‘यदि चंद्रशेखर की सरकार छह माह तक बनी रहती तो बाबरी विवाद सुलझ जाता’

देश के पूर्व कृषि मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शरद पवार ने अपनी आत्मकथा में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की भूमिका को याद किया है.

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देश के पूर्व कृषि मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शरद पवार ने अपनी आत्मकथा ‘अपनी शर्तों पर’ में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की भूमिका को याद किया है.

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आईके गुजराल, सुषमा स्वराज के साथ पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर. (फाइल फोटो: पीटीआई)

चंद्रशेखर के नेतृत्व में भारत की केंद्र सरकार सात माह से अधिक कार्य नहीं कर सकी लेकिन इसी अवधि में इस सरकार ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को हल करने के गंभीर प्रयास किए. राजस्थान के वरिष्ठ भाजपा नेता भैरों सिंह शेखावत और मैंने भी इस समस्या के समाधान में प्रयास किया. हालांकि बहुत से लोगों को इस प्रयास की जानकारी नहीं है क्योंकि एक तो यह प्रयास पूर्णत: गैर-सरकारी था; दूसरे, अंतिम रूप में यह प्रयास व्यर्थ हो गया.

रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ब्रिटिश काल से चला आ रहा है. अयोध्या की बाबरी मस्जिद 1850 के दशक से एक विवादित इमारत है. कुछ हिन्दू संगठनों का दावा है कि मस्जिद का निर्माण भगवान राम के जन्म-स्थल (जन्मभूमि) पर हुआ है और मुगलों द्वारा जन्मभूमि को ध्वस्त किया गया था.

भारत की स्वतंत्रता के बाद भी समय-समय पर यह विषय उठता रहा. 1950 के दशक के प्रारम्भ में इस ढांचे (इमारत) को न्यायालय द्वारा विवादित घोषित किया गया और इसके दरवाजे पर ताला लगा दिया गया. 1980 के दशक में इस विवाद ने एक राष्ट्रीय विवाद का रूप ले लिया.

एक मुसलमान तलाकशुदा महिला शाहबानो द्वारा गुजारे की राशि पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया गया, न्यायालय ने उसके पक्ष में फैसला दिया. अनेक मुसलमान संगठनों द्वारा इसे ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ में न्यायालय की दखलदांजी कहा.

इस विषय में राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाकशुदा महिला के अधिकारों की रक्षा) बिल लोक सभा में प्रस्तुत किया. चूंकि सरकार का (कांग्रेस) लोक सभा में पूर्ण बहुमत था इसलिए बिल सरलता से पारित हो गया.

चूंकि यह बिल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को प्रभावित करता था और मुसलमानों के एक हिस्से की भावनाओं को संतुष्ट करता था इसलिए हिंदू संगठनों ने इसे ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ कहा.

इसके साथ ही एक नया मोड़ आया कि 1 फरवरी, 1986 को फैजाबाद जिला न्यायालय ने अयोध्या के विवादित ढांचे के गेट का ताला खोलने का आदेश पारित कर दिया और कुछ घंटों के अंदर ही राजीव सरकार ने गेट खोलकर वहां पर राम मंदिर के ‘शिलान्यास’ कार्यक्रम सम्पन्न करने की आज्ञा दे दी. इस परिघटना को ‘हिंदुओं का तुष्टीकरण’ कहा गया.

इन सब घटनाओं ने देश में भ्रामक ध्रुवीकरण को तेज किया. कुछ मुसलमानों ने मिलकर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी (बीएमएसी) का गठन मस्जिद को बचाने के लिए किया.

दूसरी तरफ कुछ हिंदुओं ने राममंदिर निर्माण के लिए ‘राम जन्मभूमि न्यास’ का गठन किया. इसके बाद वीपी सिंह के नेतृत्ववाली सरकार के समय भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में जन गोलबंदी के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली.

इस यात्रा को व्यापक समर्थन मिला. यह यात्रा अयोध्या तक जाने के उद्देश्य से निकाली गई थी परतु लालू प्रसाद यादव की सरकार ने उसे बिहार में ही रोक दिया. आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया परन्तु यह मुद्दा वीपी सिंह की सरकार का पतन होने के बाद भी गरमाया रहा.

प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पदभार संभालते ही, इस मसले पर जारी गतिरोध को तोड़ने की पहल की. भैरोंसिंह शेखावत को भाजपा में ‘उदार हिंदू’ नेता के रूप में देखा जाता था.

चंद्रशेखर और भैरोंसिंह शेखावत के बीच अच्छी मित्रता थी. प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे के हल के लिए सम्भावित पहलकदमी की दृष्टि से मुझे और भैरोंसिंह शेखावत को दिल्ली बुलाया. उन्होंने शेखावत से बीएमएसी के नेताओं के साथ एकांत में बात करने को कहा. मुझे भी ‘राम जन्मभूमि न्यास’ के नेताओं से एकांत में बात करने को कहा गया.

ऐसी योजना इसलिए बनाई गई, क्योंकि मुसलमान समुदाय के साथ शेखावत की कुछ एकता थी और राम जन्मभूमि न्यास का नेतृत्व आरएसएस के मराठी मोरोपन्त पिंगले कर रहे थे और मैं भी मराठी था.

हम लोगों ने तत्काल ही यह कार्य प्रारम्भ कर दिया. शेखावत ने बीएमएसी के नेताओं के साथ एक पर एक अनेक बार वार्ता की और मैंने पिंगले और उनके साथियों के साथ एकांत में कई मीटिंगें कीं. हम लोग एक साझा बिन्दु (कॉमन प्वाइंट) पर पहुंच गए थे. इसके बाद दोनों तरफ के पदाधिकारियों के साथ कुछ संयुक्त मीटिंगें आयोजित हुईं. दोनों तरफ के लोगों को एक साथ बैठकर वार्ता के लिए तैयार करने में शेखावत ने महती भूमिका निभाई.

मुझे ज्ञात हुआ कि इस प्रक्रिया में उन्होंने आरएसएस वालों को कुछ कठोर शब्द भी कहे. इस विवादित ढांचे के एक तरफ भगवान राम की मूर्ति रखकर हिंदू प्रार्थना और कीर्तन आदि करते हैं तथा दूसरी तरफ मुसलमान नमाज अता करते हैं.

इस बात को ध्यान में रखते हुए इस सुझाव पर जोर दिया गया कि इस विवादित ढांचे को स्मारक के रूप में रखा जाए और हिंदुओं तथा मुसलमानों, दोनों को अलग-अलग मंदिर और मस्जिद निर्माण करने और अपने-अपने धार्मिक कार्यों के लिए भूमि आवंटन कर दी जाए.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

बीएमएसी और राम जन्मभूमि न्यास, दोनों पक्षों के नेता इस सुझाव पर सहमत हो गए थे. अब इस बात को आगे बढ़ाना था ताकि लंबी अवधि से उलझा यह मुद्दा हल हो सके. अफसोस, ऐसा नहीं हो सका. उस समय के राजनीतिक परिवर्तन ने वार्तालाप की इस प्रक्रिया को रोक दिया.

मार्च, 1991 में कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर के नेतृत्ववाली सरकार का पतन हो गया. यदि चंद्रशेखर की सरकार छह माह या इससे कुछ अधिक दिनों तक बनी रहती तो यह विवादित मुद्दा निश्चय ही सुलझा लिया जाता. इस सरकार के गिर जाने के बाद अवरुद्ध हुई प्रक्रिया को दोबारा शुरू नहीं किया जा सका.

चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार के गिर जाने के बाद 6 दिसम्बर, 1992 को पीवी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे. सत्ता में हिंदू अंधभक्तों ने बाबरी मस्जिद का विवादित ढांचा ढहा दिया. मैं उस समय रक्षामंत्री था, एसबी. चव्हाण गृहमंत्री थे और माधव गोडबोले गृहसचिव थे.

भाजपा और आरएसएस तथा इनके अनुषंगी संगठनों ने अयोध्या मुद्दे पर पूरे देश में हिंदू उन्माद फैलाना शुरू किया. उस समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और प्रदेश में भाजपा की सरकार थी इसलिए उनके लिए उन्मादी गतिविधियां फैलाना और आसान हो गया.

विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) और इसके सहयोगी संगठन 6 दिसम्बर की परिघटना की तैयारी में लगे थे तब केंद्र सरकार अनेक चर्चाओं में व्यस्त थी. मैंने इस विषय पर कठोर कदम उठाने का सुझाव दिया. गोडबोले का भी यही मत था परन्तु प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव शक्ति प्रयोग के पक्ष में नहीं थे. मैंने सावधानी की दृष्टि से विवादित ढांचे पर सेना की टुकड़ियां तैनात करने का सुझाव रखा परन्तु इसे अस्वीकार कर दिया गया.

मेरा सुझाव अस्वीकार हो जाने के बाद मैंने सेना के गुप्तचर विभाग के अधिकारियों को 6 दिसम्बर की सारी गतिविधियों की वीडियोग्राफी करने का आदेश दिया. इन अधिकारियों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने में उनके नेताओं के साथ कारसेवकों की गतिविधियों की फोटोग्राफी की.

बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे के ध्वंस से एक नेता के रूप में नरसिम्हाराव की कमजोरियां सामने आ गईं. वह निश्चय ही इस तरह का विध्वंस नहीं चाहते थे परन्तु इस विध्वंस को रोकने के आवश्यक उपाय भी उन्होंने नहीं किए.

मैंने भरसक उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि विवादित ढांचे को गिराने के लिए कारसेवक किसी भी सीमा तक जा सकते हैं; परन्तु वह इस बात से भयभीत थे कि यदि सेना ने गोली चलाई और कुछ लोग मर गए तो यह हिंसा की आग पूरे देश में फैल जाएगी.

उन्होंने दो और बातों का उल्लेख किया कि नेशनल इंट्रीजेशन काउंसिल की बैठक में राजमाता विजयराजे सिंधिया सहित भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने अभियान के दौरान कानून का उल्लंघन न करने का स्पष्ट आश्वासन दिया था और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने लिखित रूप से आश्वासन दिया था कि विवादित स्थल पर किसी भी अवांछनीय घटना को सरकार रोकेगी.

जब मैंने जोर देकर कहा कि इन नेताओं पर विश्वास करना खतरनाक है तो नरसिम्हाराव ने कहा,‘मैं राजमाता के शब्दों पर पूर्ण विश्वास करता हूं. मैं जानता हूं, वह मुझे नीचा नहीं दिखाएंगी.’

प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव, एस.बी. चव्हाण और मैं 6 दिसम्बर की शाम एक आपातकालीन बैठक में शामिल हुए. इस बैठक में गृहसचिव माधव गोडबोले ने विस्तार से बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे को ध्वंस करने की घटना का विवरण पेश किया.

गृह सचिव ने यह भी स्पष्ट किया कि भाजपा और अन्य हिन्दूवादी संगठनों के नेताओं ने किस प्रकार इस घटना में भूमिका निभाई जिन पर प्रधानमंत्री ने पूरा विश्वास किया था. पूरी मीटिंग में प्रधानमंत्री केवल अचम्भे में ही रहे.

(साभार: राजकमल प्रकाशन)