अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर एक समारोह में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने कहा कि वे मौजूदा आरक्षण व्यवस्था को ठीक नहीं मानतीं, इसके चलते उन्हें कई बार अप्रिय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा.
नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय की जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर एक समारोह को संबोधित करते हुए गुरुवार को कहा कि महिलाओं को आरक्षण देने से उनकी क्षमताओं की अनदेखी होती है.
जस्टिस बनर्जी ने सिटीजन्स राइट्स ट्रस्ट द्वारा आयोजित कार्यशाला में कहा कि महिलाओं को हर क्षेत्र में सक्षम होना चाहिए और वे बार-बार यह साबित कर चुकी हैं.
उन्होंने कहा, ‘अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगी कि महिलाओं को आरक्षण देने से उनकी क्षमताओं की अनदेखी होती है.’
बनर्जी ने कहा कि मौजूदा आरक्षण व्यवस्था, जिसे वे अपमानजनक मानती हैं, की वजह से उन्हें खुद कई बार तरह-तरह की टिप्पणियों का सामना करना पड़ा हैं.
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस ने आगे कहा, ‘जब कलकत्ता हाईकोर्ट में मेरी जज के बतौर नियुक्ति हुई, तब साढ़े चार साल तक मैं अकेली महिला जज थी और मेरे साथ काम करने वाले पुरुष जजों का मानना था कि मुझे ये पद महज महिला होने के नाते मिला है. मुझे बराबर का वेतन चाहिए था और ज़्यादा से ज़्यादा फैसले दिए थे, मैंने इन सभी मापदंडों को पूरा किया था. मुझे नहीं लगता महज महिला होने के नाते मुझे सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किया गया.’
इसी मौके पर दिल्ली उच्च न्यायालय की जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने के बजाय सोच में बदलाव होना चाहिए.
महिला वकीलों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में बात करते हुए जस्टिस सिंह ने कहा कि महिलाओं के इस पेशे में होने को गलत समझते हैं, फिर भी बड़ी संख्या में महिलाएं इस क्षेत्र में आ रही हैं.
सिंह ने महिला वकीलों को लेकर कहा, ‘महिलाओं के लिए यह पेशा बेहद चुनौती भरा है. एक महिला होने के नाते वकील होना कठिन है, मां होने के साथ वकील होना भी कठिन है, पत्नी होने के साथ वकील होना भी कठिन है. हालांकि बहुत लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि शादी के बाद वे अपनी बेटी की नौकरी वकालत से बदलकर कुछ और कर देंगे, लेकिन फिर भी बड़ी संख्या में महिलाएं इस पेशे से जुड़ रही हैं.
उन्होंने आगे कहा कि जिला अदालतों की बात करें या दिल्ली जैसे राज्य में अदालतों में 50 प्रतिशत संख्या महिलाओं की है और ये बदलाव यूं ही नहीं है बल्कि लोगों की मानसिकता बदल रही है. यह बदलाव समाज में अपने आप आना चाहिए सिर्फ लड़कर क़ानून बनाने से कोई फायदा नहीं.
सिंह कहती हैं कि क़ानून में दिए गए प्रावधान अच्छे हैं, लेकिन कभी-कभी मैटरनिटी सुविधा के चलते कई कंपनी महिलाओं को नौकरी नहीं देते.
उन्होंने आगे कहा, ‘मैटरनिटी सुविधा के चलते कई दफ़े यह पाया जाता है कि बराबर के महिला और पुरुष में अगर कंपनी को चुनना होता है, तो वे पुरुष को चुनते हैं. इसीलिए कई देशों में मैटरनिटी सुविधा को कम रखा गया है, ताकि महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सके.’
वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया का मानना है कि महिलाओं के भीतर ज़्यादा करुणा, चिंता और ख्याल रखने की क्षमता होती है, जिसके चलते वे देश का नेतृत्व कर सकती हैं.
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर हम किसी एक महिला की मदद करते हैं, जो लैंगिक असमानता की पीड़ित है, तो हम देश की सेवा कर रहे हैं. महिलाएं कमजोर नहीं है और इस बहस को जल्दी ख़त्म करना चाहिए.’
जस्टिस बनर्जी ने कहती है कि महिलाओं में देश का नेतृत्व करने का सामर्थ्य है, लेकिन दुनिया की 50 प्रतिशत आबादी होने के बावजूद वे कम पढ़ी-लिखी, आर्थिक रूप से कमजोर, आत्मविश्वास की कमी, कुपोषित, घरेलू हिंसा की पीड़ित और काम की जगह पर यौन उत्पीड़न की शिकार हैं.
उन्होंने आगे कहा कि महिलाओं को अच्छी स्थिति में लाने के लिए उन्हें अच्छी शिक्षा देनी होगी और असंगठित क्षेत्र में उनकी पहचान किया जाना चाहिए.
बनर्जी ने विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका पर बात की और कहा कि शायद ही कोई पेटेंट महिलाओं के नाम पर दर्ज़ है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)