जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) ने सात अगस्त को कुलपति प्रो. एम. जगदीश कुमार को पद से हटाने और उच्च शिक्षा निधि प्राधिकरण से ऋण लेने के ख़िलाफ़ जनमत संग्रह कराने का फैसला किया है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) ने सात अगस्त को कुलपति प्रो. एम. जगदीश कुमार को पद से हटाने और उच्च शिक्षा निधि प्राधिकरण से ऋण लेने के ख़िलाफ़ जनमत संग्रह कराने का फैसला किया है.
शिक्षक संघ का जो फैसला है उसे पिछले चार सालों से जेएनयू में जो कुछ हो रहा है उसके परिप्रेक्ष्य में देखना बहुत ज़रूरी है. शिक्षक संघ ने कुलपति के ख़िलाफ़ जनमत संग्रह कराने का फ़ैसला लिया है जो कि असाधारण है.
इससे पहले भी शिक्षक संघ ने जन सुनवाई की थी. उसमें भी कुलपति के ख़िलाफ़ मत दिया गया था. वहां मौजूद तमाम पत्रकारों और शिक्षकों में मैं भी शामिल था.
हमने वहां जेएनयू के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों की बात सुनी, दस्तावेज़ देखे और पाया कि कुलपति विश्वविद्यालय के समुदाय की अनदेखी करते हुए हर तरह से रिश्ता तोड़कर काम कर रहे हैं.
अब जेएनयू के छात्र-छात्राओं और शिक्षकों का कुलपति पर कोई विश्वास नहीं है और कुलपति का भी छात्र-छात्राओं और शिक्षकों पर कोई विश्वास नहीं है. ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालय का चलना असंभव है, पर सवाल खड़ा होता है कि ऐसे में किसे पीछे हटना चाहिए?
अगर हम देखें तो विश्वविद्यालय के शिक्षक लंबे समय से यहां हैं और आगे भी रहने वाले हैं. ऐसे में कुलपति को समझना चाहिए कि वे एक ट्रस्टी के तौर पर कार्यरत हैं और उन्हें शिक्षकों और छात्र-छात्राओं का पूरा विश्वास लेते हुए उनकी तरफ़ से काम करना चाहिए.
कुलपति को सभी से विचार-विमर्श से करना चाहिए. यह एक अनौपचारिक समझ है कि विश्वविद्यालय में सब एक दूसरे का सहयोग करेंगे न कि एक दूसरे के विरुद्ध काम करेंगे.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अभी तक ऐसा रिश्ता कहीं न कहीं बना हुआ था. अब तक यहां के कुलपति मालिक की तरह बर्ताव नहीं करते थे, यह पहली बार है कि विश्वविद्यालय में इस तरह का बर्ताव कुलपति द्वारा किया जा रहा है और प्रशासन, छात्र-छात्राओं और शिक्षक का आपस में रिश्ता टूट रहा है.
अगर इससे पहले ऐसा हुआ होता, यानी ये नियमित बात होती तो सोचा जा सकता था कि शिक्षकों और छात्र-छात्राओं का रवैया ख़राब है मगर पहली बार ऐसा हो रहा है.
कुलपति को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है मगर उनके रवैये से लगता है कि वे इसकी ज़रूरत नहीं समझते है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रा और शिक्षक अपनी समस्याओं में बहुत उलझ कर रह गए हैं उन्हें नहीं पता कि कब कौन सा नया आदेश आ जाए… उस पर प्रशासन उनकी बात तक न सुने और अंत में उन्हें हर छोटी बात के लिए अदालत का रुख़ करना पड़े.
इससे लोगों की रोज़ की दिनचर्या ही अस्त-व्यस्त हो जाती है. यही कारण है कि अब जेएनयू से व्यापक प्रतिक्रियाएं नहीं आती हैं. उनके लिए यह असंभव किया जा रहा है कि वे किसी भी बड़े मुद्दे पर अपनी राय रख सकें.
जेएनयू में जो हो रहा है वो एक मौका है कि हम विश्वविद्यालय की संरचना पर बात करें. शिक्षकों की शिकायत है कि जो निकाय बने हुए थे, उन्हें क़ानून के अनुसार काम करने नहीं दिया जा रहा है.
अगर एक बार देखने की कोशिश करें कि इन निकायों का काम क्या है. उदाहरण के लिए अकादमिक परिषद, जिसमें हर स्कूल व सेंटर के प्रतिनिधि रहते हैं, वो किसी भी अकादमिक विषय पर विचार-विमर्श करती है और उम्मीद की जाती है कि विभिन्न तरह के मत आएंगे, फिर भी एक निर्णय पर पहुंचा जाएगा.
लेकिन अगर यह बैठक ऐसे चलाई जाने लगे कि कुलपति ख़ुद एक प्रस्ताव लेकर आएं और ऐसे लोगों को बुला लें जो इसके सदस्य नहीं हैं और वे लोग बैठक में शोर करने लगें. इसके बाद कुलपति अपने प्रस्ताव को पास कर ले जाएं तो यह ठीक नहीं है. अभी तक यह अन्य विश्वविद्यालयों में होता था पर जेएनयू में ऐसा पहली बार हो रहा है.
इसका मतलब आप आकादमिक फैसले बाहुबल के आधार पर ले रहे हैं जिसका कोई अकादमिक तर्क नहीं है.
जेएनयू के कुलपति अगर इस्लामिक आतंकवाद नाम का कोर्स शुरू करवाना चाहते हैं तो क्या अलग-अलग सेंटर के लोगों से इस पर बात की गई या फिर वे प्रस्ताव लेकर आ गए और मनमाने तरीके से उसको पास करवा दिया गया.
उसी तरह जब यह फैसला किया गया कि जेएनयू में मेडिसिन और इंजीनियरिंग के कोर्स शुरू किए जाएंगे तो यह बहुत बड़ा फैसला था क्योंकि इससे जेएनयू की पूरी संरचना बदल सकती है.
इसके पक्ष में एक तर्क लिया जा सकता है कि विश्वविद्यालय में ज्ञान के सारे क्षेत्रों का होना आवश्यक है लेकिन यह भी देखना चाहिए कि कोई भी विश्वविद्यालय ऐतिहासिक संदर्भ में बनता है और उसी संदर्भ में स्वाभाविक ढंग से विकसित होता है.
मसलन किसी भी विषय पर चर्चा चलती रहनी चाहिए और अकादमिक परिषद के निर्णय का सम्मान होना चाहिए.
देखना यह भी चाहिए कि चर्चा शुरू कहां से हो रही है. मेडिसन, मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग के कोर्स शुरू करने की चर्चा अंदर से शुरू हुई या फिर उसे बाहर से लाकर थोपा गया?
तो स्पष्ट है जिस तरह से यह फैसला लिया गया इसे कुलपति द्वारा थोपा ही गया है जबकि विश्वविद्यालय के ज़्यादातर शिक्षक इसके विरोध में थे. सवाल है क्या फैकल्टी की राय को ताक पर रखकर यह करना चाहिए?
निर्णय थोपने का दुष्परिणाम दिल्ली विश्वविद्यालय ने देखा है जिस पर सेमेस्टर थोपा गया, फिर चार साल स्नातक का प्रोग्राम थोपा गया जिसे बाद में कुलपति को वापस भी लेना पड़ा.
जब विश्वविद्यालय के सारे शिक्षक कह रहे थे कि इसे हड़बड़ी में मत लागू कीजिए तो कुलपति ने उनकी बात नहीं मानी लेकिन जब सरकार ने कुलपति के कान पकड़े तो फौरन मान ली.
कुलपति तो स्वयं शिक्षक हैं, उसी समुदाय के हैं पर वे किसी शिक्षक की बात नहीं सुन रहे थे लेकिन अपने ही फैसले को सरकार का हुक्म आते ही बदल देते हैं, तो फिर आपकी मर्यादा क्या रह जाती है.
आम तौर पर शिक्षकों के पद पर जो बहालियां होती हैं उन बहालियों में केंद्र की या स्कूल की भूमिका सर्वोपरि होती है, वे स्क्रीनिंग भी करते हैं और आवेदनों की जांच भी करते हैं और उनमें से चुनते हैं कि किनको बुलाया जाएगा या किनको नहीं.
फिर वे विशेषज्ञों के नाम देते हैं जो चयन समिति में होंगे और आम तौर पर कुलपति उसी सूची में से विशेषज्ञ चुनते रहे हैं. अब तक यही परंपरा रही है. लेकिन जैसा क़ानून में लिखा हुआ है कुलपति चाहे तो इनसे अलग भी लोग बुला सकता है पर कुलपति अमूमन ऐसा नहीं करते है.
हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय में हमने देखा कि कुलपति ने अक्सर ऐसा किया है लेकिन जेएनयू में ऐसा नहीं होता था. अब जेएनयू में कुलपति सुझावों को दरकिनार कर अपने मन से विशेषज्ञ बुला रहे हैं.
अब जो नियुक्तियां हो रही हैं वो विश्वास पैदा करने वाली नियुक्तियां नहीं हैं और इसका दुष्परिणाम छात्र-छात्राओं को भुगतना पड़ेगा. ये बहलियां अगले 20-30 वर्षों के लिए हो रहीं है ये शिक्षकों के चयन में शामिल होंगे.
अगर अभी औसत दर्जे के शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं तो इसका मतलब अभी आप तीसरे दर्जे के व्यक्ति को चुनेंगे तो उसका मौका जब आएगा तो वो चौथे दर्जे के व्यक्ति को चुनेगा. यानी विश्वविद्यालय एक बहुत लंबी अवधि के लिए ऐसे शिक्षकों से भर दिया जाएगा.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो संरचनात्मक परिवर्तन हो रहे हैं वो उसके पूरे चरित्र को न ही सिर्फ बदल देंगे बल्कि नष्ट कर देंगे.
ये जो जनमत संग्रह होना है वो एक आंदोलनात्मक गतिविधि है उसका कोई क़ानूनी मतलब नहीं है. अगर जनमत संग्रह में यह कह भी दिया जाए कि कुलपति को हटना है तो इसका मतलब यह नहीं है कि कुलपति को हटना है बल्कि यह है कि विश्वविद्यालय में उनकी स्वीकृति नहीं हैं.
अगर हम देखें कि केंद्रीय विश्वविद्यालय चलते कैसे हैं तो पता चलता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति एक सर्वोच्च अधिकारी होता है. अकादमिक परिषद की अध्यक्षता भी वही करता है. उसके ऊपर सिर्फ कुलाध्यक्ष होते हैं जो कि राष्ट्रपति हैं. लेकिन राष्ट्रपति के पास हमेशा पहुंचना संभव नहीं होता.
अगर अकादमिक परिषद की अध्यक्षता कुलपति ही कर रहा है तो उसकी अपील कहां की जाए. अपील की जगह सिर्फ अदालत होती है या कुलाध्यक्ष होते हैं. अगर आप कुलाध्यक्ष के पास अपील करते हैं तो वह उसे वापस मंत्रालय भेज देंगे.
मंत्रालय उसे वापस विश्वविद्यालय भेज देगा जहां उसका जवाब कुलपति को ही देना है. यह एक ऐसा चक्र है जिससे आप निकल नहीं सकते.
हमें केंद्रीय विश्वविद्यालय की प्रशासन व्यवस्था में परिवर्तन की ज़रूरत है इसमें कुलपति को जवाबदेह बनाना होगा. अगर कुलपति ही परिषद की बैठक की अध्यक्षता करेगा तो यह बहुत स्तर तक मुमकिन है कि कुलपति वही करेगा जैसा वो चाहेगा.
अब तक जेएनयू में ऐसा नहीं हुआ था. जेएनयू भी उसी क़ानून से चलता है जैसे दूसरे विश्वविद्यालय जिसके तहत कुलपति को आसाधारण अधिकार दिए जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि कुलपति अपने आसाधारण अधिकार का प्रयोग नहीं करेगा पर जैसा आंबेडकर ने कहा था यह क़ानून विस होगा जैसे लोग इसे चलाएंगे.
क़ानून यह मान कर बनाया गया था कि सभ्य और शालीन लोग होंगे यह कभी नहीं माना गया था कि विश्वविद्यालय के शीर्ष स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति आएगा जो सभ्यता के सारे मानकों को तोड़ देगा. यह एक मौका है कि व्यापक चर्चा शुरू की जाए कि विश्वविद्यालय का प्रशासन कैसे चलाया जा सकता है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. यह लेख सृष्टि श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है.)