शिव प्रसाद गुप्त: गांधी ने जिन्हें राष्ट्ररत्न कहा था, लोगों ने उन्हें भुला दिया

वाराणसी के समाजसेवी शिवप्रसाद गुप्त को आज उनके शहर के बाहर कोई जयंती या पुण्यतिथि पर भी याद नहीं करता, लेकिन कभी देश की आज़ादी की लड़ाई के साथ समाज के उत्थान में उनके योगदान के चलते महात्मा गांधी उन्हें राष्ट्ररत्न कहा करते थे.

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वाराणसी के समाजसेवी शिवप्रसाद गुप्त को आज उनके शहर के बाहर कोई जयंती या पुण्यतिथि पर भी याद नहीं करता, लेकिन कभी देश की आज़ादी की लड़ाई के साथ समाज के उत्थान में उनके योगदान के चलते महात्मा गांधी उन्हें राष्ट्ररत्न कहा करते थे.

Shivprasad Gupta Varanasi photo mypostalstamp blogspot
शिवप्रसाद गुप्त [जन्म: 28 जून – अवसान- 24 अप्रैल, 1944] (फोटो साभार: mystampsandfdcs.blogspot.com)
वर्ष 1883 में 28 जून को यानी आज के ही दिन देश के एक समृद्ध उद्योगपति व जमींदार परिवार में जन्मे वाराणसी के शिवप्रसाद गुप्त को अब वाराणसी के बाहर कोई उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर भी याद नहीं करता.

हालांकि अपने समय में वे बापू के अनन्य सहयोगी, स्वप्नदर्शी स्वतंत्रता सेनानी, सहृदय लोकोपकारी और सत्य व न्याय के लिए हर उत्सर्ग को तैयार रहने वाली शख्सियत के साथ ‘राष्ट्ररत्न’ के रूप में जाने जाते थे.

सुख-सुविधाओं के माहौल में पलते-बढ़ते वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए तो वहां उन्हें आचार्य नरेंद्र देव व गोविंदवल्लभ पंत आदि का साथ मिला, जिसने निर्भीकता, दृढ़ता व उत्साह जैसे उनके जन्मजात गुणों को निखारकर नई ऊंचाइयां दीं.

बाद में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की प्रेरणा से वे कांग्रेस में आए और स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय हुए तो थोड़े ही दिनों बाद उनकी गिनती बापू के सबसे निकटवर्ती लोगों में की जाने लगी. आगे चलकर बापू ने उनको राष्ट्ररत्न कहना शुरू किया तो वह उनकी पदवी जैसा हो गया.

हालांकि उन्हें खुद को भारत-भारती के आराधक के रूप में पहचाना जाना ही सर्वाधिक प्रिय था. प्रसंगवश, बापू से उनकी पहली भेंट दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन की राजधानी लंदन में हुई.

उन दिनों शिवप्रसाद गुप्त यह जानने के लिए विदेश भ्रमण पर थे कि दुनिया के स्वतंत्र देश अपनी प्रभुसत्ता की रक्षा कैसे करते हैं, उनकी शैक्षिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां किस प्रकार की हैं और पराधीन भारत उनसे कैसे और क्या-क्या सबक सीख सकता है?

इस क्रम में वे यूरोप के अलावा अमेरिका व जापान जाकर वहां सक्रिय स्वतंत्रता सेनानियों व क्रांतिकारियों से भी मिले. स्वदेश लौटने के बाद उन्होंने अपने भ्रमण के अनुभवों को आधार बनाकर देशवासियों को एक सूत्र में बांधने, उनमें आत्मविश्वास पैदा करने और उन दुर्बलताओं व बाधाओं को दूर करने के कई जतन शुरू किए, जिनका लाभ उठाकर गोरे हमारा शोषण, दोहन व दमन करते आ रहे थे.

दलितों व विधवाओं की हालत सुधारकर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने और छुआछूत व जात-पात जैसी सामाजिक बुराइयां खत्म करने के लिए उन्होंने अछूतोद्धार, विधवा व अंतरजातीय विवाह के अभियानों को तन-मन-धन से प्रोत्साहित किया.

उनका मानना था कि मजहब या धर्म मनुष्य की निजी संपत्ति है और उसे सांसारिक झगड़ों में डालना उसकी पवित्रता व गौरव को नष्ट करना है. अपनी प्रसिद्ध कृति ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ में उन्होंने लिखा है कि संसार में जिन भी जातियों ने सांसारिक उन्नति की है, मजहब व दुनिया को अलग रखकर ही की है.

गांधी जी से निकटता के कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू समेत अनेक छोटे-बड़े कांग्रेसी नेता उनसे सहयोग व समर्थन लेने प्रायः बनारस आया करते थे. 1924 से 1931 तक वे कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे और इस दौरान 1928 में बनारस में हुई पहली राष्ट्रीय कांग्रेस का उन्होंने अपने निजी खर्च से आयोजन किया.

प्रसंगवश, उनका गांधी जी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत में अगाध विश्वास था और वे अपने स्वामित्व की संपत्ति व पूंजी का उसी के अनुसार उपयोग करते थे. 1910 में उन्होंने प्रसिद्ध आर्किटेक्ट सर एडविन लुटियन द्वारा परिकल्पित व उन्हीं की देखरेख में उनके बनारस के कलेक्टर मित्र के लिए बनवाई गयी भव्य अट्टालिका को खरीद लिया तो गांधी जी ने उसका नाम रखा- सेवा उपवन.

यह अट्टालिका गंगा के पश्चिमी तट पर पचहत्तर हजार वर्ग फुट क्षेत्रफल में निर्मित थी और उससे लगा हुआ 20 एकड़ का मैदान अलग तरह से उसकी श्रीवृद्धि करता था. शिव प्रसाद गुप्त ने अपने जीवित रहते इसके सेवा उपवन नाम की चमक फीकी नहीं पड़ने दी और उसे कांग्रेस की गतिविधियों के लिए हमेशा समर्पित रखा.

देश के पहले गांधी आश्रम की स्थापना की बात आई तो उन्होंने इसके लिए यूनाइटेड प्रोविंस के तत्कालीन फैजाबाद, अब अम्बेडकरनगर, जिले की अकबरपुर तहसील मुख्यालय पर स्थित अपनी डेढ़ सौ एकड़ भूमि एक झटके में दान कर दी.

कम ही लोग जानते हैं कि महामना मदनमोहन मालवीय को इलाहाबाद से वाराणसी लाकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में प्रवृत्त करने वाले शिवप्रसाद गुप्त ही थे. इस विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार करने में वे कदम-कदम पर मालवीय जी के सहायक रहे.

उसके लिए एक लाख एक हजार रुपयों का पहला दान भी उन्होंने ही दिया. आगे चलकर शिक्षा के माध्यम के सवाल पर दोनों में मतभेद हुआ तो भी अपने आदर्शों व मान्यताओं के प्रति खासे आग्रही शिवप्रसाद गुप्त ने उसे समन्वयवादी महामना के साथ कटुता की सीमा तक नहीं जाने दिया.

अपने मतभेद का सृजनात्मक इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अलग काशी विद्यापीठ की स्थापना की, जिसका महत्तर उद्देश्य था- राष्ट्र का निर्माण और राष्ट्रीय चरित्र का विकास. असहयोग आदोलन के दौरान 1921 में 10 फरवरी को वसंत पंचमी के अवसर पर महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया तो जल्दी ह यह राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र बन गई.

बहुत दिनों तक यह समाजवादियों के तीर्थस्थल के रूप में भी जानी जाती रही. ऐसे अनेक युवकों ने इस विद्यापीठ में अपनी पढ़ाई पूरी की, स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रियता के कारण जो उसे बीच में ही छोड़ बैठे थे.

शिवप्रसाद गुप्त ने विद्यापीठ में पठन-पाठन का प्रमुख माध्यम हिन्दी को बनाया और उसे माध्यम के तौर पर सक्षम बनाने के लिए उच्च कोटि की पाठ्यपुस्तकों को छपवाया. 1995 में विद्यापीठ के साथ महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया.

लेकिन यह विद्यापीठ उनके द्वारा स्थापित एकमात्र संस्था नहीं है. वाराणसी के जिस अस्पताल के साथ उनका खुद का नाम जुड़ा है, उसके अतिरिक्त ज्ञानमंडल और भारत माता मंदिर भी उनके योगदान से ही स्थापित हुए. अपनी तरह के अनूठे भारत माता मंदिर का उद्घाटन 1936 में गांधी जी ने ही किया था.

शिवप्रसाद गुप्त ने असहयोग आंदोलन के दौरान ज्ञानमंडल प्रकाशन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रचार व सामाजिक जागरण के लिए ‘आज’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन शुरू किया था. हिन्दी पत्रकारिता के सिरमौर बाबू विष्णुराव पराड़कर लंबे अरसे तक इस पत्र से जुड़े रहे.

प्रसंगवश, ज्ञानमंडल शिवप्रसाद गुप्त के ही समय में विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास, राजनीति और दर्शन आदि के हिन्दी ग्रंथों के प्रकाशन का बड़ा केंद्र बन गया था. इसमें शिवप्रसाद का जोर हमेशा इस बात पर होता था कि देश तभी प्रगति के पथपर अग्रसर हो सकता है जब अध्ययन-अध्यापन में जनता की भाषा यानी हिन्दी का प्रयोग हो.

अंग्रेजी भाषा में दी जाने वाली पश्चिमी ढंग की शिक्षा को वे गुलामी की शिक्षा कहते थे. उनकी इच्छा थी कि देश की शिक्षा प्रणाली अध्यात्म की नींव पर खड़ी और शिष्टता के संस्कारों से युक्त हो.

वे जीवन भर देश की आजादी व चरित्र निर्माण के लिए समर्पित रहे लेकिन दुर्भाग्य कि आजादी का सूरज देखना उन्हें नसीब नहीं हुआ. 24 अप्रैल, 1944 को मृत्यु से हारकर वे इस संसार से चले गए. देश के डाक विभाग ने 1988 में उनके जन्मदिन पर उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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