सत्ता के मन में उपजे हिंदी प्रेम के पीछे राजनीति है, न कि भाषा के प्रति लगाव

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पहले मसौदे में हिंदी थोपने की कथित कोशिश पर मचे हंगामे को देखते हुए एक बात साफ है कि इस हो-हल्ले का हिंदी से कोई वास्ता नहीं है. हिंदी थोपने या ख़ारिज करने की इच्छा का संबंध हिंदी राष्ट्रवाद, धर्म, जाति और अंग्रेज़ी से एक असहज जुड़ाव जैसी बातों से हो सकता है, मगर इसका संबंध उस भाषा से कतई नहीं है, जिसका नाम हिंदी है.

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फोटो साभार: Harish Sharma/Pixabay

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पहले मसौदे में हिंदी थोपने की कथित कोशिश पर मचे हंगामे को देखते हुए एक बात साफ है कि इस हो-हल्ले का हिंदी से कोई वास्ता नहीं है. हिंदी थोपने या ख़ारिज करने की इच्छा का संबंध हिंदू राष्ट्रवाद, धर्म, जाति और अंग्रेज़ी से एक असहज जुड़ाव जैसी बातों से हो सकता है, मगर इसका संबंध उस भाषा से कतई नहीं है, जिसका नाम हिंदी है.

फोटो साभार: Harish Sharma/Pixabay
फोटो साभार: Harish Sharma/Pixabay

भारत में बात जब भाषाई बहसों की आती है, तो थोड़ी नीरसता का खतरा हमेशा बना रहता है. आवेग, क्रोध और दलीलों का एक लंबा इतिहास है और ये जरूरत से ज्यादा परिचित होने का एहसास देते हैं.

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पहले मसौदे में हिंदी को थोपने की कथित कोशिश पर मचे हंगामे को देखते हुए एक बात साफ है: इस हो-हल्ले का हिंदी से कोई वास्ता नहीं है. हिंदी को थोपने या खारिज करने की ख्वाहिश का संबंध कई चीजों, मसलन, हिंदू राष्ट्रवाद, धर्म, जाति और अंग्रेजी से एक असहज जुड़ाव से हो सकता है, मगर इसका संबंध उस भाषा से कतई नहीं है, जिसका नाम हिंदी है.

मिसाल के लिए निर्मला सीतारमण, एस. जयशंकर, पी चिदंबरम, एआर रहमान और दूसरों द्वारा गुस्से में या समझाने-मनाने के लिए किए गए ट्वीट्स को देखा जा सकता है. समाचार चैनलों ने मुझे बताया कि सीतारमण और जयशंकर के ट्वीट्स लगभग एक समान थे.

मुझे यह बात पता नहीं चलती, क्योंकि उत्तर-प्रदेश और नई दिल्ली के बीच पले-बढ़े होने के कारण मैं उन भारतीयों जैसी हूं, जो सिर्फ दो भाषाएं बोलते हैं, एक मिलीजुली हिंदी और एक मिलीजुली अंग्रेजी.

अपनी पढ़ाई-लिखाई के सारे साल दिल्ली में बिताने वाले किसी व्यक्ति की तरह मैं कई दूसरी भाषाओं को एक तरह से समझ सकती हूं. मैं उनमें से कुछ भाषाओं में चोरी-छिपे दूसरों की बातें सुन सकती हूं, चुटकुले सुना सकती हूं और गाली दे सकती हूं. लेकिन किसी भी भाषा की काम करने लायक जानकारी मुझे नहीं है.

ठीक उसी तरह से जैसे सीतारमण और जयशंकर के ट्वीट्स मेरे लिए न होकर मेरे जैसे ‘उत्तर भारतीय हिंदीभाषियों’ से पैदा होनेवाले खतरे की आशंका का समाधान करने लिए सावधानीपूर्वक तैयार किए गए थे.

जब मैंने लगभग सभी अखबारों में छपे राष्ट्रीय शिक्षा नीति से संबंधित तमिल ट्वीट्स को ध्यान से पढ़ा, तब मेरी तमिल न पढ़ सकनेवाली आंखें एक चीज पर अटक गई.

सीतारमण के ट्वीट का आशय चाहे जो कुछ भी रहा हो,  इसके साथ एक रोमन लिपि में लिखे हुए हिंदी भाषा के एक हैशटैग को अनदेखा नहीं किया जा सकता था: #एकभारतश्रेष्ठभारत. यह हैशटैग #बेटीपढ़ाओबेटीबचाओ और #स्वच्छभारतअभियान की तरह ही भाजपा के अभियान का हिस्सा रहा है.

लेकिन इस खास मौके पर इस हैशटैग ने अपनी धूर्तता के कारण मेरा ध्यान खींचा, क्योंकि यह हिंदी को हटाने का काम करते हुए, हिंदी को फिर से स्थापित कर रहा था. सीतारमण और जयशंकर के ट्वीट्स के तमिल हिस्से में तमिलभाषियों को यह आश्वासन दिया गया था कि घबराएं नहीं, सरकार का इरादा आपकी द्रविड़ भाषाई अस्मिता और विरासत को मिटाने का नहीं है.

यह कथित तौर पर हिंदी को बढ़ावा देनेवाली सरकार और इसकी तमिलभाषी जनता के बीच संवाद के सीधे पुल के द्वारा उनको भरोसा दिलाने की एक कोशिश थी. लोगों से उनकी भाषा में बात करना, एक राजनीतिक कदम था.

लेकिन हैशटैग ने इस संदेश को हिंदी के संकेत के तहत वर्गीकृत किया. अगर द्रमुक और अन्नाद्रमुक त्रिभाषा फॉर्मूला के खिलाफ थे, तो सीतारमण का समझाने-बुझाने की कोशिश करनेवाला ट्रीट प्रत्यक्ष तौर पर उसी विवादास्पद फॉर्मूला पर आधारित था.

हिंदी और त्रिभाषा फॉर्मूला में ऐसा क्या है, जो भारत के विचार के लिए इतना नाकाफी भी साबित होता है और कुछ लोगों के लिए इतना जरूरी भी है?

हमारे पास ऐसे आंकड़ों की कमी नहीं है, जो ये बताते हैं कि हिंदी भारत में सबसे व्यापक तौर पर बोली जानेवाली भाषा नहीं है. जब यह भाषा 30,000 फीट की ऊंचाई पर बोली जाती है या सरकारी दफ्तर में लिखी जाती है, तब हिंदी पट्टी का कोई हिंदीभाषी शायद ही उसे पहचान पाएगा. फिर मसला क्या है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संशोधित ड्राफ्ट के मुताबिक त्रिभाषा फॉर्मूला का संबंध भावनात्मक विकास और राष्ट्रीय एकीकरण से है: ‘एक बहुभाषी भारत एक बेहतर तरीके से शिक्षित और राष्ट्र के तौर पर ज्यादा अच्छी तरह से एकीकृत होगा.’

भाषाई विविधता के मामले में भारत काफी संपन्न है. यह हमारी चेतना के लिए एक वरदान है, लेकिन राष्ट्रीय एकता के लिए यह नुकसानदेह है. सभी भारतीयों के लिए भारत की सभी भाषाओं को सीखना असंभव है. इस स्थिति से निबटने के लिए नई शिक्षा नीति में अब यह प्रस्ताव दिया गया है कि कक्षा एक और उसके बाद के सभी छात्र तीन भाषाएं सीखें.

हालांकि, यह संशोधित मसौदा इन तीन भाषाओं का नाम नहीं लेता है, लेकिन इसमें क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर भाषा शिक्षण के तीन स्तरों का संकेत अवश्य है. शुरुआती मसौदे में इसका मतलब था कि वैश्विक होने के लिए छात्र अंग्रेजी और राष्ट्रीय होने के लिए हिंदी सीखेंगे.

तीन भाषा फॉर्मूला के अटूट घटक के तौर पर हिंदी को आगे रखने का अर्थ यह बताना है कि भारत राष्ट्र का नागरिक होने का मतलब क्या है और किसे भारतीय कहलाने का हक है.

यह भाषा भारत की किसी दूसरी भाषा से ज्यादा पुरानी, ज्यादा वैज्ञानिक या ज्यादा प्रामाणिक नहीं है, जिसके आधार पर यह सबकी नुमाइंदगी करनेवाली भाषा का सम्मान पाने की हकदार कहा जा सके. वास्तव में, जैसा कि शिक्षाविदों ने बार-बार दिखाया है, यह इनमें से किसी कसौटी पर खरी नहीं उतरती है.

राजनीति के रास्ते अस्तित्व में आए अपने जीवन में हिंदी का चरित्र संस्कृतवादी, हिंदू और ‘उच्च’ जाति वाला है. मिसाल के लिए, यह महत्वपूर्ण राजनीतिक काम को अंजाम देती है. इस तरह से हिंदी को आगे बढ़ाने की किसी काल्पनिक या वास्तविक इच्छा का कोई संबंध भाषा के असाधारण गुणों से न होकर, वास्तव में पूरी तरह से अस्मिता और सत्ता से है.

1. उर्दू पर हिंदी का ग्रहण

हिंदी पर सरकारी रहमोकरम हिंदी और उर्दू के साझे सांस्कृतिक इतिहास के निशानों को मिटानेवाला है. हिंदुस्तानी (हिंदी-उर्दू के सहज मिलन से पैदा होनेवाली ज्यादा आम भाषा, जिसमें संस्कृत के साथ अरबी, फारसी के शब्द भी मिले हुए हों) लंबे समय तक भारत की राष्ट्रीय भाषा की मजबूत दावेदार रही. महात्मा गांधी खुद इसके मुखर पैरोकारों में से थे.

लेकिन पाकिस्तान के जन्म की संभावना के साथ ही भविष्य की राष्ट्रभाषा की जटिल समस्या में और भी पेंच फंस गए. एक नया आजाद हुआ भारत खुद को न सिर्फ ब्रिटिश विरासत के खिलाफ, बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ भी खुद को परिभाषित करना चाहता था. उर्दू को मुस्लिमों की भाषा के तौर पर सीमित कर दिया गया और खुद मुस्लिमों को अल्पसंख्यक करार दिया गया.

हिंदी को उर्दू के रास्ते आनेवाले अरबी और फारसी शब्दभंडार से मुक्त करके एक ज्यादा संस्कृतनिष्ठ भाषा के तौर पर पेश किया गया. नई शिक्षा नीति के संशोधित मसौदे में उर्दू के ठीक दो संदर्भ हैं, जो हिंदी-उर्दू के इस शरारती बंटवारे को और गहरा करते हैं.

एक जगह इस दस्तावेज में उर्दू को हिंदी का एक रूप कहा गया है, तो दूसरी जगह इसे मुस्लिम अल्पसंख्यकों की भाषा बताया गया है.

2. हिंदी देती है अंग्रेजी को वैधता

हिंदी में निवेश अंग्रेजी के साथ चले आ रहे मगर अनचाहे जुड़ाव की हकीकत को ढक लेता है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति का संशोधित मसौदा यह बताने पर काफी समय खर्च करता है कि अंग्रेजी शिक्षा भारत में एक पथभ्रष्ट उद्यम है.

अंग्रेजी न सिर्फ अवैज्ञानिक और अध्वन्यात्मक [Unphonetic] भाषा है, बल्कि यह सिर्फ 15% भारतीयों द्वारा बोली जाती है, जो इसका इस्तेमाल वर्गीय श्रेष्ठता हासिल करने के लिए करते हैं. दस्तावेज में दावा किया गया है कि इस ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ स्थिति ने अभिभावकों में अपने बच्चों से ‘वो भाषा सीखने और बोलने की अप्राकृतिक महत्वाकांक्षा को जन्म दिया है, जो उनकी अपनी नहीं है.’

एक विडंबनापूर्ण वर्ग संघर्ष में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति अंग्रेजी शिक्षित अभिजात्य अल्पमत के वर्चस्व को तोड़ने के लिए हर किसी को अंग्रेजी सिखाने की पैरवी करती है. लेकिन सिर्फ अंग्रेजी पढ़ाना अभिजात्यवादी और अप्राकृतिक होगा और सिर्फ हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाएं पढ़ाना वर्गों के बदलाव में कोई मदद नहीं करेगा.

इसलिए हमारी औपनिवेशिक विरासत की भयावह मजबूरी की भरपाई के लिए अंग्रेजी और हिंदी को एक साथ पढ़ाया जाना चाहिए.

3. शुद्ध हिंदी एक जातिवादी परियोजना है

मानक एवं शुद्ध हिंदी का संस्थानीकरण एक जातिगत छाप वाली योजना है, जिसका मकसद भाषा का ‘शुद्धिकरण’ करके उसे ‘उच्च’ जाति के स्तर तक लेकर जाना है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति का संशोधित मसौदा यह दावा करता है कि भारतीय भाषाओं में एक खास किस्म का घर जैसा एहसास और ‘अपनापन’ है, जो इसे ‘ज्यादा आसान, आसानी से रिश्ता कायम करने लायक और ज्यादा प्रासंगिक बनाता है.’

मगर यह यह सच नहीं है. मिसाल के लिए दलित लेखकों ने यह बार-बार ध्यान दिलाया है कि क्लासरूम में भारतीय भाषाएं भी अंग्रेजी जितनी ही और अक्सर उससे ज्यादा अलग-थलग करनेवाली होती हैं.

4. हिंदी का वर्चस्व उत्तर भारतीयों को भी प्रभावित करता है

इस तथ्य के अलावा कि उत्तर भारतीय सिर्फ हिंदी नहीं, कई भिन्न-भिन्न बोलियां बोलते हैं और बोली जानेवाली हिंदी संविधान की हिंदी नहीं है. उत्तर भारत में कई अलग-अलग भाषाई संस्कृतियां हैं, जैसे अवधी, ब्रज और खड़ी बोली.

जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संशोधित मसौदा यह कहता है कि ‘खड़ी बोली, अवधी, मैथिली, ब्रज और उर्दू साहित्य के अंशों को हिंदी पाठ्यक्रमों में उन्हें समावेशी और समृद्ध बनाने के लिए शामिल किया जा सकता है, तब यह लापरवाह ढंग से हिंदी को भाषा का और दूसरों को या तो इसके रूपों या बोलियों का दर्जा देने का काम करता है.

5. भाषाएं कोई औजार नहीं हैं

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का संशोधित मसौदा सभी भाषाओं को महज संवाद या संपर्क का माध्यम मानता है. कामकाजीपन, उपयोगिता और ‘भाषा एक माध्यम’ जैसे शब्द प्रयोग भाषा को महज औजार में सीमित कर देते हैं. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती है.

भाषा नाप-तौल करनेवाली चीज नहीं है, बल्कि अनुभव और जी जानेवाली चीज है. इसमें अर्थ का जन्म जानने और न जानने के बीच से, शक्ति और अशक्तता के बीच से होता है.

भाषा हमारे जानने को, हमारी इच्छा और हमारी इच्छाओं की हदों को आकार देने का काम करती है. हां, यह सही है कि भाषा सांस्कृतिक और पारिवारिक इतिहास का संग्रहालय है, लेकिन यह एक ऐसी चीज भी है, जो सतत तरीके से इन सबकी मुखालफत करती है.

6. राष्ट्रीय एकीकरण गणित का कोई समीकरण नहीं है

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का संशोधित मसौदा भारत में भाषा के काम करने के तरीके को बिल्कुल गलत तरीके से समझता (और गलत तरीके से प्रस्तुत) करता है. इसमें ‘भारत की भाषाओं’ के मनोरंजक पाठ्यक्रमों की योजना है, जिसमें छात्र भारतीय भाषाओं के नाम और उनके बोले जाने के इलाके के बारे में जानकारी हासिल करेंगे.

छात्र ‘भारत की हर प्रमुख भाषा में अभिवादन और अन्य उपयोगी मनोरंजक पदों’ के साथ ‘हर भाषा के साहित्य का संक्षिप्त परिचय हासिल करेंगे’. मसौदे के अनुसार ‘जब लोग भारत के दूसरे हिस्से के लोगों से मिलेंगे’, तो ये सामान्य पद और सामान्य साहित्यिक जानकारी ‘जीवनभर दोनों के बीच दीवार को गिराने के लिए आइसब्रेकर की तरह काम करेगी.’

भारत में राज्यों का बंटवारा भले भाषाई आधार पर हुआ हो, मगर भाषाएं किसी क्षेत्र में सीमित नहीं रहती हैं. भारत की हजारों भाषाओं में सिर्फ कुछ भाषाओं को ही ‘प्रमुख भाषा’ कहा जाता है. कई ऐसी भाषाएं हैं, जिनकी अपनी लिपि भी नहीं है. बढ़े हुए सेंसरशिप के दौर में कई साहित्यों को तो साहित्य का दर्जा भी नहीं दिया जाता है.

जबकि हमारे भाषिक अनुभव गणितीय नियमों को धता बताते रहते हैं, हमारी राजनीतिक चेतना हमारे भाषाई हिस्सों का जोड़ नहीं है. राष्ट्रीय एकीकरण के लिए सिर्फ दूसरी भाषाओं को आसानी बोल सकने की क्षमता ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए बिना पूर्वाग्रह के दूसरों को सुन सकने की क्षमता का होना भी जरूरी है.

और जबकि इतने सारे भारत हैं, जो कभी नहीं मिलते हैं, तो निश्चित तौर पर प्रमुख भाषाओं में हेलो और गुडबाय बोलने से ही राष्ट्रीय एकीकरण के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता.

(अक्षया सक्सेना वैंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)

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