लोग कह रहे हैं कि इस चुनाव में भाजपा का भरोसा छूट रहा है, उसने साध्वी को लाकर ब्रह्मास्त्र चलाया है. यह परीक्षा वास्तव में भाजपा की नहीं है, यह हिंदुओं का इम्तिहान है. क्या वे धर्म के इस अर्थ को स्वीकार करने को तैयार हैं?
साध्वी कहलाने वाली प्रज्ञा सिंह को भोपाल लोकसभा चुनाव क्षेत्र से अपना उम्मीदवार घोषित करके भारतीय जनता पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि क़ानून पर आधारित समाज के उसूल में उसका कोई यकीन नहीं है.
प्रज्ञा सिंह मालेगांव दहशतगर्द हमले की अभियुक्त हैं. दिसंबर 2017 में मुंबई की अदालत ने उन्हें इस मामले से बरी किए जाने की उनकी अर्जी को खारिज कर दिया था. यह तब, जब खुद नेशनल इनवेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) ने अदालत के सामने प्रज्ञा सिंह की संलिप्तता पर संदेह व्यक्त किया था.
प्रज्ञा ठाकुर पर आरोप है कि मालेगांव आतंकवादी हमले में उनकी मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया गया था. अदालत का कहना था कि न सिर्फ उनकी मोटर साइकिल का इस्तेमाल बल्कि इस हमले की साजिश में भी उनके शामिल होने के प्रमाण हैं.
यह साजिश थी ऐसी जगहों पर हमलों की, जहां मुसलमान ज़्यादा तादाद में हों. अदालत ने कहा था कि इस तरह की साजिश में किसी खुले प्रमाण का मिलना असंभव है और खुली अदालत में इसकी पूरी जांच की जानी चाहिए.
उसके पहले इंडियन एक्सप्रेस को एक इंटरव्यू में सरकारी वकील रोहिणी सालियान बता चुकी थीं कि एनआईए उन पर अभियुक्तों के खिलाफ मामले को कमजोर करने के लिए दबाव डाल रही थी. वे इसी वजह से इस मुक़दमे से अलग भी हो गईं.
समझौता एक्सप्रेस पर आतंकवादी हमले के मामले में अभियुक्तों को बरी करते हुए न्यायाधीश ने अफ़सोस जताया था कि एनआईए ने सबूत कायदे से पेश नहीं किए. न्यायाधीश की टिप्पणी से निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं कि एजेंसी ने मामले को कमजोर किया जिससे अभियुक्त बरी हो जाएं.
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प्रज्ञा सिंह, कर्नल पुरोहित आदि की गिरफ्तारी के पीछे पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की बारीक पड़ताल और जीवट भरी जांच थी. उन्होंने सुराग इकट्ठे किए और मालेगांव हमले में शामिल लोगों के बीच रिश्तों के तार मिलाते हुए साजिश की तस्वीर खींची. प्रज्ञा सिंह इसका एक अहम हिस्सा थीं.
करकरे के खिलाफ भी शिवसेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठनों ने घृणा अभियान चलाया. यह कहकर कि आखिर हिंदू कैसे आतंकवादी हमले में शामिल हो सकते हैं?
यह याद रखने की ज़रूरत है कि आतंकवादी हिंसा भी हिंसा ही है. क्या हिंदुओं में गुंडे, हत्यारे नहीं? आतंकवाद एक ऐसी हिंसा है जिसे, जितने लोग उस वक्त हिंसा की जद में आते हैं, उनसे कहीं अधिक बड़ी आबादी को दहशत में डालने के मकसद से किया जाता है.
फिर मालेगांव या समझौता एक्सप्रेस की हिंसा के अभियुक्तों के लिए भाजपा क्यों दलील दे रही है?
उनके लिए जमानत मांगते हुए उनके प्रति अदालत की दया उपजाने के लिए उन्हें शारीरिक रूप से अक्षम और बीमार बताया गया था. उनकी उम्मीदवारी के ऐलान पर मालेगांव हमले के शिकार लोगों के वकील ने कहा कि अब वे कैसे चुनाव प्रचार के योग्य हो गई हैं!
क्या हमें प्रज्ञा सिंह के भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रत्याशी चुने जाने पर हैरानी है? क्या हमें इससे उबकाई आ रही है कि अब संसद में ऐसे लोग पहुंच सकते हैं? क्या यह सभ्यता के विरुद्ध लग रहा है?
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के 27 साल हो गए. वह एक अजब आतंकवादी हमला था जिसका इंतज़ार देश की सरकारें और न्यायपालिका भी कर रही थीं. उस दहशतगर्द कार्रवाई का जिम्मा लेने वाले बाल ठाकरे को मौत के बाद राष्ट्रीय सम्मान दिया गया.
बाबरी मस्जिद ध्वंस अभियान के नेता को हमने देश का उपप्रधानमंत्री बनते हुए देखा. और उसके बाद गुजरात जनसंहार के नायक को प्रधानमंत्री बनते हुए भी. लेकिन उसके भी पहले भारत के सबसे सम्मानित व्यक्ति गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल लेकिन सीधे सबूत के अभाव में छूट निकलने वाले सावरकर की तस्वीर संसद में सादर लगाई गई.
फिर देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री एक ऐसे व्यक्ति को बनाया गया, जो अपने मुसलमान विरोध को खुलकर व्यक्त करता है और इसका आनंद भी लेता है. अब आश्चर्य क्यों?
लोग कह रहे हैं कि चूंकि इस चुनाव में भाजपा का भरोसा छूट रहा है, उसने ब्रह्मास्त्र चलाया है. इससे हिंदुओं का अपनी ओर ध्रुवीकरण कर पाने में वह कामयाब रहेगी, ऐसा उसे यकीन है. प्रज्ञा सिंह ने इस चुनाव को ‘धर्म युद्ध’ कहा है. वे भगवा को सम्मान दिलाने का संकल्प कर रही हैं.
यह परीक्षा वास्तव में भारतीय जनता पार्टी की नहीं है. यह पार्टी हिंदुओं का अपमान कर रही है. वह उनकी परीक्षा ले रही है. वह यह देखना चाहती है कि उन्हें कितना नीचे घसीटा जा सकता है. यह हिंदुओं का इम्तिहान है.
क्या वे धर्म के इस अर्थ को स्वीकार करने को तैयार हैं? और क्या वे भाजपा के साथ नीचे और नीचे गिरते जाने को भी तैयार हैं?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)