यौन उत्पीड़न के मामलों में सबसे आवश्यक माना जाता है कि अगर आरोपी किसी संस्था में निर्णयकारी स्थिति में है, तो वहां से उसे हटाया जाए. पिछले दिनों ऐसे कितने ही प्रसंग हमारे सामने आए जिनमें संस्था के प्रमुखों को कार्य से मुक्त किया गया. निष्पक्षता की यह पहली शर्त मानी जाती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट से जुड़े इस विशेष मामले में ऐसा नहीं हुआ.
न्याय के विचार को न्याय का विचार करने वालों के हाथों ही मर्मांतक चोट पहुंची है. बीते छह मई को उच्चतम न्यायालय की ओर से जनता को बताया गया कि मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ न्यायालय की एक पूर्व कर्मचारी के द्वारा लगाया गया यौन उत्पीड़न का आरोप सिद्ध नहीं पाया गया है.
ऐसा इस मामले की जांच करने के लिए गठित तीन सदस्यीय जजों की समिति का निष्कर्ष है. यह स्पष्ट नहीं है कि क्या आरोप मिथ्या पाया गया या उसे सिद्ध करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं मिल पाए.
अदालत के प्रशासन ने कहा कि रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी, लेकिन यह साफ़ है कि उसे मुख्य न्यायाधीश, जो इस मामले में एक पक्ष हैं और जिस पर आरोप लगा है, यह रिपोर्ट देख सकेंगे. क्या इस रिपोर्ट को उच्चतम न्यायालय के सारे न्यायाधीश देख सकेंगे?
लेकिन आख़िर जनता से क्या पर्दादारी है? उसी जनता से, जिसके पास पिछले ही साल हमारे चार जज शीर्ष न्यायालय के भीतर की शिकायत लेकर पहुंचे थे. अगर पिछले साल वह इस लायक थी तो अब क्यों उसी जनता से रिपोर्ट साझा करने में झिझक है?
क्या जांच समिति की रिपोर्ट से इस प्रसंग का पटाक्षेप हो गया या जैसा हमने पहले लिखा, उच्चतम न्यायालय की पूरी पीठ बैठकर आगे इस पर कोई कार्रवाई का रास्ता और तरीक़ा तय करेगी?
जांच समिति ने कुल जमा चार बैठकों में यह नतीजा निकाल लिया कि शिकायत करने वाली महिला के आरोप में कोई दम नहीं है. इंसाफ़ की इस तेज़ रफ़्तार पर कोई भी समिति ईर्ष्या करेगी.
हमारे यहां इस तरह के आरोप की जांच में महीनों लग जाते हैं. यह सुस्ती की वजह से नहीं होता, बल्कि इस कारण कि इस क़िस्म के संवेदनशील मामले में जांच समितियां हर तरह का ऐहतियात बरतने की पूरी कोशिश करती हैं. इसका एक कारण यह है कि उनकी प्रक्रिया निर्दोष दिखलाई भी पड़े.
लेकिन उच्चतम न्यायालय की इस समिति को लोकलाज की परवाह नहीं है, क्योंकि अपने हर कार्य की वैधता का स्रोत स्वयं वही है. यानी मैं जो हूं, वह अपने आप में मेरे हर कार्य को वैध ठहराने का पर्याप्त कारण है.
उसने यह भी नहीं सोचा कि शिकायत करने वाली स्त्री ने तीन सुनवाइयों के बाद ख़ुद को जांच से अलग कर लिया. उसने अपनी बात सार्वजनिक की. कहा कि उसे तीन न्यायाधीशों की पूछताछ का सामना करने के लिए कम से कम एक वकील की मदद दी जाए. सुनवाइयों की रिपोर्ट उसे दी जाए. उसने कहा कि उसके साथ ठीक तरीक़े से पेश नहीं आया जा रहा है.
जांच समिति ने इन मांगों को विचारणीय भी नहीं पाया. उसने सैकड़ों महिला और पुरुष वकीलों और समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वालों की अपील को सुनना ज़रूरी भी नहीं समझा. तय कर लिया कि वह स्त्री की जांच में भागीदारी के बिना भी काम जारी रखेगी.
ख़बरों के मुताबिक, मुख्य न्यायाधीश को समिति के सामने आने के पहले प्रश्न उपलब्ध करा दिए गए थे. यह महिला के साथ नहीं किया गया.
महिला ने अपने विस्तृत आरोप-पत्र में कई और नाम लिए थे जो इस मामले में प्रासंगिक थे. लेकिन जैसा जांच की तेज़ी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है, उनसे बातचीत करनी ज़रूरी नहीं समझी गई.
संस्था के भीतर जांच हो, इसके लिए सबसे आवश्यक माना जाता है कि अगर आरोपी वहां निर्णयकारी स्थिति में है, तो वहां से उसे हटाया जाए.
पिछले दिनों ऐसे कितने ही प्रसंग हमारे सामने आए जिनमें संस्था के प्रमुखों को कार्य से मुक्त किया गया. निष्पक्षता की यह पहली शर्त मानी जाती है. लेकिन इस विशेष मामले में ऐसा नहीं हुआ.
न सिर्फ़ यह बल्कि आरोप लगने के बाद ख़ुद मुख्य न्यायाधीश ने ही पीठ गठित करके शिकायत करने वाली महिला पर तीखा हमला किया. वरिष्ठ न्यायाधीशों ने शिकायत पर शक ज़ाहिर करने में देर न लगाई.
कहा गया कि यह आरोप सिर्फ़ मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि न्यायपालिका की स्वायत्तता के ख़िलाफ़ साज़िश है.
यह सब कुछ कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के प्रसंग में ख़ुद उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उच्चतम न्यायालय द्वारा ही उल्लंघन था. यह सब कुछ वरिष्ठ, कनिष्ठ, स्त्री, पुरुष, सभी वक़ील ज़ोर-ज़ोर से बार-बार कह रहे थे. लेकिन उच्चतम न्यायालय ने किसी की परवाह न की.
सुना गया कि अदालत के अंदर के ही एक न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने अनुरोध किया था कि जांच में पारदर्शिता लाई जानी चाहिए और उसकी प्रक्रिया न्यायसंगत होनी चाहिए. उन्हें भी नहीं सुना गया.
आरोप लगने के दो हफ़्ते के भीतर चटपट इंसाफ़ कर दिया गया. महाजन महाजन सिद्ध हुए, साधारण स्त्री एक मिथ्यावादी शिकायती साबित हुई.
हमें जो सुनाई पड़ा वह यह था, ‘हर किसी को अपनी औकात में रहना चाहिए.’ उस औरत ने औकात से बाहर जाने की कोशिश की और उसके नतीजे भुगत रही है.
अदालत ने अपने मुखिया की मर्यादा की रक्षा में न्याय व्यवस्था पर साधारणजन के विश्वास की हत्या कर डाली है.
रवींद्रनाथ ठाकुर ने राष्ट्रवाद नामक अपने निबंध में पश्चिम की तारीफ़ एक जगह यह कहकर की है कि उससे हमें क़ानून के राज के बारे में समझ मिली. क़ानून समानता के सिद्धांत पर काम करता है. इसी कारण गांधी को भी क़ानून का राज पसंद था. वह बराबरी का राज भी है.
लेकिन अभी जिस एक उसूल को ठोकर मारी गई, तो वह बराबरी का उसूल है.
अभी अगर टैगोर और गांधी होते तो न्यायाधीशों को क्या सलाह देते? यह कि ख़ुद को उन्हीं सिद्धांतों की कसौटी पर कसें, जो उन्होंने सबके लिए बनाई हैं. उन्हीं प्रक्रियाओं से गुज़रें जो औरों के लिए ठीक और ज़रूरी मानी गई हैं.
यह ध्यान रहे कि न्यायाधीश भी मनुष्य है और मानवीय दुर्बलताएं उनके भीतर भी हो सकती हैं. उन्होंने जस्टिस कर्णन को जेल भेजकर शायद यही बताया था.
फिर आज मुख्य न्यायाधीश पर एक आरोप के सामने क्यों सारे उसूलों और प्रक्रियाओं को तिलांजलि दे दी गई? क्या सारे न्यायाधीश भूल गए कि न्यायपालिका का संस्थान उन सबसे बड़ा है, क्या वे ये भूल गए कि वे नश्वर हैं लेकिन इस संस्थान की उम्र को राष्ट्र के लिए दीर्घ होना है.
वे प्रभु नहीं सिर्फ़ निश्चित अवधि तक इसके न्यासी मात्र हैं. जाते वक़्त उन्हें चादर ज्यों की त्यों धर कर जाना है. लेकिन इस प्रसंग से न्याय की चादर पर जो दाग़ लगा है, वह कैसे मिटाया जा सकेगा?
जो एक जगह सिद्धांत और प्रक्रिया पर पद और औकात को वरीयता देता है, वह दूसरे मामलों में कैसे विश्वसनीय माना जाएगा? तो क्या न्याय इत्तेफ़ाक़ का मामला होकर रह जाएगा?
अभी भी मौक़ा है. उच्चतम न्यायालय की संपूर्ण पीठ बैठकर एक पारदर्शी प्रक्रिया के तहत बाहरी लोगों की निगरानी में जांच करवा सकती है और यह बता सकती है कि इस संस्था में ख़ुद को दुरुस्त करने की इच्छा भी है, हिम्मत भी और ताक़त भी, कि हमारे न्यायाधीश मानते हैं कि उन सबसे बड़ा न्याय का विचार है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)