गोरखपुर में एक अदद प्रेक्षागृह के लिए पिछले 24 वर्षों से अनूठे किस्म का रंग आंदोलन चलाया जा रहा था. 1258 नाटकों के बाद रंगाश्रम का यह रंग आंदोलन ख़त्म हो गया.
प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक देवेन्द्र राज अंकुर लिखते हैं कि नाटक के लिए स्क्रिप्ट, कलाकार, तकनीकी सुविधाएं जितनी ज़रूरी हैं, उतना ही ज़रूरी है नाट्य स्थल और दर्शक. नाट्य शास्त्र के रचयिता भरत मुनि ने अपना पहला नाटक ‘ समुद्र मंथन ’ खुले आकाश तले विशाल जनसमुदाय के समक्ष किया था लेकिन नाटक के पहले ही प्रदर्शन में दर्शकों में बैठे दैत्यों और दानवों की प्रतिक्रिया ने भरत मुनि को तुरंत इस सत्य से परिचित करा दिया कि नाटक का मंचन खुले में किया जाना ख़तरे से ख़ाली नहीं हैं क्योंकि दर्शकों के चयन पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता.
यही नहीं खुला मंच साल भर के नाटकों के मंचन के लिए कतई उपयुक्त नहीं होता. इसलिए एक बंद प्रेक्षागृह का निर्माण सर्वथा उपयुक्त था. विश्व के रंगमंचीय इतिहास में पहली बार एक बंद प्रेक्षागृह की परिकल्पना हमारे देश के रंगचिंतक भरत मुनि के दिमाग़ की उपज थी.
भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र के दूसरे अध्याय में प्रेक्षागृह या नाट्यमंडप के निर्माण और उसके आकार-प्रकार के बारे में भी विस्तार से ज़िक्र किया है.
आज नुक्कड़ नाटकों, लोक नाटकों के लिए किसी बंद प्रेक्षागृह की ज़रूरत नहीं होती. इसकोे चौैराहों और खुले मैदानों में किया जा सकता है लेकिन यह सही है कि नाट्य मंचन के लिए प्रेक्षागृह की ज़रूरत सदैव से महसूस की जाती रही है.
गोरखपुर की नाट्य संस्था रंगाश्रम ने 29 अप्रैल को शरद जोशी लिखित नाटक ‘जिसके हम मामा हैं’ मंचित किया. संस्था द्वारा सिविल लाइंस क्षेत्र में कार्मल गर्ल्स कॉलेज के सामने खुले मैदान में खेला गया यह 1258वां नाटक था. इसके बाद संस्था ने अब अपने साप्ताहिक शनिचरा नाटक यानि हर शनिवार को मंचित किया जाने वाला नाटक बंद करने की घोषणा की.
यह एक सामन्य सूचना लग सकती है लेकिन दरअसल यह गोरखपुर में एक अदद प्रेक्षागृह के लिए 24 वर्ष से चलाया जा रहा अनूठे किस्म का रंग आंदोलन था. रंगाश्रम के सचिव रंगकर्मी केसी सेन ने प्रेक्षागृह निर्माण के लिए हर शनिवार को अधूरे प्रेक्षागृह के चबूतरे पर एक नाटक मंचित करने का जो आंदोलन शुरू किया था, उसका पर्दा हमेशा के 29 अप्रैल को गिर गया.
यह आंदोलन समाप्त करने की इसलिए घोषणा की गई क्योंकि उसी दिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के रामगढ़ ताल क्षेत्र में बनने वाले एक अत्याधुनिक प्रेक्षागृह का शिलान्यास किया.
ऐसा ही शिलान्यास तीन दशक पहले तबके मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने 24 जनवरी, 1987 को किया था. उन्होंने पुलिस लाइन्स के ठीक सामने स्थित भूमि पर प्रेक्षागृह और आर्ट गैलरी के निर्माण का शिलान्यास किया. तीन वर्ष तक काम हुआ और एक करोड़ 20 लाख ख़र्च कर तमाम खंभे खड़े हुए. इसी बीच 1988 में उनका असमय निधन हो गया. इसके बाद प्रेक्षागृह की भूमि के मालिकाना हक़ को लेकर विवाद खड़ा हुआ और मामला अदालत में चला गया और 1990 में प्रेक्षागृह का निर्माण बंद हो गया. हाईकोर्ट में अभी भी मामला चल रहा है.
प्रेक्षागृह का निर्माण नहीं होने से शहर के रंगकर्मियों को गहरा धक्का लगा. वे इसकी मांग हर मौक़े पर उठाते रहे लेकिन केसी सेन ऐसे रंगकर्मी थे जो अलग ही मिट्टी के बने थे. उन्होंने 27 मार्च, 1993 को विश्व रंगमंच दिवस पर बैठक कर रंगाश्रम का गठन किया और प्रेक्षागृह का निर्माण होने तक हर शनिवार सुबह आठ बजे नाटक मंचन कर रंग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की. एक दिन बाद 28 मार्च, 1993 को समरेश बसु के नाटक ‘आदाब’ का मंचन कर आंदोलन शुरू कर दिया गया.
केसी सेन के इस आंदोलन को तब किसी ने गंभीरता से नहीं लिया और माना गया कि सेन का जोश जल्द ठंडा पड़ जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जुनून की हद तक उन्होंने यह आंदोलन जारी रखा और 24 वर्ष बाद तब ख़त्म किया जब तक एक दूसरे प्रेक्षागृह का शिलान्यास नहीं हो गया.
इस 24 वर्ष में रंगाश्रम और केसी सेन के लिए तमाम कठिन दौर आए. मौसम ने आंधी-पानी-भूकंप के रूप मेें अड़चन खड़ी की लेकिन शनिचरा नाटक होता रहा. एक-एक कर दर्शक कम होते गए, तब राहगीर और रिक्शा चालक इसके दर्शक बने और नाटक जारी रहा. ख़ुद रंगाश्रम कई बार टूटा और स्थापना काल से जुड़े लोग छोड़कर चले गए लेकिन हर शनिवार की सुबह आठ बजे नाटक खेला गया.
केसी सेन को पागल और नशे की पिनक में रहने वाला कहा गया लेकिन वह नाटक करते रहे. ऐसे भी हुआ कि जब नाटक के पात्र नहीं आए तो अकेले केसी सेन ने नाटक किया. जब नाटकों के लिए स्क्रिप्ट का अकाल पड़ा तो सेन ने एक ही नाटक कई-कई बार मंचित किए, कहानियों का नाट्य रूपान्तरण किया और कई नाटक भी लिख डाले.
उनका अनोखा रंग आंदोलन कई बार मीडिया की सुर्ख़ियां बना लेकिन जब यह आंदोलन समाप्त हुआ, इसकी नोटिस नहीं ली गई.
गोरखपुर शहर की ख्याति रंगकर्म के लिए भी रही है. गोरखपुर उन कम शहरों में शुमार था जहां दर्जनों नाट्य संस्थाए कार्य कर रही थीं. गोरखपुर में नाटक की संस्कृति बंगीय समाज की देन है. गोरखपुर में बीएनडब्ल्यूआर (बंगाल नार्थ वेस्ट रेलवे) का मुख्यालय बना जो बाद में ओटीआर (अवध तिरहुत रेलवे ) हुआ और फिर एनईआर यानि पूर्वोत्तर रेलवे. यह रेल क्षेत्र अवध से लेकर बंगाल तक था.
रेल मुख्यालय में बंगाल से स्थानान्तरित होकर बड़ी संख्या में बंगाली यहां आए. गोरखपुर विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो अशोक कुमार सक्सेना लिखते हैं कि आरम्भिक दिनों में रेलवे में बाबू के पद पर अधिकतर बंगीय जन ही थे.
शुरू में वे रेल सेवा के लिए गोरखपुर नहीं आना चाहते थे. वे कहते थे- गोरखपुर जाबोना, छातू लौंका खाबो ना अर्थात गोरखपुर जाएंगे नहीं और सत्तू-मिर्चा खाएंगे नहीं. लेकिन जब वे गोरखपुर आए तो रियाज खैराबादी की कविता के माफ़िक यहीं के होकर रह गए-
अवध की शाम बनारस की सुबहों के सदक़े
कि इक जहां से जुदा है अदाए-गोरखपुर
पुकारती हैं यहीं दिलफ़रेबियां इसकी
कि आके हो जिसे जाना न आए गोरखपुर
बंगाली जन अपने साथ दुर्गा पूजा और बांग्ला थियेटर लाए. ‘मित्र मंडली’ उनकी पहली रंग संस्था थी. बाद में ’प्रवादो’, ‘युगान्तर’, ‘मैत्रेयी’, ‘मिताली’, ‘मौसुमी’ नाम की संस्थाएं बनीं. मौसुमी यहां अखिल भारतीय द्विभाषीय लघु नाट्य प्रतियोगिता आयोजित करती थी जिसकी पूरे देश में ख्याति थी.
वर्ष 1956 में बना पोस्टल एंड प्रताप क्लब 1970 में ‘नटराज’ हो गया. प्रख्यात रंगकर्मी प्रो. गिरीश रस्तोगी ने 1968 में रूपान्तर की स्थापना की तो प्रख्यात इतिहासकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा ने संचेतना की. ‘संचेतना’ के नुक्कड़ नाटकों ने शहर में धूम मचा दी.
इसके अलावा आग, दर्पण, इप्टा, मंजूश्री, युवा संगम, किसलय बाल मंच, लहर, अंगार, प्रियदर्शनी, लोकरंग और अभिव्यक्ति ने गोरखपुर में रंगकर्म को आसमान पर पहुंचा दिया. 80 और 90 के दशक में यहां नाट्य गतिविधियां जोरों पर थीं. वामपंथी संगठनों दिशा, आइसा, इंक़लाबी छात्र सभा, नारी सभा ने भी विश्वविद्यालय परिसर से लेकर शहर के चौक-चौैराहों को अपने नुक्कड़ नाटकों से गर्मा रखा था. रेलवे का सीनियर इंस्टीट्यूट और जूनियर इंस्टीट्यूट तमाम नाटकों के मंचन के गवाह बने. गोरखपुर आकाशवाणी में रेडियो नाटक ख़ूब होते थे.
आज भी शहर के तमाम रंगकर्मी उस दौर की याद कर आह भरते हैं.
1990 के बाद स्थितियां बदलनी शुरू हुईं. प्रेक्षागृह का निर्माण कार्य भूमि विवाद के कारण बंद हो गया. जूनियर इंस्टीट्यूट को रेलवे ने रेलवे सुरक्षा बल का बैरक बना दिया जिसके कारण नाट्य मंचन का यह स्थान हमेशा के लिए बंद हो गया. गोरखपुर विश्वविद्यालय ने अपना प्रेक्षागृह नगर की नाट्य संस्थाओं को देना बंद कर दिया.
इस तरह से गोरखपुर के रंगकर्मियों के लिए एक अदद प्रेक्षागृह भी मुहाल हो गया. यही दौर था जब टेलीविजन ने हमारे घरों में जगह बना ली थी और धीरे-धीरे वह लोगों को नाटकों से दूर करने लगा था. गोरखपुर भी दूसरे शहरों की तरह इस नए बदलाव से अछूता नहीं रहा. गोरखपुर ने नाट्य गतिविधियों में ठहराव का दौर देखा.
वर्ष 2005 में प्रेमचंद पार्क में एक ओपेन थियेटर बना लेकिन यहां भी पर्याप्त सुविधांए नहीं थीं. यह एक तरह से एक बड़ा चबूतरा भर है. नुक्कड़ नाटक की ताक़त में विश्वास रखने वाली रंग संस्थाए इप्टा, अलख कला समूह आदि यहां पर नाटक करती रहीं लेकिन लाइट, साउंड के साथ नाटक करने वाली नाट्य संस्थाओं की गतिविधियां धीरे-धीरे थमती गईं.
केसी सेन के पिता बांग्लादेश से आए थे. उनके पिता रेलवे में कर्मचारी थे. केसी सेन का 1955 में गोरखपुर में जन्म हुआ. वह युवा अवस्था में ही थियेटर से जुड़ गए. उन्होंने काली पूजा के मौक़े पर 1976 में बांग्ला नाटक किया. उन्हें जनवरी 1976 में पूर्वोत्तर रेलवे में लेखा सहायक पद पर नौकरी मिल गई. नौकरी करते हुए वह रंग संस्था पेयासी, रेलवे आर्ट सोसाइटी, दर्पण और संगम से जुड़े रहे और नाटक करते रहे.
केसी सेन के रंगाश्रम और रंग आन्दोलन की बहुत आलोचना भी हुई. उन पर नाटक की गंभीरता को कम करने का आरोप लगा. शहर के रंगकर्मियों ने सवाल उठाया कि एक सप्ताह से भी कम रिहर्सल में बिना तैयारी के नाटक मंचित करने का क्या अर्थ है? ऐसे नाटक क्यों मंचित किए जाएं जिसका दर्शक पर कोई प्रभाव न पड़े? जिस नाटक को देखने वाले ही न हों, उसे क्यों मंचित होना चाहिए? केसी सेन पर सिर्फ़ संख्या गिनाने के लिए नाटक करने का आरोप भी लगा. उनकी संस्था से अलग हुए लोगों ने भी उन पर लकीर पीटने का आरोप लगाया.
केसी सेन इन आरोपों से बेपरवाह रहे और इसका जवाब देने की कोशिश नहीं की. यही नहीं इन आलोचनाओं वाली ख़बर की कतरन को उन्होंने रंगाश्रम के 1000 नाटक पूरे होने पर प्रकाशित स्मारिका में प्रमुखता से प्रकाशित किया. शनिचरा नाटकों के मंचन के साथ-साथ उन्होंने काव्य पाठ, कहानी पाठ शुरू कर दिया और चित्र प्रदर्शनी भी आयोजित करने लगे. रंगाश्रम की टीम ने देश में तमाम जगहों पर नाट्य समारोहों में भाग लिया और पुरस्कार भी जीते.
गोरखपुर में प्रेक्षागृह बने, यह तो सभी चाहते थे लेकिन रंगाश्रम के आंदोलन के तरीक़े से हर कोई सहमत नहीं था. इसलिए रंग आंदोलन में शहर के अधिकतर रंगकर्मी सीधे तौर पर नहीं जुड़े लेकिन कुछ लोग केसी सेन के इस आंदोलन के मुरीद थे. इनमें योगी आदित्यनाथ भी थे. वह कई बार सेन के बुलावे पर उनकी नाट्य प्रस्तुति देखने आए. गोरखपुर के कमिश्नर रहे पीके महांति भी केसी सेन से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने तो यह भी कह दिया कि यदि प्रेक्षागृह बनेगा तो उसमे एक आर्ट गैलरी भी बनेगी जिसका नाम केसी सेन के नाम पर रखा जाएगा.
इन 24 वर्षों में रंगाश्रम एक नाट्य स्कूल के रूप में बदल गया था. अभिनय सीखने वाले नौजवान रंगाश्रम पहुंचते और अभिनय, संवाद अदायगी सीखते. रंगाश्रम से अभिनय कला सीख कर निकले दर्जनों नौजवान आज टेली फिल्मों, भोजपुरी फिल्मों में अभिनय कर रहे हैं. रंगाश्रम शुरू हुआ था तो केसी सेन का बड़ा बेटा कल्याण सेन दस वर्ष का था. कुछ वर्ष बाद वह भी रंग आंदोलन का हिस्सा बन गया. वह आज मुम्बई में टेली फिल्मों में काम कर रहा है.
रंगाश्रम के नाटक देखते-देखते कई दर्शक रंगाश्रम के ही हिस्से बन गए. रज्जब अली ऐसे ही एक दर्शक थे. वह रिक्शा चालक हैं. वह अधूरे प्रेक्षागृह के सामने स्थित गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों को रिक्शे से लाते ले जाते थे. उन्होंने एक दिन रंगाश्रम का शनिचरा नाटक देखा. नाटक देख उनके अंदर छिपा अभिनेता जाग उठा. उन्होंने सेन से रंगाश्रम में शामिल करने का अनुरोध किया. आज रज्जब अली छह वर्षों से रंगाश्रम का हिस्सा बने हुए हैं. उन्होंने क़रीब 50 नाटकों में अभिनय किया है. अब वह रिक्शा की जगह बैटरी चालित आॅटो रिक्शा चलाते हैं.
केसी सेन कहते हैं कि जो लोग रंगाश्रम के नाटकों को दर्शक नहीं मिलने का सवाल उठा रहे हैं, उन्हें ख़ुद के नाटकों को कितने दर्शक मिल रहे हैं, इसको देखना चाहिए. दर्शकों की कमी रंगमंच की एक समस्या है. हमारे रात्रिकालीन नाटकों में बड़ी संख्या में दर्शक आए हैं.
वह कहते हैं कि शनिचरा नाटक एक मिशन था जो पूरा हो गया. हमें एक अत्याधुनिक प्रेक्षागृह मिल रहा है और सही जगह मिल रहा है. कुछ लोग कह रहे हैं कि अधूरे प्रेक्षागृह वाले स्थान पर ही प्रेक्षागृह बनना चाहिए लेकिन मेरी यह ज़िद नहीं है. इस जगह को लेकर तमाम क़ानूनी पेंच हैं जो पता नहीं सुलझेंगे कि भी नहीं. सेन कहते हैं कि शनिचरा नाटक ख़त्म हुआ है लेकिर रंगाश्रम नाटकों का मंचन जारी रखेगा.
फ़िलहाल गोरखपुर शहर के लिए तीन दशक का समय एक प्रेक्षागृह से दूसरे प्रेक्षागृह के शिलान्यास का है. प्रेक्षागृह बन जाएगा तो रंगमंच की यह समस्या तो दूर हो जाएगी लेकिन यह प्रेक्षागृह क्या दर्शकों की कमी की समस्या का भी समाधान कर देगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं.)