अब तो कुलपति भी क़त्ल के लिए उकसाने लगे!

कुलपतियों के कारनामे अब देश के विश्वविद्यालयों का मौसम बन गए हैं. विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा और गुणवत्ता दोनों पर दाग लग रहे हैं. बड़बोलेपन में राजनीतिक नेताओं को भी मात करने वाले कुलपतियों के ही कारण देश के कई बड़े और श्रेष्ठ उच्च शिक्षण संस्थान इन दिनों बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

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कुलपतियों के कारनामे अब देश के विश्वविद्यालयों का मौसम बन गए हैं. विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा और गुणवत्ता दोनों पर दाग लग रहे हैं. बड़बोलेपन में राजनीतिक नेताओं को भी मात करने वाले कुलपतियों के ही कारण देश के कई बड़े और श्रेष्ठ उच्च शिक्षण संस्थान इन दिनों बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति राजाराम यादव. (फोटो साभार: एएनआई)
पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति राजाराम यादव. (फोटो साभार: एएनआई)

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में जौनपुर स्थित वीरबहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति राजाराम यादव का एक ऐसा वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिसमें वे गाजीपुर के एक कॉलेज में छात्रों से यह कहते दिख रहे हैं कि अगर वे पूर्वांचल विश्वविद्यालय के छात्र हैं तो कभी भी रोते हुए उनके पास न आयें. किसी से झगड़ा हो जाये तो उसकी पिटाई करके और बस चले तो कत्ल करके आयें. बाद में जो कुछ भी होगा, उसे वे देख लेंगे.

शुरू में कई हलकों में इस वीडियो को गहरे संदेहों के साथ देखा गया. यह पूछते हुए कि कुलपति जैसे जिम्मेदारी के पद पर बैठा हुआ कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है?

अंदेशा जताया गया कि कुलपति से नाराज तत्वों ने उनसे खुन्नस निकालने के लिए इरादतन या शरारतन अपलोड करने से पहले वीडियो से छेड़छाड़ की होगी. लेकिन ये पंक्तियां लिखने तक कुलपति महोदय ने स्वयं ही इन संदेहों का लाभ लेने से इनकार करके एक तरह से ‘इकबालिया बयान’ दे डाला है.

इस बयान के मुताबिक उन्होंने उक्त बातें छात्रों का हौसला बढ़ाने के लिए कही थीं और उन्हें ‘गलत तरह से’ पेश किये जाने से व्यथित हैं.

उनका दुर्भाग्य कि वे अपने कहे (उसे शिक्षा कहें भी तो कैसे?) को छात्रों का हौसला बढ़ाने के पवित्र उद्देश्य या अपनी इस व्यथा से जोड़कर भी सही नहीं ठहरा सकते. क्योंकि कुलपतियों की नियुक्तियां कितने भी खराब तरीके से होने लगी हों, यह नहीं कहा जा सकता कि क्या करें, उन्हें इल्म ही नहीं था कि उनके ऐसा कहने से छात्रों का हौसला बढ़े या नहीं, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आई गिरावटों को लेकर पहले से चिंतित समूह नये सिरे से सिर धुनने को विवश हो जायेंगे.

कुलपति के तौर पर यह समझना उनकी जिम्मेदारी थी कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह न केवल भड़काऊ या अनैतिक बल्कि असंवैधानिक भी है.

यहां वे संविधान के हिंसा के प्रतिकार संबंधी प्रावधानों का भी सहारा नहीं ले सकते क्योंकि उनके द्वारा इस तरह बढ़ाया गया ‘हौसला’ छात्रों को हिंसा के प्रतिकार के लिए प्रेरित नहीं करता बल्कि हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए उकसाता है. यह उकसावा अपने आप में गंभीर अपराध है और कड़ी कार्रवाई की अपेक्षा रखता है.

देश में इन दिनों राजाराम यादव जैसे ‘अपनों’ या ‘भक्तों’ को बचाने व बढ़ाने का जो सरकारी ढर्रा चल रहा है, उसके मद्देनजर, क्या पता यह कार्रवाई कब होगी और होगी भी या नहीं, लेकिन इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि वे अपनी तरह के इकलौते कुलपति नहीं हैं.

उच्छृंखलता कहें या बड़बोलेपन में राजनीतिक नेताओं को भी मात करने वाले उनके जैसे कुलपतियों के ही कारण देश के कई बड़े और श्रेष्ठ माने जाने वाले उच्च शिक्षण संस्थान इन दिनों बरबादी के कगार पर पहुंच गए हैं.

अभी पिछले कारगिल विजय दिवस पर प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी झुकाव वाले छात्रों के साथ दुश्मनों जैसा बर्ताव करने वाले कुलपति एम जगदीश कुमार ने अपने अंधराष्ट्रवादी अरमानों के पोषण के लिए विश्वविद्यालय परिसर में सेना का एक टैंक रखने की इच्छा व्यक्त कर डाली तो जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति प्रो. तलत अहमद ने कहा था कि उनकी यूनिवर्सिटी में तो पहले से ही लड़ाकू विमान मिग लगा हुआ है.

दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू विवि छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार समेत कई छात्र नेताओं को देशद्रोही करार देने की साजिशों और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कुछ छात्रों से लड़ाई के बाद लापता छात्र नजीब अहमद के मामले से जगदीश कुमार ने यों आंखें मूंदे रखीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (फोटो: पीटीआई)
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (फोटो: पीटीआई)

इससे पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला को विश्वविद्यालय के कुलपति के असहानुभतिपूर्ण रवैये ने ही आत्महत्या को मजबूर कर दिया था.

अभी बहुत दिन नहीं हुए, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्राओं से दुर्व्यवहार और भेदभाव का मामला गरमाया तो विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. जीसी त्रिपाठी ने पहले एक महिला आईएएस को सारे फसाद की जड़ बताया दिया, फिर छात्राओं की लानत-मलामत में सारी सीमाएं लांघकर कह दिया था कि एक छात्रा की अस्मिता को लेकर वे सब की सब बाजार पहुंच गईं!

इसे लेकर बात बढ़ी तो उन्हें जबरन छुट्टी पर भेजकर मामले का पटाक्षेप किया गया.

अयोध्या स्थित डाॅ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. मनोज दीक्षित इस मायने में इन सारे कुलपतियों से कई कदम आगे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को लागू करने में कोई शर्म या हिचक रखने की जरूरत भी महसूस नहीं करते.

पिछले दिनों अयोध्या में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के शोर के बीच उन्होंने अपने विश्वविद्यालय को ‘धर्मसभाओं’ और ‘समरसता कुम्भों’ के प्रति इस तरह ‘समर्पित’ कर दिया कि अवध की गंगा-जमुनी तहजीब पनाह मांगने लगी. कई लोग कहते हैं कि वे ऐसा शातिराना इसलिए बरत रहे हैं कि खुद को राज्यपाल बना सकने वालों की निगाहों में चढ़कर अपने अरमान निकाल सकें.

खुद की महत्वाकांक्षाओं के लिहाज से कुलपति की कुर्सी उन्हें बहुत छोटी लगती है इसलिए प्रायः ऐसे कामों में ही मुब्तिला रहते हैं, जो कुलपति के पद पर रहते हुए उन्हें नहीं करने चाहिए.

बहरहाल, कुलपतियों के ऐसे कारनामे अब देश के विश्वविद्यालयों का मौसम बन गए हैं और उनका घटाटोप ऐसा है कि यह सोचकर संतोष कर लेने की गुंजाइश भी नहीं है कि अंततः उनका बड़ा आकाश इन मिसालों के बाहर और निर्मल बना रहेगा.

इससे विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा और गुणवत्ता दोनों पर दाग लगे हैं, लेकिन चूंकि सत्ताधीशों को इनसे कोई दिक्कत नहीं है, उलटे उन्हें दाग अच्छे लगते हैं, इसलिए वे हालात बदलने के लिए कुछ नहीं कर रहे. उलटे कुलपतियों की नियुक्तियां हों या शिक्षकों की, उनमें योग्यता को पैरवी व चाटुकारिता से प्रतिस्थापित किए दे रहे हैं.

अन्य विश्वविद्यालयों को छोड़ भी दें तो गत वर्ष फरवरी में नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्रीय विश्वभारती विश्ववि़द्यालय में कुलपति की नियुक्ति में जिस तरह राष्ट्रपति पद की गरिमा को भी दांव पर लगा दिया था, वही यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि उनमें कैसे-कैसे खेल किये और कैसे-कैसे स्वार्थ साधे जाते हैं.

उस मामले में राष्ट्रपति द्वारा पूर्वनिर्धारित नियुक्ति प्रक्रिया के तहत उन्हें भेजे गए तीन नामों के पैनल पर विचार कर कार्यकारी कुलपति स्वपनकुमार दत्ता के नाम को मंजूरी दी गई तो मानव संसाधन मंत्रालय ने दत्ता की नियुक्ति का आदेश जारी नहीं किया.

इसके बाद बेहद अप्रत्याशित ढंग से न सिर्फ उनके नाम की सिफारिश वापस ले ली, बल्कि अनुमोदित पैनल को ही भंग कर दिया था. साथ ही राष्ट्रपति से पूरे मामले पर नये सिरे से विचार करने की अपेक्षा कर डाली थी. राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिमंडल की सलाह मानकर विधिवत दी गयी मंजूरी का ऐसा असम्मान पहले कभी नहीं हुआ था.

कहना जरूरी है कि इन दिनों ऐसी नियुक्तियों में जो सबसे बड़ा उद्देश्य सामने रखा जाता है, वह एक खास विचारधारा के ‘अब तक उपेक्षित चले आ रहे’ वाहकों को उपकृत और अन्यों को तिरस्कृत कर उन्हें ‘उनकी हैसियत’ बताने से जुड़ा है.

सारे विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों, यहां तक कि विधिक व संवैधानिक संस्थानों में भी इसके लिए बड़े बड़े ‘खेल’ किये जा रहे हैं.

इसका एक उदाहरण तब भी देखने में आया था, जब छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बलराम दास टंडन ने वरिष्ठ साहित्यकार, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. सदानंद शाही को बिलासपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया.

भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इसके फौरन बाद ही प्रो. शाही की कथित नक्सल विचारधारा को लेकर कुत्सापूर्ण दुष्प्रचार का सुनियोजित अभियान आरंभ कर दिया.

उन पर राम मंदिर को लेकर अवांछनीय टिप्पणी करने के आरोप तो लगाए ही गए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कुछ प्रभावशाली सज्जनों ने प्रधानमंत्री कार्यालय तक की दौड़ लगाकर न सिर्फ उनके अकादमिक करिअर बल्कि खानपान व रहन-सहन के खिलाफ ‘आपत्तियां’ दर्ज कराईं.

जो केंद्र सरकार विश्वभारती के ऐसे ही मामले में राष्ट्रपति को निर्दिष्ट करने पर उतर सकती थी, उसके लिए छत्तीसगढ़ के राज्यपाल को अपनी लाइन पर लाने में कोई कठिनाई क्यों कर होती? अंततः प्रो. शाही की नियुक्ति रद्द कर दी गयी.

आप समझ सकते हैं कि इस प्रक्रिया से नियुक्ति पाने वाले सारे के सारे कुलपति एक खास जमात से ही क्यों आते हैं और वे करोड़ों के अनुदानों में हेराफेरी करें, छात्रों से दकियानूसी व्यवहार या उन्हें अपराधी बनने के लिए उकसाएं, सत्ताधीश उन पर ध्यान क्यों नहीं देते?

ऐसे में पूछते रहिए कि उनका यह घृणित व गैरजिम्मेदार रवैया हमारी पहले से ही बदहाल उच्च शिक्षा को कहां ले जायेगा?

उन्होंने तो अभी ही ऐसा ‘करिश्मा’ कर दिखाया है कि जिन विश्वविद्यालयों को कभी बेहद उम्मीद के साथ देखा जाता था, अब उनसे कोई उम्मीद ही नहीं की जाती. कभी वे देश की राजनीति को नई राह दिखाते थे और अब राजनीतिक दलों के निहित स्वार्थों की पूर्ति के अड्डों में बदल गए हैं.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि कुलपति छात्रों को संविधान व कानून की अवज्ञा करना भी पढ़ाने लगे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)