आरटीआई बिल में संशोधन को विशेषज्ञों ने सूचना आयोग की स्वतंत्रता पर हमला बताया

2009 से 2012 तक केंद्रीय सूचना आयोग में सूचना आयुक्त रहे शैलेष गांधी का कहना है कि इस संशोधन के ज़रिये सरकार आरटीआई कानून में अन्य संशोधन करने का रास्ता खोल रही है.

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(​फोटो साभार: विकिपीडिया)

आरटीआई कार्यकर्ता इस संशोधन विधेयक का कड़ा विरोध कर रहे हैं. 2009 से 2012 तक केंद्रीय सूचना आयोग में सूचना आयुक्त रहे शैलेष गांधी का कहना है कि इस संशोधन के ज़रिये सरकार आरटीआई क़ानून में अन्य संशोधन करने का रास्ता खोल रही है.

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(फोटो साभार: विकिपीडिया)

 

नई दिल्ली: लंबे इंतजार के बाद केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2018 को सार्वजनिक कर दिया है. विधेयक के अनुसार केंद्रीय सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन और उनके कार्यकाल को केंद्र सरकार द्वारा तय करने का प्रावधान रखा गया है.

अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त के वेतन के बराबर मिलता था. वहीं राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त और राज्य सरकार के मुख्य सचिव के वेतन के बराबर मिलता था.

आरटीआई एक्ट के अनुच्छेद 13 और 15 में केंद्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ता और अन्य सुविधाएं निर्धारित करने की व्यवस्था दी गई है. केंद्र की मोदी सरकार इसी में संशोधन करने के लिए बिल लेकर आ रही है.

आरटीआई की दिशा में काम करने वाले लोग और संगठन इस संशोधन का कड़ा विरोध कर रहे हैं. 2009 से 2012 तक केंद्रीय सूचना आयोग में सूचना आयुक्त रहे शैलेष गांधी का कहना है कि इस संशोधन के ज़रिये सरकार आरटीआई कानून में अन्य संशोधन करने का रास्ता खोल रही है.

उन्होंने कहा, ‘ये बिल सूचना आयोग के कद को छोटा करने की कोशिश है. हमारा आरटीआई कानून दुनिया के बेहतरीन कानूनों में से एक है, लेकिन इसे बहुत बुरी तरह से लागू किया जा रहा है. आरटीआई एक्ट में किसी तरह का बदलाव नहीं होना चाहिए. अगर आरटीआई कानून कमज़ोर किया जाता है तो ये देश की जनता के लिए बहुत बड़ी हानि होगी.’

बता दें कि इस बिल को लेकर प्री-लेजिस्लेटिव कंसल्टेशन पॉलिसी यानी कि पूर्व-विधायी परामर्श नीति का पालन नहीं किया गया है. नियम के मुताबिक अगर कोई संशोधन या विधेयक सरकार लाती है तो उसे संबंधित मंत्रालय या डिपार्टमेंट की वेबसाइट पर सार्वजनिक किया जाता है और उस पर आम जनता की राय मांगी जाती है.

लेकिन इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया गया. इस बिल को 5 अप्रैल 2018 को ही तैयार कर लिया गया था. लेकिन इसे इतने दिनों तक सार्वजनिक नहीं किया गया. 12 जुलाई को मानसून सत्र के लिए लोकसभा के कार्यदिवसों की सूची जारी की गई है जिसमें से एक बिल सूचना का अधिकार (संशोधन) बिल, 2018 भी है. इसके बाद अब जाकर पूरे बिल को सार्वजनिक किया गया है.

सरकार का कहना है कि चूंकि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त का वेतन सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर होती है. इस तरह मुख्य सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त वेतन, भत्ता और अन्य सुविधाओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट के बराबर हो जाते हैं. लेकिन सूचना आयुक्त और चुनाव आयुक्त दोनों का काम बिल्कुल अलग है.

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सरकार का तर्क है, ‘चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 की धारा (1) के तहत एक संवैधानिक संस्था है वहीं केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत स्थापित एक सांविधिक संस्था है. चूंकि दोनों अलग-अलग तरह की संस्थाएं हैं इसलिए इनका कद और सुविधाएं उसी आधार पर तय की जानी चाहिए.’

बता दें कि संवैधानिक संस्था उसे कहते हैं जिनके बारे में संविधान में व्यवस्था दी गई हो वहीं सांविधिक संस्था उसे कहते है जिसे कोई कानून बनाकर स्थापित किया गया हो.

RTI Bill
सूचना का अधिकार (संशोधन) बिल, 2018

इस पर आरटीआई को लेकर काम करने वाले सतर्क नागरिक संगठन और सूचना के जन अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) से जुड़ीं अंजलि भारद्वाज ने कहा, ‘ये एकदम बकवास तर्क है. स्वतंत्र रूप से निगरानी रखने वाली संस्थाओं को संवैधानिक संस्था के बराबर लाते हुए ऊंचे कद का दर्जा दिया जाता है. सूचना आयोग के अलावा लोकपाल और केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी यही दर्जा मिला हुआ है. इस संशोधन के ज़रिये सरकार सूचना आयोग की स्वतंत्रता और स्वायत्तता नियंत्रित करना चाह रही है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सूचना आयुक्तों को संवैधानिक संस्था के बराबर दर्जा इसलिए दिया गया है ताकि वे स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ काम करें. सूचना आयुक्तों के पास ये अधिकार होता है कि सबसे बड़े पदों पर बैठे लोगों को भी आदेश दे सकें कि वे एक्ट के नियमों का पालन करें. लेकिन इस संशोधन के बाद अब उनका ये अधिकार छिन जाएगा.’

सरकार सूचना आयुक्तों के कार्यकाल में भी बदलाव करने की तैयारी में है. आरटीआई एक्ट के अनुच्छेद 13 और 16 में लिखा है कोई भी सूचना आयुक्त पांच साल के लिए नियुक्त होगा और वो 65 साल की उम्र तक पद पर रहेगा. लेकिन संशोधन बिल में ये प्रावधान है कि अब से केंद्र सरकार ये तय करेगी कि केंद्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त कितने साल के लिए पद पर रहेंगे.

मालूम हो कि सरकार सूचना आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति न करने को लेकर आलोचनाओं के घेरे में है. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं होने की वजह से सूचना आयोगों में लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या बढ़ती जा रही है.

आरटीआई कानून में प्रस्तावित संशोधन को लेकर पारदर्शिता के लिए आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं और पूर्व आयुक्तों ने इसकी आलोचना की है. केंद्र द्वारा प्रस्तावित सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून में संशोधन का मुखर विरोध किया है.

वहीं केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के सूत्रों ने कहा है कि प्रक्रिया में सरकार ने उसके साथ विचार विमर्श नहीं किया.

प्रस्तावित विधेयक पर सख़्त ऐतराज़ जताते हुए एक बयान पर कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज, निखिल दे, प्रदीप प्रधान, राकेश दुबुदू, पंक्ति जोग, वेंकटेश नायक, डॉ. शेख ने हस्ताक्षर किया है.

इसमें कहा गया है, ‘आरटीआई कानून के तहत आयुक्तों को प्रदान किया गया दर्जा उन्हें स्वायत्त रूप से काम करने के लिए सशक्त बनाता है और शीर्ष कार्यालयों को भी कानून के प्रावधानों का पालन करना पड़ता है.’

पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने भी प्रस्तावित कदम को पीछे ले जाने वाला प्रस्ताव बताया जिससे कि सीआईसी और एसआईसी की स्वतंत्रता और स्वायत्तता से समझौता होगा.

एक अन्य पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त एएन तिवारी ने कहा कि इन बदलावों से सूचना आयोग पंगु संस्थान में बदल जाएगा.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)