जब चुनावी लोकतंत्र में ज़ब्त हो गई फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़मानत

चुनाव में हार के बाद जब पीएम जवाहर लाल नेहरू से उनकी भेंट हुई तो नेहरू ने पूछा, सहाय साहब कैसे हैं? फ़िराक़ गोरखपुरी का जवाब था, ‘सहाय’ कहां, अब तो बस ‘हाय’ रह गया है.

//

चुनाव में हार के बाद जब पीएम जवाहर लाल नेहरू से उनकी भेंट हुई तो नेहरू ने पूछा, सहाय साहब कैसे हैं? फ़िराक़ गोरखपुरी का जवाब था, ‘सहाय’ कहां, अब तो बस ‘हाय’ रह गया है.

Firaq Gorakhpuri The Wire Hindi
लेखक, आलोचक और शिक्षक फ़िराक़ गोरखपुरी का असली नाम रघुपति सहाय था. उनका जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ था.

मणिपुर विधानसभा चुनाव में इरोम शर्मिला को सिर्फ 90 वोट मिलने पर काफी बातें हो चुकी हैं. उसी दौरान कई लोगों ने पूछा कि महान शायर रघुपति सहाय यानी फ़िराक़ गोरखपुरी भी चुनाव लड़े थे तो उन्हें कितने वोट मिले थे? वह कहां से चुनाव लड़े थे और चुनाव में क्या हुआ था?

गोरखपुर के लोग बताते हैं कि फ़िराक़ गोरखपुरी 1962 में बासगांव से चुनाव लड़े थे. फ़िराक़ के बारे में लिखे गए कुछ लेखों में भी 1962 में बासगांव संसदीय क्षेत्र से उनके चुनाव लड़ने और हार जाने की बात कही गई है.

लेकिन चुनाव आयोग के रिकॉर्ड बताते हैं कि फ़िराक़ गोरखपुरी 1962 में नहीं बल्कि देश के पहले आम चुनाव 1951 में चुनाव लड़े थे और तब उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई थी. फ़िराक़ गोरखपुरी चुनावी हार से काफी ख़फ़ा हुए थे.

उसके बाद वे चुनाव लड़वाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना को ढ़ूंढते फिर रहे थे ताकि उन पर अपना गुस्सा उतार सकें लेकिन प्रो. शिब्बन लाल ऐसे गायब हुए कि फ़िराक़ साहब से उनकी मुठभेड़ ही नहीं हुई.

फ़िराक़ गोरखपुरी की सियासत में रुचि थी और उन्होंने कांग्रेस के लिए काम भी किया. गोरखपुर विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो. अफगानुल्लाह ने फ़िराक़ के बारे में लिखे एक लेख में उनकी सियासी ज़िंदगी पर रोशनी डाली है.

वे लिखते हैं, ‘वर्ष 1917 में शादी के बाद ही फ़िराक़ गोरखपुरी गांधीजी के ज़ेरे—असर सियासत में आ गए. इसकी वजह से उन्होंने डिप्टी कलेक्टरी के लिए हुई अपनी नामज़दगी ठुकरा दी. फ़िराक़ साहब को सियासत में लाने का सेहरा जवाहर लाल नेहरू को है. पीसीएस से इस्तीफ़ा देने के बाद वह इलाहाबाद चले गए और पंडित नेहरू के साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी का काम करने लगे.’

वे आगे लिखते हैं, ‘जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें 250 रुपये माहवार पर आॅल इंडिया कांग्रेस कमेटी का अंडर सेक्रेटरी बना दिया. फ़िराक़ साहब दिसंबर 1926 से 1927 तक तक़रीबन एक वर्ष तक इस पद पर काम किया लेकिन नेहरू के 1927 में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन करने के लिए विलायत जाने पर उन्होंने भी पद छोड़ दिया. उनके जाने के बाद फ़िराक़ साहब सियासत से अलग हो गए.’

इसके पहले उन्होंने महात्मा गांधी की गोरखपुर में हुई सभा में भी अहम ज़िम्मेदारी निभाई थी. सियासत से जुदा हो जाने के बावजूद फ़िराक़ गोरखपुरी एक बार फिर सियासत में आए और चुनाव भी लड़ गए.

आज़ादी के बाद आचार्य कृपलानी ने 1951 में किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई थी. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना इस पार्टी से जुड़े थे. किसान मज़दूर प्रजा पार्टी उत्तर प्रदेश में 37 स्थानों पर चुनाव लड़ी लेकिन वह एक सीट भी जीत न सकी.

30 सीटों पर पार्टी की ज़मानत ज़ब्त हो गई. चुनाव में कांग्रेस का बोलबाला था और उसने 81 सीटें जीतीं. सोशलिस्ट पार्टी को दो और हिंदू महासभा को एक सीट मिली. दो स्थानों पर निर्दलीय जीते.

इस चुनाव में हिंदू महासभा ने एक सीट जीत कर खाता खोला था. गोंडा पश्चिम से शकुंतला नायर हिंदू महासभा से चुनाव जीतीं. वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी केके नायर की पत्नी थीं जो फ़ैज़ाबाद के ज़िलाधिकारी थे. बाद में वह भी सांसद चुने गए.

प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने 1951 में फ़िराक़ गोरखपुरी को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया. वह फ़िराक़ गोरखपुरी के रिश्तेदार भी थे. फ़िराक़ साहब जोश में आ गए और चुनाव लड़ गए.

1951 के चुनाव में प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना गोरखपुर उत्तर सीट से और फ़िराक़ गोरखपुरी गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट साउथ से चुनाव लड़े. गोरखपुर साउथ से गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय नाथ भी हिन्दू महासभा से चुनाव लड़े.

महंत दिग्विजय नाथ गोरखपुर साउथ के अलावा बस्ती सेंट्रल ईस्ट कम गोरखपुर वेस्ट से भी चुनाव लड़े थे लेकिन दोनों स्थानों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा. गोरखपुर साउथ में वह दूसरे स्थान पर रहे जबकि बस्ती सेंट्रल ईस्ट कम गोरखपुर वेस्ट में तीसरा स्थान मिला.

चुनाव में फ़िराक़ गोरखपुरी हार गए. कांग्रेस के सिहांसन सिंह 54 फ़ीसद से अधिक मत प्राप्त कर चुनाव जीते, उन्हें 57,450 मत मिले. महंत दिग्विजय नाथ 25,678 मत प्राप्त कर दूसरे स्थान पर रहे. सोशलिस्ट पार्टी के नरेंद्र नारायण 11,981 मत प्राप्त कर तीसरे स्थान पर रहे जबकि फ़िराक़ गोरखपुरी को 9586 (9.16 फ़ीसदी) मत मिले.

चुनाव में हार से फ़िराक़ गोरखपुरी बहुत ख़फ़ा हुए और चुनाव लड़ने पर अफ़सोस करने लगे. उन्होंने चुनाव लड़वाने के लिए प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना को ज़िम्मेदार ठहराया और उन्हें ढूंढने लगे.

1974 में आकाशवाणी गोरखपुर के लिए फ़िराक़ गोरखपुरी का इंटरव्यू रिकॉर्ड करने वाले वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी रवीन्द्र श्रीवास्तव ‘जुगानी भाई’ बताते हैं कि प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना को फ़िराक़ साहब के गुस्से का इलहाम हो गया था और वह काफ़ी दिन तक उनके सामने आए ही नहीं.

सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा 1994 में प्रकाशित किताब ‘फ़िराक़: सदी की आवाज़’ में डॉ. वारिस किरमानी ने लिखा है कि चुनाव में हार का ग़म फ़िराक़ साहब पर काफ़ी दिन तक रहा. बाद में जवाहर लाल नेहरू से उनकी भेंट हुई तो उन्होंने हाल-चाल पूछते हुए कहा, सहाय साहब कैसे हैं?

फ़िराक़ गोरखपुरी का जवाब था, सहाय कहां अब तो बस हाय रह गया है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं )