नीति-निर्माण में भागीदार होने के बावजूद गुरुमूर्ति सच्चाइयों का सामना नहीं करना चाहते और शुतरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाकर इस अंधविश्वास की शरण लेना चाहते हैं कि सारा अनर्थ सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के कारण हुआ है.
केरल में बाढ़ और बारिश के कहर से मची त्राहि-त्राहि के बीच भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक, उसके आनुषंगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच के नेता और रिजर्व बैंक आफ इंडिया के निदेशक एस. गुरुमूर्ति को लोगों की तकलीफों को सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जोड़कर देखने की ही सूझी, तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उसके जन्मकाल से ही महिलाओं की बाबत ऐसे ही पोच-सोच के लिए जाना जाता है.
यही सोच है, जिसके चलते उसने इक्कीसवीं सदी के अठारहवें साल में भी महिलाओं के लिए अपने दरवाजे तक नहीं खोले हैं. जहां तक उसके गुरुमूर्ति जैसे ‘विचारकों’ की बात है, ‘जनसत्ता’ के सम्पादक रहे प्रभाष जोशी बार-बार कहते रहे हैं कि संघ की नजर में जितना भी विचार किया जाना अभीष्ट था, उसके संस्थापक डाॅ. केशवराव बलिराम हेडगेवार और श्रीगुरुजी यानी माधव सदाशिव गोलवलकर कर गये हैं.
चूंकि संघ परिवार को उक्त दोनों से आगे बढ़कर किसी और सोच-विचार की जरूरत ही महसूस नहीं होती, इसलिए अब संघ में विचारक होते ही नहीं, सिर्फ प्रचारक हुआ करते हैं, जिनमें से कुछ को कभी-कभी, उन्हें लेकर फैलाए गए भ्रमों के कारण या गलती से, विचारक भी मान लिया जाता है.
इस लिहाज से देखें तो साफ है कि एस गुरुमूर्ति यह कहकर कि केरल पर बाढ़ का कहर इसलिए टूटा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण महिलाएं उस सबरीवाला मंदिर में प्रवेश पाने में सफल हो गईं, जहां जाने से पितृसत्ता अभी तक जबरन उन्हें रोकती रही है, संघ के प्रचारक के तौर पर उन्हें सौंपी गई महती जिम्मेदारी निभा रहे थे.
Supreme court judges may like to see if there is any connection between the case and what is happening in Sabarimala. Even if there is one in a million chance of a link people would not like the case decided against Ayyappan. https://t.co/0k1818QZGU
— S Gurumurthy (@sgurumurthy) August 17, 2018
अतएव इस सिलसिले में दी जा रही उन सफाइयों को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता, जिनमें कहा जा रहा है कि यह उनकी व्यक्तिगत राय है.
यूं, उन्होंने महिलाओं के प्रति भेदभाव व अंधविश्वास बढ़ाने वाली जैसी गर्हित व संविधान विरोधी बात कही है, उसे व्यक्तिगत राय के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों से कम से कम इतनी जनअपेक्षा तो जुड़ी ही हुई होती ही है कि उनका निजी जीवन भी लोगों के लिए मिसाल हो और उसमें प्रतिगामिताओं व पोंगापंथों के लिए जगह न हो.
फिर यहां तो मामला प्राकृतिक विपदाओं तक को आधी आबादी के खिलाफ इस्तेमाल करने का है, जिसके पीछे विपदाओं के वास्तविक कारणों की अनदेखी जारी रखने की ऐसी कुटिल मंशा है, जो अपने मूल रूप में जितनी जटिल उसकी सौ गुनी कुटिल और जितनी कुटिल उसकी सौ गुनी जटिल है.
इस मंशा से जुड़े भयावह अंदेशों को एक खास उदाहरण से समझ सकते हैं. कहते हैं कि 2016 में आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक जिस नोटबंदी का ऐलान किया, उसके पीछे इन्हीं गुरुमूर्ति महोदय की सलाह थी.
अगर वे इतने शक्तिशाली हैं कि देश के भविष्य से जुड़ा इतना बड़ा फैसला करा सकते हैं और उस सीमा तक अंधविश्वासी हैं, जहां सहज मानवीय विवेक तक की गुंजाइश नहीं रह जाती, तो उनकी ऐसी व्यक्तिगत सम्मतियां एक दिन हमें ऐसे अनर्थ तक भी पहुंचा सकती हैं कि प्रधानमंत्री के ‘सलाहकार’ के तौर पर वे उनसे अचानक नोटबंदी जैसा ही कोई और बड़ा नीतिगत फैसला करा दें और उससे जो मुसीबत पैदा हो, उसे महिलाओं की सबरीमाला जैसी ही किसी और ‘करतूत’ का फल, उससे जुड़ी भगवान की इच्छा या कोप कहकर ठीकरे फोड़ने और उसके लिए स्त्री सिरों की तलाश करने लगें.
प्रसंगवश, जहां भी गुरुमूर्ति जैसे सोच के हिमायती बढ़ गये हैं, वहां यह अंदेशा पहले ही कड़वी हकीकत में बदल चुका है. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के मुस्करा खुर्द गांव में गुरुमूर्ति की ही जमात से ताल्लुक रखने वाली भारतीय जनता पार्टी की दलित महिला विधायक मनीषा अनुरागी तक इस सच्चाई की कड़वाहट झेलने से नहीं बच सकीं.
दरअसल, उक्त गांव में एक धूम्र ऋषि का महाभारतकालीन बताया जाने वाला आश्रम है, जिसमें प्रतिष्ठित ऋषि के बारे में अंधविश्वास है कि कोई महिला आश्रम में चली जाये तो वे खासे कुपित हो जाते हैं और क्षेत्र में सूखा पड़ जाता है.
इससे अनजान विधायक मनीषा अनुरागी एक सड़क के निरीक्षण के लिए उक्त गांव पहुंचीं तो जैसा कि नेताओं की आदत में शुमार है, आश्रम जाकर पूजा अर्चना भी कर ली.
इससे पोंगापंथियों को महिलाओं को अपमानित करने का नया बहाना हाथ आ गया, तो उन्होंने पहले ग्रामीणों को इससे संभव अनिष्ट से डराया, फिर आश्रम को अपवित्र करार देकर गंगा जल से धुलवाया और बाद में धूम्र ऋषि की मूर्ति को आश्रम से निकालकर इलाहाबाद ले गये, जहां उसे संगम में स्नान कराया.
उन्होंने इस तथ्य से भी कोई सबक लेना गवारा नहीं किया कि मनीषा के उक्त आश्रम प्रवेश के बाद न कहीं धूम्र ऋषि कुपित दिखे, न ही सूखा पड़ा. उल्टे झमाझम बारिश हुई.
लेकिन यह समझना गलत होगा कि गुरुमूर्ति का स्त्रीविरोध इन पोंगापंथियों जैसा ही अंधा है क्योंकि उसके पीछे इस कठोर सच्चाई से परदेदारी का सोचा-समझा उद्देश्य है कि बाढ़ और भूस्खलनों की केरल जैसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए न सिर्फ भगवान या कि प्रकृति का कोप बल्कि सारी हदें तोड़ रहा इंसानी लोभ-लालच और सत्ताओं की नीतिगत अदूरदर्शिता भी है, जो इन दिनों देश के प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और बंदरबांट तक जा पहुंची है.
केरल के बारे में तो वैज्ञानिक साफ कह रहे हैं कि उसके जो संवेदनशील पश्चिमी घाट देश में मानसून के प्रवेशद्वार हैं, राजनीतिक सत्ताओं ने खनन, बिल्डर और भू-भूमाफिया से मिलकर उनका पारिस्थितिकीय संतुलन न बिगाड़ा होता तो राज्य को ऐसी तबाही न झेलनी पड़ती.
दरअसल, पर्यावरण व वन मंत्रालय ने मार्च 2011 में इन घाटों के पारिस्थितिकीय अध्ययन के लिए पर्यावरणविद माधव गाडगिल की अध्यक्षता में एक विशेष पैनल बनाया था.
अगस्त 2011 में उसने अपनी रिपोर्ट में केरल समेत छह राज्यों में फैले इन घाटों को तीन स्तरों पर बांटकर वहां नयी औद्योगिक गतिविधियों व खनन पर रोक लगाने और ग्राम पंचायतों व स्थानीय समुदायों से विकास कार्यों के कड़े नियम बनाने को कहा था. लेकिन किसी भी राज्य में ऐसा नहीं किया गया.
उल्टे अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक और पैनल गठित कर उससे गाडगिल पैनल की रिपोर्ट की जांच कराई गई. नए पैनल ने 2013 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में पश्चिमी घाटों के एक-तिहाई, करीब 13,108 वर्ग किमी क्षेत्र, को संवेदनशील माना और वहां खनन, बड़े उद्योग, थर्मल पावर व प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर रोक लगाने का सुझाव दिया.
लेकिन केरल सरकार को वह भी गवारा नहीं हुआ उसने इस दायरे पर आपत्ति जताते हुए रोक के लिए अपनी ओर से 9,993 वर्ग किमी क्षेत्र को ही चिह्नित किया और वहां भी पूरी रोक नहीं लगाई. यह जानते हुए भी कि अंधाधुंध खननों व अवैध निर्माणों से बदली पारिस्थितिकी ही बाढ़ व सूखे का कारण बनती है.
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नीति-निर्माण में भागीदार होने के बावजूद गुरुमूर्ति ऐसी सच्चाइयों का सामना नहीं करना चाहते और शुतरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाकर इस अंधविश्वास की शरण लेना चाहते हैं कि सारा अनर्थ सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के कारण हुआ है, तो कहना होगा कि केरलवासियों की तकलीफों को लेकर उनसे कहीं ज्यादा संवेदनशील वे आम लोग हैं, जो अपने तईं पीड़ितों की हर संभव मदद कर रहे हैं.
पिछले दिनों निपाह वायरस की शिकार हुई नर्स लिनी पुत्तुसेरी के पति ने अपना पहला वेतन तो इडुक्की जिले की कॉलेज छात्रा हनान ने डेढ़ लाख रुपये राहत कार्यों के लिए दिए हैं.
हनान, जिसने पिछले दिनों अपनी पढ़ाई के लिए अपने कॉलेज के बाहर मछली बेचकर धन जुटाया था, कहती है कि तब लोगों ने मेरी मदद की थी, अब मेरी बारी है, तो यकीनन गुरुमूर्ति जैसों को बता रही होती है कि दुर्भावनाएं कभी भी सद्भावनाओं से बड़ी नहीं हो सकतीं.
केरल के मछुआरे हैं कि किसी विशेष प्रशिक्षण के अभाव में भी वे अपनी नौकाओं के साथ बचाव कार्यों में मदद को प्रस्तुत हैं. बात-बात में धर्म, जाति और लिंग का जाप करने वालों की असुविधा का एक हेतु यह भी है कि राज्य के कई गुरुद्वारों में पीड़ितों के लिए लंगर चल रहे हैं तो कश्मीर में बकरीद का खर्च घटाकर बची राशि केरल के पीड़ित भाई-बहनों को देने की अपीलें की जा रही हैं.
कोट्टायम के नेल्लीमंगलम में बाढ़ में बह रहे सलीब के निशान और मदर मेरी की फोटो को एक हिंदू परिवार ने अपने पूजाघर में जगह दे रखी है.
सवाल है कि क्या गुरुमूर्ति और उनकी जमात संकट की घड़ी में सारे भेदभाव भुलाकर एकजुट इन लोगों से किंचित भी सबक लेगी? नहीं लेगी तो उसका मनुष्य व मनुष्यताविरोधी, निठल्ला और पीड़ितों के जले पर नमक छिड़कने वाला चिंतन उसे और किन-किन अंधेरी खोहों और कंदराओं में ले जायेगा?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और फ़ैज़ाबाद में रहते हैं.)