जो 1977 में पाकिस्तान में ज़िया-उल-हक के नेतृत्व में शुरू हुआ था, वह अब भारत में दोहराया जा रहा है.
हम पहले कभी भी पाकिस्तान जैसे नहीं रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में होना शुरू हुए हैं.
शरिया आधारित इस्लाम को राजनीति के साथ स्पष्ट रूप से मिश्रित करने की पाकिस्तान की यात्रा 1977 में उस समय शुरू हुई थी जब तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल ज़िया-उल-हक़ ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार का तख़्तापलट करते हुए देश में मार्शल-लॉ लगा दिया था.
ज़िया के सरकार संभालने के बाद एकाएक एक सुबह पाकिस्तान के अधिकृत टीवी चैनल की एंकर हिज़ाब पहने दिखाई दी. उसने अपने समाचार का अंत पारंपरिक रूप से ‘ख़ुदा-हाफ़िज़’ कहने की जगह ‘अल्लाह-हाफ़िज़’ कहते हुए किया. उस समय तक भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिमों के मध्य ‘ख़ुदा-हाफ़िज़’ कहना एक सुप्रचलित अभिव्यक्ति थी.
‘अल्लाह-हाफ़िज़’ कहना अरबी शरिया आधारित इस्लामिक पाकिस्तान बनने की दिशा में ज़िया सरकार का एक स्पष्ट संकेत था, जबकि उस समय तक पाकिस्तान आमतौर पर एक उदार मुस्लिम राष्ट्र था. तब से लेकर आज तक पाकिस्तान का सार्वजनिक जीवन धर्म में उलझ कर रहा गया है और राजनीति हाफ़िज़ सईद जैसे जिहादी तत्वों के हाथों में तेज़ी से सरक रही है.
हम भारतीयों ने पाकिस्तान के कट्टरपंथ का मज़ाक बनाते हुए उसे सही तरीक़े से एक दुष्ट राज्य के रूप में चिह्नित किया क्योंकि आतंक और हिंसा वहां एक सामान्य बात हो गई थी. लेकिन किसी ने यह अनुमान नहीं किया कि संघ परिवार के नेतृत्व में हम भी राजनीति को धर्म के साथ मिश्रित करने के घातक खेल की शुरुआत करेंगे.
इस दिशा में हमारी यात्रा 1990 दशक के पूर्वार्ध में आरंभ हुई. भारतीय राजनीति को अचानक उस समय एक बड़े सामाजिक संकट का सामना करना पड़ा, जब सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई थी.
यह परंपरागत हिंदू सामाजिक ढांचे पर एक बड़ी चोट थी जिसने जाति आधारित पदानुक्रम के समक्ष ख़तरा उत्पन्न कर दिया था. हिंदू समाज के भीतर सामाजिक मंथन के इस जटिल दौर में संघ हस्तक्षेप करता है और मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर देश के ध्रुवीकरण के लिए लालकृष्ण आडवाणी ‘रथ यात्रा’ पर निकल पड़ते हैं.
रणनीति बिल्कुल सामान्य थी. हिंदू समाज के भीतर जातिगत बंटवारे की खाई को हिंदू–मुस्लिम विभाजन को उछालकर पाटा जाए. और इस उद्देश्य के लिए एक दुश्मन या किसी अन्य पक्ष को खड़ा किया जाना आवश्यक थ – और वह दुश्मन था ‘मुस्लिम’, बाबर की औलाद, जो बाबरी मस्जिद स्थल पर राम मंदिर के निर्माण में रोड़ा अटका रहा था.
और जैसा कि हमने देखा है कि 1990 दशक के पूर्वार्ध में अत्यंत कुशलतापूर्वक गढ़ गए इस हिंदू-मुस्लिम विभाजन की परिणति बाबरी मस्जिद विध्वंस और 1992 में देश भर में हुई हिंसा में हुई. सांप्रदायिक विभाजन की रणनीति ने बीजेपी को सिर्फ़ सम्मान ही नहीं दिलाया बल्कि रातों-रात इसे कुछ हद तक उदार लेकिन अस्थिर कांग्रेस पार्टी, जो कि उभरते हुई मंडल चुनौती का सामना करने में विफल रही थी, के एक राष्ट्रीय राजनैतिक विकल्प के रूप में परिवर्तित कर दिया.
जाति आधारित चुनौती मिलने के कारण अपने समक्ष सामाजिक रूप से उत्पन्न हुए ख़तरे के जवाब में हिंदू स्थापना को अचानक हिंदुत्व की राजनीति में एक संभावना नज़र आई. भाषा में भी बदलाव दृष्टिगोचर हुए– सबसे पहले, ‘धर्मनिरपेक्षता’ को ‘छद्मनिरपेक्षता’ कहते हुए उसका मज़ाक बनाया गया एवं धर्मनिरपेक्ष ताक़तों को रक्षात्मक रवैया अपनाने को विवश किया गया. मुस्लिम वोट बैंक एवं मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे शब्द गढे़ गए एवं उभरते हुए ‘मुस्लिम शत्रु’ के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक हिंदू समाज की घेराबंदी की गई. राजनैतिक हिंदुत्व को खड़ा करने का यह जानबूझकर किया गया प्रयास था.
यह सब कुछ पाकिस्तान की नकल थी. ज़िया ने अहमदिया संप्रदाय के लोगों को पाकिस्तानी मुस्लिमों के लिए एक ख़तरा बताते हुए प्रचारित किया था. भारत में, इन ताक़तों ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन हेतु ‘फूट डालो और राज करो’ की ब्रिटिश उपनिवेशकालीन नीति को अपनाया. परिणामस्वरूप, उभरते हुए ख़तरे पर क़ाबू पाने के लिए प्राकृतिक रूप से एक हिंदू रक्षक की आवश्यकता थी.
शुरुआत में, यह रक्षक आडवाणी थे. लेकिन आने वाले महीनों एवं वर्षों में एक नए कट्टर हिंदू हृदय सम्राट का जन्म हुआ– नरेंद्र मोदी. एक बार पुन: धर्म को राजनीति से मिश्रित करने वाली पाकिस्तानी क़िताब से एक पेज फाड़ते हुए संघ ने बजरंग दल, हिंदू सेना एवं हिंदू वाहिनी जैसे छद्म दलों का सृजन किया. जिस भूमिका का निर्वहन पाकिस्तान में सईद ने किया, भारत में उस भूमिका में आदित्यनाथ थे. यदि उधर सईद ने भारत नामक ख़तरे को जीवित रखा, तो इधर आदित्यनाथ ने गोरक्षा एवं लव जिहाद जैसे अभियानों के द्वारा हिंदू एकता के लिए काम किया. ये बहुसंख्यक समाज के नए रक्षक थे, जिनका एकमात्र उद्देश्य बहुसंख्यकों के दिमाग़ में काल्पनिक ख़तरे को जीवित रखना था.
धर्म को राजनीति के साथ मिलाना हमारे जैसे आधुनिक और विविधतापूर्ण देश के लिए बेहद घातक रणनीति है. यह एक ऐसा सर्पीला खेल है जो कभी भी नियंत्रण से बाहर हो सकता है. पाकिस्तान ने अपनी राजनीति का इस्लामीकरण 1977 में शुरू किया था– आज वह जिहादियों की दया पर निर्भर है.
आपको पता ही नहीं चलता कि कब ये छद्म ताक़तें इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि पूरे तंत्र और अपने सृजनकर्ता को ही मात दे दें, जैसा कि हमने समय-समय पर पाकिस्तान में देखा है.
ऐसा ही उस समय हुआ जब मोदी ने आडवाणी को प्रधानमंत्री की दौड़ में हरा दिया. कौन जानता है कि एक दिन आदित्यनाथ ऐसा मोदी के साथ कर सकते हैं– वे हमारी राजनीति में और अधिक मात्रा में धर्म को प्रवेश करा सकते हैं.
हमने धर्म को राजनीति के साथ मिश्रित करने के परिणाम अपने पड़ोसी देश में देखे हैं. हमारे देश के संस्थापकों ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए 1947 में जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार करने से मना कर दिया था, जिसने पाकिस्तान को बनाने में स्पष्ट रूप से धर्म का इस्तेमाल किया था. क्या हम उसी रास्ते पर नहीं हैं?
(हिंदी अनुवाद- डॉ. परितोष मालवीय, अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)