एक साक्षात्कार में नामवर सिंह ने कहा था कि विदेश में दो लोग जब बात करते हैं तो कुछ देर के अंदर ही उनकी बातचीत में मिल्टन, शेक्सपियर, चेखव के उद्धरण आने लगते हैं, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं दिखता. हिंदी में बहुत से जनकवि हैं लेकिन हिंदी जगत में उनकी रचनाएं उस रूप में प्रचारित नहीं होतीं.
अब जब बीते 19 फरवरी को नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में रात 11:50 बजे मौत से हार जाने वाले 92 वर्षीय नामवर सिंह हमारे बीच नहीं रहे, रूपक बांधना हो तो कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में दूसरी परंपरा का अन्वेषण करने वाले इस ‘लिविंग लीजेंड’ का आभामंडल ऐसा था कि मौत को भी दिन के उजाले में उसके पास फटकने का साहस नहीं हुआ.
इसलिए वह रात दबे पांव उनके पास आई और असावधान पाते ही घात कर बैठी. यकीनन, जैसा कि वरिष्ठ लेखक व पत्रकार ओम थानवी ने अपनी फेसबुक पोस्ट में कहा है, यह ‘हिंदी में फिर सन्नाटे की ख़बर’ है.
इस कारण और भी कि वे ‘नायाब आलोचक’ भर नहीं थे. लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, वे अज्ञेय के बाद के हिंदी के सबसे बड़े ‘स्टेट्समैन’ थे, तो अपने छोटे भाई काशीनाथ सिंह के अनुसार हिंदी के आलोचकों में उनकी जैसी लोकप्रियता अन्य किसी को नहीं मिली.
इन विछोह-विह्वल क्षणों में लेखक-कवि, प्रशंसक और आलोचक उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके और उनके सृजन के बारे में ऐसी और भी जानें कितनी बातें कहेंगे.
लेकिन, बेहतर होगा कि उन्हें संवेदनाओं और भावनाओं के इस अतिरेक से परे, जब भी और जैसे भी, याद किया जाए, हिंदी संसार से जुड़े उनके उस असंतोष को भी भुलाया न जाए.
इसे उन्होंने एक साक्षात्कार में यह कहकर व्यक्त किया था, ‘हिंदी भाषा और साहित्य का काफी विस्तार हुआ है. उसकी रचनाशीलता की दुनिया भी व्यापक हुई है. बहुत से सर्जकों ने उसे समृद्ध किया है. कई महत्वपूर्ण लेखकों ने कुछ विश्वस्तरीय रचनाएं भी दी हैं. लेकिन अभी भी हिंदी भाषी समाज को अपने साहित्यकारों से बहुत प्यार या लगाव नहीं है. विदेशों में मैं देखता हूं कि जब दो लोग बात करते हैं तो पांच-सात मिनट के अंदर ही उनकी बातचीत में मिल्टन, हेमिंग्वे, शेक्सपियर, ब्रेख्त व चेखव आदि के उद्धरण सामने आने लगते हैं. लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं दिखता. हिंदी में बहुत से जनकवि हैं लेकिन हिंदी जगत में उनकी रचनाएं उस रूप में प्रचारित नहीं होतीं.’
इसी साक्षात्कार में उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि अब उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई है. सेहत भी ठीक नहीं रहती और वे ख़ुद कुछ भी लिखने में असमर्थ हो गए हैं. इस असमर्थता को उनकी लंबी यात्रा की थकान माना जाए या बढ़ती उम्र व बुढ़ापे की अनिवार्य परिणति, इसके गरिमापूर्वक और ईमानदार स्वीकार के लिए उनकी प्रशंसा ही करनी होगी. वरना साहित्य में न सही, देश की राजनीति में तो ख़ुद को कभी भी असमर्थ या बूढ़ा मानने का रिवाज नहीं है.
इस रिवाज के विपरीत उन्होंने अपनी एक कविता की इन पंक्तियों में अपने तन-मन के टूटने के कारणों की पड़ताल काफी पहले ही शुरू कर दी थी…
नभ के नीले सूनेपन में,
हैं टूट रहे बरसे बादर,
जानें क्यों टूट रहा है तन!
वन में चिड़ियों के चलने से,
हैं टूट रहे पत्ते चरमर,
जानें क्यों टूट रहा है मन!
आश्चर्य नहीं कि उनके इस निरंतर गहराती गई टूटन के साथ दुनिया को अलविदा कहने के साथ ही, न सिर्फ हिंदी बल्कि सारी भारतीय भाषाओं को अपने तन-मन थोड़े और टूटे लग रहे हैं.
यह ऐसी टूटन है, जिसका तुरत-फुरत, एक-दो दिन, कुछ महीनों या सालों में समाधान मुमकिन नहीं होने वाला. इसलिए भी कि वे हमारे साहित्य-संसार को ऐसे कठिन समय में छोड़ गए हैं, जब उसे अपने सामने उपस्थित तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी.
इसके चलते जो रिक्ति या कि अभाव पैदा हुआ है, उसके मद्देनज़र उनके योगदान को रेखांकित करने में किसी हड़बड़ी की कतई ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनके जैसी शख़्सियतें (जिनसे समग्रता में सहमत होना भी असहमत होने जितना ही कठिन हो) सदियों में एक दो ही पैदा होती हैं, तो सदियों तक बार-बार भुलाई और नए सिरे से याद भी की जाती रहती हैं.
इसे यों भी समझ सकते हैं कि वाराणसी ज़िले के चंदौली अंचल के, जो अब ज़िला बन गया है, जिस जीयनपुर गांव में नामवर (कहना चाहिए राम जी, क्योंकि तब उनके पिता ने उनका राम जी नाम ही रखा था, वह तो पड़ोस की चाची ने उसे बदलकर नामवर कर दिया) पैदा हुए, भले ही वह कायाकल्प के बाद अम्बेडकरनगर बन गया है, जीयनपुर नाम है कि लोगों के ज़ेहन से उतरता ही नहीं है.
कहना ज़रूरी है कि ‘वाद विवाद संवाद’ के रस में पगे, ‘बेचैनी और तड़प से भरते, द्वंद्व के लिए ललकारते, कभी नि:शस्त्र करते और कभी वार चूकते’ नामवर ने साहित्य-संसार में अपनी लंबी उपस्थिति के दौरान ही अपने लिए जितना अकेलापन व असहमतियां अपने लेखन या सृजन से पैदा कीं, उससे ज़्यादा अपने व्याख्यानों से पैदा कर डाली थीं. तभी तो किसी ने उन्हें ‘अचूक अवसरवादिता’ का तो किसी ने ‘तिकड़मी’ आलोचक तक कह डाला.
यह भी कहा गया कि वे अपने विचार बदलते रहते हैं, उनमें निरंतरता नहीं है और वे साहित्य का नहीं, राजनीति का विमर्श करते हैं यानी सत्ता का डिसकोर्स.
इन तोहमतों को लेकर वे प्राय: कहा करते थे, ‘मैं कठघरे में खड़ा एक मुजरिम हूं.’ एक वक्तव्य में उन्होंने लोगों को यह सिखाते हुए कि ‘सत्य के लिए किसी से नहीं डरना चाहिए, गुरु से भी नहीं और वेद से भी नहीं’, कहा था कि लोगों को जितनी शिकायतें मुझसे हैं, उतनी मैं ख़ुद भी अपने आप से करता हूं- इरादे बांधता हूं, जोड़ता हूं, तोड़ देता हूं.
अलबत्ता, इसमें यह बात भी जोड़ते थे, ‘आप हर सूरत में अनिवार्य हैं, हर सूरत में प्रासंगिक हैं. इसलिए आपसे सबसे ज़्यादा शिकायतें हैं.’
लेकिन अब वे नहीं हैं तो अंदेशा होता है, इसलिए और भी कि सोशल मीडिया के इस दौर में ऐसा चलन बढ़ता जा रहा है कि उन्हें खलनायक बनाकर ‘बुरी-बुरी’ चीज़ों के लिए ही याद किया जाने लगे या ऐसा स्तुति गान शुरू कर दिया जाए, जिसमें उनके व्यक्तित्व के दूसरे ज़रूरी पहलू छिप कर रह जाएं.
इनमें से कोई भी बात न नामवर के हित में होगी और न ही साहित्य संसार के, क्योंकि किसी भी सर्जक को याद करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसे उसकी उत्कृष्टताओं के लिए याद किया जाए, ऐसी वस्तुनिष्ठता से, जिसे व्यक्ति पूजा में कतई दिलचस्पी न हो.
नामवर के संदर्भ में इस तरीके के आज़माने की एक बड़ी सुविधा यह है कि वे अपने पीछे जो थाती छोड़ गए हैं, उसमें उत्कृष्ट ही सबसे ज़्यादा है.
कुछ महानुभाव फिर भी इस तरीके से परहेज बरतने के फेर में हों, तो उन्हें नामवर के संघर्ष के दिनों का वह प्रसंग पढ़ाना दिलचस्प होगा, जिसमें एक नौकरी के आवेदन के सिलसिले में हो रहे इंटरव्यू में उनसे पूछा गया कि आपको इस नौकरी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में से एक को चुन लेने को कहा जाए तो आप क्या करेंगे?
बिना पल गंवाये नामवर का जवाब था, ‘मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को चुन लूंगा.’
पूछने वाले ने कहा, ‘लेकिन अभी तो आप कह रहे थे कि आपको नौकरी की बहुत ज़रूरत है.’
तो नामवर बोले, ‘सो तो है ही, लेकिन मैं आपसे कह दूं कि इस नौकरी के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दूंगा, तो भी मुझे नहीं मालूम कि आप मुझे यह नौकरी देंगे या नहीं, लेकिन अच्छी तरह मालूम है कि इतना कहते ही मैं आपकी और अपनी दोनों की निगाह में इतना गिर जाऊंगा कि शायद टके सेर भी न रह जाऊं.’
प्रसंगवश, वे आज़ादी के तुरंत बाद की कांग्रेस सरकारों के वर्चस्व के दिन थे, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय युवकों को सायास नौकरियों से वंचित किया जा रहा था.
कहने का आशय यह कि आगे जो लोग नामवर सिंह की नाहक निंदा या ग़ैरज़रूरी स्तुति में लौ लगाएंगे, नामवर की शान में तो खैर वे क्या गुस्ताख़ी कर पाएंगे, उन्हें अनिवार्य रूप से उक्त प्रसंग के नामवर जैसा टके सेर भी न रह जाने का ख़तरा उठाना पड़ेगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)