प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल बेमानी जान पड़ता है, लेकिन हर दौर में उठता रहा है. अक्सर कहा जाता है कि अब भी भारत में किसान मर रहे हैं, शोषण है, इसलिए प्रेमचंद प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद शायद ऐसी प्रासंगिकता अपनी मृत्यु के 80 साल बाद न चाहते.
प्रेमचंद को क्यों पढ़ें? यह सवाल प्रेमचंद के रहते और उनके गुजर जाने के बाद हमेशा ही अलग-अलग वजह से उठाया जाता रहा है. एक समझ यह रही है कि प्रेमचंद को उनकी सामाजिकता की वजह से पढ़ा जाना चाहिए.
अक्सर यह कहते लोग मिल जाते हैं कि प्रेमचंद इसलिए प्रासंगिक बने हुए हैं कि भारत के किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं. कुछ लोग उन्हें भारतीय गांवों को समझने के लिए पढ़ना ज़रूरी बताते हैं.
अच्छी संख्या यह मानने वालों की है कि प्रेमचंद का ऐतिहासिक महत्व तो है और रहेगा लेकिन साहित्यिक दृष्टि से वे पुराने पड़ गए हैं, कि उपन्यासकार के रूप में उन्हें दोयम दर्जे का ही माना जा सकता है. अधिक से अधिक उनकी कहानियां पढ़ी जाती रहेंगी लेकिन उपन्यास!
यह कहने वाले भी हैं कि प्रेमचंद एकांगी हैं. निर्मल वर्मा ने तो उन पर भारतीय उपन्यास न लिखने का आरोप लगाया और यह भी कहा कि उनमें जीवन अधूरा है. उनमें विषाद ही विषाद है!
इन सबके बावजूद मृत्यु के अस्सी साल बाद और जन्म के 138 साल बीत जाने पर भी जो एक कथाकार पाठकों में सबसे लोकप्रिय है, तो वह प्रेमचंद हैं!
उनके अलावा शायद किसी लेखक को यह सौभाग्य प्राप्त हो कि उसकी किताबों के पन्नों पर हल्दी लगी उंगलियों की छाप भी हो और कत्थे का दाग भी. आंसू तो न जाने कितनी आंखों के उन सफहों पर गिरकर सूख गए होंगे.
मात्र साक्षर से लेकर दुनिया भर के कथा संसार में भ्रमण करने वाले भी लौट-लौट कर प्रेमचंद की ओर आते हैं. कक्षाओं में निरपवाद रूप से साल दर साल अगर किसी एक लेखक को पढ़ने वालों की तादाद सबसे अधिक होती है तो वह प्रेमचंद हैं!
यह ठीक है कि बचपन से ही स्कूल की लगभग हर कक्षा में उनका कुछ न कुछ पढ़ते हुए बड़े होने वाले लोगों का प्रेमचंद से अपरिचित होना मुमकिन नहीं लेकिन मैंने हर साल युवाओं को आत्मीयता के साथ प्रेमचंद के बारे में बात करते सुना है.
हमेशा लेखक को ही ख़ुद को साबित नहीं करना होता है ख़ुद को पाठकों के योग्य. कुछ लेखक ऐसे होते हैं जो समाज को चुनौती देते रहते हैं कि वह उनकी बनाई कसौटी पर ख़ुद को साबित करे!
आज के वक्त प्रेमचंद की अमीना ज़रूर अपने इकलौते पोते हामिद को अकेले ईदगाह न जाने देती! प्रेमचंद की कहानी ईदगाह एक अजीब तरीके से आज के हिंदुस्तान पर एक दुख भरी टिप्पणी में तब्दील हो जाती है. उसी तरह पंच परमेश्वर आज की सरकारों पर लानत भेजती है!
पंच परमेश्वर का एक वाक्य लगातार गूंजता रहता है. बुद्धिजीवियों के लिए, संस्थाओं के लिए, मीडिया के लिए, ‘बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न करोगे?’
प्रेमचंद की प्रासंगिकता क्यों है? यह सवाल बेमानी जान पड़ता है, लेकिन हर दौर में उठता रहा है. इसका उत्तर प्रेमचंद के किंचित समकालीन और उनके परवर्ती लेखकों ने देने की कोशिश की है, अपने-अपने ढंग से.
प्रेमचंद की परंपरा से नितांत अलग माने जाने वाले अज्ञेय ने भी इस पर विचार किया है. वे व्यंग्यपूर्वक उनकी चर्चा करते हैं, जो मानते हैं कि हिंदी उपन्यास प्रेमचंद से बहुत आगे निकल आया है.
‘जहां तक मानवीय सहानुभूति का- लेखक-मानव की विश्व मानव के साथ एकात्मता का- प्रश्न है. प्रेमचंद इस बात में आगे थे.’ प्रेमचंद के बाद के लेखकों से उनकी तुलना करते हुए और किसी का नहीं यह अज्ञेय का मानना है. और भी, ‘प्रेमचंद को मानवता से प्रेम था, हम अधिक से अधिक मानवता की प्रगति चाहते हैं.’
प्रेमचंद के जन्म के 138वें साल में अगर हम सोचें कि क्या हमारी संवेदना का क्षेत्र बढ़ा है तो फिर अज्ञेय का ही वाक्य याद आता है, ‘उनकी दृष्टि अधिक उदार थी, इतर मानवों के साथ उनकी संवेदना का सूत्र अधिक सजीव और स्पंदनशील था.’
आज जब हमने संवेदना के भी दायरे तय कर दिए हैं और उनमें प्रवेश करने वाले दूसरों को शक की नज़र से देखा जाता है तब प्रेमचंद के संवेदनात्मक साहस को देखकर चकित रह जाना पड़ता है.
प्रेमचंद ने हिंदी को और उर्दू के भी कथा भाषा का निर्माण किया और बताया कि कथाकार के लिए असल चीज़ है इंसानी ज़िंदगी के ड्रामे में दिलचस्पी लेना. वह संघर्ष की ज़मीन पर पांव टिकाता है लेकिन होठों पर मुस्कराहट के साथ.
‘गम की कहानी मज़े लेकर कहना’, प्रेमचंद का वाक्य है. अकसर कहा जाता है कि अभी भी भारत में किसान मर रहे हैं, शोषण है, इसलिए प्रेमचंद प्रासंगिक हैं. प्रेमचंद शायद ऐसी प्रासंगिकता अपनी मृत्यु के 80 साल बाद न चाहते.
उनमें पाठकों की रुचि के बने रहने का असल कारण है उनका किस्सा कहने का अंदाज़, उनका अलग-अलग तरह के चरित्रों पर गौर करना. अमृतलाल नागर ने जब कहा कि प्रेमचंद को पढ़कर मनोरंजन होता है तो प्रेमचंद के प्रशंसक उन पर टूट पड़े.
बेचारे नागरजी प्रेमचंद का लिखा खोजते रहे कि उनके ख्याल की ताईद उन्हीं का लेखक कर सके! फिर उन्हें वह मिल ही गया!
प्रेमचंद ख़ुद लिखते हैं, ‘उपन्यासकार यह कभी नहीं भूल सकता कि उसका प्रधान कर्तव्य पाठकों का ग़म ग़लत करना है, उनका मनोरंजन करना है…’ अमृतलाल नागर भी यही कहते हैं कि प्रेमचंद के पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोकप्रिय बने रहने का कारण है, उनमें मनोरंजन का गुण.
उसके साथ ही उपन्यासकार का काम मनोभाव चित्र का है, ‘(उपन्यासकार) ऐसी ही घटनाओं की आयोजना करता है जिसमें उसके पात्रों को अपने मनोभावों को प्रकट करने का अवसर मिले.’ यह लोहे के चने चबाने जैसा है. आखिर आप दूसरों के भीतर कैसे डूब सकते हैं? इसके लिए ‘उपन्यासकार को नित्य अपने अंतर की ओर ध्यान रखना पड़ता है.’
नागरजी लिखते हैं कि जीवन के संघर्ष में भटकते हुए प्रेमचंद झींकते न रहे, ‘उनके सामने तो हर रोज़ एक नई कहानी थी… तो उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया है और यह घाट-घाट का पानी उनकी कहानी के भीतर है.’
प्रेमचंद की चिंता को अज्ञेय की तरह ही समझा मार्क्सवादी भीष्म साहनी ने. उनका कहना है कि प्रेमचंद का सारा लेखन वस्तुतः नैतिक प्रश्नों की पड़ताल है:
‘इंसान और इंसानी रिश्तों को लेकर यदि कोई लेखक उपन्यास लिखने बैठेगा तो नैतिकता के प्रश्न को गौण मनाकर ताक पर नहीं रख सकता… यदि हम न्यायसंगत समाज व्यवस्था चाहते हैं, तो यह… नैतिकता का सवाल बन जाता है.’
आज समाज के हर तबके के अपने लेखक हैं. मानो लेखक न हुआ समूह विशेष का प्रवक्ता हुआ! लेकिन लेखक, वह भी कथाकार तो वही है जो अपनी निगाह का प्रसार निरंतर विस्तृत करता रहे और हरेक जन के मन में गहरे और गहरे उतरने का कौशल और साहस भी हो उसमें!
असल चुनौती है अपने घेरे से निकलना, दूसरों से आशंकित होकर नहीं, उत्सुक होकर मिलने की तत्परता. यह मानना जो अज्ञेय ने लिखा कि जन्म के कारण जाति, धर्म, वर्ग विशेष से रिश्ते को, जो नितांत संयोग है व्यक्ति की पहचान की शुरुआत और अंत नहीं माना जा सकता.
बल्कि उनका अतिक्रमण करने की क्षमता ही हमें मानवीय बनाती है. प्रेमचंद के साहित्य में इस इंसानियत का भरोसा है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)