खबर ली, जिसमें बताया गया कि कहां-कहां किसानों ने क्या-क्या फेंका. इसी के साथ उनकी मांगों को रेखांकित किया.
अखबार ने पेज दो भी आधा किसानों के नाम किया तो संपादकीय में उनसे जुड़े सवाल उठाए. अगले दिन पृष्ठ तीन पर दो कॉलम की खबर में आंदोलन से फलों और सब्जियों की कीमतें बढ़ने की आशंका व्यक्त की है तो पेज 16 पर किसान परेशान हेडिंग से खबरों का पैकेज बनाया.
पांच जून को सत्ताधारी दल को केंद्र में रखकर खबर थी कि किसान आंदोलन की राजनीति की काट तलाशने में जुटी भाजपा तो अगले दिन पेज दो पर ‘मंदसौर में किसानों का जमावड़ा आज’ हेडिंग से तीन कॉलम की खबर रही. सब्जियों की किल्लत और ‘भाजपा ने की किसानों से संवाद की अपील’ नामक खबरों से भी पाठकों को मुखातिब कराया गया.
सात तारीख को पृष्ठ 12 पर छह कॉलम के लगाए गए पैकेज में बताया गया है कि अनाज-सब्जी उगाने वाले किसानों के पेट खाली हैं. इसमें बिहार, झारखंड, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से जुड़ी खबरों को स्थान दिया गया.
अगले दिन मध्य प्रदेश में किसानों का जल सत्याग्रह शुरू होने की खबर देने के साथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मंदसौर जाने की खबर को खानापूरी करने वाले अंदाज में पेश किया गया.
इस तरह हिंदुस्तान ने किसान आंदोलन को जहां पांच दिन कवर किया वहीं उतने ही दिन उसने किसानों से जुड़ी एक भी खबर छापने की जरूरत नहीं महसूस की. कवरेज वाले दिनों में भी तीन दिन तो महज खानापूरी वाले ही रहे.
बात दैनिक भास्कर की. एक जून को अखबार ने पृष्ठ छह पर चार कॉलम प्रकाशित लीड खबर में बताया कि किसानों का बंद आज से, दिल्ली आने वाला दूध मंदसौर में रोका गया.
अगले दिन आंदोलन से जुड़ी खबर को तीन कॉलम में पहले पन्ने पर लगाया गया, जिसका सार था कि छह राज्यों में किसानों ने आंदोलन शुरू किया. परिणामतः अनेक जगहों पर सब्जी और दूध सड़कों पर बहाया गया.
अखबार ने अगले दिन पृष्ठ 16 पर राहुल गांधी के उस बयान को जगह दी, जिसमें उन्होंने कहा था कि अन्नदाताओं के हक की लड़ाई में वह उनके साथ हैं. चार जून को पेज छह पर सब्जियों की कम आवक पर चिंता जाहिर की गई तो सड़कों पर बहाए गए दूध को भी रेखांकित किया गया.
इसके साथ ही अखबार ने टिप्पणी करते हुए किसानों को नसीहत दी कि ‘इन्हें सड़कों पर फेंकने के बजाय जरूरतमंदों में बांटिए. इससे न केवल आपको गर्व की अनुभूति होगी बल्कि आंदोलन भी और मजबूत होगा. जनता की सहानुभूति साथ जुड़ेगी सो अलग. पंजाब में आपके साथी ऐसा कर चुके हैं. विरोध का यह अच्छा तरीका लागू कीजिए.’
यहां अखबार की चिंता किसानों की समस्याओं और उनकी मांगों के प्रति कम बल्कि आंदोलन से प्रभावित होने वाले लोगों के प्रति ज्यादा दिखती है. यही कारण है कि वह अपनी टिप्पणी में किसानों को विरोध का तरीका क्या अपनाना चाहिए और सामान फेंकने के बजाय उसका कैसे इस्तेमाल करना चाहिए जैसी सलाह दे रहा था.
अगले दो दिन अखबार ने किसानों की खबर छापने की जरूरत नहीं महसूस की, तो छह जून को जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मंदसौर गए तो उसने सात जून के अंक में पेज छह पर चार कॉलम की खबर छापी, जिसका मजमून राहुल का वह बयान था कि कांग्रेस की सरकार बनी तो दस दिन में किसानों का कर्ज माफ होगा. राहुल पिछले साल पुलिस फायरिंग में मारे गए किसानों के परिजनों से भी मिले.
अगले दिन आंदोलन से जुड़ी खबर नदारद रही तो नौ जून को भाजपा किसान यात्रा की खबर को पृष्ठ छह पर पांच कॉलम में स्थान दिया गया, वहीं भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के उस बयान को भी प्रमुखता से लिया गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि किसानों की मौत को लेकर सरकार ने सहानुभूति तक नहीं जतायी.
इसी तरह दस और ग्यारह जून को भी किसान आंदोलन से जुड़ी खबरें नदारद रहीं तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के किसानों को लेकर दिए गए बयान को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है. इस तरह दैनिक भास्कर ने जहां एक ही दिन किसानों की खबर को पेज एक लायक समझा तो कई दिन उसने कोई खबर ही नहीं छापी.
जहां तक सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले अखबार दैनिक जागरण की बात है तो उसने एक जून के अंक में प्रथम पृष्ठ पर दो कॉलम की खबर लगाई, जिसका सार था कि आज से किसान छुट्टी पर रहेंगे, जिससे दूध और सब्जी की किल्लत होगी.
अगले दिन भी अखबार ने पेज एक पर दो कॉलम की खबर लेते हुए बताया कि गांव बंद आंदोलन शुरू होने से सड़कों पर दूध बहा. पत्र ने इसी दिन किसानों का आंदोलन हेडिंग के साथ संपादकीय भी किसानों के नाम किया.
तीन जून को पहले पेज पर चार कॉलम खबर लेते हुए पाठकों को बताया गया कि कई राज्यों में किसान आंदोलन का असर रहा. इस खबर के साथ केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह के बयान को बॉक्स में इस्तेमाल किया गया, जिसमें उनका कहना था कि ‘देश में करोड़ों की संख्या में किसान हैं. उनमें कुछ किसान वहां (मध्य प्रदेश में) प्रदर्शन कर रहे हैं. मीडिया में आने के लिए ऐसे प्रयास होते रहते हैं.‘
इसी दिन पेज छह पर आजादपुर मंडी में टमाटर की आवक में कमी को पांच कॉलम, तो राजस्थान में फैले आंदोलन को पेज 13 पर स्थान दिया गया. अगले दिन पृष्ठ एक पर दूध और सब्जियों का संकट गहराने और कालाबाजारी जोरों पर संबंधी सामग्री को पांच कॉलम में सजाया गया है. साथ ही बॉक्स में दूध और सब्जियों को फेंकने की खबर के साथ फोटो भी दी है.
पांच जून को पेज तीन पर पांच कॉलम में सब्जियों को लेकर स्टोरी है, जिसका सार है कि हरी सब्जियों की कीमत बढ़ गयी है वहीं किसानों की हड़ताल अब बेअसर होने लगी है. उसके साथ यह सूचना भी थी कि पंजाब में कल किसानों की हड़ताल खत्म हो जाएगी.
अगले दिन मंदसौर गोलीकांड की बरसी थी सो पृष्ठ 12 पर चार कॉलम में पिछले साल का घटनाक्रम बताया गया. साथ ही पहली बरसी पर क्या आयोजन होगा, इसका ब्योरा दिया गया.
इसी दिन कृषि मंत्री राधामोहन सिंह के बयान पर एक खबर थी, जिसकी हेडलाइन थी- एक दशक बाद जमीन पर उतरी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश, जिसका सार था कि ‘कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए एमएस स्वामीनाथन आयोग की ज्यादातर सिफारिशों पर अमल शुरू कर दिया गया है. खेती को घाटे से उबारने और किसानों की आमदनी को बढ़ाने के सुझाए उपायों को सरकार ने एक एक कर लागू किया है. इनमें से अधिकतर नतीजे दिखने भी लगे हैं. पीएम मोदी ने केंद्र की सत्ता संभालते ही स्वामीनाथन कमेटी रिपोर्ट को लागू करने की प्रकिया शुरू कर दी. फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर डेढ़ गुना करने का ऐलान ही नहीं किया बल्कि लागू भी कर दिया. चालू खरीफ सीजन से ही समर्थन मूल्य इसके आधार पर घोषित किए जाएंगे.’
सवाल उठता है कि अगर सरकार ने स्वामीनाथन कमेटी की सभी सिफारिशों को लागू कर दिया है तो किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं, क्योंकि उनकी तो यही मांग है.
दरअसल मंत्री महोदय किसानों के मसले पर आंकड़ेबाजी का खेल-खेल रहे हैं. इस खेल के तहत ही वह ऐसे बयान दे रहे हैं. साक्षात्कार दे रहे हैं और उस पर खबरें प्लांट करा रहे हैं. ऐसा करके वह किसानों और आम जनमानस को भ्रमित कर रहे हैं. उनके इस काम में अखबार भी उनका पूरा साथ दे रहे हैं.
अखबार ने सात जून को राहुल गांधी के मंदसौर जाने को पृष्ठ 11 पर आधे पेज का पैकेज बनाया, जिसमें राहुल के मध्य प्रदेश में सरकार बनी तो दस दिन में किसानों का कर्ज माफ करेंगे, बयान को प्रमुखता से छापा गया. साथ ही रोते-बिलखते किसानों से उनका कहना कि सरकार बनने दो तो दोषियों पर करेंगे कार्रवाई, वहीं अरुण जेटली का राहुल से पूछना कि वह मसले को कितना जानते हैं और कब जानेंगे नामक खबरों को पैकेज का हिस्सा बनाया गया.
यहां तक तो ठीक था, लेकिन राहुल की इस सभा के साथ अखबार ने किसान आंदोलन को बिसरा दिया. अंतिम चार दिन 20 से लेकर 38 पेज तक का अखबार निकला, लेकिन उसने किसान आंदोलन पर एक लाइन तक नहीं छापी गयी.
अब बात अमर उजाला की, जिसने दो जून को पहले पेज पर किसानों का दस दिन का गांव बंद हेडिंग से संक्षेप खबर लगाते हुए पृष्ठ 17 पर आठ कॉलम की लीड खबर ली, जिसका सार था कि किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे अन्नदाता.
इस खबर के साथ छोटे-छोटे छह बॉक्स लगाकर अनेक जानकारियां दी गईं, मसलन-172 संगठन हड़ताल में शामिल हैं. पिछले साल भी सब्जी और दूध सड़कों पर फेंककर किसानों ने विरोध जताया था. इस तरह से विरोध करने का उद्देश्य किसानों को अपना महत्व जताना है. इस आंदोलन की वजह से पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश में सब्जी और अनाज की मंडियां बंद रहीं तो पंजाब में सड़कों पर फल फेंके गए.
अगले दिन अखबार ने पहले पन्ने पर चार कॉलम स्पेस देते हुए ‘गांव बंद से शहरों में आफत हो रही है वहीं फल और सब्जियों के भाव में तेजी आ रही है,’ को रेखांकित किया है. इस खबर के साथ छोटे-छोटे आठ बॉक्स और एक फोटो को पैकेज का हिस्सा बनाया गया, जिसमें बताया गया है कि पंजाब के बठिंडा में दूधियों को रोक रहे किसानों पर लाठीचार्ज किया गया तो मंदसौर में किसानों ने अनोखा प्रयोग करते हुए खीर बनाकर लोगों में बांटी.
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राजधानी दिल्ली में महंगे हुए टमाटर की सूचना देने के साथ आंदोलन से सब्जियों के दाम में आए उछाल की भी जानकारी दी गयी. चार जून को पेज एक पर ही आंदोलन के उग्र होने और सब्जियों में आई और तेजी को एक फोटो के साथ दो कॉलम लगाया गया.
इसी दिन पृष्ठ 11 पर आंदोलन की आड़ में लूटपाट होने की घटनाओं को चंडीगढ़ डेटलाइन से स्थान दिया गया, जिसमें बताया गया कि मानसा और अबोहर में फल और सब्जियों से भरे ट्रक लूट लिए गए तो फाजिल्का में दुकानों से दूध के भरे ड्रम लूटे गए.
अखबार ने इस दिन का संपादकीय भी सड़क पर किसान हेडिंग से आंदोलन के नाम किया. इसी क्रम में पांच जून को पृष्ठ नौ पर किसान आंदोलन का असर नहीं खबर को चार कॉलम लीड में सजाया, तो पेज 11 पर पंजाब के किसानों के अगले दिन खत्म होने वाले आंदोलन की सूचना रही.
इसी दिन अखबार ने फिल्म अभिनेत्री रवीना टंडन की उस टिप्पणी को भी कोट के रूप में लिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘आंदोलन का यह तरीका कष्टदायी है. सार्वजनिक संपत्ति, वाहन और सामग्रियों का नुकसान दुखद है. आंदोलनकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए.’
प्रश्न इस बात का है कि किसान लुटता रहे, पिटता रहे, राजनीतिक दल और सरकारें उसे बेवकूफ बनाकर उसका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में करती रहें, उसकी समस्याओं को सुलझाने में जरा सा भी दिलचस्पी न लें और जब किसान इसका विरोध करें, विरोध स्वरूप अपने उत्पादों को नुकसान पहुंचाएं तो खाते-पीते लोगों से लेकर मीडिया तक उसके कदम पर टीका टिप्पणी करे.
अगर यह लोग किसानों के इतने ही बड़े हितैषी हैं और वह चाहते हैं कि किसान इस तरह विरोध न जताएं तो वह उनके पक्ष में खड़े क्यों नहीं होते? क्यों नहीं वह एक बार सड़कों पर उतर कर सरकारों पर दबाव बनाएं कि सबसे पहले इस देश के 70 फीसदी अन्नदाताओं की समस्याओं को सुलझाया जाए? क्योंकि ये किसान अपना ही नहीं पूरे देश का पेट भरते हैं.
खैर! अमर उजाला ने छह जून को किसानों से जुड़ी खबर नहीं दी, तो सात को प्रथम पृष्ठ पर राहुल गांधी के मंदसौर जाने की सूचना देने के साथ पृष्ठ 15 पर उसे लीड लगाया. तत्पश्चात अगले चार दिन तक अखबार ने किसान आंदोलन से जुड़ी एक भी खबर नहीं छापी.
प्रमुख हिंदी अखबारों की बात की जाए तो सबसे ठीक कवरेज राजस्थान पत्रिका का रहा, जिसने एक जून को प्रथम पृष्ठ पर भोपाल डेटलाइन से किसानों का गांव बंद आज से खबर को तीन कॉलम में लगाया.
अगले दिन पेज एक पर चार कॉलम लीड लगाते हुए बताया गया कि पहले ही दिन आंदोलन का दस राज्यों में असर रहा. सड़कों पर दूध और सब्जियां फेंकी गईं. राजस्थान में दूध की आपूर्ति बाधित रही तो मध्य प्रदेश में छह जिले ज्यादा प्रभावित हैं.
तीन जून को आंदोलन के बीच मध्य प्रदेश में दो किसानों की खुदकुशी की घटना को पहले पेज पर दो कॉलम में छापा. पेज दो पर सड़कों पर सब्जियां फेंकने को महत्व दिया, तो तीन पर सब्जियों की बढ़ती कीमत और दूध की हो रही किल्लत की खबर को छह कॉलम लीड के तौर पर पेश किया गया, जिसमें आंदोलन संबंधी अनेक नगरों से जुड़ी सूचनाएं और सब्जियों के बढ़ते भाव बताए गए.
अगले दिन भी किसानों से जुड़ी खबरों को अखबार ने छितरा दिया. पृष्ठ तीन पर किसान आंदोलन पर खुफिया विभाग पैनी नजर हेडिंग से खबर रही, तो पृष्ठ नौ पर वाराणसी से खबर है कि बाजार तक फल और सब्जी नहीं ले जाने का ऐलान किसानों ने किया.
इसी दिन पृष्ठ 14 पर मध्य प्रदेश से खबर थी कि सब्जियों की कीमत लगभग दोगुने तक पहुंचीं. पांच जून को पेज एक पर दो कॉलम की खबर में बताया गया कि पंजाब में छह को बंद हो जाएगा किसान आंदोलन. इसी दिन पृष्ठ नौ पर वाराणसी से खबर है कि आंदोलन के पक्ष में आज राजा तालाबमंडी में बंदी रहेगी.
अगले दिन किसानों के पक्ष में राहुल गांधी की होने वाली सभा की चार कॉलम की खबर पृष्ठ एक पर थी, तो पेज चार पर आठ कॉलम लीड स्टोरी दूध संकट पर केंद्रित रही. वहीं पेज दस पर राजकोट डेटलाइन से दूध और सब्जियां फेंकने की खबर थी.
सात जून को राहुल गांधी के मंदसौर जाने की घटना को पहले पेज पर दो कॉलम में लिया गया तो दो पर राष्ट्रीय किसान महासंघ के संयोजक शिवकुमार कक्काजी से बातचीत थी, जिसके सार रूप में उन्होंने मोदी सरकार के किसान विरोधी फैसलों को रेखांकित किया है.
उन्होंने कहा, ‘फसल बीमा योजना पूरी तरह से बीमा कंपनियों के हित में है. हम शुरू से कह रहे हैं कि किसान कर्ज माफी नहीं चाहता. जब तक लागत के आधार पर डेढ़ गुना रिटर्न नहीं मिलेगा, कर्ज माफी कितनी भी बार कर दें, फायदा नहीं है. पहली केंद्र सरकार ने चार वर्ष में 28 किसान विरोधी निर्णय लिए हैं. आत्महत्या में 43 फीसदी वृद्धि होना छोटी बात नहीं है.’
अखबार ने बातचीत का सिलसिला नौ जून को भी जारी रखा, जिसमें पृष्ठ दो पर छह कॉलम में केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह दस दिनी किसान आंदोलन पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे थे. उनका कहना था, ‘यह आंदोलन किसानों का नहीं बल्कि राजनीतिक आंदोलन है. दूध खरीदकर सड़कों पर गिराया जा रहा है. किसान को पता है कि वह पहले की अपेक्षा आज बेहतर स्थिति में है.’
अगले दिन पत्रिका ने मंदसौर में किसानों की श्रद्धांजलि सभा में जुटे भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया की खबर को पेज आठ पर लिया है, जिसका टोन है कि अहंकारी सरकार समझ ही नहीं सकती किसानों की पीड़ा. इस तरह से अखबार ने दस दिनी आंदोलन को आठ दिन कवर किया तो दो दिन उसने किसानों को तवज्जो नहीं दी.
बावजूद इसके अगर प्रमुख हिंदी अखबारों की बात की जाए तो किसान आंदोलन को सबसे ज्यादा तरजीह राजस्थान पत्रिका ने दी. वैसे सभी हिंदी अखबारों ने किसानों की समस्याएं, उनकी दयनीय हालत, उनकी इस हालत के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं और उन्हें इस हालत से कैसे बाहर निकाला जाए आदि बिंदुओं पर बात बिलकुल नहीं की. उनकी मुख्य चिंता का विषय किसानों के उत्पादों का इस्तेमाल करने वाले शहरी अथवा खाए-पिए लोग रहे.
ऐसे समय में अमर्त्य सेन की वह पंक्ति याद आती है कि ‘भारतीय मीडिया तेजी से अमीरों का पक्षधर होता जा रहा है.’ शायद इसीलिए उनका फोकस दूध और सब्जियां फेंकने वाली घटनाएं और बाजार में उनकी बढ़ती कीमतों पर ज्यादा रहा.
कुछ अखबारों ने तो दस दिनी आंदोलन को ही कठघरे में खड़ा कर दिया. उनके तौर-तरीकों पर टीका-टिप्पणी तक की. यहां दैनिक जागरण की दो जून की संपादकीय की चंद पंक्तियों पर गौर फरमाना आवश्यक हो जाता है.
अख़बार ने लिखा, ‘यह ठीक नहीं कि किसान संगठन अपनी मांगें मनवाने के लिए दूध और सब्जियों की बर्बादी करने के साथ ही आम लोगों की समस्याएं बढ़ाने वाले काम करें. सरकार पर दबाव बनाने के लिए आम लोगों के समक्ष परेशानी खड़ी करना उचित तरीका नहीं. निःसंदेह किसानों को अपनी समस्याओं को रेखांकित करने के लिए आंदोलन के रास्ते पर जाने का अधिकार है लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल करते समय इस बात का ध्यान रखा जाए तो बेहतर कि आम तौर पर वही आंदोलन सफल होते हैं जिन्हें जनता की सहानुभूति हासिल होती है. यह समझना कठिन है कि जो किसान अन्न के एक-एक दाने को बचाने का जतन करते हैं वे दूध और सब्जियां फेंकने का काम कैसे कर सकते हैं? बेहतर होगा कि जो किसान संगठन दूध, सब्जी आदि की आपूर्ति रोक कर सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं वे इस पर गौर करें कि कुछ समय पहले महाराष्ट्र के किसानों ने किस तरह अपने आंदोलन के जरिए एक मिसाल कायम की थी.’
यह ठीक है कि महाराष्ट्र के किसानों ने अनुशासित आंदोलन कर मिसाल कायम की, लेकिन ऐसे अनुशासित आंदोलन की नसीहत देने वाले अखबार ने उस आंदोलन को किस तरह कवर किया था, यह भी देखना जरूरी है.
इस पड़ताल में पता चला कि उस चार दिनी आंदोलन में से दो दिन इस अखबार ने कवर ही नहीं किया. शेष दो दिन में से एक दिन पृष्ठ 17 पर दो कॉलम में खानापूरी करने वाली खबर है तो एक दिन पेज 15 पर कुछ खबरों का पैकेज लगाया गया है. यानी करीब 50 हजार जुटने वाले किसानों के आंदोलन को इस अखबार ने पहले पन्ने लायक नहीं समझा और जब किसान लोगों का ध्यान खींचने के अपने उत्पाद सड़कों पर फेंक कर विरोध जताने लगे तो अखबार ने उसके पूरे आंदोलन को ही कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया.
इसके साथ ही सरकारों के नुमाइंदे भी यह बताने में लगे रहे कि किसान अब बेहतर स्थिति में हैं. उनका यह आंदोलन राजनीतिक है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू हो गयी हैं. इन मनगढ़ंत बातों पर अखबारों ने पलटकर एक सवाल भी नहीं किया बल्कि वह इन मनगढ़ंत बातों को बेहतर तरीके से छापते रहे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)