आख़िर क्यों मनरेगा मज़दूरों को नहीं मिलती उचित मज़दूरी?

देश में दूसरे रोज़गारों की उपलब्धता इतनी कम है कि ग्रामीणों को मजबूरन मनरेगा में काम करना पड़ रहा है. इस स्थिति में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मनरेगा में कार्यरत ग्रामीण बंधुआ मज़दूर बन गए हैं. उनके लिए न तो एक सम्मानजनक मानदेय है और न ही समय पर मज़दूरी मिलने की कोई उम्मीद.

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(फोटो साभार: UN Women/Gaganjit Singh/Flickr CC BY-NC-ND 2.0)

देश में दूसरे रोज़गारों की उपलब्धता इतनी कम है कि ग्रामीणों को मजबूरन मनरेगा में काम करना पड़ रहा है. इस स्थिति में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मनरेगा में कार्यरत ग्रामीण बंधुआ मज़दूर बन गए हैं. उनके लिए न तो एक सम्मानजनक मानदेय है और न ही समय पर मज़दूरी मिलने की कोई उम्मीद.

(फोटो साभार: UN Women/Gaganjit Singh/Flickr CC BY-NC-ND 2.0)
(फोटो साभार: UN Women/Gaganjit Singh/Flickr CC BY-NC-ND 2.0)

महात्मा गांधी रोज़गार गारंटी क़ानून (मनरेगा) वह क़ानून है जिसके अंतर्गत देश में सबसे अधिक व्यक्तियों को रोज़गार मिलता है. प्रत्येक वर्ष लगभग 8 करोड़ ग्रामीणों को इस क़ानून के अंतर्गत ग्रामीण विकास के कार्यों में रोज़गार मिलता है.

मनरेगा के तहत काम करने वाले लोगों के लिए दैनिक मज़दूरी हर साल भारत सरकार द्वारा तय की जाती है ताकि महंगाई के साथ इनकी मज़दूरी भी बढ़े.

केंद्र की मोदी सरकार ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए मनरेगा की मज़दूरी दर की घोषणा कर दी है. इससे पहले कई मीडिया रिपोर्ट ऐसी आईं जिनमें यह जताने की कोशिश हुई कि मनरेगा में कार्यरत करोड़ों मज़दूरों की मज़दूरी दर में वृद्धि के लिए सरकार अपना पूरा ज़ोर लगा रही है और आदर्श आचार संहिता लागू होने के बावजूद सरकार ने चुनाव आयोग से विशेष अनुरोध कर मज़दूरी में बढ़ोतरी की अनुमति मांगी है.

चुनाव आयोग ने इस अनुरोध को स्वीकारते हुए मनरेगा मज़दूरी दर में परिवर्तन की अनुमति प्रदान कर दी. चुनाव आयोग की ओर से कहा गया है कि यह एक नियमित प्रक्रिया है, इसलिए मज़दूरी दरों में संशोधन को अनुमति प्रदान की गई है.

असल में केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा मज़दूरी दर में परिवर्तन की घोषणा किसी राजनीतिक जुमले से कम नहीं, क्योंकि पिछले कई वर्षों से मज़दूरी में मामूली बढ़ोतरी या बढ़ोतरी नहीं होने के कारण देशभर में मनरेगा मज़दूर बेहद हताश हैं. इस वर्ष भी औसत मज़दूरी दर में महज़ 2.16 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हुई है. कई राज्यों में मज़दूरी दर एक रुपये भी नहीं बढ़ी.

पिछले कई वर्षों की तरह इस बार भी मजदूरों को सिर्फ़ निराशा हाथ लगी है और कठिन परिश्रम के बावजूद बेहद कम मज़दूरी दर और साथ में मज़दूरी भुगतान में देरी के कारण अब कई राज्यों में मज़दूर इस काम से मुंह फेर रहे हैं.

विडंबना यह भी है कि देश में दूसरे रोज़गारों की उपलब्धता इतनी कम है कि ग्रामीणों को मजबूरन मनरेगा में काम करना पड़ रहा है. इस स्थिति में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मनरेगा में कार्यरत सैकड़ों ग्रामीण पूरी तरह से बंधुआ मज़दूर बन गए हैं. उनके लिए न तो एक सम्मानजनक मानदेय है और न ही समय पर मज़दूरी मिलने की कोई उम्मीद.

क्यों मनरेगा मज़दूरी में बढ़ोतरी नहीं होती

मनरेगा मज़दूरी दर में महंगाई के साथ उचित बढ़ोतरी होती रहे, इसके लिए इसे महंगाई मापने के सूचकांक के साथ जोड़ा गया है. दुखद यह है कि महंगाई के जिस सूचकांक से इसे जोड़ा गया है, वह बहुत पुराना है और आज के ज़माने में महंगाई को सही से नहीं दर्शा पाता.

इस साल भी ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कृषि मज़दूरी के लिए बनाए गए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कंज़्यूमर प्राइस इंडेक्स-एग्रीकल्चर लेबरर यानी सीपीआई-एएल) के आधार पर मज़दूरी बढ़ाई गई है.

मंत्रालय पिछले दो वर्षों के दिसंबर महीने के सीपीआई-एएल के आंकड़ों की तुलना कर उसके अंतर के आधार पर किसी वित्तीय वर्ष की मनरेगा मज़दूरी दर तय करती है.

उदाहरण के तौर पर 2018-19 का मज़दूरी दर तय करने के लिए दिसंबर 2017 और दिसंबर 2018 के सीपीआई-एएल आंकड़ों में वृद्धि के आधार पर ग्रामीण विकास मंत्रालय विभिन्न राज्यों की मज़दूरी दरों में संशोधन करती है.

सौभाग्य से ग्रामीण विकास मंत्रालय के एक दिशानिर्देश के अनुसार, किसी एक वर्ष की मनरेगा मज़दूरी दर पिछले वर्ष की मज़दूरी दर से कम नहीं हो सकती है. इसलिए यदि किसी वित्त वर्ष के दिसंबर महीने का सीपीआई-एएल पिछले वर्ष के दिसंबर के आंकड़े से कम है तो मज़दूरी दर अपरिवर्तित रहती है.

अब विडंबना यह है कि मज़दूरी दर तय करने की यह विधि दिसंबर के अलावा अन्य महीनों के सीपीआई-एएल के आंकड़ों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर देती है जो कि बहुत व्यवहारिक नहीं है.

उल्लेखनीय है कि दिसंबर में राज्यों में खाद्यान्न तथा अन्य खाद्य पदार्थों के मूल्य आम तौर पर कम होते हैं और यह महीना फसल कटाई का भी होता है. अगर सीपीआई-एएल के आंकड़ों पर ही गणना करनी थी तो सिर्फ़ दिसंबर के आंकड़ों के बजाय साल भर के सीपीआई-एएल का एक औसत आंकड़ा लेना अधिक उचित तरीका होता.

हालांकि, केंद्र सरकारों ने कभी तर्क और वास्तविकता की परवाह नहीं की है. हर राज्य में मनरेगा मज़दूरी अलग-अलग होती है. इस तरह जिन राज्यों में खाद्य पदार्थों में अधिक सब्सिडी दी जाती है, उन राज्यों में सीपीआई-एएल में और फलस्वरूप मज़दूरी दर में कम बढ़ोतरी होती है.

इन सबके परिणामस्वरूप झारखंड जैसे राज्य में मज़दूरी दर में वृद्धि नहीं हो पाती है. झारखंड गंभीर भूख और कुपोषण के मुद्दों से जूझ रहा है और राज्य में मनरेगा मज़दूरी के ऊपर लोगों की काफ़ी निर्भरता भी है.

2018-19 में झारखंड में मनरेगा मज़दूरी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई थी जबकि 2019 में महज़ तीन रुपये की बढ़ोतरी हुई है. पिछले पांच वर्षों में झारखंड में मज़दूरी दर सिर्फ़ 13 रुपये ही बढ़ी है.

इस तरह एक त्रुटिपूर्ण गणना प्रक्रिया के कारण सबसे ग़रीब राज्यों में मज़दूरों को मनरेगा में काम करते हुए भी कोई राहत नहीं मिल पाती है.

स्वयं केंद्र सरकार द्वारा समय-समय पर गठित विभिन्न समितियों ने बार-बार यह सुझाव दिया है कि मनरेगा मज़दूरी को सीपीआई-ग्रामीण से जोड़ा जाए. सीपीआई-ग्रामीण के आधार पर मनरेगा मज़दूरी की गणना करने से केंद्र सरकार मज़दूरी में अधिक बढ़ोतरी करने में सक्षम होगी.

2014 में गठित प्रो. महेंद्र देव कमेटी ने सुझाव दिया था कि मनरेगा मज़दूरी को राज्य की न्यूनतम मज़दूरी से जोड़ा जाना चाहिए और यह सुझाव दिया था कि किसी राज्य की मनरेगा मज़दूरी दर किसी भी हालत में राज्य की न्यूनतम मज़दूरी दर से कम नहीं होनी चाहिए.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

हालांकि सरकार ने इस सुझाव पर कुछ नहीं किया और बाद में नागेश सिंह के नेतृत्व में एक और कमेटी का गठन किया जिसने मनरेगा मज़दूरी को राज्य की न्यूनतम मज़दूरी से जोड़ने की पूर्व की सिफ़ारिशों को ख़ारिज कर दिया था, लेकिन यह सुझाव दिया था कि मनरेगा मज़दूरी को सीपीआई-ग्रामीण से जोड़ा जाना चाहिए.

हाल ही में प्रोफेसर अनूप सत्पथी के नेतृत्व में गठित एक केंद्रीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि मनरेगा मज़दूरी को सीपीआई-ग्रामीण से जोड़ा जाना चाहिए और यह भी कहा कि राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी दर 375 रुपये होनी चाहिए. हालांकि सरकार ने इनमें से किसी भी सुझाव को अब तक लागू नहीं किया है.

वर्तमान में 33 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में मनरेगा मज़दूरी दर राज्यों की न्यूनतम मज़दूरी दर से भी कम है और चुनाव के पहले मनरेगा मज़दूरी दर में मामूली बढ़ोतरी कर मोदी सरकार ने यह साफ़ कर दिया के भाजपा के चुनावी मुद्दों में भी मज़दूरों के लिए कोई जगह नहीं है.

उल्लेखनीय है फरवरी 2019 में देशभर के हज़ारों मनरेगा मज़दूरों ने सरकार पर काम न मिलने, मज़दूरी नहीं मिलने, मज़दूरी मिलने में लंबी देरी, उचित क्षतिपूर्ति राशि नहीं मिलने, मनरेगा मज़दूरी न्यूनतम मज़दूरी से भी कम होने जैसे गंभीर आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ देशभर के 150 से अधिक थानों में एफआईआर दर्ज कराई थे.

यह एक गंभीर चिंता का विषय है कि हर साल पहले 6-7 महीनों में ही मनरेगा के बजट का करीब 85-90 प्रतिशत पैसा ख़त्म हो जाता है और केंद्र सरकार द्वारा मज़दूरी रोक दी जाती है और लंबे समय तक मज़दूरों को अपनी मज़दूरी के लिए इंतज़ार करना पड़ता है.

2018-19 में दो बार करीब दो महीने से अधिक समय के लिए केंद्र सरकार से मज़दूरी रोक दी गई थी जबकि 2017-18 में पूरे वित्त वर्ष के दौरान तीन बार एक महीने या उससे अधिक समय तक मज़दूरी रुकी हुई थी.

इस तरह हर वर्ष अपर्याप्त राशि आवंटन के कारण ग्रामीण कार्य प्रभावित होते हैं और मनरेगा मज़दूरों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. कई मज़दूर ऐसी स्थिति में आसपास या शहरी इलाकों में पलायन करने में मजबूर हो जाते है.

सरकार की अपनी वेबसाइट के हिसाब से 2018-19 का क़रीब 1453 करोड़ रुपये मज़दूरी भुगतान अभी भी लंबित है और पिछले वर्षों के करीब 1822 करोड़ रुपये (मनरेगा वेबसाइट के अनुसार 29 अप्रैल 2019 तक जारी आंकड़े) की मज़दूरी का भुगतान लंबित है.

यह स्पष्ट है कि रोज़गार की कमी के कारण मनरेगा में काम की मांग पिछले वर्ष काफ़ी ज़्यादा थी, लेकिन लगातार मज़दूरी मिलने में देरी और अपर्याप्त बजट आवंटन के कारण मनरेगा के कार्यों में रुकावट आ रही थी.

पिछले साल मनरेगा के मद में 61,084 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, जिसे वित्त वर्ष 2019-20 में घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है; जिसका सीधा मतलब है कि कुछ ही महीने के अंदर ज़्यादातर राशि ख़त्म हो जाएगी और फिर केंद्र सरकार की तरफ से मज़दूरी रोक दी जाएगी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मज़दूरों को काम करने के बावजूद अपनी मज़दूरी समय पर नहीं मिल पाएगी .

हाल ही में भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी संकल्प पत्र में घोषणा की है और इसमें मनरेगा को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है. जबकि देशभर के 13 करोड़ से अधिक ग्रामीण परिवार मनरेगा के ऊपर निर्भर हैं.

भाजपा के घोषणा-पत्र में मनरेगा के लिए कोई बड़ी घोषणा न होना अपनेआप में यह दर्शाता है कि रोज़गार की उपलब्धता भाजपा की प्राथमिकता नहीं है. मनरेगा ही एक ऐसी योजना है जिससे न केवल ग्रामीण रोज़गार की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है बल्कि ग्रामीण संसाधनों का विकास और परिसंपत्तियों के निर्माण से ग्रामीण क्षेत्र में संपूर्ण विकास का पहल की जा सकती है.

मनरेगा हर सामाजिक और आर्थिक वर्ग के ग्रामीण परिवारों को समान अवसर प्रदान करता है और महिला और पुरुषों को समान मज़दूरी पाने का अधिकार भी देती है. गरीबी और रोज़गार से जुड़ी समस्याओं का हल करने के लिए मनरेगा को मज़बूत करने की आवशकता है.

भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में मनरेगा को अनदेखा कर देने का अर्थ यही है कि भाजपा ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा तो लगा रही है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार के सृजन और संसाधनों का विकास कर ग्रामीण परिवारों को आजीविका का अवसर प्रदान करना भाजपा की प्राथमिकता में नहीं है.

ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भाजपा सरकार आख़िर किसका साथ दे रही है और किसका विकास कर रही है?

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)