ग्राउंड रिपोर्ट: मुज़फ़्फ़रपुर और आस-पास के जिलों में चमकी बुखार का प्रकोप अप्रैल से शुरू होता है और जून के महीने तक मानसून आने तक बना रहता है. इस लिहाज़ से लोगों को जागरूक करने के लिए और अन्य आवश्यक तैयारियां जनवरी माह से शुरू हो जानी चाहिए थीं लेकिन गांवों में जाने पर जागरूकता अभियान के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते.
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में हर वर्ष होने वाले चमकी बुखार के हमले से बचाव के लिए इस बार सरकार ने कोई तैयारी नहीं की थी. गांवों में न तो जागरूकता अभियान चलाया गया था न तो सरकारी अस्पतालों को इलाज के लिए सक्षम बनाया गया था.
इसलिए जब जून के प्रथम हफ्ते में इस बीमारी ने अपना रौद्र रूप दिखाया तो सरकार और स्वास्थ्य विभाग को कुछ सुझा ही नहीं कि वह क्या करे. स्थिति की गंभीरता समझने में भी सरकार से अक्षम्य चूक हुई. इस कारण बच्चों की मौत को रोकने में नीतीश सरकार बुरी तरह विफल रही.
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले सहित 12 जिलों में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस)/जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) का प्रकोप 1995 से है. वर्ष 2012, 2013 और 2014 में इस बीमारी का हमला बहुत तीखा था.
नेशनल वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनवीबीडीसीपी) के अनुसार बिहार में 2013 में 143, 2014 में 357 लोगों की मौत हुई. इसके बाद 2015 में 102, 2016 में 127, 2017 में 65 और 2018 में 44 लोगों की मौत हुई. इसमें एक से 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों की संख्या सर्वाधिक थी.
इसके बाद बिहार में एईएस/जेई के कारकों की जानने की दिशा में प्रयास शुरू हुए. वर्ष 2012 में एईएस/जेई के इलाज के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) तैयार किया गया. इसमें प्राथमिक स्तर से लेकर मेडिकल कॉलेज पर इलाज का प्रोटोकॉल बनाया गया.
आशा, एएनएम,स्वयं सहायता समूहों के लिए एईएस/जेई के रोकथाम/ प्रबंधन की गाइड लाइन बनायी गई, प्रशिक्षण दिया गया. गांवों में लोगों को इस बीमारी से बचाव की जानकारी देने के लिए आईईसी मैटीरियल तैयार किए गए. 2012-14 के बीच केंद्रीय स्तर से कई टीमें आईं. कई शोध हुए.
डॉ. जैकब जॉन की नेतृत्ववाली बिहार टीम ने एईएस के प्रमुख कारकों में लीची से संबंध जोड़ा. नवंबर 2016 में पटना में हुई एक उच्चस्तरीय बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए, लेकिन 2015 के बाद एईएस/जेई के केस कम होने से सरकारी स्तर पर इस बीमारी के रोकथाम के लिए किए जाने वाले काम में शिथिलता आ गई.
हालांकि इस दौरान कागज पर योजनाएं तैयार होती रहीं लेकिन उस पर अमल का कोई प्रयास नहीं हुआ. उदाहरण के लिए बिहार सरकार ने 2018 में एसओपी को संशोधित किया और इसे प्रकाशित कराया लेकिन अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था सुदृढ़ करने का कोई काम नहीं किया.
ये उसी तरह का काम हुआ जैसे कि सैनिक को बता दिया गया कि उसे कैसे लड़ना है लेकिन उसे युद्ध में प्रयुक्त साजोसामान नहीं दिया गया. इसका क्या नतीजा हो सकता है, वह सामने है.
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ये सब जानते हैं कि पिछले एक दशक से इंसेफेलाइटिस के सबसे अधिक मरीज इलाज के लिए श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में आते हैं, इसलिए यहां पर मरीजों के इलाज के लिए पर्याप्त बेड, वेंटिलेटर, चिकित्सक व पारा मेडिकल स्टाफ के इंतजाम होने चाहिए थे.
इस मेडिकल कॉलेज के पास सिर्फ दो पीडियाट्रिक आईसीयू थे. इसके अलावा एक जनरल वॉर्ड था लेकिन इसकी क्षमता बढ़ने के लिए कोई काम नहीं हुआ.
यही नहीं 2014 में तबके स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन की घोषणा के अनुरूप 100 बेड के पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (पीआईसीयू) बनाने के लिए भी कोई काम नहीं हुआ और पांच वर्ष बाद भी इसके निर्माण के लिए एक ईंट तक नहीं रखी जा सकी.
जब जून की पहली तारीख से एईएस/जेई के मरीज बढ़ने लगे तो एसकेएमसीएच में बेड की कमी हो गई. आनन-फानन में जुगाड़ से दो और पीआईसीयू बनाए गए. कैदी वॉर्ड को पीआईसीयू में बदला गया. एक पीआईसीयू (16 बेड) तो 19 जून को शुरू हुआ. ये कवायद करके भी पीआईसीयू की क्षमता 66 बेड की ही हो पाई है.
इसके अलावा इस अस्पताल में वेंटिलेटर, सक्शन मशीन आदि की भी कमी पहले से बनी हुई थी जिसे अभी तक दूर नहीं किया जा सका है. बच्चों के जनरल वॉर्ड में जून के दूसरे पखवाड़े में कुछ एसी, कूलर लगवाए गए. पीआईसीयू में लगातार बिजली आपूर्ति के भी इंतजाम नहीं थे. अस्पताल में बिजली लगातार आती-जाती रहती थी.
19 जून की सुबह तो डेढ़ घंटे बिजली गुल रही. इस दौरान एक बच्ची की मौत भी हो गई हालांकि अस्पताल प्रबंधन ने दावा किया कि बिजली की ट्रिपिंग के चलते बच्चे की मौत नहीं हुई. इस घटना के बाद एक नया ट्रांसफर लगाया गया ताकि बिजली व्यवस्था दुरुस्त रहे.
अस्पताल की सफाई व्यवस्था, पीने के पानी, शौचालय आदि की व्यवस्था में बहुत ही खराब स्थिति में है. बच्चों के वॉर्ड के ठीक पीछे जल-जमाव है. हर तरफ कूड़ा-कचरा, कबाड़ दिखता है. पीने के पानी के सभी स्टैंड पोस्ट बंद पड़े हैं. वॉटर कूलर खराब हैं.
जिस हॉल में अधीक्षक का ऑफिस है, वहीं लगा वॉटर कूलर 19 जून की रात तक खराब पड़ा रहा. अगले दिन किसी भाजपा नेता ने वहां वॉटर कूलर लगवा दिया और उस पर अपना नाम भी लिखवा दिया.
एसकेएमसीएच में चिकित्सकों की कमी पहले से थी और ये जानते हुए भी कि अप्रैल से जून तक का महीना चमकी बुखार का सबसे मुखर समय होता है, चिकित्सकों की कमी को दूर नहीं किया गया.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दौरे के बाद केंद्र और राज्य के विभिन्न स्थानों से 17 डॉक्टर भेजे गए. एसकेएमसीएच में सुपरस्पेशियलिटी ब्लॉक अभी भी बन रहा है.
एसकेएमसीएच को सुपरस्पेशियलिटी स्टैंडर्ड में अपग्रेड करने का निर्णय प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (पीएमएसएसवाई) के अंतर्गत सात नवंबर 2013 को हुआ था. इसे दो वर्ष में ही बन जाना चाहिए था लेकिन ये अब तक तैयार नहीं हो पाया है. यदि यह बन गया होता तो बच्चों के इलाज में कारगर भूमिका निभाता.
मुज़फ़्फ़रपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों को भी इलाज के लिए सक्षम बनाने में नीतीश सरकार फेल रही. चमकी बुखार से सबसे अधिक प्रभावित मुशहरी, कांटी और मीनापुर प्रखंड हैं. जून महीने की 18 तारीख तक कांटी और मीनापुर में 14-14 और मुशहरी में 12 बच्चों की मौत हुई थी.
मुशहरी में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को अब सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बदल दिया गया है. इन्हीं अस्पतालों को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 2014 में 10-10 बेड का पीआईसीयू बनाने का वादा किया था. पांच वर्ष बाद भी यहां पीआईसीयू नहीं बन सका है हालांकि अस्पताल परिसर में इसके लिए पर्याप्त जगह है.
इस अस्पताल में एक से 19 जून तक 16 बच्चे इलाज के लिए आए, जिसमें से 6 को रेफर कर दिया गया. इनमें से एक बच्चा मनिका विशुनपुर चांद गांव का चार वर्षीय दिलीप भी था. दिलीप को उसके पिता दिनेश राम सुबह 7 बजे इलाज के लिए आए थे. मौजूद चिकित्सक ने गंभीर हालत देख उसे एसकेएमसीएच रेफर कर दिया. मेडिकल कॉलेज पहुंचते-पहुंचते उसकी मौत हो गई.
यदि इस अस्पताल में वेंटिलेटर बेड होता तो दिलीप का यहीं इलाज हो सकता था और शायद उसकी जान बच सकती थी. यहां पर एक बाल रोग विशेषज्ञ तैनात थे लेकिन उन्हें अब केजरीवाल मातृ सदन भेज दिया गया है. इस वक्त यहां पर कोई बाल रोग चिकित्सक नहीं है. ऐसी स्थिति में यदि कोई बच्चा गंभीर अवस्था में इलाज के लिए यहां आता है तो उसे मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ेगा.
जब मैं 20 जून की दोपहर 12 बजे इस अस्पताल पर पहुंचा तो एईएस वॉर्ड में दो बच्चे भर्ती मिले. वहां मौजूद महिला चिकित्सक ने बताया कि एक बच्चा डायरिया से पीड़ित है जबकि दूसरा बच्चा रवि (2 ½ साल) में चमकी बुखार के लक्षण हैं. डुमरी गांव के रवि को उसकी नानी 19 जून की रात लेकर आई थी. उस वक्त उसे तेज बुखार था और शरीर थरथरा रहा था.
अस्पताल में जांच हुई उसका ब्लड शुगर 80 एमजी/डीएल मिला. अब उसकी तबियत ठीक है. ब्लड शुगर लेवल 131 आ गया है. इसी अस्पताल की तरह कांटी स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में दो बेड का ही एईएस वॉर्ड है.
यहां 20 जून की शाम 7.30 बजे दो बच्चे भर्ती मिले. एक बच्ची तुरंत इलाज के लिए आई हुई थी. बच्ची के पिता ने बताया कि डॉक्टर मौजूद नहीं हैं. नर्स और वॉर्ड बॉय बच्ची का इलाज कर रहे हैं.
यह वही अस्पताल है जहां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने 2014 में दौरा किया था. यहां भी 10 बेड का पीआईसीयू बनना था जो अब तक नहीं बन सका है. ये स्थिति बताती है कि बिहार सरकार पूरे पांच वर्ष हाथ पर हाथ धरे बैठी रही थी. केंद्र सरकार ने भी पांच साल में पलट कर नहीं देखा कि उसने जो वादे किए थे उस पर कोई अमल हो रहा है भी नहीं.
मुज़फ़्फ़रपुर और आस-पास के जिलों में चमकी बुखार का प्रकोप अप्रैल से शुरू होता है और जून के महीने तक मानसून आने तक बना रहता है. इस लिहाज से लोगों को जागरूक करने के लिए और अन्य आवश्यक तैयारियां जनवरी माह से शुरू हो जानी चाहिए थीं.
बीमारी के बारे में जानकारी देने वाले पर्चे, पोस्टर, बैनर, दीवार लेखन, चौपाल लगाने का काम गांव -गांव में होना चाहिए था लेकिन गांवों में जाने पर जागरूकता अभियान के कोई चिह्न दिखाई नहीं देते.
अस्पतालों और कुछ सरकारी दफ्तरों पर एईइस/जेई के पोस्टर, बैनर तो दिखते हैं लेकिन गांवों में न कोई चौपाल हुई न कोई सरकारी कर्मी इस बीमारी से बचाव के बारे में कोई बताने आया.
गांवों में ओआरएस पैकेट बांटने और उसे बनाने की विधि के बारे में भी कोई जानकारी गांवों में नहीं दी गई. मुशहरी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के जरिये स्वास्थ्यकर्मियों को 16 जून को ओआरएस के एक लाख पैकेट दिए गए हैं जिसे बांटने का काम अब शुरू हुआ है.
इस अस्पताल के दायरे में 81 हजार परिवार (4.20 लाख आबादी) आते हैं. तीन महीने पहले एईएस/जेई से बचाव और रोकथाम की जानकारी देने वाले 40 हजार पम्फलेट अस्पताल से गांवों में भिजवाए गए. अब 20 हजार फिर भेजे गए हैं. ये बंटे की नहीं, इसकी कोई रिपोर्ट नहीं है.
एक स्वास्थ्यकर्मी ने बताया कि 2012-13 में प्रति परिवार पम्फलेट बांटने के लिए एक रुपया प्रोत्साहन राशि आशाओं को दी गई थी, इससे पम्फलेट वितरण ठीक से हुआ. इधर तीन वर्षों से पता नहीं क्यों यह प्रक्रिया रोक दी गई.
मुशहरी प्रखंड के मानिक विशुनपुर चांद गांव में चार बच्चों ( दिलीप, मो. जाहिद, रवीना कुमारी, राधिका कुमारी) की मौत हुई है और दो बच्चे अभी भी मेडिकल कॉलेज में भर्ती हैं. इस गांव में बच्चों की मौत के पहले न तो ओआरएस के पैकेट बंटे न तो चमकी बुखार, जेई/एईएस के बारे में बताने के लिए कोई स्वास्थ्य कर्मी आया.
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गांव के मुखिया अरविंद कुमार उर्फ विजय सिंह ने कहा कि चार बच्चों की मौत के बाद सरकारी अमला हरकत में आया है. सिंह को 20 जून की दोपहर ओआरएस के पैकेट मिले, जिसे वह बांट रहे थे. उन्होंने कहा कि उन्हें बीमारी की जानकारी देने वाला को पोस्टर, पर्चा भी नहीं मिला.
एईएस/जेई/चमकी बुखार की रोकथाम के लिए बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग लोगों को सुरक्षित पेयजल का प्रयोग करने का एडवाईजरी जारी करता है. एडवाईजरी के अनुसार 40 फीट से कम गहराई पर बोर हैंडपंप का पानी न पिया जाए, सरकारी इंडिया मार्का हैंडपंप टू या थ्री का ही पानी पिएं.
सरकार ने एडवाईजरी तो जारी कर दी लेकिन लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए कोई इंतजाम नहीं किया. मनिका विशुनपुर चांद गांव के सभी वॉर्डों में कम गहराई में बोर हैंडपंप का ही पानी का लोग इस्तेमाल करते मिले. इस गांव में पानी आपूर्ति के लिए पाइप बिछाए गए हैं.
चमकी बुखार से अपने चार वर्षीय बेटे को गंवाने वाले दिनेश का घर वॉर्ड संख्या 4 में है. उनके घर के सामने भी पानी की टोंटी लगी है लेकिन इसमें पानी कब आएगा, कोई नहीं जानता. दिनेश ने बताया, ‘सप्ताह में कभी-कभार पानी आ जाता है. हम लोग अपने ही चापाकल (हाथ से चलाए जाने वाले नल) का पानी पीते हैं.’
गांव के मुखिया कहते हैं कि गांव में जरूरत के हिसाब आए इंडिया मार्का हैंडपंप कम हैं. चौदह वॉर्ड वाले इस गांव की आबादी 12 हजार से अधिक है. इस आबादी के लिए 150 इंडिया मार्का हैंडपंप हैं जबकि देशी चापाकल 450 से अधिक हैं.
यही हाल स्वच्छ भारत अभियान का है. दिनेश और इदरीश के टोले में किसी घर में शौचालय नहीं है. दोनों टोलों में 40-40 घर हैं. मुखिया अरविंद कुमार के अनुसार उनके कार्यकाल (2016 से अब तक) में 200 शौचालय बने हैं. उन्होंने कहा कि शौचालय निर्माण के लिए धन स्वीकृत करने की प्रक्रिया जटिल है.
इस गांव में महादलित- मांझी (मुसहर), पासी, राम (जाटव) की संख्या 5000 है. ये काफी गरीब हैं. शौचालय निर्माण शुरू कराने के लिए इनके पास पैसे नहीं होते है इसलिए उन्हें योजना का लाभ नहीं मिल पाता है. इस गांव में गरीबों के घर फूस के ही हैं. किसी-किसी ने एस्बेस्टस की छत डाल रखी है, जो जून के महीने में घर को और गर्म कर देता है.
इस गांव में लोगों को बीमारी से बचाव की जानकारी देने 20 जून को आए दो सरकारी अफसर पहुंचे. ये मांझी समुदाय के लोगों को दिन में घर में रहने, बच्चों को नंगे बदन न रहने देने, रात में बिना खाये न सोने देने, ओआरएस का घोल पिलाने की सलाह दे रहे हैं.
पूछने पर उन्होंने अपने विभाग का नाम नहीं बताया और कहा कि वे प्रशासन से हैं. ग्रामीणों ने बताया कि सरकारी मुलाजिम पहली बार इस बीमारी के बारे में बात करने आए हैं.
एसकेएमसीएच में भर्ती हए मरीजों में सात जेई के मिले हैं. इससे पता चलता है कि जिले में जेई विषाणु की उपस्थिति है. जेई की रोकथाम का सबसे कारगर उपाय टीकाकरण है. जेई टीकाकरण अब नियमित टीकाकरण में शामिल है लेकिन बिहार में जेई टीकाकरण का कवरेज 70 फीसदी ही है.
ये स्थिति बताती है कि बिहार का स्वास्थ्य विभाग जापानी इंसेफेलाइटिस की रोकथाम के प्रति भी गंभीर नहीं रहा. जेई की रोकथाम के लिए मच्छरों के खात्मे, सूअरबाड़ों के प्रबंधन का भी कार्य गांवों में नहीं दिख रहा है.
एईएस/जेई/चमकी बुखार का संबंध कुपोषण से है. कुपोषित बच्चे इस बीमारी के गिरफ्त में जल्दी आ जाते हैं. एनएफएचएस-4 के अनुसार बिहार के 44 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. इस रिपोर्ट के बावजूद कुपोषण को दूर करने का कोई प्रभावी अभियान मुज़फ़्फ़रपुर सहित इंसेफेलाइटिस प्रभावित 14 जिलों में नहीं चलाया गया है.
ये सभी परिस्थितियां बताती हैं कि बिहार सरकार और केंद्र सरकार की एईएस/जेई/चमकी बुखार के रोकथाम, बीमारों के इलाज की कोई पूर्व तैयारी नहीं थी. जब इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या 100 से अधिक हो गई तब फायर फाइटिंग शुरू हुई जिसका कोई अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने वाला है.
सरकार की इस बीमारी से मुकाबले की कैसी तैयारी थी, मुज़फ्फरपुर के डीएम आलोक रंजन घोष द्वारा 19 जून की शाम पत्रकारों के सवाल में अभिव्यक्त होता है. उन्होंने कहा, ‘मैं दो माह पहले ही यहां आया हूं. लोकसभा चुनाव चल रहा था. चुनाव खत्म हुआ कि एईएस आ गया. स्थिति वाकई ख़राब है. पेशेंट लोड बेड की तुलना में बहुत अधिक है. फिर भी हम बेहतर काम करने की कोशिश कर रहे हैं. हमें कुछ समय चाहिए.’
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)