देश में चुनाव हो रहे हैं और लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर चिंताएं गहराती जा रही हैं. लोग बदहाल ज़िंदगियां जी रहे हैं, बीमारी, भूख, अत्याचार, दुर्घटना और हिंसक हमलों में मारे जा रहे हैं. अपमानित किए जा रहे हैं. उनके अधिकार दिन-ब-दिन कमज़ोर किए जा रहे हैं.
हम एक अनोखे मुकाम पर खड़े हैं; देश में चुनाव हो रहे हैं और लोकतंत्र के भविष्य और जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर चिंता गहराती जा रही है. क्या चुनाव वो जादुई कालीन नहीं बताए गए थे, जिन पर सवार होकर लोकतंत्र हमारी उम्मीदों के आसमान में एक खुशहाल भविष्य के रंग बिखेरने वाला था?
फिर ऐसा क्यों है कि ठीक चुनावों के दौरान समाज में बेचैनी और चिंताएं मज़बूत हो रही हैं? ऐसा क्यों है कि हम ख़ुद को एक दीवार के सामने खड़े पा रहे हैं, जिस पर लिखी इबारत हम पढ़ तो पा रहे हैं लेकिन समझ नहीं पा रहे हैं?
यह दीवार कैसी है? यह बेचैनी इतनी गहरी क्यों है? इस इबारत का मतलब क्या है?
हम जो देख पा रहे हैं वो यह है; युवाओं के पास रोज़गार नहीं हैं, किसानों के लिए खेती महंगी और उपज सस्ती होती जा रही है, इलाज पर होने वाला ख़र्च दिनोंदिन बढ़ रहा है जबकि लोगों को सरकार की तरफ से ख़ास कोई मदद नहीं मिल रही, पढ़ाई करना न सिर्फ़ महंगा होता जा रहा है बल्कि ख़ासकर वंचित तबकों और महिलाओं के लिए मुश्किल भी बनाया जा रहा है.
महिलाओं, वंचित तबकों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के अधिकार, सम्मान और जीवन पर ख़तरे कहीं अधिक गहरे हुए हैं. असहमति की आवाज़ें न सिर्फ़ दबाई जा रही हैं, बल्कि दमनकारी मशीनरी का उपयोग लोगों को चुप कराने में किया जा रहा है. और इसे राज्य के मज़बूत होने की निशानी के रूप में पेश किया जा रहा है.
एक के बाद एक सरकारें आती गई हैं जिन्होंने दावा किया कि वो सबके साथ हैं और सबके हालात बेहतर होंगे. लेकिन अंत में हमने देखा कि उनकी मौजूदगी सिर्फ चुनिंदा लोगों की बेहतरी की वजह बनी.
हमने पार्टियां देखीं जो व्यवस्था में बदलाव लाने के नारों के साथ सत्ता में आईं और व्यवस्था में बदल गईं. नेताओं ने वादे किए, लेकिन उन्हें पूरा करने का दावा नहीं किया. जनता सपने देखती रही, लेकिन सवाल पूछना जुर्म बना दिया गया.
ये हालात एक संकट की अभिव्यक्ति हैं. लेकिन उतना ही ये उस संकट का नतीजा भी हैं.
यह संकट क्या है?
समझने के लिए इस संकट को हम चार बिंदुओं में रखकर देखेंगे. वास्तव में ये बिंदू फ्रांसीसी दार्शनिक और गणितज्ञ अलां बादिऊ के विश्लेषण पर आधारित हैं, लेकिन हम इन्हें अपने समाज की ख़ासियतों के हिसाब से समझने की कोशिश करेंगे.
पहली स्थिति उत्पादन और शासन के प्रभुत्वशाली ढांचे से जुड़ी है. देश के राज-समाज पर एक प्रभुत्वशाली तबका ही कायम रहा है. ऐतिहासिक रूप से यह प्रभुत्व जन्म के आधार पर तय होता रहा है. राज्य समर्थित पूंजीवाद के दौर में सभी जगहों पर इसी तबके को विशेषाधिकार हासिल थे.
वैश्वीकरण लागू हुआ तो इसे कहीं अधिक खुलकर सामने आने की छूट मिल गई, क्योंकि तब उनके सामने कोई सार्वजनिक सीमा भी नहीं रह गई थी. वहीं दूसरी तरफ समाज में बदहाल होते जा रहे लोगों को मिलने वाली सरकारी गारंटियां ख़त्म या बेअसर होती गई हैं.
इसने लोगों में जीवन को लेकर असुरक्षा बढ़ाया है. हमारे पास नीचे से, सामाजिक रूप से इस प्रभुत्व को एक चुनौती मिल रही है. लेकिन राजनीतिक रूप से न तो ब्राह्मणवाद को चुनौती मिल पा रही है और न ही पूंजीवाद को- जिसे बाबासाहेब आंबेडकर ने जुड़वां दुश्मन बताया था.
राजनीतिक चुनौती की कमी ही दूसरा बिंदू है. यह सही है कि पहले की तुलना में देश में कहीं अधिक पार्टियां हैं और वे कहीं अधिक संख्या में लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. इस मामले में विविधता आई है. लेकिन शासन और सियासत के लिहाज़ से कुल मिलाकर पार्टियों के बीच फ़र्क़ बेमानी होता गया है- भविष्य के नज़रिये और योजनाओं के मामले में उनमें बहुत अंतर नहीं है.
इसे पार्टियों के सत्ता में आने के अनुभवों से देखा जा सकता है. लोगों की रोज़मर्रा की स्थिति में कोई नाटकीय बदलाव नहीं आता. एक सरकार अपनी जिस नीति को लागू नहीं कर पाती, विपक्षी पार्टी सत्ता में आने पर उसे लागू कर देती है और उसका श्रेय भी लेती है.
बात छोटे-मोटे अंतरों की नहीं है. हम समाज को चलाने और बदलने के एक व्यापक नज़रिये की बात कर रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि सभी पार्टियां आपस में एक दूसरे के समान हैं.
उनकी समानता इस मायने में है कि वे कोई मूलगामी नया नज़रिया या राजनीतिक कार्रवाई सामने नहीं ला पा रही हैं. इस मायने में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उन्होंने अपनी अहमियत को बेमानी बना दिया है.
इसके नतीजे में लोगों की हताशा बढ़ती जा रही है. हालात का यह तीसरा पहलू है. लोग बदहाल ज़िंदगियां जी रहे हैं, बीमारी से, भूख से, अत्याचारों और हिंसक हमलों में, दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हैं. अपमानित किए जा रहे हैं.
उनके अधिकार दिन-ब-दिन कमज़ोर किए जा रहे हैं. देश के नागरिक होने का मतलब सिर्फ़ ज़िंदा रहना और वोट डालना बना दिया गया है.
हालांकि अब तो इसमें भी बदलाव आया है. अब किसी एक ख़ास धर्म और जाति का होना और एक ख़ास पार्टी का समर्थन करना इसकी शर्त है. लेकिन मोटे तौर पर, इस बदहाली में जनता के पास इसका कोई विकल्प नहीं है कि वह किस पार्टी के पास जाए. कौन सी पार्टी उसके हालात को सचमुच समझती है और उसको उबार सकती है? कोई नहीं.
इसलिए उसमें भारी हताशा है. और जो हताश नहीं हैं, वे असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इस हद तक असुरक्षित हैं कि वे उन्माद की हद तक जाकर अपनी ज़िंदगी के मौजूदा स्तर को कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं.
शहरी और कस्बाई मध्य वर्ग के उन्माद और हिंसा को इस तरह समझा जा सकता है. एक दिशा का अभाव और हालात के बेहतर होने के भरोसे की कमी ने इस समाज में एक भारी उथल-पुथल पैदा की है.
अगर लोग सड़कों पर हिंसा और हंगामे करने के लिए उतर जा रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए नहीं कि एक पार्टी या संगठन उनको इसके लिए उकसा रहा है. वे एक ऐसी खोखली ज़मीन पर खड़े हैं जहां चीज़ें तेज़ी से तबाह हो रही हैं. और वे बेचैनी महसूस कर रहे हैं.
ऐसा इसलिए हुआ है कि सियासत ने हालात को जस का तस कबूल कर लिया है. यह कबूल कर लिया है कि चीज़ें जैसी हैं, वैसी ही रहती आई हैं.
80-90 के दशक में चलाए गए उस मुहावरे को अपना दर्शन बना लिया गया है कि अब कोई विकल्प नहीं बचा है. कहने का मतलब यह नहीं है कि लोग विकल्प सोच नहीं रहे हैं, या किसी के पास भी कोई नज़रिया नहीं है, या सभी लोगों ने विकल्पहीनता को स्वीकार कर लिया है.
कहने का मतलब यह है कि जहां कहीं विकल्प का यह नज़रिया मौजूद भी है या जन्म ले रहा है, उसमें इतनी ताक़त नहीं है कि वो इसे एक विकल्प के रूप में पेश कर सके.
लोगों के पास जाने, उनको एक नया विकल्प देने, उनको गोलबंद करने, उनकी मदद करने और उनसे मदद लेने, उनको संगठित करने का कोई भी कारगर और नया नज़रिया हमारे समाज में नहीं है.
सही है कि यह तस्वीर बहुत हताशा भरी लगेगी. लेकिन यह हताशा ही हमारे समय की सच्चाई है. जिसे हम निरंकुश या फासीवादी राजनीति कह रहे हैं, वह एक सचमुच की सामाजिक दशा पर खड़ी होती है.
इसका आधार, एक ठोस आधार होता है. अगर किसी समाज में जुमले काम कर जा रहे हों और लोग उन पर दोबारा भरोसा करने को तैयार हों तो यह समझा जा सकता है कि उस समाज में जीवन और समझ के स्तर को कितने निचले स्तर पर गिरा दिया गया है.
हम यहां कैसे पहुंचे?
सबसे पहले तो हमने नई राजनीतिक कल्पनाएं करना और नए विचारों पर सोचना बंद कर दिया. सियासत बस पहले से तय किए गए बक्सों में ही करतब और पैंतरेबाज़ी करने की कार्रवाई बन कर रह गई.
यह समझ ख़त्म कर दी गई कि सियासत का काम समाज को आगे ले जाने का एक नज़रिया देना है. यह बात हम कभी समझ नहीं पाए कि सियासत कोई वादा नहीं, असल में इंसाफ़ पर अमल करने का दूसरा नाम है.
इतिहास का कोई भी दौर रहा हो, एक समाज तभी आगे बढ़ पाता है जब उसके पास अपने भविष्य को लेकर एक वैकल्पिक नज़रिया हो. सत्ताधारी नज़रिये के मुक़ाबले बुनियादी तौर पर अलग एक दूसरा नज़रिया.
दुनिया के इतिहास में और देश के इतिहास में भी, यह स्थिति हमेशा से रही है. बुद्ध ने यही किया था. हिंदी पट्टी की लोकप्रिय यादों में कबीर की मौजूदगी इसी वैकल्पिक नज़रिये से जुड़ी हुई है. यह सिर्फ़ कुछ एक मिसालें हैं.
यह प्रक्रिया तब अहम हो गई जब शासन चलाने के लिए जन्म, सैनिक ताकत और ज़मीन के टुकड़े पर क़ब्ज़ा होने से ज़्यादा अहम हो गया जनता की राय और समर्थन. जब सचमुच में उस चीज़ की शुरुआत हुई जिसे हम राजनीति कहते हैं.
औपनिवेशिक दौर में हम इस सवाल को बहुत साफ़ तौर पर उभरते हुए देखते हैं. तब न सिर्फ़ यही सवाल अहम रूप से उठाया जाता है कि समाज को आगे ले जाने का नज़रिया क्या होगा और राजनीति क्या होगी, बल्कि इस बात की भी एक मज़बूत चुनौती पेश की जाती है कि इन मुद्दों पर सोचने के मुख्य बिंदू क्या होंगे. बहस की धुरी क्या होगी.
इस अर्थ में पहली बार दक्षिण के गैर-ब्राह्मण आंदोलन, पश्चिम में सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले की क्रांति और फिर आंबेडकर का आना एक साफ़ और नई लकीर खींचता है. इसमें कम्युनिस्ट संगठनों, भगत सिंह और बिरसा मुंडा का नाम भी जोड़ा जा सकता है.
इन्होंने राजनीति के लिए एक ऐसी परिकल्पना की संभावना पेश की जो अब तक इस देश के लिए नई थी. उनकी मौजूदगी ने औपनिवेशिक सत्ता और उसका विरोध कर रही राजनीति की बुनियादी कमियों को रेखांकित किया.
आज़ादी के बाद भी, इस वैकल्पिक नज़रिये का सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ. जनता के अधिकारों को लेकर समय-समय पर चलने वाले छोटे-बड़े आंदोलन इसके गवाह हैं. लेकिन इसी बीच धीरे-धीरे यह प्रक्रिया कमज़ोर पड़ती गई. विकल्प था भी तो वह विकल्प के रूप में सामने आना बंद हो गया.
आज यह संकट इसीलिए हमारे सामने है क्योंकि इस बात को स्वीकार कर लिया गया कि पूंजी और जाति के बुनियादी समीकरण वही बने रहेंगे, जो पहले से हैं. इस समीकरण को बदलना मुमकिन नहीं है.
अगर हमें ऐसे में विकल्प की बात सोचनी है तो वो यही हो सकती है कि हम एक बिल्कुल ही नई दुनिया की कल्पना लेकर आएं. यह कल्पना शुरुआत में आधी-अधूरी लग सकती है, इसमें खामियां हो सकती हैं, लेकिन इस कल्पना को बुनियादी तौर पर उन दलीलों और मुहावरों से बाहर आना होगा, जिसमें मौजूदा राजनीति चल रही है.
इसे अपनी दलीलें क़ायम करनी होंगी. मौजूदा दुनिया की सीमाओं से आगे जाकर एक नई दुनिया का विचार पेश करना होगा.
इसके बीज भी हमारे दौर की राजनीति में ही हैं. अनगिनत आंदोलन इसी दौर में चल रहे हैं. इन आंदोलनों से सियासत की नई धाराएं और शख़्सियतें पैदा हो रही हैं. इन वैकल्पिक धाराओं के बीच मतभेद हैं.
राजनीति के लिए यह एक अच्छा संकेत है. क्योंकि जैसा कि बादिऊ कहते हैं, जब किसी भी दायरे में सिर्फ़ एक राजनीतिक नज़रिया बचता है तो वहां राजनीति धीरे-धीरे ख़त्म हो जाती है. लेकिन ये नज़रिये वास्तव में राजनीति को बदल पाएं, इसके लिए इन्हें अभी बहुत आगे जाना होगा.
उनकी मंज़िल उस दीवार के पार है, जिससे आज हम रूबरू हैं. और उनके पास असल में कोई जादुई कालीन नहीं है.