शिक्षकों के साथ अपमानजनक व्यवहार कोई नई बात नहीं. पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने भारत के संघीय ढांचे को धता बताते हुए जिस तरह शिक्षक दिवस को हड़प लिया है ताकि उसके ज़रिए प्रधानमंत्री की छवि निखारी जा सके, उसे याद कर लेना काफ़ी है.
शिक्षक दिवस फिर आ पहुंचा है. राजस्थान सरकार ने पचास हज़ार स्कूल शिक्षकों को राजधानी बुलाया है. कहा जाता रहा है कि यह उनका सम्मान सार्वजनिक रूप से करने का आयोजन है. लेकिन ग़ौर करने पर मालूम हुआ कि ये शिक्षक वे हैं जिनकी बहाली 2013 के बाद हुई है.
यानी वसुंधरा राजे के सरकार बनाने के बाद. तो इरादा साफ़ हो गया, मक़सद जितना शिक्षकों का सम्मान करने का नहीं उतना इन शिक्षकों के सम्मान के बहाने वसुंधरा सरकार का शुक्रिया अदा करने का है कि उसने मेहरबानी करके उन्हें यह नौकरी दी है.
अमरूदों का बाग में होने वाले इस कार्यक्रम के लिए वित्त विभाग से बाक़ायदा राशि स्वीकृत कराई गई है. शिक्षकों को सफ़री भत्ते के साथ उस रोज़ खाना भी दिया जाएगा. सारे शिक्षकों को एक रोज़ पहले शिक्षा अधिकारी के सामने अपनी हाज़िरी देनी है.
वे उन्हें उनके नाम का निमंत्रण पत्र देंगे जिसे दिखला कर ही वे अमरूदों का बाग में प्रवेश कर सकेंगे. न आने की सूरत में उनकी उस दिन की तनख़्वाह काट लेने का हुक्म है.
शिक्षा अधिकारियों को आदेश है कि वे उन्हें बस में भर कर लाएं. इसका ख़र्च यात्रा व्यय से काट लिया जाना है. यह भी बताया गया है कि अनौपचारिक तौर पर यह निर्देश दिया गया है कि शिक्षक जो पहन कर आएं, उसमें कहीं काला रंग न हो.
ऐसा शायद इस डर से कि कोई शिक्षक उसी काले रंग के कपड़े को मुख्यमंत्री का विरोध करने के लिए न इस्तेमाल कर लें!
शिक्षक सालों साल अपने अलग-अलग क़िस्म के बकाए के भुगतान न होने की वजह से नाराज़ बताए जाते हैं. उनकी नौकरी की शर्तें भी सम्माजनक नहीं हैं. ऐसी हालत में यह सम्मान का नाटक उनके साथ मज़ाक़ ही कहा जाता सकता है.
एक दूसरी ख़बर दिल्ली की है, जहां कई निजी स्कूलों ने शिक्षक दिवस नहीं मनाने का फ़ैसला किया है. उनका कहना है कि स्कूल में सुरक्षा के लिए भी शिक्षकों को जिम्मेदार बता कर पिछले दिनों कुछ शिक्षकों को गिरफ़्तार किया गया है.
उनका कहना है कि शिक्षकों और समाज के बीच विश्वास का रिश्ता टूट गया है. उनके मुताबिक़ अब सिर्फ़ लेन-देन का ही संबंध रह गया है. स्कूलों के इस दुख को क्या पूरी तरह नज़रंदाज किया जा सकता है?
शिक्षकों के साथ अपमानजनक व्यवहार कोई नई बात नहीं. पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने भारत के संघीय ढांचे को धता बताते हुए जिस तरह शिक्षक दिवस को हड़प लिया है ताकि उसके ज़रिए प्रधानमंत्री की छवि निखारी जा सके, उसे याद कर लेना काफ़ी है.
हर बार प्रधानमंत्री ख़ुद राष्ट्रीय शिक्षक बन कर पूरे राष्ट्र के छात्रों और शिक्षकों को जीवन के कुछ पाठ पढ़ाते हैं.
उस दिन शिक्षकों का काम टीवी सेट लाना, बच्चों को जमा करना, यह सुनिश्चित करना कि वे प्रधानमंत्री के प्रवचन के पूरे वक़्त जमे रहें, यही रहता है. पहले से तय बच्चों के साथ पहले से तय सवालों के प्रधानमंत्री जवाब देते हैं.
शिक्षक दिवस का यह अवमूल्यन तो पिछले चार सालों में हुआ है लेकिन शिक्षकों का ओहदा समाज में लगातार गिरता ही चला जा रहा है. वे सरकारी कारकुन माने जाते हैं.स्कूल में पढ़ाने के साथ भी हर तरह का सरकारी काम करें, यह उम्मीद उनसे की जाती है.
उनके कामों में पिछले सालों एक और काम जुड़ गया है कि वे स्वच्छता के संदेशवाहक का काम भी करें. जनगणना हो या कोई और काम, स्कूली शिक्षक सबसे पहले उपलब्ध रहता है.
स्कूल में मध्याह्न भोजन का इंतजाम और उसकी गुणवत्ता बनाए रखना भी उसी का काम होता है. मैंने ख़ुद इस वजह से स्कूल के बच्चों के अभिभावकों और शिक्षकों के रिश्ते को विकृत होते देखा है.
बरसों पहले झारखंड के एक स्कूली शिक्षक के साथ हुई घटना याद है. वे हर बार ख़ुद रिक्शा करके गेहूं के बोरे ब्लॉक के दफ़्तर से स्कूल लाते थे. गांववालों ने उनकी पिटाई सिर्फ़ इस वजह से कर दी कि उन्हें शक था कि वे जो बोरे बच गए थे उन्हें बेच न रहे हों.
उत्तर प्रदेश में भी सालों पहले क्लास में हाज़िरी के आधार पर अनाज देने का रिवाज था. इस वजह से शिक्षकों पर दबाव रहता था कि बच्चे को पूरी हाज़िरी दी जाए.
स्कूली शिक्षक के काम को माना जाता है कि कोई भी कर सकता है. उसी तरह यह भी कि शिक्षक के काम की जांच भी कर कोई कर सकता है.
गुजरात में सरकारी अफसर एकाध दिन स्कूल में जाकर उसके अच्छे या बुरे होने का प्रमाण पत्र न सिर्फ़ देते हैं बल्कि स्कूलों को कहा जाता है कि वे बाहर दीवार पर दर्ज करें कि उन्हें पहला दर्जा मिला है या तीसरा. सवाल यह है कि अगर दीवार पर लिखा हो कि यह तीसरे दर्जे का है तो वहां अपने बच्चे कहा दाख़िला कौन करवाएगा!
परीक्षाओं में बच्चों के नतीजों से भी शिक्षकों की तनख़्वाह को जोड़ने का काम किया जाता है. किसी विषय में अगर बच्चा फ़ेल हो गया तो इसकी पूरी ज़िम्मेदारी शिक्षक पर मढ़ दी जाती है और उसे दंडित किया जाता है.
शिक्षक दिवस के मौक़े पर अगर हम सिर्फ़ इसकी पड़ताल करें कि उसे कितना ज़रूरी माना जाता है तो शायद इस दिवस की उपयोगिता सिद्ध हो. अमूमन इस दिन को स्कूल तक महदूद कर दिया जाता है.
शिक्षक कॉलेज और विश्वविद्यालय में भी हैं. राज्यों के विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की बहाली बरसों से नहीं हुई है. ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जाते हैं जिन्हें वेतनमान के मुताबिक़ नहीं बल्कि एकमुश्त रक़म मिलती है.
इनका जीवन इतना अनिश्चित है कि कुछ समय के बाद ये आत्मसम्मान खो बैठते हैं.यह पूरे देश की समस्या है लेकिन राजनीति और समाज के लिए यह कभी विचारणीय नहीं बन पाई.
शिक्षक दिवस पर गुरु शिष्य परंपरा, गुरुओं का महिमागान करने की जगह जनतांत्रिक समाज में अध्यापक की स्थिति और उसकी भूमिका पर सोचना ज़्यादा ज़रूरी है.
अध्यापक पेशेवर हो, जैसे डॉक्टर या इंजीनियर होते हैं, यह समझना ज़रूरी है. उस पर साधन लगाने होते हैं. जिस देश में स्कूल और कॉलेज की जगह कोचिंग इंस्टीट्यूट अधिक इज़्ज़त पाते हों, वहां शिक्षक की क्या बिसात!
अध्यापकों का काम आज के समाज में अधिक कठिन है. उन्हें समाज , समुदाय के भीतर के पहले से जड़ जमाए पूर्वग्रहों से जूझना पड़ता है. ऐसा करते ही वे समाज के शत्रु हो जाते हैं.
चूंकि वे ज्ञान का कारोबार करते हैं उन्हें सत्ता द्वारा फैलाए जा रहे भ्रमजाल को भी काटना पड़ता है, इसलिए वे सत्ता के लिए हमेशा शक के दायरे में रहते है.
पिछले चार वर्षों में जिस तरह अलग अलग विश्वविद्यालयों के अध्यापकों पर हमले हुए हैं, वे यही बताते हैं.
इस शिक्षक दिवस हम शिक्षक नाम की संस्था के सामने जो संकट आ गया है, उसी पर चिंता करें तो यह दिन सार्थक हो जाए.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)