दो फैसले, जिन्होंने बताया कि संविधान संसद से ऊपर है

न्यायपालिका को कमज़ोर करने की कोशिशें भारतीय लोकतंत्र के मूल चरित्र के लिए ख़तरा हैं. मगर अफ़सोस की बात है कि इसे बहुमत का समर्थन हासिल है.

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देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संविधान की प्रति पर दस्तख़त करते हुए. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

प्रासंगिक: न्यायपालिका को कमज़ोर करने की कोशिशें भारतीय लोकतंत्र के मूल चरित्र के लिए ख़तरा हैं. मगर अफ़सोस की बात है कि इसे बहुमत का समर्थन हासिल है.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संविधान की प्रति पर दस्तख़त करते हुए. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संविधान की प्रति पर दस्तख़त करते हुए. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

हाल के वर्षों मे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रिश्ते बहुत मधुर नहीं रहे हैं. न्यायपालिका पर अपनी सीमा का अतिक्रमण करने का आरोप रह-रह कर लगता रहा है. कई मौक़ों पर न्यायपालिका के शीर्षस्थ सदस्यों ने न्यायिक पीठों को नुकसान पहुंचाने वाले मुद्दों को सुलझाने में कार्यपालिका की नाकामी को लेकर अपनी निराशा भी जताई है. राज्य के दो अहम स्तंभों के बीच रिश्ते की नींव कहे जाने वाले विश्वास और सम्मान की ग़ैरमौजूदगी सबके सामने ज़ाहिर है.

न सिर्फ़ इस सरकार, बल्कि पिछली सरकारों के भी कई सदस्यों की यह शिकायत रही है कि न्यायपालिका आदतन कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दख़ल देती है. इस आरोप को क़ानूनविदों का समर्थन भी मिलता रहा है, क्योंकि इसके कई फ़ैसले न्यायिक सक्रियता की हदों को पार करने की प्रवृत्ति की गवाही देते हैं.

कार्यपालिका की कोशिश रही है कि वह न्यायपालिका को अपने वश में करे और अपनी लक्ष्मण रेखा के पार जाकर न्यायपालिका ने उसे इसका एक बहाना दिया है. न्यायपालिका को कमज़ोर करने की कोशिशें भारतीय लोकतंत्र के मूल चरित्र के लिए ख़तरा हैं. मगर अफ़सोस की बात है कि इसे बहुमत का समर्थन हासिल है. इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि यह सरकार, इंदिरा सरकार के स्वघोषित वामपंथी मोहन कुमार मंगलम द्वारा सामने रखे गए उद्देश्यों को आगे बढ़ा रही है, जो वैचारिक स्तर पर इसके विरोध में पड़ते हैं.

1973 में न्यायपालिका, संविधान में मनमर्जी से संशोधन करने की उस वक़्त की प्रधानमंत्री की इच्छाओं के आगे दीवार की तरह खड़ी हो गई थी. इससे चिढ़ कर तत्कालीन स्टील मंत्री कुमार मंगलम ने अपने मंत्रालय के कामों के दायरे से बाहर निकल कर एक ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ का विचार सामने रखा. इस दौर में ख्यातिनाम जजों के साथ की गयी कठोरता का दुखद प्रकरण इसी सोच का नतीजा था.

तबसे लेकर अब तक न्यायपालिका को अपना आज्ञाकारी बनाने की कोशिश होती रही है. साथ ही यह कोशिश भी की जाती रही है कि जज अपना पहला काम विधायिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन स्थापित करना स्वीकार करें. कुछ राजनेता, ख़ासतौर पर जब वे सत्ता में होते हैं, खुले तौर पर ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ का समर्थन करते रहे हैं. लेकिन भीतर ही भीतर ऐसा चाहने वालों की कोई कमी नहीं है.

ऐसा नहीं है कि आज़ादी के बाद हालात हमेशा ऐसे ही थे. जवाहरलाल नेहरू को न्यायपालिका द्वारा संविधान की व्याख्या से दिक्कत थी. यहां तक कि इसके कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार को लेकर पहला संशोधन भी हुआ, लेकिन फिर भी नेहरू ने न्यायपालिका के प्रति ज़बरदस्त सम्मान का परिचय दिया.

लेकिन ठीक आधी सदी पहले, 1967 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गोलकनाथ मामले में अपना फ़ैसला सुनाने के साथ पटकथा बदलने लगी. गोलकनाथ के फ़ैसले से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच उपजी तनातनी 6 वर्षों से ज़्यादा समय तक चलती रही, जब तक कि 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले में अपना फ़ैसला नहीं सुना दिया. इस फ़ैसले ने तब से लेकर अब तक संविधान के मूलभूत चरित्र (बेसिक कैरेक्टर) को बचाने का काम किया है.

भारतीय सुप्रीम कोर्ट (फोटो: रायटर्स)
भारतीय सुप्रीम कोर्ट (फोटो: रॉयटर्स)

फरवरी, 1967 से अप्रैल, 1973 तक, तब की सरकार ने योजनाबद्ध तरीक़े से संसद को मौलिक अधिकारों समेत संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने या उसे कम करने की अबाध शक्तियां प्रदान करने की कोशिश की. प्रशासन और न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के रिश्ते से जुड़े इस अध्याय को याद करना दो कारणों से ज़रूरी हो गया है. पहला, देश में एक पार्टी के वर्चस्व का दौर फिर से लौट आया है; दूसरा, श्रीमती गांधी और नरेंद्र मोदी की शख़्शियत में काफ़ी समानताएं हैं. यह ज़रूर है कि इस नैरेटिव को उस दौर के राजनीतिक घटनाक्रमों के इर्द-गिर्द ही बुनना होगा.

गोलकनाथ मामले में फ़ैसला, इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर नया कार्यकाल देने वाले चौथे लोकसभा चुनाव के परिणामों के चंद दिनों के भीतर ही आ गया था. संसद में बहुमत हासिल करने के बावजूद कांग्रेस कई राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई थी. कई राज्यों में गठबंधन की सरकारों के गठन और कांग्रेस के इक़बाल में गिरावट के बीच श्रीमती गांधी पार्टी के भीतर भी सत्ता के लिए कटु संघर्ष में फंस गयी थीं. मगर वे अपनी नियति ख़ुद लिखना चाहती थीं. अपने मक़सद को पूरा करने के लिए इंदिरा गांधी असीमित शक्तियां और एक संशोधित संविधान चाहती थीं. इसके लिए उन्होंने न्यायपालिका को भी अपने अनुकूल बनाना चाहा.

गोलकनाथ केस का जन्म इसी नाम के एक परिवार द्वारा पंजाब में भूमि हदबंदी क़ानून के तहत उनकी खेती की ज़मीन के अधिग्रहण को चुनौती देने से हुआ. हालांकि, यह केस श्रीमती गांधी के कार्यकाल के पहले से चला आ रहा था, लेकिन यह संवैधानिक रूप से एक मील का पत्थर बन गया. इसने राजनीतिक उथल-पुथल को जन्म दिया, क्योंकि इस परिवार ने इस आधार पर अपनी भूमि के अधिग्रहण को चुनौती दी थी कि यह उसके संपत्ति रखने, अर्जित करने और कोई भी व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार का हनन करता है.

गोलकनाथ परिवार ने यह भी तर्क दिया कि उनकी ज़मीन का अधिग्रहण संविधान द्वारा दिए गए क़ानून के समक्ष समानता और क़ानून के समान संरक्षण के मौलिक अधिकारों के ख़िलाफ़ ठहरता है. इस केस ने एक बेहद महत्वपूर्ण सवाल उठाया: क्या मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है? इस मामले मे 11 जजों वाली पीठ ने, पांच जजों वाली पीठ द्वारा एक पूर्व मामले (शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ) में सुनाए गए फ़ैसले की समीक्षा की, जिसमें कहा गया था कि संसद के पास संविधान के किसी भी भाग का संशोधन करने का अधिकार है.

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फ़ैसले को पलट दिया और यह कहा कि संसद को मौलिक अधिकारों का खंडों में या पूर्णता में संशोधन करने का अधिकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भले राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को लागू कराना राज्य का कर्तव्य है, लेकिन ऐसा मौलिक अधिकारों में बदलाव करके नहीं किया जा सकता है. श्रीमती गांधी ने इस फ़ैसले को पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण हासिल करने की अपनी कोशिशों में एक अवरोध के तौर पर देखा.

जुलाई, 1969 में यानी गोलकनाथ फ़ैसले के दो साल पांच महीने के बाद अपनी राजनीतिक आक्रामकता के तहत श्रीमती गांधी ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इस फ़ैसले को तत्काल चुनौती दी गयी और सात महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को असंवैधानिक घोषित कर दिया. कुछ महीने बाद सरकार ने रजवाड़ों को दिये जाने वाले प्रीवी पर्स को समाप्त करने की घोषणा की, मगर दिसंबर, 1970 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को भी ग़ैरक़ानूनी क़रार दे दिया.

यह निष्कर्ष निकालते हुए कि अब तक जनता उनके पक्ष में आ चुकी है, श्रीमती गांधी ने संसद को भंग कर दिया और मार्च 1971 में देश का पहला मध्यावधि चुनाव कराने का ऐलान कर दिया. इस चुनाव में उन्होंने भले ही महागठबंधन को भारी शिकस्त दी हो, लेकिन वे उनके ख़िलाफ़ गये न्यायपालिका के तीन फ़ैसलों से अब भी चिढ़ी हुई थीं.

न्यायपालिका के पर कतरने पर आमादा इंदिरा गांधी ने एक के बाद एक कई संविधान संशोधन प्रस्तावित किये, जिनका मक़सद सरकार को मौलिक अधिकारों को सीमित करने, बदलने या उन्हें पूरी तरह से ख़त्म करने की असीमित शक्ति देना था. एक अमेरिकी पत्रकार ने उस समय कहा था कि वे ‘दुनिया की सबसे ताक़तवर महिला बनने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं’ और ‘युद्ध की तैयारी की आड़’ में वे ‘सोवियत संघ के पैटर्न पर एक समाजवादी तानाशाही की स्थापना कर रही हैं.’

‘द स्टेट्समैन’ का संपादकीय तो और डरावना था : ‘इसके निहितार्थ आश्चर्यचकित करने वाले हैं. संसद के पास अब सात स्वतंत्रताओं को छीन लेने, नागरिकों को प्राप्त सुनवाई के अधिकार को समाप्त करने और देश के संघीय चरित्र को बदलने की शक्ति आ गयी है.’

प्रस्तावित किए गए तीन संविधान संशोधन विधेयकों- 24वां, 25वां और 26वां में से पहला गोलकनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के प्रभावों को निरस्त करने के लिए था, तो बाक़ी दो बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीवीपर्स के मामले में न्यायपालिका के आदेश को अप्रभावी बनाने के लिए था. 24वें संविधान संशोधन के तहत अनुच्छेद 13 और 368 को संशोधित किया गया. अनुच्छेद 13 को इस तरह संशोधित किया गया ताकि यह अनुच्छेद 368 पर लागू न हो. और अनुच्छेद 368 के संशोधित रूप ने संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की शक्ति दे दी.

इन संशोधनों के ज़रिए सरकार ने तकलीफ़ पैदा करने वाले तीन फ़ैसलों से उत्पन्न अवरोधों को हटा दिया. लेकिन न्यायपालिका के साथ श्रीमती गांधी का झगड़ा यहीं ख़त्म नहीं हुआ. केरल के एक मठ के प्रमुख ने राज्य सरकार के उस आदेश को चुनौती दी, जिसके द्वारा संस्था की संपत्ति का प्रबंधन करने के उसके अधिकार को सीमित किया गया था. न्याय का पहिया धीरे-धीरे घूम रहा था, लेकिन जैसा कि बाद की घटनाओं ने दिखाया, परिणाम बेहद पुख़्ता रहे.

भारत के न्यायिक इतिहास में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य नाम से प्रसिद्ध इस केस का नाम मठ के पुजारी के नाम पर पड़ा (हालांकि, उनकी मुलाकात कभी अपने वकील नाना पालखीवाला से नहीं हुई.). यह मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा.

चूंकि यह केस भी संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन की शक्तियों की व्याख्या से संबंधित था, इसलिए इस केस की सुनवाई एक 13 जजों वाली पीठ ने की क्योंकि गोलकनाथ केस की सुनवाई 11 जजों वाली पीठ पहले ही कर चुकी थी. अप्रैल, 1973 में जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना फ़ैसला सुनाया तब सुनवाई कर रही पीठ दोफाड़ हो गयी थी. 7 जज फ़ैसले के पक्ष में थे और 6 विपक्ष में. पिछले केस का फ़ैसला भी ऐसे ही हुआ था, 6-5 के बहुमत से.

केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने गोलकनाथ मामले में दिये गये फ़ैसले को पलटते हुए कहा कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की शक्ति है, बशर्ते संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) को न बदला गया हो. सरकार के लिए यह आधी जीत थी. सरकार के प्राथमिक पक्ष को तो कोर्ट ने मान लिया था, मगर फिर भी संविधान के साथ छेड़छाड़ करने की असीमित शक्ति उसे नहीं मिली थी. दोनों पक्षों के लिए इस फ़ैसले में कुछ न कुछ था, लेकिन सबसे अहम जीत हुई थी भारत के संविधान की और इसकी मूल भावना को बचाने के जज़्बे की, जो इस क़ानूनी लड़ाई के केंद्र में था.

कोर्ट ने शक़ की कोई गुंजाइश छोड़े बग़ैर यह फ़ैसला सुनाया कि संविधान का ‘मूलभूत ढांचा’ (बेसिक स्ट्रक्चर) एक पवित्र चीज़ है. इस फ़ैसले ने तब से लेकर आज तक संविधान को शक्ति दी है और इस यक़ीन का आधार बना है कि एक पार्टी के वर्चस्व के दौर की वापसी भारत की संवैधानिक व्यवस्था को कमज़ोर नहीं करेगी.

फिर भी, गोलकनाथ फ़ैसले की आधी सदी के बाद, जिसने तत्कालीन सरकार में क़ानूनों को अपनी इच्छानुसार बदलने का दृढ़ संकल्प पैदा किया था, यह पूरा प्रकरण हमें भविष्य के ख़तरों से आगाह करता है. केशवानंद भारती फ़ैसले का महत्व अपनी जगह पर है, लेकिन यह भी सच है कि इसने ‘मूलभूत ढांचे’ (बेसिक स्ट्रक्चर) को परिभाषित न करके, अस्पष्ट छोड़ दिया.

फिर भी, इस सिद्धांत की अमूर्तता के बावजूद बाद की घटनाओं ने सुप्रीम कोर्ट को दुनिया की सबसे शक्तिशाली संस्थाओं में से एक के तौर पर प्रतिष्ठित करने का काम किया. इन घटनाक्रमों ने यह फ़ैसला कर दिया कि संसद को संविधान ने बनाया है, न की संविधान को संसद ने. लेकिन आज के भारत में इस निष्कर्ष को अटल नहीं माना जा सकता. जब संस्थाओं को अधीन बनाया जाता है, तब क्या किसी विचार से पीछा छुड़ाने में ज्यादा वक़्त लगता है?

(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक एवं पत्रकार हैं. उन्होंने ‘नरेंद्र मोदी: द मैन और ‘द टाइम्स’ एंड सिख्स: द अनटोल्ड एगनी ऑफ 1984’ जैसी किताबें लिखी हैं.)

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