गोरखपुर से भाजपा प्रत्याशी और भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार रवि किशन ने कहा है कि वह गोरखपुर में भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री बनाएंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि भोजपुरी फिल्में ठहराव के दौर से गुज़र रही हैं. भोजपुरी फिल्म उद्योग लगातार मंदा पड़ता जा रहा है और उसके अच्छे दिन चले गए हैं.
गोरखपुर के करीम नगर चौराहे पर 15 मई की शाम भाजपा प्रत्याशी अभिनेता रवि किशन की सभा थी. सभा में रवि किशन ने कहा कि वह गोरखपुर में फिल्म इंडस्ट्री बनाएंगे. उन्होंने लोगों से पूछा कौन-कौन लोग फिल्म में काम करना चाहते हैं.
सभा में अधिकतर लोगों के हाथ उठे. इस पर उन्होंने फिर सवाल किया हीरो बनना चाहते हैं कि विलेन. उनके इस सवाल पर सभी लोग हंसने लगे.
सभा में रवि किशन ने कहा कि जब यहां फिल्म इंडस्ट्री लगेगी तो लोगों को रोजगार का नया अवसर मिलेगा. उन्होंने यह भी कहा कि वह राजनीति में आने के पहले उनकी जिंदगी बहुत मस्त थी. वह खूब पैसा कमा रहे थे. हीरोइन के साथ डांस कर रहे थे और विलेन को पीट रहे थे लेकिन महाराज जी (योगी आदित्यनाथ) ने उन्हें बुलाया और कहा, ‘जाओ गोरखपुर की सेवा करो. उनके आदेश पर हम यहां आप लोगों की सेवा करने आए हैं.’
रवि किशन की जब यह सभा हो रही थी, उसी वक्त गोरखपुर शहर के युनाइटेड टाकीज में भोजपुरी के एक और सुपर स्टार खेसारी लाल यादव की फिल्म ‘मेंहदी लगा के रखना’ चल रही थी.
इस फिल्म को पहले शो में सिर्फ 84 और दूसरे शो में 54 दर्शक मिले. दो दिन बाद सिर्फ एक सप्ताह चलकर यह फिल्म पर्दे से उतर भी गई. पूरे सप्ताह दर्शकों का टोटा रहा.
यह फिल्म नई नहीं थी. यह दो वर्ष पहले रिलीज हुई थी. इस महीने कोई नई फिल्म नहीं होने के कारण इसे लगाया गया था. युनाइटेड टाकीज गोरखपुर शहर में सिंगल स्क्रीन का इकलौता सिनेमा हाल है, जो भोजपुरी फिल्में लगाता है.
2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान इस सिनेमा हाल में ‘सुन ल मितवा हमार’ फिल्म लगी थी. जब मैं दो मार्च को सिनेमा हाल में दर्शकों की संख्या देखने गया तो बालकनी में दो और डीसी में तीन दर्शक मिले.
युनाइटेड टाकीज के मालिक एवं फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ऋषभ गुप्ता भोजपुरी फिल्मों के ठंडे रिस्पॉन्स से बुरी तरह निराश हैं. वे कहते हैं, ‘भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री मर रही है. पिछले पांच वर्ष से भोजपुरी फिल्मों के दर्शक तेजी से घटे हैं, जिसके कारण भोजपुरी सिनेमा बनाना और दिखाना घाटे का सौदा हो गया है.’
भोजपुरी के तीन स्टार भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं चुनाव
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भोजपुरी सिनेमा के तीन सुपर स्टार- दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ, रवि किशन और मनोज तिवारी को चुनाव मैदान में उतारा है.
मनोज तिवारी पहले से राजनीति में हैं. वह 2009 का लोकसभा चुनाव गोरखपुर से सपा के टिकट पर लड़े थे लेकिन बुरी तरह हार गए. इसके बाद वह दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हो गए और 2014 को चुनाव भाजपा से जीतकर सांसद बने. इस वक्त वह दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं, फिर से लोकसभा में जाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं.
भाजपा ने ‘दुलही रहे बेमार निरहुआ सटल रहे’ गीत से चर्चित हुए दिनेश लाल यादव निरहुआ को आज़मगढ़ में सपा के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ लड़ाया है तो रवि किशन को योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर में उतारा गया है. रवि किशन 2014 का चुनाव अपने गृह जिले जौनपुर से कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे और बुरी तरह हारे थे.
फिल्म सिटी बनाने और भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री विकसित करने का किया जा रहा है वादा
निरहुआ और रवि किशन को चुनाव लड़ाने के बाद भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि दोनों उत्तर प्रदेश में भोजपुरी फिल्म उद्योग का विकास करेंगे. खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर की एक सभा में कहा कि वह रवि किशन को चुनाव में इसलिए लेकर आए हैं ताकि गोरखपुर विकास के साथ-साथ ‘कला और संस्कृति’ का संगम बने.
रवि किशन के चुनाव प्रचार में गोरखपुर में फिल्म सिटी बनाने की बात जोर-शोर से उठाई जा रही है. बनारस में भी फिल्म सिटी बनाने की बात हो रही है और कहा जा रहा है कि रवि किशन और निरहुआ इसमें मदद करेंगे.
हालांकि ये बात किसी के गले नहीं उतर रही है कि यदि पीएम और सीएम बनारस या गोरखपुर में फिल्म सिटी बनाना चाहते थे तो वे यहां बना क्यों नहीं पाए और फिल्म कलाकार उसमें उनकी क्या मदद करेंगे? फिल्म कलाकार तो चुनाव के पहले भी सरकार के इस काम में मदद कर सकते थे.
मंदा पड़ता जा रहा है भोजपुरी फिल्म उद्योग
एक तरफ फिल्म सिटी बनाने और भोजपुरी फिल्म उद्योग को विकसित करने की बात हो रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि भोजपुरी फिल्में ठहराव के दौर से गुजर रही हैं. भोजपुरी फिल्म उद्योग लगातार मंदा पड़ता जा रहा है और उसके अच्छे दिन चले गए हैं.
घाटे के कारण भोजपुरी फिल्मों में पैसा लगाने से प्रोड्यूसर हिचक रहे हैं. अधिकतर फिल्में फ्लॉप हो रही हैं. जिन फिल्मों को सुपरहिट माना जा रहा है, वह भी बमुश्किल से अपनी लागत निकाल पा रही हैं.
इस वर्ष की भोजपुरी की सबसे बड़ी हिट फिल्म दिनेश लाल यादव निरहुआ की ‘निरहुआ चचल लंदन’ रही जो मार्च में रिलीज हुई थी. यह फिल्म गोरखपुर के युनाइटेड टाकीज में तीन सप्ताह तक चली. इसके बाद आई फिल्म ‘शेर-ए-हिंदुस्तान’ सिर्फ एक सप्ताह ही चल पाई.
खुद रवि किशन हाल के वर्षों में ज्यादा सुपर हिट भोजपुरी फिल्म नहीं दे पाएं हैं. उनकी आखिरी फिल्म जो बहुत चली थी, उसका नाम था, ‘हमसे केहू जीत न पाई’. यह फिल्म 2011 में रिलीज हुई थी. यह फिल्म गोरखपुर के युनाइटेड टाकीज में पांच सप्ताह चली थी और करीब दस लाख का बिजनेस किया था.
यह फिल्म गोरखपुर के ही फिल्म निर्माता डॉ. वजाहत करीम ने बनाई थी. डॉ. करीम गोरखपुर के प्रसिद्ध चिकित्सक हैं. वह कांग्रेस नेता भी हैं, उनकी अपनी डिस्ट्रीब्यूटर कंपनी है.
उन्होंने बताया कि फिल्म जरूर अन्य फिल्मों के मुकाबले अधिक चली लेकिन उन्हें ज्यादा फायदा नहीं हुआ. फिल्म ने अपनी लागत निकाल ली लेकिन फायदा नहीं दे पाई.
पूर्वी उत्तर प्रदेश में सिर्फ सात लाख का बिजनेस हुआ. बिहार में डिस्ट्रीब्यूटर की वजह से यह फिल्म ठीक से सिनेमा हाल में लग नहीं पाई. उन्होंने बताया, ‘निरहुआ चलल लंदन के वितरण अधिकार से उन्हें 50 फीसदी ही आय हुई जबकि ससुरा बड़ा पइसा वाला फिल्म से उस जमाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश में 1.12 लाख की आय हुई थी.’
भोजपुरी सिनेमा उद्योग को ‘डाइंग इंडस्ट्री’ बताते हुए डॉ. करीम कहते हैं कि यदि जल्द कुछ नहीं किया गया तो इसे बचा पाना मुश्किल होगा. वह भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में ठहराव के प्रमुख कारण सिंगल सिनेमा स्क्रीन का बंद होना, भोजपुरी सिनेमा को लेकर मल्टीप्लेक्स वालों की अरुचि और इंडस्ट्री में निर्माताओं, कलाकारों, वितरकों और इंडस्ट्री से जुड़े लोगों को गैर-पेशेवर रुख़ बताते हैं.
उन्होंने कहा कि कुछ प्रसिद्ध अभिनेता या गायक ज़रूर मजे में हैं और उन्हें अच्छी कीमत मिल रही है लेकिन प्रोड्यूसर, वितरक, सिनेमा हाल मालिक और कलाकार बुरे हाल में हैं.
डॉ. करीम ने दो हिंदी फिल्में ‘सोच’ और ‘दो दिलों के खेल में’ बनाने के बाद यह भोजपुरी फिल्म बनाई थी. इसके बाद अभी तक कोई और फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए हैं.
बंद होते सिनेमा हाल
भोजपुरी सिनेमा में आई मंदी का प्रमुख कारण फिल्मों की बढ़ती लागत, घटते दर्शक, ग्रामीण क्षेत्रों में बंद होते सिंगल स्क्रीन सिनेमा हैं. भोजपुरी सिनेमा का बड़ा दर्शक वर्ग ग्रामीण क्षेत्र में हैं.
हाल के दिनों में बड़ी संख्या में सिनेमा हाल बंद हुए हैं. गोरखपुर के आसपास के ग्रामीण जिलों में कई सिनेमा हाल बंद हुए है.
उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के सलेमपुर का प्रसिद्ध सिनेमाहाल ‘त्रिमूर्ति’ बंद हो गया. कुशीनगर ज़िले के कप्तानंगज कस्बा स्थित ‘स्वामी चित्रालय’ बंद हो गया. इसकी जगह पर अब यहां मैरेज हाल बन गया है. पडरौना का ‘कृष्णा’, मऊ का ‘कृष्णा’, बलिया के मनियर कस्बे का ‘प्रतिभा’ सिनेमा हाल बंद हो गया. बंद सिनेमा गृहों की सूची लंबी है.
इन छवि गृहों में अधिकतर भोजपुरी फिल्में लगती थीं. मनोरंजन कर, बढ़ता मेंटेनेंस खर्च से सिनेमा गृहों को बहुत कम कमाई हो रही थी. डिजिटल सिनेमा स्क्रीनिंग ने खर्च को और बढ़ा दिया. इस कारण उन्हें सिनेमा हाल की जगह वहां मैरेज हाल, बिजनेस कॉम्पलेक्स, अपार्टमेंट या बतौर गोदाम इस्तेमाल करने पर ज्यादा कमाई होती है.
कप्तानगंज के ‘स्वामी चित्रालय’ के मालिक विनोद गोविंद राव ने बताया कि उनका सिनेमा हाल 1987 में बना था. उन्होंने बढ़ते घाटे के कारण 2017 में सिनेमा हाल को बंद कर दिया और इसे मैरेज हाल में बदलकर किराये पर दे दिया. अब उन्हें 30 हजार रुपये महीने की आमदनी हो रही है, जबकि पिछले दस वर्ष में उन्होंने दस लाख से अधिक का घाटा उठाया.
उन्होंने बताया कि 2014-15 के बाद दर्शकों की संख्या में बड़ी गिरावट आने लगी. मनोरंजन कर अधिक (40 फीसदी) होने के कारण घाटा बढ़ता गया. दर्शकों की कमी के कारण उन्होंने दोपहर तीन से छह बजे वाला शो स्थायी रूप से बंद कर दिया फिर भी हालात नहीं सुधरे.
भोजपुरी सिनेमा के दर्शक कम होने का एक कारण भोजपुरी सिनेमा के कंटेट व गाने का अश्लील होते जाना है. फिल्म को हिट कराने या चर्चित कराने के लिए इसमें आइटम सॉन्ग डाले जाते हैं और इन गानों को पहले रिलीज कर दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचने का माहौल बनाया जाता है.
हाल के वर्षों में रिलीज हुईं और आने वाली भोजपुरी सिनेमा की सूची देखकर ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इसमें क्या होगा. ‘आवारा बलम’, ‘गोरी तोर चुनरी’, ‘दबंग सरकार’, ‘स्पेशल इनकाउंटर’, ‘सैंयाजी दगाबाज’, ‘क्रेक फाइटर’, ‘जवानी की रेल कहीं छूट ना जाए’, ‘देहाती लखैरा नम्बर 1’ , ‘सनकी दरोगा’ आदि कुछ प्रमुख भोजपुरी फिल्मों के नाम हैं.
इसके अलावा हाल के वर्षों में ‘राष्ट्रवादी’ फिल्में भी बनने लगी हैं. एक फिल्म रिलीज होने वाली है, ‘दूध मांगोगे तो खीर देंगे’. इसके पहले ‘शेर-ए-हिंदुस्तान’ भी लगी थी जिसे पुलवामा अटैक से प्रभावित बताया गया. ‘दुल्हन चाही पाकिस्तान से’ भी रिलीज हो चुकी है.
पहले भोजपुरी फिल्में देखने लोग सपरिवार आते थे लेकिन जबसे उसके कंटेट व गाने अश्लीलता की सारी हदे लांघने लगे तबसे लोग भोजपुरी फिल्मों से दूर होते गए. अब परिवार सहित भोजपुरी फिल्में देखने बहुत कम लोग आते हैं. सिनेमा हाल में तो महिलाएं बहुत ही कम दिखती हैं.
1963 में बनी थी पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो’
गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर चंद्रभूषण अंकुर सिनेमा के अध्येता हैं. उन्होंने चौथे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल (2009) के मौके पर उसके ब्रोशर में भोजपुरी सिनेमा के इतिहास पर एक विस्तृत लेख लिखा था.
उन्होंने वर्ष 2005 से शुरू हुए दौर को भोजपुरी सिनेमा का तीसरा दौर बताया था और कहा कि था कि बाजार की दृष्टि से यह दौर बहुत उत्साहजनक रहा.
उन्होंने फिल्म व्यवसाय विश्लेषक तरन आदर्श को उद्धत करते हुए लिखा है, ‘ज्यादातर भोजपुरी फिल्में छोटे बजट की होती हैं जिनमें 20 से 30 लाख रुपये लगाए जाते हैं और इनमें से कई एक से दो करोड़ का व्यवसाय कर लेती हैं. ज्यादातर फिल्में अपनी लागत से दस गुना ज्यादा का व्यवसाय करती हैं और एक अच्छी फिल्म दस से बारह करोड़ का मुनाफा कमा सकती है.’
इस लेख में डॉ. अंकुर ने मनोज तिवारी के हिट फिल्म ‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’ का जिक्र करते हुए बताया है कि तीस लाख की लागत वाली इस फिल्म ने 15 करोड़ का व्यवसाय किया. उनकी दो और फिल्मों ‘दरोगा बाबू आई लव यू’ ने चार करोड़ रुपये और ‘बंधन टूटे ना’ ने तीन करोड़ का व्यवसाय किया.
भोजपुरी सिनेमा का पहला दौर 1963 में तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनाई और इसका प्रदर्शन हआ.
बिहार के एक बड़े व्यावसायी विश्वनाथ शाहाबादी देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से भोजपुरी फिल्म बनाने को प्रेरित हुए थे. इस फिल्म का निर्देशन कुंदन कुमार ने किया था. फिल्म के कुमकुम और असीम ने प्रमुख भूमिका निभाई थी. फिल्म की कहानी नजीर हुसैन ने लिखी थी और उन्होंने फिल्म में अभिनय भी किया था.
यह फिल्म बनारस के प्रकाश टाकीज में प्रदर्शित हुई तो लोग बैलगाड़ी, इक्का और पैदल यह फिल्म देखने पहुंचे. कोलकाता में इस फिल्म ने डायमंड जुबली मनायी. इसके बाद धड़ाधड़ भोजपुरी फिल्में बनने लगीं.
डॉ. अंकुर के अनुसार, 1963 से 1967 के बीच 100 से अधिक फिल्में प्रदर्शित हुईं. इनमें ‘विदेशिया’, ‘लागी नाहीं छूटे रामा’, ‘नइहर छूटल जाय’, ‘हमार संसार’, ‘बलमा बड़ा नादान’, ‘कब होई गवना हमार’, ‘जेकरा चरनवा में लगले परनवा’, ‘सइंया से भइले मिलनवा’, ‘हमार संसार’, ‘भौजी’ आदि प्रमुख थे. विदेशिया में भोजपुरी के मशहूर नाटककार भिखारी ठाकुर को गाते हुए दिखाया गया था.
इसी बीच रंगीन फिल्मों का दौर शुरू हुआ और सिनेमा की तकनीक भी बदली. कम पूंजी के कारण भोजपुरी सिनेमा पिछड़ गया और ठहराव का एक दौर शुरू हुआ.
लंबे ठहराव के बाद 1977 से 1982 तक भोजपुरी फिल्मों का दूसरा दौर शुरू हुआ. ‘दंगल’, ‘बलम परदेसिया’, ‘धरती मइया’, ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ आदि फिल्मों ने सफलता का नया इतिहास बनाया.
डॉ. अंकुर के अनुसार, 90 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए सन्नाटे का दौर रहा. इस दौरान कम फिल्में बनीं. इक्का-दुक्का फिल्में बनती रहीं लेकिन कोई बड़ी फिल्म इस दौर से गायब रही.
‘ससुरा बड़ा पइसावाला’ से शुरू हुए भोजपुरी सिनेमा के ‘अच्छे दिन’
वर्ष 2000 के बाद भोजपुरी फिल्म उद्योग में फिर गति आई और 2005 में ‘ससुरा बड़ा पइसावाला’ से बाजार के दृष्टिकोण से सुनहरा दौर शुरू हुआ. भोजपुरी के गायक भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार हो गए जिनमें- मनोज तिवारी, गुड्डू रंगीला, दिनेश लाल यादव निरहुआ, खेसारी लाल यादव, पवन सिंह, अरविंद चौबे उर्फ़ कलुआ के नाम प्रमुख हैं.
इनमें रवि किशन एक अपवाद के रूप में हैं, जो गायक न होते हुए भी भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार बने. आज इनमें से कई कलाकार एक फिल्म में फीस के रूप में 50 लाख से एक करोड़ लेते हैं.
बाजार की दृष्टि से भोजपुरी फिल्में भले कमाई करने लगीं लेकिन कंटेंट के लिहाज से वे बहुत कमजोर और भोजपुरी भाषा, संस्कृति व समाज से कटी हुई थीं. भोजपुरी फिल्मों के इस दौर में अधिकतर भोजपुरी फिल्मों की भाषा सिर्फ भोजपुरी थी, बाकी वे हर दृष्टि से मुंबइया फिल्मों की फूहड़ कॉपी ही थे. भोजपुरी फिल्मों के डायलॉग और गीत द्विअर्थी होते गए.
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य में फिल्मों की शूटिंग करने पर फिल्म लागत का 25 फीसदी अनुदान देने से भी भोजपुरी फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन मिला.
ठहराव का नया दौर
लेकिन पिछले तीन-चार वर्षों से एक बार फिर भोजपुरी फिल्मों में ठहराव का दौर आया है हालांकि संख्या के हिसाब से फिल्में अभी भी कम नहीं बन रही है.
सेंसर बोर्ड के रिकॉर्ड के अनुसार, 2014-15 में 96, 2015-16 में 67 और 2016-17 में 102 भोजपुरी फिल्मों के सर्टिफिकेट जारी हुए. आज भी औसतन हर वर्ष 70-80 भोजपुरी फिल्में बन रही हैं, लेकिन इस दौर का बड़ा बदलाव यह है कि सिनेमा हाल में भोजपुरी फिल्मों के दर्शक गायब हो रहे हैं.
जिस हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में सिनेमा हाल बंद हो रहे हैं, उससे तो ग्रामीण क्षेत्र के दर्शकों को सिनेमा हाल में फिल्म देखने का कोई विकल्प ही नहीं रह जाएगा.
भोजपुरी के कवि, फिल्म समीक्षक और महुआ, हमार टीवी और अंजन टीवी चैनल में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके मनोज भावुक कहते हैं, ‘सिनेमा हाल में दर्शक जरूर कम हुए हैं लेकिन उन्हें दूसरे कई प्लेटफॉर्म पर भोजपुरी सिनेमा व गीतों से जुड़ने का मौका मिल रहा है. स्मार्ट फोन पर भोजपुरी फिल्म व गीतों को देखने वाले बढ़े हैं.’
वे कहते हैं, ‘भोजपुरी चैनलों की संख्या भी बढ़ रही है, जो भोजपुरी सिनेमा को भी दिखाते हैं. ‘बिग गंगा’ चैनल पर हर सप्ताह भोजपुरी फिल्म दिखायी जाती है. ‘ढिशूम’ चैनल भी भोजपुरी फिल्में दिखाता है. ‘महुआ’, ‘हमार टीवी’ व ‘अंजन’ पर भी खूब भोजपुरी फिल्में दिखाई गईं और उन्हें दर्शक भी मिले.’
भावुक कहते हैं, ‘भोजपुरी सिनेमा सिकुड़ नहीं रहा है. बिहार और यूपी में जरूर मार्केट ठहरा है लेकिन गैर भोजपुरी प्रदेशों- झारखंड, छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में भोजपुरी फिल्में दिखाई जा रही हैं और उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं.’
वे कहते हैं, ‘भोजपुरी फिल्मों का अभी और विस्तार होगा. अभी गिरमिटया देशों में जहां भोजपुरी भाषा बोलने वाले लाखों में हैं, वहां भोजपुरी फिल्में प्रदर्शित ही नहीं होतीं. भोजपुरी फिल्मों का अभी ओवरसीज मार्केट बना ही नहीं है.’
उन्होंने बताया, ‘भोजपुरी फिल्मों में अब पेशेवर प्रोड्यूसर पैसा लगा रहे है. भोजपुरी फिल्मों की तकनीक सुधरी है. इधर कई अच्छी फिल्में भी आई हैं जो गंभीर दर्शकों को भी अपने से जोड़ने में सफल होंगी.’
मनोज भावुक आने वाली भोजपुरी फिल्म ‘बिटिया छठी माई के’ का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इस तरह की फिल्में भोजपुरी फिल्मों के प्रति बने पूर्वाग्रह को बदलेंगी.
भोजपुरी फिल्म बनाने, उसमें अभिनय करने का जुनून में बर्बाद होते लोग
‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’ के हिट होने से भोजपुरी इलाकों खासकर यूपी, बिहार में तमाम शौकिया लोग भी भोजपुरी सिनेमा बनाने की तरफ प्रेरित हुए. इन लोगों में खुद को सिनेमा स्क्रीन पर दिखने का भी जुनून था. इन्ही में से एक देवरिया जिले के खुखुंदू क्षेत्र के रहने वाले गायक नरेंद्र सागर हैं.
वह इस इलाके में स्टेज प्रोग्राम करते थे और मशहूर थे. उन्होंने ठीक-ठाक पैसा भी बनाया. तभी उन पर फिल्म बनाने और उसमें लीड रोल करने का भूत चढ़ा. उन्होंने ‘प्यार काहे बनावल गईल’ फिल्म बनाने में पूरी जमा पूंजी लगा दी. दोस्तों से उधार लिया. बोलेरो गाड़ी बेच दी.
बड़ी मुश्किल से फिल्म बनी लेकिन उसका कोई खरीदार नहीं मिला. उन्होंने अपने नेटवर्क के जरिये उसे दिखाने की कोशिश की. सलेमपुर में एक सिनेमा हाल में उनकी फिल्म लगी जरूर लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं चली सारा पैसा डूब गया. तबसे वह गायिकी के क्षेत्र में फिर से पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं.
यही कहानी बलरामपुर जिले के उतरौला कस्बा निवासी रज्जब अली की है. उन्होंने खुद के लीड रोल वाली फिल्म ‘जिद तुमको पाने की’ बनाई. इसमें उन्होंने 19 लाख रुपये लगाए. फिल्म का निर्देशन गोरखपुर के देशबंधु ने किया. फिल्म की शूटिंग कुशीनगर जिले के हाटा में हुई थी. यह फिल्म मार्च 2017 में रिलीज हुई.
देशबंधु ने बताया कि रिलीज होने में पहली दिक्कत यह आई कि यह फिल्म डिजिटल सिनेमा डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क पर थी, उससे जुड़े सिनेमा हाल गोरखपुर शहर में थे ही नहीं. यह फिल्म बलिया के सिनेमा हाल में चली लेकिन सफल नहीं रही. यूट्यूब पर इसे रिलीज करने व इसके म्यूजिक राइट बेचने के बाद भी 17 लाख रुपये निकल सके.
कुशीनगर जिले के रहने वाले एक फिल्म निर्माता मो. नसीम एक फिल्म बनाने के बाद ही आर्थिक रूप से काफी संकट में आ गए. उन्होंने एक वर्ष पहले ‘हिटलर’ नाम की भोजपुरी फिल्म बनाई थी. इसमें उन्होंने खुद अभिनय किया था. इसकी लागत करीब 80 लाख थी. इसमें बतौर हीरो नेपाल के अभिनेता विराज भट्ट और हीरोइन मोनालिसा ने काम किया था. यह फिल्म बमुश्किल एक सप्ताह भी नहीं चल पाई और बुरी तरफ फ्लॉप हो गई.
ये हालात बताते हैं कि फिल्मों से राजनीति में आए अभिनेता भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री की आज के हालात बताने के बजाय गोरखपुर-बनारस में फिल्म सिटी बनाने और भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री का विकास करने का ‘सब्ज़बाग’ दिखा रहे हैं. आखिर ‘निरहुआ’ लंदन जाने के बजाय आजमगढ़ और रवि किशन ‘केहू हमसे जीत न पाई’ का अगला सीक्वल बनाने गोरखपुर यूं ही तो नहीं आ गए.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)