जनता से सलाह मांगना एक अच्छा विचार है, लेकिन प्रधानमंत्री को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में क्या बोलना है, इसके लिए जनता से सलाह मांगना, 15 अगस्त के भाषण के गंभीर काम को लोकप्रिय फरमाइशी कार्यक्रम में तब्दील कर देता है.
15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल में आखिरी बार लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करेंगे. नरेंद्र मोदी हर सार्वजनिक मौके को एक उत्सव और बड़े निजी इवेंट में बदलने के कायल हैं और पिछले वर्षों में उन्होंने स्वतंत्रता दिवस को भी नितांत निजी इवेंट में बदल देने की भरसक कोशिश की है.
15 अगस्त स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक उत्सव रहा है. भारत के राजनीतिक मुखिया होने के नाते इस दिन प्रधानमंत्री के भाषण की परंपरा रही है. इस दिन प्रधानमंत्री देश के सामने कल्याण और विकास के कार्यों में हुई प्रगति का लेखा-जोखा पेश करते रहे हैं और आगे की योजनाओं के बारे में बताते रहे हैं.
एक तरह से यह दिन देश की जनता को विश्वास दिलाने और यह बताने का अवसर होता है कि 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने नियति के साथ साक्षात्कार का जो वादा किया था, हमारा देश उस दिशा में कितना आगे बढ़ा है. यह दिन पुराने संकल्पों को दोहराने और नए संकल्प करने का मौका होता है. ये संकल्प वास्तव में पूरे देश के लिए होते है.
‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की भावना को इस भाषण में अलग-अलग रूपों में दोहराया जाता रहा है. यह दोहराया जाना किसी भी तरह से निरर्थक नहीं है. एक समावेशी, लोकतांत्रिक, सेक्युलर, लोककल्याणकारी राष्ट्र बनाने और उसे बचाए रखने, सबकी बराबरी सुनिश्चित करने के संकल्प को दोहराया जाना एक जरूरी काम है.
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी परंपराओं में यकीन नहीं करते हैं. वे परंपराओं को भी अपने रंग में रंगना पसंद करते हैं. इस साल भी पिछले कुछ सालों की तरह प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से बड़े-बड़े इश्तिहार निकाले गए हैं, जिनमें जनता से यह राय देने के लिए कहा गया है कि प्रधानमंत्री को 15 अगस्त के दिन अपने भाषण में क्या बोलना चाहिए. कोई भी व्यक्ति इस कवायद में पंद्रह अगस्त के भाषण को एक इवेंट, एक और बड़े जनसंपर्क अभियान में बदल देने को देख सकता है.
आप वर्तमान समय में किसी भी सरकारी वेबसाइट पर जाएं आपको एक विज्ञापन सबसे ऊपर दिखाई देगा. केसरिया पृष्ठभूमि वाले इस विज्ञापन में उपयोगकर्ता से कहा गया है कि ‘शेयर योर आइडियास फॉर पीएम नरेंद्र मोदीस इंडिपेंडेंस स्पीच’ (स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण के लिए अपने विचार साझा करें)।
इसमें माय जीओवी/मेरी सरकार का एक लिंक है, जिस पर क्लिक करने से आपके सामने मायजीओवी का एक पेज खुलता है, जिसमें कहा गया है :
‘पिछले कुछ समय से जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 15 अगस्त को उनके भाषण के लिए अपने विचारों और सुझावों को साझा कर रही है. जन भागीदारी के जज्बे को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल भी आपके सुझावों के अभिलाषी हैं…अपने विचारों को लाल किले के प्राचीर से प्रसारित होने दीजिए…’
जैसा नरेंद्र मोदी के हर जनसंपर्क अभियान के साथ होता है यह भी एक चमकदार और विरोधियों को चित्त कर देने वाला ‘मास्टरस्ट्रोक’ है. लेकिन ऐसा करते हुए प्रधानमंत्री एक गंभीर काम को जन-भागीदारी के नाम पर एक खेल में बदल देते हैं.
जनता से सलाह मांगना एक अच्छा विचार है, लेकिन प्रधानमंत्री को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में क्या बोलना है, इसके लिए जनता से सलाह मांगना, 15 अगस्त के भाषण के गंभीर काम को लोकप्रिय फरमाइशी कार्यक्रम में तब्दील कर देता है.
क्या प्रधानमंत्री के पास ऐसा तंत्र नहीं है, जो उन्हें यह बताए कि आखिर उन्हें 15 अगस्त के अपने संबोधन में जनता के सामने किन मुद्दों को उठाना चाहिए? प्रधानमंत्री पर हर वक्त, अपने हर भाषण में, यहां तक कि राजनीतिक चुनावी भाषणों में भी 125 करोड़ जनता की तरफ से बोलने का दायित्व होता है.
यह अलग बात है कि चुनाव प्रचार करते वक्त वे अक्सर प्रधानमंत्री की ऊंची कुर्सी से नीचे उतरकर अपनी पार्टी के प्रवक्ता मात्र रह जाते हैं.
लेकिन 15 अगस्त के भाषण में उनके सामने ऐसी किसी तरह की दुविधा या मजबूरी नहीं है. इस दिन उनकी भूमिका साफ होती है. यह भाषण उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर ही देना होता है. इस दिन उन पर सिर्फ राय देनेवालों की तरफ से ही नहीं, राय न देने वालों और राय न दे सकने वालों सभी सवा सौ करोड़ भारतीयों की तरफ से बोलने की जिम्मेदारी होती है.
प्रधानमंत्री के नियंत्रण में तमाम संस्थाएं हैं, जो उन्हें देश और लोगों के हालातों के बारे में बनाने के लिए ही अस्तित्व में हैं. इस देश में जनता क्या चाहती है, यह सवाल जानने के लिए प्रधानमंत्री लोकसभा और राज्यसभा में संसद सदस्यों के सवालों को भी सुन सकते हैं.
वे कम से कम उनके सवालों की प्रति मंगवा कर देख सकते हैं. इसके अलावा बचा-खुचा, लाचार, जैसा भी हो, मीडिया से भी दबे-छिपे ढंग से ही सही इस बात की जानकारी मिलती ही है कि आखिर देश की जनता के सवाल क्या हैं? उनके सामने मौजूद संकट क्या है? क्या कृषि संकट, किसानों की आत्महत्या पर सरकार का पक्ष रखें या नहीं रखें, इसके लिए प्रधानमंत्री को जनता से राय लेने की जरूरत है?
क्या महिलाओं के साथ हो रहे जघन्य अपराध, दलित उत्पीड़न की घटनाएं, अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की लिंचिंग की घटनाएं देश के मुखिया के तवज्जो के लायक नहीं हैं और क्या इन पर पीएम को तभी बोलना चाहिए जब मायजीओवी/मेरी सरकार पर राय देने वाले लोग उनसे ऐसा करने के लिए कहेंगे?
क्या बेरोजगारी, खाद्य संकट, जल संकट, वायु प्रदूषण जैसे तमाम सवालों पर बोलने के लिए प्रधानमंत्री को लोगों की राय की जरूरत है? ऐसा लगता है, आज के समय में हर किसी को मालूम है, सिवाय प्रधानमंत्री के कि देश 15 अगस्त को उनसे क्या सुनना चाहता है.
वास्तव में अगर प्रधानमंत्री को 15 अगस्त के उनके भाषण के लिए कोई सुझाव दिया जाना चाहिए, तो वह यह कि वे सबसे पहले यह कहना बंद करें कि सवा सौ करोड़ लोगों ने उन्हें चुना है. यह कहना वैसे भी तथ्यात्मक तौर पर गलत है (जो कोई अचरज की बात नहीं है, क्योंकि तथ्यों की परवाह किसे है!).
चुनने का काम वयस्क मतदाता ही करते हैं और 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल रजिस्टर्ड वयस्क मतदाताओं की संख्या 83,40,82,814 थी, जिनमें से 55,30,20,648 लोगों ने (सिर्फ 66.30 प्रतिशत मतदाताओं ने) मतदान किया था.
इस चुनाव में हर 10 मतदाता में 3 भाजपा का था, तो 2 कांग्रेस का था. हकीकत है कि मोदी जिस समय प्रधानमंत्री बने उस समय लोकप्रिय मतों का करीब दो तिहाई हिस्सा उनकी और उनके गठबंधन के खिलाफ पड़ा था.
यह सही है कि भारत की संसदीय राजनीतिक प्रणाली पहले खंभा छुओ के सिद्धांत पर काम करती है, इसलिए लोकप्रिय मतों में पीछे छूटने के बाद भी मोदी संवैधानिक तरीके से प्रधानमंत्री पद पर बैठने के अधिकारी थे और यह उनका ही करिश्मा था कि भाजपा अकेले 30 प्रतिशत से ज्यादा मत पाने में कामयाब रही.
यहां यह गौरतलब है कि 1952 के पहले चुनाव में भी नेहरू जैसे करिश्माई और नेता के नेतृत्व में कांग्रेस जैसी अखिल भारतीय पार्टी को भी 45 प्रतिशत मत ही मिले थे. यह अलग बात है कि उस समय जनसंघ को सिर्फ 3 प्रतिशत मतों से संतोष करना पड़ा था, जो आजादी के समय दोनों पार्टियों की स्वीकार्यता के स्तर को दिखाता है.
प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी देश की सवा सौ करोड़ जनता की नुमाइंदगी करते हैं. लेकिन उनके कामकाज और उनके भाषण से इसकी तस्दीक नहीं होती. अच्छा होता अगर अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री इस बात का खयाल रखते कि लोग जब 2014 के चुनाव में वोट करने गए थे, तब 10 में से छह उनकी, उनकी पार्टी और उनके मातृ-संगठन की नीतियों और उनकी निजी छवि के खिलाफ थे और यह स्थिति शायद आज तक बदली नहीं है, जब चुनाव 6-7 महीने दूर रह गए हैं.
उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वे उनके पक्ष में वोट न देने वालों के भी प्रधानमंत्री हैं, उनकी चिंताओं और आकांक्षाओं को समझना, उनके अधिकारों की रक्षा करना भी उनका दायित्व है.
उन्हें इस बात का इल्म होना चाहिए कि जिन लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया, भारत को लेकर उनका विजन अलग है. उनका रास्ता अलग है, जो भले सत्ताधारी वर्ग का रास्ता न हो, लेकिन वह मूल्यवान और वैध है.
अच्छा होता कि प्रधानमंत्री अपने भाषण में यह स्पष्ट करते कि अपने विरोधियों की चिंताओं के लिए उनके भाषण, नीतियों और कार्यों में क्या है?
उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि क्या उन्हें भी यह लगता है कि देश के दो तिहाई मतदाताओं की इच्छाओं, मान्यताओं, परंपराओं, खान-पान, रीति-रिवाज, विश्व-दृष्टियों, राजनीतिक-धार्मिक विश्वासों को कुचलकर, विरोध में खड़े हर व्यक्ति को देशद्रोही ठहराकर कर क्या खुशहाल, शांतिपूर्ण और टिकाऊ भारत का निर्माण किया जा सकता है?
और अगर उन्हें ऐसा नहीं लगता है, तो वे ऐसे किसी भी मामले में न्यूनतम उत्तरदायित्व का भी पालन करने से हिचकिचाते क्यों रहे हैं?
प्रधानमंत्री जब यह कहते हैं कि देश के सवा सौ करोड़ लोगों ने उन्हें चुना है तो वे विरोधों और विविधताओं के लिए जरूरी स्पेस को खत्म कर देते हैं. जब तक वे अपने विचार में इस तथ्य को शामिल नहीं करेंगे कि इस देश के करोड़ों लोगों ने उन्हें विभिन्न चिंताओं के मद्देनजर वोट नहीं दिया था, तब तक वे अनेकता में एकता, अभिव्यक्ति की आजादी के विचार की सराहना नहीं कर पाएंगे. न ही वे उनकी चिंताओं के लिए कोई स्पेस बना पाएंगे.
भारत जैसे विविधताओं से भरे देश के मुखिया के तौर पर प्रधानमंत्री का काम सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक-सांस्कृतिक-भाषाई दरारों को पाटना होना चाहिए था, मगर उनकी सरकार दरारों पर पुल बनाने में नहीं, दरारों को और चौड़ा करने और दूसरी तरफ के व्यक्ति और समूह को दुश्मन के भाव से देखने में यकीन करती है. यह दरअसल नरेंद्र मोदी के कार्यकाल की एक भयावह विरासत है.
वास्तव में सवा सौ करोड़ लोगों द्वारा चुने जाने के बार-बार दोहराव के पीछे मकसद हर विरोध करने वालों को विमर्श से बाहर करना है. यह एक तरह से एक सर्वसत्तावादी, सकलतावादी राज्य की प्रस्तावना है. क्योंकि जब प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि देश के सवा सौ करोड़ लोगों ने उन्हें वोट दिया था, तब वे एक ऐसे राजनीतिक समाज की प्रस्तावना रख रहे होते हैं, जो ऊपर से थोप दी गयी सर्वसम्मति पर टिका है.
अगर वे देश में लोकतंत्र को बचाए रखने के प्रति दायित्व का अनुभव करते हैं, तो उन्हें अपने कार्यकाल के 15 अगस्त के आखिरी भाषण में 125 करोड़ लोगों की नुमाइंदगी करने वाले देश के प्रधानमंत्री के तौर पर भाषण देना चाहिए और उन 39 प्रतिशत लोगों के साथ जिन्होंने उन्हें वोट किया, उन 61 फीसदी लोगों को भी संबोधित करना चाहिए, जिन्होंने उन्होंने वोट नहीं दिया था.