‘ट्रिपल तलाक़ इस्लाम का मूल तत्व नहीं है. कोई भी क़ानून जो अमानवीय हो, इस्लामिक नहीं हो सकता.’
पूर्व कैबिनेट मंत्री आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने कहा है, ‘कोई भी क़ानून जो अमानवीय हो, इस्लामिक नहीं हो सकता.’ उन्होंने कहा है कि एक बार में तीन तलाक़ बोलना अमानवीय है और महिलाओं को ज़मीन में दफ़नाने जैसा है.
आज तक वेबसाइट की एक ख़बर के मुताबिक, ‘ट्रिपल तलाक़ पर दलील देते हुए शुक्रवार को उन्होंने कहा कि क़ुरान में ट्रिपल तलाक़ की प्रक्रिया साफ-साफ लिखी हुई है. एक साथ तीन तलाक़ बोलना इस्लाम के किसी भी स्कूल में मान्य नहीं है. ये प्री-इस्लामिक प्रैक्टिस प्रथा है.’
चर्चित शाह बानो केस के बाद राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ विधेयक पारित किया था. इस मुद्दे पर मतभेद के चलते तत्कालीन मंत्री आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था और कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी.
उन्होंने कहा कि ‘ट्रिपल तलाक औरतों को ज़मीन में दफ़नाने में जैसा है. ट्रिपल तलाक़ इस्लाम का मूल तत्व नहीं है. कोई भी क़ानून जो अमानवीय हो, इस्लामिक नहीं हो सकता.’
कुछ तीन तलाक़ पीड़ित महिलाओं की याचिका पर शुक्रवार से सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू की है. अपनी शुरुआती टिप्पणी में कोर्ट ने इस पर कहा है कि ‘ऐसे भी संगठन हैं जो कहते हैं कि तीन तलाक़ वैध है, परंतु मुस्लिम समुदाय में विवाह विच्छेद के लिए यह सबसे ख़राब तरीक़ा है और यह वांछनीय नहीं है.’
आरिफ़ मोहम्मद ख़ान लगातार तीन तलाक़ प्रथा का विरोध करते रहे हैं. तीन तलाक़ व समान नागरिक संहिता विवाद के शुरू होने और राजनीतिक रंग लेने पर एक लिखित मेल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘आज दुनिया भर के मुस्लिम मुल्कों में यह क़ानून बदला जा चुका है. मिसाल के तौर पर, अप्रतिबंधित तीन तलाक़ का अधिकार भारत को छोड़कर कहीं भी मुस्लिम पुरुष को हासिल नहीं है. फिर मुसलमानों की एक बड़ी संख्या आज अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों में रहती है जहां पर्सनल लॉ जैसा कोई क़ानून नहीं है. इन सब तथ्यों को सामने रखकर राज्य इस मामले में पहल कर सकता है.’
तीन तलाक़ के मसले पर कोर्ट के सुनवाई करने को लेकर कुछ धर्मगुरुओं ने आपत्ति जताई है. सुप्रीम कोर्ट में पूर्व केंद्रीय मंत्री और अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने भी कहा कि यह ऐसा मसला नहीं है जिसकी न्यायिक जांच की ज़रूरत हो.
सभी नागरिकों के लिए एक जैसी नागरिक संहिता हो तो क्या यह धार्मिक स्वतंत्रता में बाधक है? इस सवाल पर आरिफ़ मोहम्मद ख़ान का कहना है,
‘पहली बात तो यह साफ होनी चाहिए कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार व्यक्तिगत अधिकार है, सामुदायिक नहीं. और दूसरी बात यह है कि यह अधिकार लोक व्यवस्था, सदाचार, स्वास्थ्य तथा संविधान के अन्य उपबंधों से बाधित है. इसी प्रावधान के तहत तीसरी बात यह है कि धर्म की स्वतंत्रता राज्य को ऐसे क़ानून बनाने से नहीं रोकती जिसका उद्देश्य धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य लौकिक कार्यकलाप का विनियमन या निर्बंधन हो.’
वे आगे कहते हैं, ‘भारत की संस्कृति बहुलतावाद की है. हम अनेकतावाद के मानने वाले हैं. अनेकता में एकता हमारा राजनीतिक नारा नहीं है बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का शाश्वत सिद्धांत है. समान नागरिक संहिता का उद्देश्य विविधता या अनेकता को समाप्त करना नहीं बल्कि सभी भारतीय महिलाओं को समान अधिकार और सम्मान दिलाना होना चाहिए. समान नागरिक संहिता यह तय नहीं करेगी कि कौन किस तरह विवाह संपन्न करता है, बल्कि यह क़ानून केवल एक बात सुनिश्चित करेगा कि विवाह से पैदा होने वाले अधिकार और कर्तव्य सभी भारतीयों के लिए समान होंगे.’
ग़ौर करने वाली बात है कि तीन तलाक़ और समान नागरिक संहिता का मसला चुनाव में मुद्दा ज़रूर बना लेकिन अभी तक समान नागरिक संहिता का कोई भी प्रारूप तैयार नहीं हुआ है. सुप्रीम कोर्ट जो भी फ़ैसला सुनाएगा, वह इस दिशा में बेहद अहम होगा.