राजस्थान में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीणा ने 17 टिकट अपने चहेतों को दिलवाए थे, इन सभी को हार का सामना करना पड़ा था. इस बार लोकसभा चुनाव में मीणा की पसंद के किसी भी प्रत्याशी को भाजपा ने टिकट नहीं दिया.
जयपुर: साल 2006 था और राजस्थान में गुर्जर पहली बार आरक्षण की मांग को लेकर करौली ज़िले के हिंडौन शहर में सड़कों पर उतरे थे. तब गुर्जर ख़ुद को अनुसूचित जनजाति (एसटी) में शामिल करने की मांग कर रहे थे.
इस मांग के विरोध में पूर्वी राजस्थान में मीणाओं का आंदोलन उभरा, जिसका नेतृत्व किरोड़ी लाल मीणा ने किया. राजस्थान सरकार में तब खाद्य मंत्री किरोड़ी लाल मीणा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया से मुलाकात कर जनजातीय आरक्षण से छेड़छाड़ नहीं करने की मांग की.
2007 में गुर्जर आंदोलन हिंसक हुआ और पूरे राजस्थान में फैल गया. उसी दौरान किरोड़ी लाल मीणा का बंगला गुर्जर आंदोलन के विरोध का केंद्र बन गया.
गुर्जर समाज की आरक्षण की मांग के विरोध में लालसोट में गुर्जर और मीणा समुदाय के बीच खूनी संघर्ष हुआ, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई. सरकार गुर्जर समाज से सुलह में जुटी थी उसी दौरान किरोड़ी लाल मीणा ने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और मीणा समाज के मसीहा के तौर पर उभर गए.
किरोड़ी का उभार का इतना असर था कि पूर्वी राजस्थान में उनके नाम से लोकगीत तक बनने लगे थे.
लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए किरोड़ी लाल मीणा के गुर्जर आंदोलन के दौरान ही वसुंधरा राजे से सियासी संबंध लगातार बिगड़ते गए और 2008 में किरोड़ी को भाजपा से निकाल दिया गया.
किरोड़ी को मीणाओं का समर्थन ही था कि 2008 के विधानसभा चुनाव में करौली ज़िले की टोडाभीम सीट से निर्दलीय चुनाव जीते और पत्नी गोलमा देवी को भी दौसा ज़िले की महुआ सीट से चुनाव जितवाकर कांग्रेस सरकार में मंत्री बनवा दिया, लेकिन किरोड़ी लाल मीणा कांग्रेस के साथ भी मन नहीं बिठा पाए.
2009 के आम चुनावों में दौसा सीट से किरोड़ी लाल मीणा निर्दलीय लड़े और जीत गए, लेकिन राज्य की राजनीति के मोह में 2013 विधानसभा चुनाव आते-आते पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल हो गए.
2008 से 2013 के इन पांच सालों में किरोड़ी लाल मीणा का प्रभाव लगातार कम होता गया. मीणा ने 2013 में 200 में से 150 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन सिर्फ चार सीटें ही जीत पाए.
ये किरोड़ी लाल मीणा की उनकी जाति में घटते वर्चस्व का नतीजा ही था कि इस चुनाव में किरोड़ी लाल मीणा की पार्टी को सिर्फ चार फ़ीसदी वोट मिले. लोकप्रियता कम होने का एक तथ्य यह भी है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में किरोड़ी लाल मीणा और पत्नी गोलमा देवी के अलावा कोई और मीणा नेता चुनाव नहीं जीत पाया.
2013 के बाद से किरोड़ी लाल मीणा महज़ एक विधायक के तौर पर ख़ुद को कमतर महसूस करने लगे और 2018 के विधानसभा चुनाव आने से पहले ही संघ और अमित शाह के कहने पर वापस बीजेपी में चले आए. करीब 10 साल बाद किरोड़ी लाल मीणा की ‘घर वापसी’ हुई और बीजेपी ने उन्हें इसका इनाम देते हुए राज्यसभा भेज दिया.
विधानसभा चुनावों में 17 टिकट दिलवाए, सभी हार गए
2018 में बीजेपी में फिर से आने के बाद किरोड़ी लाल मीणा को राज्यसभा की सांसदी मिली. उनके भाजपा में शामिल होने से पार्टी राजस्थान में एसटी वर्ग के प्रभाव वाली करीब 45 सीटों पर अपना फायदा देख रही थी.
बीजेपी और संघ से जुड़े कुछ नेताओं की मानें तो प्रदेश के पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में किरोड़ी लाल मीणा ने 17 टिकट अपने चहेतों को दिलवाए. इनमें उनकी पत्नी गोलमा देवी और भतीजे राजेंद्र मीणा भी शामिल थे.
राजेंद्र मीणा को भाजपा नेता ओम प्रकाश हुड़ला का टिकट काटकर मौका दिया गया. हुड़ला से किरोड़ी की पुरानी सियासी अदावत रही है. इन सभी सीटों पर बीजेपी हार गई.
गोलमा को कांग्रेस के रमेश मीणा ने हराया तो राजेंद्र मीणा को बीजेपी के बागी ओमप्रकाश हुड़ला ने निर्दलीय होकर भी हरा दिया. किरोड़ी ने भरतपुर, धौलपुर, करौली और दौसा ज़िले की करीब 17 सीटों पर अपनी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट दिलवाए थे.
हालांकि किरोड़ी लाल मीणा ने हार की ज़िम्मेदारी सार्वजनिक रूप से नहीं लेते हैं. कहते हैं, ‘भरतपुर और धौलपुर में सीट हारे लेकिन इसका ज़िम्मेदार मैं कैसे हो गया? करौली में पैराशूट उम्मीदवारों को टिकट दिया, गोलमा को मेरी सहमति के बिना सपोटरा से लड़ाया. मेरे कहने पर टिकट नहीं दिए, सब झूठी बातें हैं.’
हालांकि यह सच है कि विधानसभा चुनावों में पूर्वी राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, करौली जैसे भाजपाई विचारधारा के ज़िलों में हारने के कारण पार्टी का किरोड़ी लाल मीणा में विश्वास कम हुआ है.
बीजेपी के एक नेता बताते हैं, ‘हमने पूर्वी राजस्थान में किरोड़ी लाल मीणा ने जिसके लिए कहा उसे टिकट दिए लेकिन हम सारी सीटें वहां हार गए. अगर पार्टी थोड़ा तरीके से टिकट बांटती तो शायद प्रदेश में आज हमारी सरकार होती या हम 85-90 सीटों के आसपास होते. लोकसभा चुनावों में दौसा से उन्होंने पत्नी के लिए टिकट मांगा लेकिन आलाकमान के चाहते हुए भी टिकट नहीं दिलवा पाए.’
भाजपा नेता आगे कहते हैं, ‘यह एक नेता की सियासी मौत ही है कि जिस क्षेत्र में कभी उसका वर्चस्व रहा हो वहां अब उसके विरोधी खेमे के लोग चुनाव लड़ रहे हैं. अपने कर्मों की वजह से किरोड़ी लाल मीणा का राजनीतिक करिअर लगभग ख़त्म हो चुका है.’
लोकसभा चुनावों में एक टिकट भी नहीं दिला पाए किरोड़ी लाल मीणा
2019 लोकसभा चुनावों में किरोड़ी लाल मीणा ने पत्नी गोलमा के लिए दौसा सीट से टिकट मांगा लेकिन भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा के वीटो के बाद टिकट नहीं दिया. कांग्रेस से दौसा से विधायक मुरारीलाल की पत्नी सविता मीणा को टिकट दिया है और बीजेपी ने वसुंधरा विरोध के बाद गोलमा को टिकट न देकर किरोड़ी के विरोधी खेमे की जसकौर मीणा को टिकट दिया है.
जसकौर पिछले एक दशक से सियासत में निष्क्रिय थीं. जसकौर को टिकट मिलने से किरोड़ी लाल मीणा की सबसे मज़बूत पकड़ वाली दौसा सीट उनके हाथ से खिसकने का डर उन्हें सता रहा है जहां से वो एक बार सांसद रह चुके हैं.
राजस्थान पत्रिका को दिए हाल ही में दिए इंटरव्यू में किरोड़ी लाल मीणा ने कहा था, ‘ मैं गोलमा को इसीलिए टिकट दिलवाना चाह रहा था क्योंकि विधानसभा चुनाव में उन्हें ऐसी जगह भेज दिया गया जहां से वो लड़ना ही नहीं चाहती थीं, इसीलिए अभी भी लोगों में उनके लिए सहानुभूति है.’
किरोड़ी ने इसी इंटव्यू में कहा कि चार बार पहले भी टिकट कटा है. पहले भी जसकौर की वजह से टिकट कटा और इस बार भी, लेकिन मैं पार्टी के लिए काम करूंगा.
महुआ से किरोड़ी के भतीजे राजेंद्र मीणा को हराने वाले और किरोड़ी लाल मीणा के धुर विरोधी कहे जाने वाले ओमप्रकाश हुड़ला कहते हैं, ‘मैंने किरोड़ी और उनके परिवार को दो बार हराया है. किरोड़ी हमेशा अपराधियों से घिरे रहते हैं इसीलिए पूर्वी राजस्थान की आम जनता उनसे नाराज़ थी और उन्हें किनारे कर दिया.’
हुड़ला कहते हैं, ‘आम जनता से जब संबंध ख़राब होते हैं तो कोई भी नेता कमज़ोर होता है. आम जनता शांति और अमन चाहती है, लेकिन जहां से किरोड़ी लाल मीणा खड़े होते हैं वहां से अपराध का कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं. किरोड़ी ने विधानसभा चुनाव में 17 टिकट दिलवाए और सारे हार गए. लोकसभा में एक भी टिकट नहीं मिलने का कारण भी विधानसभा की हार रही.’
राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं, ‘जाति के आधार पर बने नेता ज़्यादा लंबा नहीं चलते. किरोड़ी भी इसका उदाहरण हैं. विधानसभा चुनावों में भी किरोड़ी के उम्मीदवार हारे और इस बार लोकसभा में किसी को भी टिकट नहीं दिला पाए. इसी तरह नागौर से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हनुमान बेनीवाल ने विधानसभा चुनावों में जाटों का नेता बनने की कोशिश की, अलग पार्टी बनाई लेकिन सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गए.’.
इससे पहले 2003 के विधानसभा चुनाव में जातीय आधार पर बने सामाजिक न्याय मंच को तो एक भी सीट नहीं मिली थी.
चौधरी आगे कहते हैं, ‘जनता समझदार है लेकिन नेता उसे बेवकूफ़ समझते हैं. किरोड़ी लाल मीणा ने विधानसभा चुनावों में ख़ुद को अस्तित्व में बनाए रखने के लिए बीजेपी से जोड़ा, लेकिन गोलमा सहित सभी 17 सीटों पर कोई उम्मीदवार नहीं जिता सके. ऐसे ही बीजेपी-कांग्रेस को कोस-कोस कर हनुमान बेनीवाल ने पार्टी बनाई जो पांच महीने बाद ही बीजेपी में शामिल हो गए. इससे पहले भी देवीसिंह भाटी जैसे नेता हुए जो प्रदेश की सियासत में कुछ समय के लिए चमके और ख़त्म हो गए.’
राजस्थान की राजनीतिक जानकार मानते हैं कि 2013 में संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल होने के बाद से किरोड़ी का राजनीतिक करिअर ढलान पर है. विधानसभा चुनावों में मनचाही सीटों पर हार हो या इन लोकसभा चुनावों में पत्नी को टिकट नहीं दिलवा पाना इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. इससे पहले भाजपा सरकार में मंत्री पद से इस्तीफ़ा और 2013 में अलग पार्टी बनाकर वापस भाजपा में शामिल होना. ये सब किरोड़ी की कमज़ोरी ही दिखाती है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)