युद्धोन्माद का चुनावी इस्तेमाल कोई नई बात नहीं

कोई भी पार्टी या नेता युद्ध से लाभ उठाने की पूरी कोशिश करता है. देखना यह है कि पुलवामा की घटना और उसके बाद भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान में की गई एयरस्ट्राइक चुनाव परिणाम को किस तरह प्रभावित करता है.

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The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressing the gathering at a function to commemorate the 75th anniversary formation of the Azad Hind Government, at Red Fort, Delhi on October 21, 2018.

कोई भी पार्टी या नेता युद्ध से लाभ उठाने की पूरी कोशिश करता है. देखना यह है कि पुलवामा की घटना और उसके बाद भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान में की गई एयरस्ट्राइक चुनाव परिणाम को किस तरह प्रभावित करता है.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressing the gathering at a function to commemorate the 75th anniversary formation of the Azad Hind Government, at Red Fort, Delhi on October 21, 2018.
नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

14 फरवरी 2019 को जम्मू कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों द्वारा किए गए आत्मघाती हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गए. इसके बाद जवाबी कार्रवाई करते हुए भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की.

पाकिस्तान पर इस हमले का श्रेय भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मज़बूत नेतृत्व को दिया और कहा कि ऐसा उनके कारण ही संभव हो पाया है. कांग्रेस सहित सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने कहा कि पाकिस्तान पर वायुसेना के हमले का पूरा श्रेय भारतीय सेना को देना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी युद्ध का या हमले का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही है.

इसी कारण पटना की संकल्प रैली में एनडीए के सभी नेताओं ने अपने भाषणों की शुरुआत पुलवामा और पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक से की. विपक्ष चाहता है कि सारा श्रेय भारतीय सेना को मिले और भाजपा को इसका किसी भी तरह का लाभ न मिले.

सवाल यह उठता है कि क्या अब तक की सरकारों ने युद्ध का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश नहीं की है? आज़ादी के बाद से अब तक भारत ने प्रत्यक्ष रूप से चार युद्ध लड़े हैं.

भारत ने पहला युद्ध 1962 में चीन से, दूसरा, तीसरा और चौथा युद्ध क्रमशः 1965, 1971 और 1999 में पाकिस्तान से ही लड़ा. 1999 के युद्ध को ‘कारगिल युद्ध’ के नाम से जाना जाता है.

1962 के भारत-चीन युद्ध का श्रेय कोई भी लेना नहीं चाहता. 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया. भारतीय सेना इस हमले के लिए तैयार नहीं थी. चीन के 80,000 सैनिकों का मुक़ाबला भारत के 20,000 से भी कम जवानों ने किया.

इस युद्ध में भारतीय सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा. उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन थे. युद्ध में नुकसान की सारी ज़िम्मेदारी रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन पर डाल दी गई और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा.

यहां तक कि 1967 के उपचुनाव में कांग्रेस ने उन्हें टिकट भी नहीं दिया. मेनन ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उत्तर-पूर्व बम्बई लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और एक लाख 31 हज़ार वोटों से हार गए. याद रहे कि मेनन कांग्रेस के टिकट पर उत्तर-पूर्व बम्बई लोकसभा क्षेत्र से ही चुनाव जीतकर 1957 और 1962 तक सांसद रहे थे.

1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की चर्चा सबसे कम होती है. 1962 के युद्ध को भारतीय सैनिकों की बहादुरी और कम संसाधनों के साथ मोर्चे पर डटे रहने की जिजीविषा के रूप में याद किया जाता है लेकिन 1965 के युद्ध की चर्चा उससे भी कम होती है.

पहला बड़ा कारण यह है कि इस युद्ध में न तो पाकिस्तान की हार हुई थी और न भारत की जीत. 6 सितंबर 1965 को भारतीय सेना ने वेस्टर्न फ्रंट पर अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार करते हुए युद्ध की घोषणा की थी.

युद्ध के बाद इस दिन को पाकिस्तान में ‘डिफेंस ऑफ पाकिस्तान डे’ मनाया जाता है. पाकिस्तान में प्रत्येक वर्ष इस दिन विजय जुलूस भी निकाला जाता है. भारत ने भी आधिकारिक रूप से घोषणा की कि इस युद्ध में जीत हमारी हुई है.

उस समय भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे. इस युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच ‘ताशकंद समझौता’ हुआ. जब ताशकंद समझौते के लिए लाल बहादुर शास्त्री रूस के दौरे पर थे तो वहीं उनकी मृत्यु हो गई.

आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे अधिक चर्चा 1971 के युद्ध की होती है. 3 दिसंबर 1971 को भारत और पाकिस्तान के बीच पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे पर युद्ध शुरू हुआ. इस युद्ध का सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान दो टुकड़ों में विभाजित हो गया और पूर्वी पाकिस्तान एक नया देश बंग्लादेश के रूप में अवतरित हुआ.

युद्ध के दौरान 91,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया था. 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने सरेंडर कर दिया था.

इस युद्ध का परिणाम भारत के पक्ष में रहा इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस ने पूरा श्रेय लेने की कोशिश की. इसी युद्ध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था.

कांग्रेस पार्टी ने भी 1971 के ‘बांग्लादेश मुक्ति संग्राम’ का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया. पांचवीं लोकसभा का चुनाव 1972 में होना तय हुआ था लेकिन कांग्रेस ने 1971 में ही मध्यावधि चुनाव करवा लिया.

1972 के आरम्भ में देश के कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए. उस समय तक उत्तर प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल अभी बाकी था. इंदिरा गांधी ने सख़्त निर्देश दिए कि जल्दी ही विधानसभा को भंग कर अन्य राज्यों के साथ ही चुनाव कराए जाएं.

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के विरोध के बावजूद विधानसभा को भंग कर दिया गया और 1972 में ही चुनाव कराए गए. इंदिरा गांधी का यह मानना था कि राष्ट्रभक्ति के ज्वार का यथाशीघ्र लाभ उठाया जाए.

समय बीतने के साथ-साथ यह ज्वार कमज़ोर पड़ सकता है. चुनाव से ठीक पहले इंदिरा गांधी ने मतदाताओं को संबोधित करते हुए एक चिट्ठी जारी की थी.

यह चिट्ठी कई भाषाओं में थी जिसमें लिखा गया था…

देशवासियों की एकता और उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठा ने हमें युद्ध में जिताया. अब उसी लगन से हमें ग़रीबी हटानी है. इसके लिए हमें विभिन्न प्रदेशों में ऐसी स्थायी सरकारों की ज़रूरत है जिनकी साझेदारी केंद्रीय सरकार के साथ हो सके.

उस समय की प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ ने अपने 5 मार्च 1972 के अंक में लिखा था…

जहां तक कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र का संबंध है, उसने यह बात छिपाने की कोशिश नहीं की है कि भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व का प्रतीक है और उनके हाथ मज़बूत करने के लिए विभिन्न प्रदेशों में अब कांग्रेस की ही सरकार होनी चाहिए.

1971 के लोकसभा और 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपार सफलता मिली. युद्धों का राजनीतिक लाभ लेने के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल दुर्भाग्यशाली रहे.

1999 में हुए कारगिल युद्ध के समय अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे. कारगिल युद्ध में अपेक्षित सफलता भी मिली लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी को सत्ता गंवानी पड़ी.

शायद कारगिल युद्ध और लोकसभा चुनाव (2004) के बीच लंबा अंतराल होने के कारण राष्ट्रभक्ति का ज्वार कमज़ोर पड़ गया था.

द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल थे. द्वितीय विश्वयुद्ध में लगभग 70 देशों की जल, थल और वायुसेनाएं शामिल हुई थीं. इस युद्ध में पूरी दुनिया दो भागों में बंट गई थी- मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र.

युद्ध में मित्र राष्ट्रों की जीत हुई जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था. चर्चिल ने भी युद्ध की विजय का श्रेय ख़ुद को देने की पूरी कोशिश की थी. ब्रिटेन में युद्ध की विजय के उत्सव भी ख़ूब मनाए गए थे लेकिन उसी वर्ष के जून में जब चुनाव हुए तो चर्चिल की कंजर्वेटिव पार्टी की हार हुई. चर्चिल को विपक्ष में बैठना पड़ा.

कोई भी पार्टी या नेता युद्ध में विजय का लाभ उठाने की पूरी कोशिश करता है. आज जब 2019 के लोकसभा चुनाव में दो महीने से भी कम का समय बचा है ऐसे में देखना यह है कि पुलवामा की घटना और उसके बाद भारतीय वायुसेना द्वारा पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर किया गया एयरस्ट्राइक चुनाव परिणाम को किस तरह प्रभावित करता है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं.)