भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार हो या केंद्र की मोदी सरकार, अपने फ़ैसलों में दोनों कदम-दर-कदम पुराने दिनों वाली कांग्रेसी सरकार के निर्णयों की ही पुनरावृत्ति करती दिखाई दे रही हैं. योगी सरकार ने ट्वीट के लिए गिरफ़्तारी करवाई है, वहीं इसी प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेस के जीबी पंत ने गीतकार शैलेंद्र की एक कविता पर प्रतिबंध लगाया था.
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की भाजपा सरकार द्वारा योगी को लक्ष्य कर किए गए एक मजाकिया ट्वीट को लेकर स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया को गिरफ्तार कर लिया गया- ऐसे कि सर्वोच्च न्यायालय को पूछना पड़ा कि क्या उन्होंने हत्या जैसा कोई अपराध किया है- तो बहुत से लोगों को इसी प्रदेश की गोविंदवल्लभ पंत की कांग्रेस सरकार द्वारा 1948 में किया गया एक इससे भी ज्यादा संगीन मजाक याद आ गया.
यह याद आना अकारण नहीं था. आजकल भाजपा की उत्तर प्रदेश की योगी सरकार हो या केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार, दोनों कदम-दर-कदम पुराने दिनों वाली कांग्रेसी सरकारों की ऐसी ऐसी यादें दिला रही हैं, जिन्हें महज संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता.
हो सकता है कि उन्हें उक्त कांग्रेस सरकारों से आगे निकले बगैर चैन न आ रहा हो, लेकिन वे भूल जा रही हैं कि इससे उनके उन समर्थकों को बहुत निराशा हो रही है, जिन्होंने अतिरिक्त उत्साह के साथ उन्हें इस उम्मीद में चुना है कि वे कांग्रेस सरकारों की भोंड़ी नकल में बदल जाने के बजाय देश-प्रदेश को शासन व सत्ता के नए पैटर्न से रूबरू कराएंगी.
खैर, पहले योगी सरकार का संदर्भ. प्रशांत कनौजिया को गिरफ्तार करके उसने गोविंदवल्लभ पंत की कांग्रेस सरकार के जिस मजाक को मात दे डाली, पंत सरकार ने उसे लोकप्रिय गीतकार शैलेंद्र की रची एक चर्चित कविता को प्रतिबंधित करके किया था.
इस कविता का इतिहास यह है कि 1948 में बिहार प्रदेश किसान सभा के नेता सहजानंद सरस्वती शैलेंद्र के साथ भगत सिंह के शहादत दिवस पर जालंधर में आयोजित एक सभा में भाग लेने पहुंचे तो पुलिस के सिपाहियों ने उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही रोक लिया और बताया कि प्रशासन ने शहर में धारा 144 लगा दी है, इसलिए वे सभास्थल नहीं जा सकते.
सहजानंद सरस्वती और शैलेंद्र किसी को ऐसे सरकारी सलूक की उम्मीद नहीं थी. सो, उन्होंने सिपाहियों से कहा कि या तो वे उन्हें सभास्थल तक जाने दें या धारा 144 तोड़ने को लेकर गिरफ्तार कर लें. बाद में इससे पीड़ित शैलेंद्र ने वहीं रेलवे स्टेशन पर ही अपनी यह कविता रची-
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे
बम्ब-सम्ब को छोड़ो भाषण दिया तो पकड़े जाओगेनिकला है कानून नया चुटकी बजते बंध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो सीधे मुक्ति पाओगे
कांग्रेस का हुक्म, जरूरत क्या वारंट तलाशी की!
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से
रुत ऐसी है अब दिल्ली की आंख लड़ी है लंदन से,
कामनवेल्थ कुटुंब देश को खींच रहा है मंतर से
प्रेम विभोर हुए नेतागण, रस बरसा है अम्बर से
योगी हुए वियोगी दुनिया बदल गयी बनवासी की!
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!गढ़वाली जिसने अंग्रेजी शासन में विद्रोह किया,
वीर क्रांति के दूत, जिन्होंने नहीं जान का मोह किया,
अब भी जेलों में सड़ते हैं न्यू मॉडल आजादी है,
बैठ गए हैं काले, पर गोरे जुल्मों की गादी है,
वही रीति है वही नीति है, गोरे सत्यानासी की!
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!सत्य अहिंसा का शासन है रामराज्य फिर आया है,
भेड़-भेड़िये एक घाट हैं, सब ईश्वर की माया है,
दुश्मन ही जब अपना, टीपू जैसों का क्या करना है,
शांति सुरक्षा की खातिर हर हिम्मतवर से डरना है,
पहनेगी हथकड़ी भवानी रानी लक्ष्मी झांसी की!
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की!
लेकिन नवंबर, 1948 में यह कविता नरोत्तम नागर के संपादन में ‘हंस’ में छपी तो पंजाब तो पंजाब उत्तर प्रदेश की गोविंद वल्लभ पंत सरकार को भी इसमें निहित ‘दो टूक’ या ‘खरी-खरी’ आलोचनात्मकता रास नहीं आई.
उसने मई, 1949 में इस कविता पर प्रतिबंध लगाकर ही चैन पाया. प्रतिबंध के सरकारी आदेश में लिखा गया- ‘यह कविता निर्वाचित सरकार के प्रति आम लोगों में घृणा जगाती है.’
दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में सत्ता स्वार्थों के कारण भाजपा व तृणमूल कांग्रेस में ही नहीं, केंद्र व प्रदेश सरकारों तक में निरंतर तीखा हो रहा टकराव भी 1959 के केरल के घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति ही है.
उन दिनों केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने खुद ही केरल की ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली न सिर्फ केरल या देश बल्कि दुनिया की पहली निर्वाचित वामपंथी सरकार के खिलाफ हिंसक आंदोलन आरंभ किए, फिर उसकी पं. जवाहरलाल नेहरू सरकार ने उन्हीं आंदोलनों को काबू न कर पाने को बहाना बनाकर संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके उसे बर्खास्त कर दिया.
इन दिनों भाजपा ने पश्चिम बंगाल को अपनी नयी प्रयोगशाला बनाकर भांति-भांति के आंदोलनों से उसकी तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी सरकार की नाक में दम कर रखा है, तो स्वाभाविक ही उसमें 1959 की कांग्रेस का अक्स नजर आता है.
यकीनन, इसके पीछे उसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव के पहले से ही बढ़ती चुनावी व राजनीतिक हिंसा को राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों तक सरगर्म रखना है.
इस क्रम में वह अपने आंदोलनों को अपना लोकतांत्रिक हक बताकर उनमें होने वाली हिंसा को लेकर ममता सरकार की बर्खास्तगी की मांग करती है तो क्या पता याद भी रख पाती है या नहीं कि केंद्र व राज्य में सत्तारूढ़ दलों के टकराव की कोई नई मिसाल नहीं बनाती- 1959 का केरल ही दोहराती है.
दरअसल, केरल में पांच अप्रैल, 1957 को सत्ता संभालते ही नम्बूदरीपाद सरकार ने भूमि और सामाजिक सुधार के कई कार्यक्रम तय किए और तेजी से उनकी दिशा में बढ़ना शुरू किया. भूमिहीन किसानों को खेती के उपयुक्त जमीन दिलाना, ऋणमाफी और जमींदारों की ताकत कम करना भी इनमें शामिल थे.
लेकिन शिक्षा-सुधार का एक विधेयक, जिसके कानून बन जाने पर राज्य की नीतियों का पालन न करने वाले निजी स्कूलों का अधिग्रहण कर लिया जाना था, इस सरकार पर बहुत भारी पड़ा.
उन दिनों केरल में शिक्षातंत्र पर ईसाई मिशनरियों के साथ कुछ हिंदू संगठनों का भी प्रभुत्व था. इसलिए कांग्रेस ने अपनी महत्वाकांक्षी अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में नम्बूदरीपाद सरकार के शिक्षा विधेयक के खिलाफ आंदोलन भड़काया और उसको ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ का नाम दिया, तो ईसाई मिशनरियों व हिंदू संगठनों के साथ कई मुस्लिम संगठन भी उसके साथ हो लिए.
यहां तक कि नम्बूदरीपाद सरकार से नाराज नायर समाज के लोकप्रिय ‘संत’ नेता मन्नत पद्मनाभन पिल्लई भी. जुलाई, 1959 में इस विधेयक के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे तो नम्बूदरीपाद सरकार ने बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां कराने के साथ उन पर पुलिस फायरिंग व लाठीचार्ज भी करा दिया.
इससे हुई मौतों से असंतोष और भड़क गया तो खराब कानून व्यवस्था के हवाले से कांग्रेस केंद्र से हस्तक्षेप और नम्बूदरीपाद सरकार को बर्खास्त करने की मांग करने लगी. हालांकि इससे पहले केरल गए प्रधानमंत्री पं. नेहरू इस सरकार के भूमि सुधार और अन्य कार्यक्रमों की प्रशंसा कर आए थे और उनको उसके शिक्षा विधेयक से भी कोई परेशानी नहीं थी.
लेकिन श्रीमती गांधी की ओर से उसकी बर्खास्तगी का दबाव बढ़ा तो वे उसे झेल नहीं सके और 31 जुलाई 1959 को केरल के राज्यपाल के केंद्र द्वारा हस्तक्षेप की लिखित मांग प्रस्तुत करते ही उन्होंने उसका मनचाहा कर दिया. भले ही श्रीमती इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी तक ने इसकी कड़ी आलोचना की.
लेकिन घटनाक्रमों की समानता के बावजूद 1959 के केरल और 2019 के पश्चिम बंगाल के हालात में दो बड़े फर्क नजर आते हैं. पहला यह कि तब ‘धर्मसंकट’ से घिरे प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पार्टी की अध्यक्ष कहें या बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी के दबाव में नम्बूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कराया भी, तो उसके अपराधबोध से उबर नहीं पाए.
लेकिन आज उनसे बड़ा ‘नायक’ बनने की कोई कसर न रखने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी द्वारा पश्चिम बंगाल में किए जा रहे प्रयोगों को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है. उल्टे वे उन्हें प्रोत्साहित ही करते आ रहे हैं.
लोकसभा चुनाव के दौरान एक रैली में उन्होंने अपने पद की संवैधानिक नैतिकताओं व मर्यादाओं को धता बताकर यह दावा भी कर डाला था कि तृणमूल कांग्रेस के अनेक विधायक उनके संपर्क में हैं और लोकसभा चुनाव के नतीजे आते ही वे पाला बदलकर ममता सरकार गिरा देंगे. फिलहाल, अभी तक उनका यह दावा सही नहीं सिद्ध हुआ है.
दूसरा फर्क यह कि चूंकि मौसम के बदलाव के साथ देश की नदियों में 1959 से लेकर अब तक बहुत पानी बह चुका है, मोदी भाजपा के मांग करने के बावजूद ममता सरकार की बर्खास्तगी के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं करने वाले. उन्हें मालूम है कि कम से कम दो कारणों से इस अनुच्छेद के इस्तेमाल का दांव उल्टा पड़ सकता है.
पहला यह कि ‘शातिर’ ममता शहादत का चोला ओढ़कर राज्य के मतदाताओं की सहानुभूति प्राप्त कर सकती हैं, जिससे भाजपा को वैसा ही नुकसान हो सकता है जैसा लोकसभा चुनाव के दौरान अमित शाह की रैली के बाद विद्यासागर कॉलेज में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति के ध्वंस के कारण उसे उठाना पड़ा था.
फिर ममता का राज्य सरकार के संचालन की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर विधानसभा चुनाव में जाना भी भाजपा की संभावनाओं के प्रतिकूल ही होगा. बर्खास्तगी के बाद वे अभी जितनी अकेली भी नहीं रह जाएंगी, विपक्षी दलों का देशव्यापी समर्थन हासिल कर लेंगी.
और न्यायिक समीक्षा में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में हुआ तो उनकी बल्ले-बल्ले हो जायेगी और मोदी सरकार को लेने के देने पड़ जाएंगे.
हां, आप चाहें तो तीसरा फर्क भी महसूस कर सकते हैं: केरल में कांग्रेस ने किसी निर्वाचित सरकार की बर्खास्तगी का कलंक झेला तो केरल ही नहीं कई अन्य राज्यों में भी विपक्षी दलों पर उसकी बढ़त घटत में बदलने लगी थी.
उड़ीसा में गणतंत्र परिषद ने तो जैसे उसका सूर्य ही डुबो दिया था- 1957 के लोकसभा चुनाव में उसको राज्य की 20 में महज सात सीटें ही मिलने दी थीं. महाराष्ट्र और गुजरात में भी उसका कड़ी टक्कर से सामना था तो दक्षिण में एक नये देश द्रविड़नाडु की मांग को लेकर आंदोलन से.
उसके उलट भाजपा अपनी बढ़त के दिनों में भी अपनी लोकतांत्रिकता को लेकर गंभीर नहीं और उससे समझौतों में उसकी सरकारें किसी भी हद तक जाती दिख रही हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)