हमें आज़ादी और फासीवाद के बीच चुनाव करने की जरूरत है: नयनतारा सहगल

लेखिका नयनतारा सहगल ने कहा कि आज हम एक ऐसी स्थिति में हैं जो कि संवैधानिक तौर पर एक लोकतंत्र है लेकिन उसमें तानाशाही के सभी गुण मौजूद हैं.

//
साहित्यकार नयनतारा सहगल (फाइल फोटो: Wikimedia Commons)

लेखिका नयनतारा सहगल ने कहा कि आज हम एक ऐसी स्थिति में हैं जो कि संवैधानिक तौर पर एक लोकतंत्र है लेकिन उसमें तानाशाही के सभी गुण मौजूद हैं.

साहित्यकार नयनतारा सहगल (फाइल फोटो: Wikimedia Commons)
साहित्यकार नयनतारा सहगल (फाइल फोटो: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: लेखिका नयनतारा सहगल ने कहा है कि हम एक चौराहे पर खड़े हैं जहां हमें आज़ादी और फासीवाद के बीच चुनाव करना है. इसके बीच में कुछ भी नहीं है. हाल ही में लॉन्च हुए अपने उपन्यास ‘द फेट ऑफ बटरफ्लाइज’ के बारे में इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए सहगल ने यह टिप्पणी की.

91 साल की नयनतारा सहगल नेहरू-गांधी परिवार से आती हैं. वे पंडित मोतीलाल नेहरू की बेटी विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं. साहित्य अकादमी प्राप्त नयनतारा सहगल ने 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ चलाए गए अवॉर्ड वापसी अभियान के समय उन्हें मिला साहित्य अकादमी सम्मान लौटा दिया था.

देश के मौजूदा हालात के बारे में सहगल ने कहा, ‘आज जो कुछ भी हो रहा वह लोकतंत्र की आड़ में हो रहा है. 1975-77 के बीच हमें पता था कि हम कहां हैं क्योंकि उस दौरान विपक्ष को जेल में डाल दिया गया था और संविधान को खारिज कर दिया गया था.’

उन्होंने कहा, ‘आज हम एक ऐसी स्थिति में हैं जो कि संवैधानिक तौर पर तो एक लोकतंत्र है लेकिन उसमें तानाशाही के सभी गुण मौजूद हैं. अभिव्यक्ति की आजादी को दबा दिया गया है, सत्ताधारी पार्टी से सहमत नहीं होने वालों पर प्रतिबंध लगा दिए गए हैं.’

वह कहती हैं, ‘मॉब लिंचिंग करने या लोगों की हत्या करने वालों की न तो गिरफ्तारी हो रही है और न ही उन पर कोई कार्रवाई हो रही है. नफरत फैलाने वालों को न सिर्फ खुला छोड़ दिया गया है बल्कि उन्हें पुलिस से सुरक्षा मिलती है.’

सहगल ने कहा, ‘मौजूदा हालात बेहद भयावह हैं क्योंकि जिन्हें परवाह नहीं है वे कहते हैं कि सब कुछ ठीक है. आज भारत इसलिए मशहूर हो गया है कि कोई सड़क पर मरता रहता है और लोग मुंह फेर लेते हैं. इसलिए सब कुछ जानने और समझने वाले अमीर और शिक्षित लोगों को लगता ही नहीं कि कुछ भी गलत हो रहा है.’

उन्होंने कहा, ‘यह समय-समय पर फैलाई जा रही साजिशों का नतीजा ही है जिसके कारण नौकरी के लिए बाहर निकलने वाले गरीब, मुस्लिम और दलितों को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार डाला जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘ऐसे हालात में लिखना एक राजनीतिक काम है. मैं इसी काम में लगी हूं. जिस तरह से जेपी (जयप्रकाश नारायण) के समय मैं सड़कों पर प्रदर्शन करती थी, वह नहीं कर रही हूं बल्कि लिखना बहुत ही नाटकीय और आवश्यक है जैसा कि हमने लातिन अमेरिका और स्पेन में तानाशाही और गृह युद्ध के दौरान देखा था.’

उन्होंने कहा कि लेखन, सिनेमा और पेंटिंग जैसी सभी तरह की कलाएं राजनीतिक क्रिया होती हैं.

देश के मौजूदा हालात में बुद्धिजीवियों की भूमिका को लेकर उन्होंने कहा कि ऐसे हालात में सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखने वाली (इतिहासकार) रोमिला थापर जैसी हस्तियां बहुत जरूरी हो जाती हैं क्योंकि वे युवाओं को संवारती हैं.

उन्होंने कहा, ‘सार्वजनिक रूप से ऐसे लोग जो कदम उठाते हैं वह बहुत जरूरी हो जाता है. इस समय हम एक चौराहे पर खड़े हैं जहां हमें आज़ादी और फासीवाद के बीच चुनाव करना है. इसके बीच में कुछ भी नहीं है. सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखने वाले बुद्धिजीवी इसे साफ-साफ कहते हैं.’

बता दें कि इस साल जनवरी में ऑल इंडिया मराठी साहित्य सम्मेलन ने सहगल को भेजा गया आमंत्रण वापस ले लिया था.

इस पर उन्होंने कहा, ‘आयोजनकर्ताओं ने वह आमंत्रण वापस लिया था. हालांकि उस दौरान मराठी लेखकों से मुझे पूरा सहयोग मिला. इसके बाद महाराष्ट्र में कई सांस्कृतिक और सामाजिक संगठनों ने मेरा भाषण पढ़ा. प्रतिबंध लगने के कारण हजारों लोगों ने उसे सुना.’

उन्होंने कहा, ’30 जनवरी को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर एक कार्यक्रम में मौजूद लेखकों और कलाकारों को मैंने बताया कि मुझे यह देखकर बहुत निराशा हुई कि देश के मौजूदा हालात के बारे में बोलने पर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के साथ कोई बड़ा कलाकार खड़ा नहीं हुआ.

उन्होंने कहा, ‘मैंने उन्हें बताया कि जब देश में पूरी तरह से सेंसरशिप लागू था तब फिल्मों ने किस तरह से राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन किया. ब्रिटिश तो आज़ादी शब्द का कहीं भी इस्तेमाल नहीं करने देते थे. तब फिल्मों ने गानों का सहारा लिया.’

कार्यक्रम में सहगल ने कहा, ‘उस समय 1941 में अभिनेता अशोक कुमार के मुख्य किरदार वाली फिल्म नया संसार में एक गाना था, एक नया संसार बनाएं, ऐसा एक संसार, कि जिसमें धरती हो आज़ाद, कि जिसमें भारत हो आज़ाद.

इसके बाद उन्होंने लेखकों और कलाकारों से कहा कि अब आज आप खुद को देखिए.

मौजूदा दौर में अपनी उम्मीद के बारे में सहगल ने कहा, ‘मुझे पता है कि मुझे इससे लड़ना पड़ेगा. मेरी परवरिश ऐसी है कि मुझे साफ पता है कि मुझे क्या बचाना है.’

उन्होंने कहा, ‘आपातकाल में भी मुझसे पूछा गया था कि क्यों मैं अपने परिवार से लड़ रही हूं. तब मैंने कहा था कि इससे मेरे परिवार की विरासत का नुकसान हो रहा है. नेहरू की विरासत ही मेरी विरासत थी और इसलिए मैंने उसके लिए लड़ाई लड़ी. वह मेरी समझ और सामान्य सोच ही थी जिसने मुझे लड़ना और उम्मीद न छोड़ना सिखाया.’