आज़ादी की लड़ाई के सिपाही राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हांकते हों और अवसरवादी हों.
लंबी छरहरी काया, गेंहुआ रंग, अधखुली आंखें, पतली मूंछें और चौड़ी छाती. नौ दिसंबर, 1944 को लखनऊ में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का उद्घोष करते हुए शहादत का वरण करने वाले क्रांतिकारी राजनारायण मिश्र का हुलिया कुछ ऐसा ही था.
हां, इस देश ने उन्हें उनकी शहादत का सिला नहीं दिया वरना आज उनका यह हुलिया बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती. आप उन्हें तो जानते ही, उनसे पहले उन्हीं के ज़िले में पैदा हुए उनके नामराशि उन समाजवादी राजनारायण मिश्र को भी जानते, जिन्होंने 26 अगस्त, 1920 को ख़िलाफ़त आंदोलन के कार्यकर्ता नसीरुद्दीन मौजीनगर के साथ मिलकर खीरी के अंग्रेज़ डिप्टी कमिश्नर सर रॉबर्ट विलियम डगलस विलबी की गोली मारकर हत्या कर दी थी और इससे चिढ़ी ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत ने उन्हें और नसीरुद्दीन को 26 अप्रैल, 1936 को फांसी दे दी थी.
बहरहाल, आज के ही दिन लखनऊ में शहीद राजनारायण मिश्र का जन्म लखीमपुर खीरी ज़िले में कठिना नदी के किनारे स्थित भीषमपुर गांव में संवत 1976 के माघ महीने की पंचमी को हुआ था, जिसे बसंत पंचमी भी कहा जाता है.
वे बलदेव प्रसाद मिश्र के पुत्र थे और दो साल के होते-होते उन्होंने अपनी मां तुलसी देवी को खो दिया था. उनकी मां यूं तो ख़ासे जीवट की धनी वीरांगना थीं, लेकिन उनके एक बेटे ने उनसे ज़बान क्या लड़ाई, उन्होंने क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली.
बड़ी बहन के लालन-पालन में होश संभालते ही राजनारायण ने पाया कि उनके गांव के लोगों का जीवन उसके बगल से बहती नदी के नाम जैसा ही कठिन है. उनके पिता के पास जो थोड़ी-सी कृषिभूमि थी, उसकी आय से निर्वाह मुश्किल था.
थोड़े और समझदार हुए तो उन्होंने देखा कि जो दुर्दशा उनके गांव की है, वही सारे देश की है और इसका सबसे बड़ा कारण हर किसी की छाती पर सवार अंग्रेज़ी साम्राज्य है. उनके ही शब्दों में कहें तो ‘इसी ग़रीबी से परेशान होकर मैंने अपनी जान की बाज़ी लगायी ताकि देश आज़ाद हो, हम भी आनंद से रहें.’
उन दिनों चल रहे आज़ादी के अनेकानेक उपक्रमों में सहभागिता की बेचैनी उन्हें कई दरों पर ले गई, लेकिन उनके भीतर के ज़ोश और जज़्बे ने जल्दी ही उन्हें समझा दिया कि इस साम्राज्य के सशस्त्र प्रतिरोध के बिना बात कतई बनने वाली नहीं है.
23 मार्च, 1931 को शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह की शहादत के बाद उन्होंने उनको अपना आदर्श मानकर सशस्त्र साम्राज्यविरोधी प्रतिरोध को संगठित करने के प्रयत्न शुरू किए तो नौ दिसंबर, 1944 को सुबह छह बजे अपने गले में फांसी का फंदा कसने तक उसमें प्राण प्रण से लगे रहे, बिना थके और बिना पराजित हुए.
भगत सिंह के अलावा उत्तर भारत में क्रांतिकारी दल के नेता योगेशचंद्र चटर्जी और झारखंडे राय भी उनकी प्रेरणा के स्रोत थे, जो उनके साथ ही लखनऊ जेल में सज़ा काट रहे थे. इन दोनों से जेल के अंदर ही अंदर उनका पत्र व्यवहार हुआ करता था.
राजनारायण मिश्र रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के सिद्धांतनिष्ठ सिपाही थे और उसके भविष्य में उनका अगाध विश्वास था. उन्होंने छुटपन में ही अपने गांव में 40 बच्चों की अंग्रेज़ विरोधी ‘वानर सेना’ बना ली थी, जिसके कई सदस्य बाद में सशस्त्र अभियानों तक उनके साथ रहे.
आगे चलकर उन्होंने ‘मातृवेदी’ नाम की पार्टी भी बनाई. शुरू में जिसके पांच ही सदस्य थे और उन्होंने ख़ुद को 14 नियमों व तीन प्रतिज्ञाओं से बांध रखा था. ‘बम पार्टी’ की सदस्यता पाने के लिए वे 184 रुपये में उपलब्ध हो रहा रिवॉल्वर नहीं ख़रीद सके तो 23 दिसंबर, 1940 को उन्नाव में थानेदार के पद पर तैनात अपने मामा के बेटे का सरकारी रिवॉल्वर उठा लाए और अपनी व परिवार की फाकाकशी के दिनों में भी उसके ‘दुरुपयोग’ से परहेज़ कायम रखा.
रिवॉल्वर कांड में फंसने से बचने के लिए वे उसकी चोरी की रिपोर्ट दर्ज होने से पहले ही 06 जनवरी, 1941 को भड़काऊ भाषण देकर जेल चले गए थे. तब उन्हें डीआईआर में एक साल की सज़ा हुई, जिसे सीतापुर व बदायूं आदि जेलों में काटकर वे एक दिसंबर, 1941 को छूटे थे.
1942 के आंदोलन में उन्होंने पाया कि कांग्रेस के अनेक नेता अधिकारियों से मिलीभगत करके ख़ुद को ‘सुरक्षित’ रखने के लिए जेल चले जा रहे हैं और आंदोलन के कार्यक्रमों को जनता के बीच ले जाने व उसको नेतृत्व देने वाले हैं ही नहीं, तो उन्होंने और उनके भाई ने अपने तईं इसका बीड़ा उठाया और जनता से खुले विद्रोह का आह्वान किया.
चूंकि वे अरसे से किसानों के बीच रहकर उन्हें सशस्त्र प्रतिरोध के लिए संगठित कर रहे थे, इसलिए विश्वास था कि अपने संचित समर्थन की शक्ति से सरकारी प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करके कम से कम अपने ज़िले से तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ ही देंगे.
इसके लिए तय योजना के तहत राजनारायण को हथियार एकत्र करने का ज़िम्मेदारी मिली तो 14 अगस्त, 1942 को वे अपने आठ सदस्यीय दल के साथ बंदूकें इकट्ठी करने निकल पड़े. उनके पास सोलह बंदूकधारियों की सूची थी और उन सबसे उसी दिन उनकी बंदूकें ले लेने का उन्होंने लक्ष्य निर्धारित कर रखा था.
पत्नी विद्यावती से उन्होंने कहा कि मैं औपचारिक गिरफ्तारी देकर देश के प्रति अपने वास्तविक फ़र्ज़ से मुंह नहीं मोड़ना चाहता, इसलिए असली मोर्चे पर जा रहा हूं तो विद्यावती ने उनकी आरती उतारी और कहा, ‘निश्चिंत होकर जाइए. अपने अभियान में देश के काम आ गए तो वह भी मेरा सौभाग्य ही होगा.’
उनके दल ने चार बंदूकें बिना प्रतिरोध हासिल कर लीं. लेकिन महमूदाबाद रियासत की तहसील के कोठार पर क़ब्ज़ा करके उसके ज़िलेदार की बंदूक हथियाने और रिकॉर्ड जलाने के आॅपरेशन में गलती से चली गोली से ज़िलेदार के मारे जाने के बाद दल में ऐसा हड़कंप व घबराहट फैली कि आगे कुछ करते नहीं बना.
भले ही इस सूचना से अनभिज्ञ उनके भाई का दल अलग से अपनी कार्रवाइयां करता रहा. पुलिस द्वारा ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने की कवायदों के बीच भूमिगत राजनारायण कुछ दिनों बाद छिपते-छिपाते दिल्ली चले गए और हाल व हुलिया बदलकर वहां के स्वतंत्रता संघर्ष में भूमिका निभाने लगे.
वहीं उन्हें खबर मिली कि अंग्रेज़ों ने उनके पूरे गांव को फुंकवा दिया और सोलह घरों को खुदवाकर वहां नमक छिड़कवा दिया. इन सोलह घरों में एक उनका ख़ुद का भी था. सारे गांव वालों की गृहस्थियां और खेत ज़ब्त कर लिए गए.
महमूदाबाद कांड में सोलह लोगों पर मुक़दमा चला, जिनमें राजनारायण समेत छह तो पकड़े ही नहीं जा सके लेकिन दस को विशेष अदालत से 38-38 साल की सज़ा हुई.
दूसरी ओर राजनारायण नकली नाम व परिचय के साथ 28 सितंबर, 1942 को नागपुर में दफ़ा 129 में पकड़े गए और दो महीने जेल में रहे. छूटे तो दिल्ली चले आए और आर्य समाज में ‘शामिल’ हो गए.
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में अकाल के वक़्त वे आर्य समाज की ओर से राहत कार्यों के बहाने वहां गए. उनका प्रच्छन्न उद्देश्य यह था कि वहां अच्छे बम बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेंगे. लेकिन उनके उद्देश्य की भनक लगते ही उन्हें आर्य समाज से निकाल दिया गया.
दिल्ली वापस लौटने और पुलिस द्वारा पकड़ लिए जाने पर उन्हें दफ़ा 188 में अगले छह महीने दिल्ली व फ़िरोज़पुर की जेलों में काटने पड़े. एक अगस्त, 1943 को रिहाई के बाद बेचैनी में वे पहले बंबई गए, फिर साधु बन जाने के इरादे से हरिद्वार, ऋषिकेश और बनारस में भटकते रहे.
लेकिन उनके जीवन नाटक की असल पटकथा लिखी जानी अभी बाकी थी. 15 अक्टूबर, 1943 को वे मेरठ के गांधी आश्रम से जुड़ाव की इच्छा लेकर उसके खादी भंडार के प्रबंधक श्यामवीर सिंह से मिले और उन पर विश्वास करके उन्हें अपना असली नाम-पता व काम बता बैठे.
इस विश्वास के साथ छल हुआ और अंग्रेज़ खुफिया पुलिस उन्हें पकड़ पाई तो इतनी यातनाएं दीं कि मरना जीने से बेहतर लगने लगा. तीन दिन और तीन रात उन्हें सोने नहीं दिया गया, बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया और गुदा द्वार में मिर्चे ठूस दिए गए, जबकि 26 नवंबर को चालान काटकर लखीमपुर भेज दिया गया.
वहां लोअर कोर्ट ने 27 जून को अपराह्न तीन बजे उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई तो उन्होंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया. लेकिन यह देखकर बहुत निराश हुए कि वहां उपस्थित सैकड़ों लोगों में किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया. पहली जुलाई को उन्हें लखनऊ जेल स्थानांतरित कर दिया गया.
बाद में चीफ कोर्ट ने भी उनकी सज़ा पर मुहर लगा दी, अलबत्ता, प्रिवी काउंसिल में अपील की मोहलत देते हुए. लेकिन वह मोहलत रहते अपील हो ही नहीं पाई. इसका एक बड़ा कारण उनके परिवार की गरीबी थी.
कांग्रेस के उनके ज़िले के खासे अमीर नेताओं में से एक खुशबख़्त राय का कहना था कि राजनारायण का परिवार 400 रुपये जुटा दे तो बाकी का इंतज़ाम वे कर देंगे. लेकिन विद्यावती के सारे जेवर आदि बेचकर भी 200 ही जुटाए जा सके.
इस बाबत कांग्रेसियों की निष्करुण भूमिका की आलोचना करते हुए राजनारायण मिश्र ने लिखा है कि खुशबख़्त ने उनके ही नहीं, देश के साथ भी विश्वासघात किया.
जानकार बताते हैं कि राजनारायण मिश्र क्षमायाचना कर लेते तो उनकी फांसी टल सकती थी. पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए, जबकि उनकी पत्नी विद्यावती और बच्चों की दुर्दशा उन्हें फांसी लगने से पहले ही शुरू हो गई थी.
न मायके वाले उन्हें शरण देने को तैयार थे, न ससुराल वाले हक़ देने को. वे समझ नहीं पा रही थीं कि अपने बच्चों के साथ कहां जाएं और क्या करें?
राजनारायण के निकट इसका एक व्यावहारिक समाधान था. विद्यावती आर्य समाज की रीति से पुनर्विवाह कर लें. पर एक क्रांतिकारी के तौर पर वे उन पर अपनी मर्ज़ी कैसे थोप सकते थे?
तब झारखंडे राय ने विद्यावती और बच्चों को वर्धा के महिला आश्रम भेजने का सुझाव दिया तो राजनारायण का कहना था कि सशस्त्र क्रांति के सिपाही के तौर पर वे अपनी पत्नी व बच्चों को अहिंसा की दीक्षा देने वाले आश्रम में भेजने पर अपनी सहमति नहीं दे सकते. पर बाद में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की दुहाई पर वे इस पर राज़ी हो गए थे.
एक बार कांग्रेस नेता फ़िरोज़ गांधी ने भी इसकी पेशकश की थी. लेकिन इस कृतघ्न देश को आज़ादी के बाद भी विद्यावती और उन बच्चों की खोज-ख़बर लेने और उनके दुर्दिन ख़त्म करने की फुरसत नहीं मिली.
फांसी के एक दिन पहले विद्यावती जेल जाकर अपने पति से मिली थीं. थोड़ी ही देर बाद योगेशचंद्र चटर्जी, झारखंडे राय और दो अन्य साथी उनसे भेंट करने कालकोठरी में गए, तो सबने उन्हें बलिदानी धुन में मगन, प्रसन्न और गौरव से भरा हुआ पाया, मुत्यु के भय से पूरी तरह मुक्त, निश्चिंत, लापरवाह और खिलखिलाते.
अरसा पहले से वे सपना देखते आ रहे थे कि जेल के सारे साथी प्रेम के फूल चुनकर उन्हें उनके हार पहना रहे हैं. वे फांसी की गारद से बिना हथकड़ी के निकाले जाते तो जो भी उन्हें देखता, देखता रह जाता.
आरएसपी को वे एकमात्र क्रांतिकारी पार्टी मानते थे. उनके मुताबिक हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के बाद 22 जनवरी, 1939 को आरएसपी में विलय हो गया था.
वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के विघटन से पैदा हुए शून्य को आरएसपी की मार्फत भरना चाहते थे और उसके वैचारिक व सैद्धांतिक आधारों को लेकर अपने अंतिम दिनों तक प्रश्नाकुल थे.
राजनारायण ने अपने जिले के उत्कट क्रांतिकारी बाबूराम चोटइया को, क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जिनका नाम लखीमपुर खीरी के बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर रहता था और जिन्होंने 38 साल की सज़ा भुगतकर उसकी कीमत चुकायी, लिखा था, ‘मेरी समाधि बनवाना. वहां से आपको हृदय से सुनने में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’, ‘सशस्त्र क्रांति ज़िंदाबाद’ यही सदाएं आएंगी.’
फांसी चढ़ने से पहले उन्होंने योगेशचंद्र चटर्जी की दी खद्दर की कमीज़ व जांघिया पहनी और नारे लगाए थे, ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’, ‘पंचायती हिंदोस्तान ज़िंदाबाद’, ‘अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का नाश हो.’ उन्होंने एक क्रांतिकारी तराना भी गाया था.
सज़ा सुनाए जाने के बाद उनका वज़न छह पौंड बढ़ गया था और उन्होंने जेलर से अपनी एक ही इच्छा जताई थी, लटका दिए जाने पर मृत्यु के बाद उनका पार्थिव शरीर राजबंदी उतारें.
आज राजनारायण मिश्र की अपने देश व समाज के प्रति चिंताओं को समझने का एकमात्र आधार वे पत्र हैं जो उन्होंने समय-समय पर झारखंडे राय को लिखे.
इनमें से कई पत्र भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के सजग अध्येता सुधीर विद्यार्थी की ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक में शामिल हैं.
इन पत्रों में से एक में राजनारायण मिश्र ने लिखा है, ‘हमें ऐसा उपाय करना चाहिए कि प्रतिक्रियावादी हमारे बलिदान का प्रयोग न कर सकें. हमें वह दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. वे कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हांकते हों और अवसरवादी हों… हर देशवासी का फ़र्ज़ है कि वह अपने सामर्थ्य के अनुसार देश की आजादी की लड़ाई में भाग ले. मैंने वही किया. पूंजीपति चाहे जिस जगह पर हों, कांग्रेस में हों या और कहीं, उन्हें मिटाने में कोई कोर-कसर न रखें.’
योगेश चंद्र चटर्जी ने लिखा था कि राजनारायण मिश्र की शहादत के बाद देश में हज़ारों राजनारायण पैदा हो जाएंगे. सो तो हुआ नहीं, उनकी शहादत को भी भुला दिया गया.
लखनऊ में जिस जेल में उन्हें शहीद किया गया था, उसका अब नामोनिशान तक नहीं है. मायावती के राज में उसे तोड़ डाला गया. उनके ज़िले में जो राजनारायण मिश्र स्मारक कोष बना था, उसका हाल भी अब किसी को नहीं मालूम. अलबत्ता, अब उनके गांव भीषमपुर में उनकी एक प्रतिमा लगाई गई है, जहां उनके शहादत दिवस पर श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
(नोट: इस आलेख के कई तथ्य भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के उत्खनन को समर्पित वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी ने उपलब्ध कराए हैं.)